6 फ़रवरी 2016

हिन्दी शब्दों का उच्चारण

                                  हिन्दी शब्दों के उच्चारण 

   बहुत से हिन्दी प्रेमी भ्रष्ट उच्चारण अर्थात गलत उच्चारण पर नांक भौंह सिकोड़ते हैं , जो स्वाभाविक 
है और उचित भी । यदि शिक्षित व्यक्ति और विशेषत: हिन्दी भाषी और हिन्दी के ज्ञाता किसी शब्द का 
गलत उच्चारण करते हैं , तो आपत्ति होनी चाहिये । पर सामान्य लोग , चाहे वे किसी प्रान्त के हों , चाहे 
वे शिक्षित हों या साक्षर हों , यदि हिन्दी शब्दों का भ्रष्ट उच्चारण करते हैं , तो आँख मूँद कर उन की 
आलोचना करना ठीक नहीं होगा । यह देखना चाहिये कि वह कहाँ का है , देशी है या विदेशी और उस 
की शिक्षा का स्तर क्या है । 
   कुछ दिनों पहले बिहार में नवमनोनीत मन्त्री श्री तेज प्रताप ने शपथ ग्रहण के समय उच्चारण की ग़लती 
की तो फेसबुक पर अनेक लोगों ने उन की आलोचना की , जो सही थी । पर कुछ सज्जन उन के बचाव 
में विचित्र तर्क देने लगे । वे श्री नरेन्द्र मोदी को बीच में लाकर कहने लगे कि वे अनेक बार  कृपा शब्द को 
क्रुपा के रूप में बोलते सुने गये हैं । यदि उन के गलत उच्चारण पर ध्यान नहीं दिया जाता , तो बेचारे 
तेजप्रताप को क्यों आलोचना के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है । इस पर मैं मे टिप्पणी करते हुए लिखा 
गुजरात और महाराष्ट्र के लोग प्राय: कृपा को क्रुपा बोलते हैं । तो श्री नरेन्द्र मोदी को क्यों निशाना बनाया 
जाए । 
  तो जितेन्द्र जिज्ञासु ने उत्तर में जो लिखा नीचे दे रहा हूँ --
" सर, हमारे बिहार में अक्सर लोग 'शर्मा जी' को 'सर्मा जी' और 'सिन्हा जी' को 'शिन्हा जी' बुलाते हैं, और उनकी ये आदत जीवन भर नहीं जाती है। मगर हर ज़गह इस उच्चारण-दोष की ख़ूब आलोचना होती है। इसलिए, गुजरात या महाराष्ट्र में अगर 'कृपा' को 'क्रूपा' बोला जाता है, तो ये उच्चारण-दोष है, जिसे जबरन सही नहीं ठहराया जा सकता। औऱ, ऐसा भी नहीं कि इसे ठीक नहीं किया जा सकता है।"
 मै ने उन की प्रतिक्रिया का यह उत्तर दिया -- 
" उच्चारण दोष को मैं ने ठीक नहीं ठहराया । केवल यह बताया कि यह प्रादेशिक दोष है , जिस के लिए आप ने बिहार के लोगों के उच्चारण दोष के उदाहरण दिये । दोष तो दोष है पर जो दोष बहुत से लोगों के उच्चारण में है , उस के लिए क्या सिर्फ मोदी जी को लांछित किया जाए? हिन्दी प्रेमियों को चाहिये कि वे व्यापक दोषों को नज़रअन्दाज़ करें ( उन का इस कमी के लिए उपहास न करें ) , अन्यथा वे स्ययम् को हिन्दी से अलग कर लेंगे । विदेशी लोग भारत में गलत हिन्दी बोलते हैं तो हम उन के बोलने पर ख़ुश होते हैं यह सोच कर कि वे हिन्दी तो बोल रहे हैं । अहिन्दी भाषी प्रान्तो के लोग कैसी भी हिन्दी बोलते हैं तो हम उन का स्वागत करते हैं । सिर्फ इसलिए कि कम से कम हिन्दी तो बोल रहे हैं । अन्यथा देश में हिन्दी के विरोधियों की संख्या कम नहीं है । " 
  यह केवल एक प्रसंग है , पर केवल हिन्दी शब्दों के ही गलत उच्चारण नहीं होते बल्कि अँगरेजी , उर्दू आदि 
भाषाओं के शब्दों के भी भ्रष्ट उच्चारण प्रचलित हैं । उदाहरण के लिए अंगरेजी के pleasure शब्द को प्लेयियर 
बोलने वाले ( प्राय: पंजाबी ) ओर budget को बडजेट बोलने वाले ( प्राय: दक्षिण भारतीय ) मिल जाते हैं । 
उर्दू के फ़िज़ूल शब्द को फजूल ( न फ के नीचे नुक़्ता और न ज के नीचे नुक़्ता ) और बेफजूल बोलने वाले भी 
मिल जाते हैं । अँगरेजी शब्दों के उच्चारण बंगाली और तमिल भाषी विविध ढंग से करते मिल जाते हैं और 
पंजाबियों की अँगरेजी का उच्चारण और भी रोचक है । प्राय: पंजाबी school को सकूल बोलते हैं और उर्दू 
वाले इस्कूल बोलते हैं । उत्तर प्रदेश के अनेक लोग भी इस्कूल या इसकूल बोलते हैं । तो उच्चारण की यह 
समस्या केवल हिन्दी के साथ नहीं है , अन्य भाषाओं के साथ भी है । मूल कारण यह है कि प्रत्येक भाषा का 
लिखित रूप एक होता है और मौखिक रूप में कुछ भिन्नताएँ आजाती हैं । किसी भी भाषा का रूप बोलने के स्तर पर विविध होजाता है , क्योंकि बोलने वाले का शिक्षा स्तर , परिवेष और आवश्यकताका दबाव विविध होता है । 
   --- सुधेश  
३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैक्टर १० 
दिल्ली ११००७५ 
फ़ोन  ९३५०९७४१२०





22 जनवरी 2016

Amazing facts of Sanskrit language

Amazing Facts of Sanskrit Language[A Scientific Language]

Rohan Sharma in Sanskrit | May 04
It is the Mother of all languages. About 97% of world languages have been directly or indirectly influenced by this language.(Ref: UNO)
Most efficient & best algorithms for computer have been made in Sanskrit not in english.
Sanskrit has the highest number of vocabularies than any other language in the world.
102 arab 78 crore 50 lakh words have been used till now in Sanskrit. If it will be used in computers & tecknology, then more these number of words will be used in next 100 years.
Sanskrit has the power to say a sentence in a minimum number of words than any other language.
America has a University dedicated to Sanskrit and the NASA too has a department in it to research on Sanskrit manuscripts.
Sanskrit is the best computer friendly language.(Ref: Forbes Magazine July 1987).
Sanskrit is a highly regularized language. In fact, NASA declared it to be the “only unambiguous spoken language on the planet” – and very suitable for computer comprehension.
Sanskrit is an official language of the Indian state of Uttarakhand.
There is a report by a NASA scientist that America is creating 6th and 7th generation super computers based on Sanskrit language. Project deadline is 2025 for 6th generation and 2034 for 7th generation computer. After this there will be a revolution all over the world to learn Sanskrit.
The language is rich in most advanced science, contained in their books called Vedas, Upanishads, Shruti, Smriti, Puranas, Mahabharata, Ramayana etc. (Ref: Russian State University, NASA etc. NASA possesses 60,000 palm leaf manuscripts, which they are studying.)
Learning of Sanskrit improves brain functioning. Students start getting better marks in other subjects like Mathematics, Science etc., which some people find difficult. It enhances the memory power. James Junior School, London, has made Sanskrit compulsory. Students of this school are among the toppers year after year. This has been followed by some schools in Ireland also.
Research has shown that the phonetics of this language has roots in various energy points of the body and reading, speaking or reciting Sanskrit stimulates these points and raises the energy levels, whereby resistance against illnesses, relaxation to mind and reduction of stress are achieved.
Sanskrit is the only language, which uses all the nerves of the tongue. By its pronunciation, energy points in the body are activated that causes the blood circulation to improve. This, coupled with the enhanced brain functioning and higher energy levels, ensures better health. Blood Pressure, diabetes, cholesterol etc. are controlled. (Ref: American Hindu University after constant study)
There are reports that Russians, Germans and Americans are actively doing research on Hindu's sacred books and are producing them back to the world in their name. Seventeen countries around the world have a University or two to study Sanskrit to gain technological advantages.
Surprisingly, it is not just a language. Sanskrit is the primordial conduit between Human Thought and the Soul; Physics and Metaphysics; Subtle and Gross; Culture and Art; Nature and its Author; Created and the Creator.
Today, there are a handful of Indian villages (in Rajasthan, Madhya Pradesh, Orissa, Karnataka and Uttar Pradesh) where Sanskrit is still spoken as the main language. For example in the village of Mathur in Karnataka, more than 90% of the population knows Sanskrit.
Even a Sanskrit daily newspaper exists! Sudharma, published out of Mysore, has been running since 1970 and is now available online as an e-paper (sudharma.epapertoday.com)!
The best type of calendar being used is hindu calendar(as the new year starts with the geological change of the solar system)
ref: german state university
The UK is presently researching on a defence system based on Hindu's shri chakra.
Aren’t these facts enough for us to think of learning Sanskrit?

--- वैस्टर्न हिन्दू नामक वेब साइट से । 




14 जनवरी 2016

रोचक बातें

       कुछ रोचक बातें।


फिर भी अंगरेजीकी ही जय हो -- ?
Broadcast Audience Research Council of India के साप्ताहिक आँकडे बताते हैं कि पिछले सप्ताह अंगरेजी समाचार चॅनलोंकी तुलनामें हिंदी समाचार चॅनेलोंके दर्शकोंकी संख्या करीब २०० गुना अधिक हैं। फिर भी हमारे हिंदी चॅनेल अपने शीर्षक और अपने वक्तव्योंको अधिकसे अधिक अंगरेजियत में ढालनेकी होड में हैं।

--- लीना मेंहदले 
( मुम्बई ) 

          चाँद के बारे में 

1. अब तक सिर्फ 12 मनुष्य चाँद पर गए है.
2. चांद धरती के आकार का सिर्फ27प्रतीशत हिस्सा ही है.
3. चाँद का वजन लगभग 81,00,00,00,000(81 अरब) टन है.
4. पूरा चाँद आधे चाँद से 9गुना ज्यादाचमकदार होता है.
5. नील आर्मस्ट्रोग ने चाँद पर जब अपनापहला कदम रखा तो उससे जो निशान चाँदकी जमीन पर बना वह अब तक है और अगले कुछलाखों सालो तक ऐसा हीरहेगा.क्योंकि चांद पर हवा तो है ही नहीजो इसे मिटा दे.
6. जब अंतरिक्ष यात्री एलन सैपर्ड चाँद परथे तब उन्होंने एक golf ball को hitमाराजोकि तकरीबन 800 मीटर दूर तक गई.
7. अगर आप का वजन धरती पर 60 किलो हैतो चाँद की low gravity की वजह से चाँदपर आपका वजन 10किलो ही होगा.
8. चाँद पर पड़े काले धब्बों को चीन में चाँदपर मेढ़क कहा जाता है.
9. जब सारे अपोलो अंतरिक्ष यान चाँद सेवापिस आए तब वह कुल मिलाकर 296चट्टानों के टुकड़े लेकर आए जिनकाद्रव्यमान(वजन) 382 किलो था.
10. चाँद का सिर्फ 59 प्रतीशत हिस्साही धरती से दिखता है.
11. चाँद धरती के ईर्ध-गिर्द घूमते समयअपना सिर्फ एक हिस्सा ही धरती कीतरह रखता है इसलिए चाँद का दूसरापासा आज तक धरती से किसी मनुष्य नेनही देखा.
12. चाँद का व्यास धरती के व्यास कासिर्फ चौथा हिस्सा है और लगभग49 चाँदधरती में समा सकते हैं.
13. क्या आपको पता है चाँद हर सालधरती से4 सैटीमीटर दूर खिसक रहा है.अबसे 50 अरब साल बाद चाँद धरती के ईर्द-गिर्द एक चक्कर 47 दिन में पूरा करेगा जोकि अब 27.3 दिनो में कर रहा है.पर यहहोगा नही क्योकि अब से 5 अरब सालबाद ही धरती सूर्य के साथ खत्म होजाएगी ।

( कुमार वीरेन्द्र के सौजन्य से ) 



                                साहित्यकारों के घरों की दुर्दशा 

निराला के गांव गढ़ाकोला में। उन्नाव से करीब 40 किमी दूर, बीघापुर रेलवे स्टेशन से आगे। यह वह गांव है जहां निराला के नाम पर स्कूल, कालेज, पार्क बने हैं पर लोग निराला के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं। निराला को न जानना उनके जीवन पर कोई बुरा प्रभाव नहीं डालता, शायद इसीलिए उन्हें नहीं जानते। गांव के एक व्यक्ति से पूछा तो वह कुनमुनाते, सकुचाते बोला- हां, रहे तो कउनौ महान आदमी। उसके मन में निराला की कोई देवता या विस्मृत ईश्वर जैसी छवि थी जिसकी अब मूर्तियां बनाई जाने लगी हैं। गांव में ब्यूटी पार्लर का होना इस बात को सिद्ध कर रहा है कि इस देश में ब्यूटी पार्लर अब भगवान की तरह सर्वव्यापी हो चुके हैं। बाकी ज्वैलरी की दुकान है और कृषि मंडी भी। निराला के घर में राजकुमार त्रिपाठी का परिवार रहता है जो निराला के चचेरे भाई के प्रपौत्र हैं। उन्हीं त्रिपाठी जी की पत्नी ने बताया कि वसंत पंचमी पर अधिकारी और कुछ साहित्य-प्रशंसक इस गांव में आते हैं, कुछ वादे कर के जाते हैं पर होता कुछ नहीं। सड़क टूटी है। उनके नाम पर बना पार्क उजड़ा सा है और उसमें जुआं खेलने वाले बैठे रहते हैं। जब ताश के पत्ते फेंटे जाते होंगे तो दुनिया को उलट-पुलट कर न रख पाने की कुंठा को राहत पहुंचती होगी। पुस्तकालय में किताबें गायब हैं, वैसे ही जैसे देश के पढे-लिखे लोगों के मन से विवेक। निराला जिस कमरे में रहते थे, उस पर ताला लगा रहता है। राजकुमार त्रिपाठी निराला के नाम पर स्थापित डिग्री कालेज में पांच हजार रुपये पर चपरासी की नौकरी करते हैं। थोड़ा विडंबनासूचक तो है कि निराला के वंशज निराला के नाम पर बने संस्थान में चपरासी बनकर रह गए हैं। यह यथार्थ 'सुररियलिज्म' में बदल जाना है। जो भी हो, उनके वंशजों का परिवार आतिथ्य के गुणों से भरपूर है। उनकी चाय, पानी, मिठाई के लिए दिल से शब्द निकला- शुक्रिया।
--- वैभव सिंह 

यह टिप्पणी पढ कर मैं इस पर यह लिखा  --- 
साहित्यकारों की यह उपेक्षा भारत में ही है । विदेशी साहित्यकारों की स्मृयों को वहाँ के लोग सहेज कर रखते हैं । बर्लिन में मैं ब्रेख़्त का मकान देखने गया तो पाया कि वह वैसी ही स्थित में है जैसा ब्रेख़्त के जीवनकाल में था । उन की चीज़ें संभाल कर रखी गई हैं । उस की देखभाल के लिए सरकारी व्यवस्था है ।

--- सुधेश 

तो अलाहाबाद के निवासी अनुपम परिहार ने यह टिप्पणी की -- 

सर, जयशंकर प्रसादजी का मकान बिक गया, सरकार और स्थानीय लोग हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रह गए।
बच्चनजी का इलाहाबाद स्थित मकान भी राजेन्द्र जायसवाल ने अपनी पत्नी कविता जायसवाल के नाम खरीद लिया। 'मधुशाला' और 'एकांत संगीत' जिस कक्ष में लिखीं गईं वह कक्ष आज भी वैसे ही सुरक्षित है। चाहकर भी कुछ नहीं किया जा सकता।
कितना दुःखद है।इस दिशा में
'इन्टेक' कुछ काम कर रहा है।
--- अनुपम परिहार के सौजन्य से । 


27 दिसंबर 2015

क्या हिन्दी अँगरेजी से पराजित हो गई है ?

                                क्या हिन्दी अँगरेजी से पराजित हो गई है ?

(ख्यात भाषाविद् जलजजी का यह आलेख 14 सितम्बर 2003 को नईदुनिया (इन्दौर) में प्रकाशित हुआ था। तनिक संशोधनों और परिवर्द्धनों सहित जलजजी का यह आलेख अभी-अभी,  11 सितम्बर 2014 को साप्ताहिक उपग्रह (रतलाम) में प्रकाशित हुआ है। ग्यारह वर्षों के अन्तराल में स्थितियाँ, सुधरी तो बिलकुल ही नहीं, और अधिक खराब ही हुई हैं। जलजजी की कृपापूर्ण अनुमति से यह आलेख यहाँ प्रस्तुत है।)

यह सच्चाई कितनी ही अपमानजनक और पीड़ादायक क्यों न हो, पर अब इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि आजाद भारत में हिन्दी, अंग्रेजी से पराजित हो गई है। जो काम अंग्रेेजों के शासनकाल में नहीं हो सका वह अब हो गया। हमारे क्रिकेट खिलाड़ी दैनिक जीवन में भले ही मातृ-भाषा में बोलते हों, पर टीवी पर या सम्वाददाताओं से बात करते वक्त भारत में भी सिर्फ अंग्रेजी में ही बोलते हैं। फिल्मों में धड़ल्ले से हिन्दी सम्वाद बोलकर हिन्दी की रोटी खाने वाले अभिनेताओं, अभिनेत्रियों की भी यही स्थिति है। दरअसल कुछ वर्षों से अंग्रेजी ‘स्टेटस सिम्बॉल’, रुतबे का प्रतीक बन गई है।

आखिर इस स्थिति तक हम पहुँचे कैसे? आजादी मिलने के बाद जो समस्याएँ लम्बित रहीं उनमें कश्मीर की और भाषा की समस्या प्रमुख है। इन दोनों समस्याओं की लीपापोती करके यह मान लिया गया कि इससे काम चल जाएगा लेकिन इससे समाधान नहीं हुआ। इन दोनों समस्याओं को हल करने के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत थी। उसके अभाव में वही हो सकता था जो हुआ। कश्मीर की तरह भाषा की समस्या को भी अपरिभाषित, अमूर्त मानदण्डों के हवाले कर दिया गया। कहा गया, जब तक हिन्दी समर्थ नहीं हो जाती, राजभाषा के रूप में अंग्रेजी जारी रहेगी। हिन्दी के सामर्थ्य का प्रमाण पत्र क्या होगा? कौन देगा यह प्रमाण पत्र? कैसे देगा? सामर्थ्य को कैसे नापा जाएगा? इन प्रश्नों पर विचार ही नहीं किया गया।

फिर भी आजादी के बाद आरम्भिक वर्षों  में विभिन्न विषयों में मौलिक लेखन आरम्भ हो गया था। कक्षाओं में विभिन्न विषयों को पढ़ाने के लिए हिन्दी में पाठ्य-पुस्तकें उपलब्ध होने लगी थीं। अगर इस क्षेत्र को माँग और पूर्ति की शक्तियों के हवाले छोड़ दिया जाता तो धीरे-धीरे हिन्दी माध्यम की मौलिक किताबों से बाजार पट जाते। लेकिन इसी बीच विभिन्न सरकारें अनुवाद की योजनाओं के साथ इस मैदान में कूद पड़ीं। विषय विशेषज्ञों का, जिन्हें अनुवाद का कार्य सौंपा गया, विषय पर तो अधिकार था, हिन्दी पर नहीं। कभी -कभी एक ही किताब के विभिन्न हिस्से विभिन्न विशेषज्ञों को सौंपे गए। अनुवाद की भाषा की आलोचना हुई तो सरकारों ने उनके साथ हिन्दी विद्वानों को भी संयुक्त करना शुरु किया।

समय सीमा में काम पूरा करने के बन्धन, पारिश्रमिक पर दृष्टि, एक किताब के विभिन्न हिस्सों के अलग-अलग भाषा शैली के अलग-अलग विशेषज्ञों द्वारा किए गए अनुवाद नेे और उसके अलग-अलग भाषा संशोधकों ने अनुवाद को छात्रों के लिए कठिन बना दिया। कहीं-कहीं यह नियम भी रहा कि अनुवाद पर विशेषज्ञ अनुवादक और उसके हिन्दी संशोधनकर्ता का नाम नहीं दिया जाएगा। इससे उन्हें लापरवाही बरतने की पुख्ता छूट मिल गई। जवाबदेही नहीं रही। अपयश का डर नहीं रहा। कोई भाषा कुछेक कठिन शब्दों या पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से कठिन नहीं बनती। गलत वाक्य रचना, परसर्गों के यथास्थान अप्रयोग, क्रियाओं के लापरवाह प्रयोग आदि के कारण कठिन बनती है। इन कारणों से और स्रोत भाषा की प्रकृति को अनुवाद की भाषा पर हावी होने देने तथा शब्द-शब्द अनुवाद से इन अनुवादों की भाषा छात्रों के लिए ही नहीं शिक्षकों के लिए भी कठिन हो गई। मूल अंग्रेजी ग्रन्थ अपेक्षाकृत सरल लगने लगे। काश! हिन्दी संशोधकों ने अनुवाद की भाषा की इन कठिनाइयों को दूर करने में जरूरी परिश्रम किया होता। काश! अपने आलस्य से होने वाली भारी हानि का अन्दाजा उन्होंने लगाया होता।

एक विसंगति और हुई। छोटी कक्षाओं का शिक्षा माध्यम जहाँ हिन्दी था वहीं बड़ी कक्षाओं का अंग्रेजी। माध्यम को अंग्रेजी से हिन्दी करने का काम उत्‍तरोत्‍तर किया जाना चाहिए था। पर वह प्रायः नहीं हुआ। छात्रों और पालकों ने स्वभावतः यह महूसस किया कि जब बड़ी कक्षा की पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से ही करनी है तब उसे छोटी कक्षा से ही क्यों न माध्यम बनाया जाए? फलस्वरूप छोटी कक्षाओं में भी अंग्रेजी माध्यम और अंग्रेजी की माँग बढ़ने लगी। उसकी पूर्ति के लिए विभिन्न शहरों/कस्बों में एक के बाद एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल खुलने लगे। शिक्षा माध्यम के सम्बन्ध में सरकारों की ढुलमुल नीति के कारण हिन्दी पाठ्य पुस्तकों के लेखन/प्रकाशन में निजी क्षेत्र ने शुरु में जो उत्साह दिखाया था वह शीघ्रतापूर्वक ठण्डा पड़ गया।

आज जो पीढ़ियाँ देश की प्रमुख कार्यशील जनसंख्या हैं और उद्योग-धन्धों, व्यापार, कार्यालयों, प्रतिष्ठानों आदि में काबिज हैं, वे वे ही हैं जो पिछले कुछ वर्षों में अंग्रेजी माध्यम से अपनी पढ़ाई पूरी करके आई हैं। इसलिए नहीं कि वे अंग्रेजी माध्यम से पढ़कर निकली हैं बल्कि इसलिए कि पुरानी पीढ़ी के नेपथ्य में चले जाने के बाद उन्हें मंच पर आना ही था। उनके आने से स्वभावतः पूरा परिदृश्य अंग्रेजीमय हो गया है। अगर ये पीढ़ियाँ हिन्दी माध्यम से पढ़कर आई होतीं तो आज हिन्दी का वैसा पराभव नहीं दिखाई देता जैसा दिख रहा है। हिन्दी के इस पराभव के लिए न तो किसी जमाने में हुआ हिन्दी विरोधी आन्दोलन दोषी है और न अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार। इसके लिए हम ही दोषी हैं। हिन्दी की पराजय हमारी अपनी करनी का फल है।

पिछले साठ सालों में अन्य राज्यों की तुलना में हिन्दी भाषी राज्य आर्थिक रूप से निरन्तर पिछड़ते रहे हैं। सम्भ्रान्त वर्ग इन्हें गायपट्टी/गोबरपट्टी के नाम से अभिहित करने में भी संकोच नहीं करता। दुर्भाग्य से इस पिछड़ेपन को भी हिन्दी से जोड़कर देखा जाने लगा। इसलिए यह मिथ्या धारणा बलवती होती गई कि आर्थिक तरक्की हिन्दी से सम्भव नहीं है। आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के चलते भी अंग्रेजी की अनिवार्यता रेखांकित की जा रही है। यह भुुलाया जा रहा है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ यहाँ माल बेचने आ रही हैं, सिर्फ अपने दफ्तर खोलने नहीं। उन्हें हिन्दी प्रदेश के रूप में विशाल उपभोक्ता बाजार दिखाई दे रहा है। अगर हिन्दी भाषी ग्राहकों में माल की खपत करनी है तो उनसे हिन्दी में ही तो व्यवहार रखना होगा। कम्पनियाँ अपनी प्रचार सामग्री को हिन्दी में ही तो प्रस्तुत करेंगी। हिन्दी भाषी क्षेत्र में अपनी पैठ और पकड़ बनाने के लिए वे हिन्दी भाषी अमले को ही तो अपनी नौकरी में रखना चाहेंगी! आखिर टीवी चैनलों ने हिन्दी प्रसारणों को अधिकाधिक समय देना क्यों शुरू कर दिया है? लेकिन यह धारणा बनाई जा रही है कि अगर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी लेनी है तो हिन्दी में नहीं, अंग्रेजी में महारत हासिल करनी होगी।

अब कुछ वर्षों से ये कम्पनियाँ उचित ही यह समझने लगी हैं कि भारतीयों को अपनी भाषा से कुछ लेना देना नहीं है। इसलिए वे चीनी, अरबी आदि भाषाओं के तो सॉफ्टवेयर बनवाती हैं, हिन्दी के नहीं। वे जानती हैं कि भारत में अंग्रेजों का राज भले ही न हो, अंग्रेजी का राज तो बरकरार ही नहीं मजबूत भी हो गया है।

भाषा के मामले  में आज हम जिस मुकाम पर खड़े हैं, उसमें पहली जरूरत यह है कि हम अपनी आत्ममुग्धता और जय-जयकार से बाहर निकलें। यह स्वीकार करें कि आजाद भारत में हिन्दी, अंग्रेजी से पराजित हो गई है। अब हमें वहीं से तमाम शुरुआत करनी होगी जहाँ से साठ साल पहले करनी थी। किसी देश की अर्थव्यवस्था में जो महत्व आधारभूत ढाँचे या अधोसंरचना का है उसकी भाषा के लिए वही महत्व विभिन्न कक्षाओं के विभिन्न विषयों की पाठ्यपुस्तकों और शिक्षा माध्यम का है। अंग्रेजी माध्यम की पुस्तकें पढ़कर और अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा पाकर निकली आज की 25 से 50 साल उम्र वाली पीढ़ियाँ ही इस समय समाज की प्रमुख क्रियाशील जनसंख्या हैं। इस जनसंख्या को अब हिन्दी की ओर मोड़ना कठिन है। हमें अपना ध्यान उन पीढ़ियों पर केन्द्रित करना होगा जो आज आरम्भ कर रही हैं और 20-25 साल बाद हमारे समाज की प्रमुख क्रियाशील जनसंख्या में बदल जाएँगी।

साठ साल पहले की तुलना में आज यह काम ज्यादा कठिन है। तब के छात्रों की पीढ़ियाँ हिन्दी को ‘आजादी की लड़ाई की भाषा और देश भक्ति का प्रतीक’ मानती थीं। वे हानि उठाकर भी उसका झण्डा ऊँचा रखना चाहती थीं। आज के छात्रों की पीढ़ियाँ केरियर, व्यवसाय, प्रतिस्पर्धा को लेकर अधिक चिन्तित हैं और स्वभावतः उन्हें ही अधिक महत्व दे रही हैं। क्या केन्द्र और राज्य सरकारें उन्हें आश्वस्त कर सकेंगी कि हिन्दी और हिन्दी माध्यम की पढ़ाई उन्हें अंग्रेजी से, जो आठवीं अनुसूची में शामिल 22 भाषाओं में भी शामिल नहीं है, वरीयता नहीं तो कम से कम अवसर की समानता तो प्रदान करेंगी ही? यूपीएससी के सीसेट प्रश्नपत्र में यह समानता न होने से ही तो भारतीय भाषाओं के छात्र उसका विरोध कर रहे हैं! अंग्रेजी में रचे गए प्रश्नपत्र के हिन्दी मशीनी अनुवाद को बड़े से बड़ा हिन्दीदाँ भी नहीं समझ सकता। अर्थबोध के लिए सिर्फ व्याकरणिक नियमों की समझ ही पर्याप्त नहीं होती। अगर टैबलेट कम्प्यूटर, को गोली कम्प्यूटर, स्टील प्लाण्ट को इस्पात पौधा कहा जाएगा तो परीक्षार्थी को क्या अर्थबोध होगा? क्यों न सीसेट का प्रश्नपत्र अगली बार हिन्दी में बने और उसका अनुवाद अँग्रेजी में हो? क्या हिन्दी सेवा संस्थाएँ और व्यक्ति, हिन्दी की अधोसंरचना को अपने एजेण्डे में शामिल करेंगे? यह सम्भव हो सका तो भी इसके परिणाम आने में बीस एक साल का समय लग जाएगा। जो नुकसान हो चुका, हो चुका है। उसकी भरपाई नहीं हो सकती। इस बात की भी जरूरत है कि सूचना प्रौद्योगिकी को हिन्दी के अनुकूल बनाया जाए और हिन्दी राज्यों की सरकारें अपना तमाम काम हिन्दी में करके दिखाएँ। यह सिद्ध करके दिखाएँ कि हिन्दी में कामकाज से बेहतर परिणाम प्राप्त होते हैं। आवेश, आलस्य और बड़बोलेपन की अपनी कार्य संस्कृति का परित्याग करते हुए आर्थिक क्षेत्र में भी उन्हें बढ़त प्राप्त करनी होगी। यह कष्ट उन करोड़ों बच्चों के लिए उठाना होगा जिनकी अधिकांश आबादी गाँवों और गरीबी में है। उनकी मौलिक प्रतिभा का वास्तविक विकास हिन्दी में ही सम्भव है। वे ही इस नई सदी का इतिहास रचेंगे और हिन्दी की पराजय को विजय में बदलेंगे ।

--- डा जय कुमार जलज 
जलज जी के ब्लाग एकोहम से साभार । 
३० इन्दिरा नगर , रतलाम ४५७००१ 



27 नवंबर 2015

हिन्दी और बलराज साहनी

            हिन्दी और बलराज साहनी 

कभी मेरा नाम भी हिंदी लेखकों में गिना जाता था. मेरी कहानियाँ अपने समय की प्रमुख हिंदी पत्रिकाओं - विशाल भारत, हंस आदि - में नियमित रूप से प्रकाशित हुआ करती थीं. बच्चन, अज्ञेय, अमृतलाल नागर, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, उपेन्द्रनाथ अश्क - सब मेरे समकालीन लेखक प्रिय मित्र हैं.
मेरी शुरू की जवानी का समय था वह - बहुत ही प्यारा, बहुत ही हसीन मैंने कुछ समय शान्तिनिकेतन में गाँधीजी के चरणों में बिताया. मेरा जीवन बहुत समृद्ध बना. शान्तिनिकेतन में मैं हिंदी विभाग में काम करता था. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी मेरे अध्यक्ष थे. उनकी छत्रछाया में हिंदी के साथ मेरा सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन गहरा होता गया. सन 1939 के अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन में वे मुझे भी अपने संग प्रतिनिधि बनाकर बनारस ले गए थे और वहाँ मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बनारसीदास चतुर्वेदी, निराला और साहित्य के अन्य कितने ही महारथियों से मिलने और उनके विचार सुनने का मुझे गौरव प्राप्त हुआ.
यद्यपि आज मैं हिंदी में नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा पंजाबी में लिखता हूँ, फिर भी आप लोगों से खुद को अलग नहीं समझता. आज भी मैं हिंदी फिल्मों में कम करता हूँ, हिंदी-उर्दू रंगमंच से भी मेरा अटूट सम्बन्ध रहा है. ये चीजें, अगर साहित्य का हिस्सा नहीं तो उसकी निकटवर्ती जरूर हैं.
हिंदी हमारे देश की एक विशेष और महत्वपूर्ण भाषा है. इसके साथ हमारी राष्ट्रीय और भावनात्मक एकता का सवाल जुदा हुआ है. और इस दिशा में, अपनी अनेक बुराइयों के बावजूद हिंदी फ़िल्में अच्छा रोल अदा कर रही हैं.
लेकिन इस असलियत की ओर से भी आँखें बंद नहीं की जा सकतीं कि हिंदी, कई दृष्टियों से, अपने क्षेत्र में और उससे बहार भी, कई प्रकार से सांप्रदायिक और प्रांतीय बैर-विरोध और झगड़े-झमेलों का कारण बनी हुई है. कई बार तो डर लगने लगता है कि कहीं एकता के लिए रास्ते साफ करने के बजाय वह उन रास्तों पर कांटे तो नहीं बिछा रही, उन शक्तियों की सहायता तो नहीं कर रही, जो हमें उन्नति और विकास के बजाय अधोगति और विनाश की ओर ले जाना चाहती हैं, जो हमारे पांवों में फिर से साम्राज्यवादी गुलामी की बेड़ियाँ पहनना चाहती हैं.
मैं जब शान्तिनिकेतन में था, तो गुरुदेव टैगोर मुझसे बार-बार कहा करते थे, 'तुम पंजाबी हो, पंजाबी में क्यों नहीं लिखते? तुम्हारा उद्देश्य होना चाहिए कि अपने प्रान्त में जाकर वही कुछ करो जो हम यहाँ कर रहे हैं.'
मैंने जवाब में कहा, 'हिंदी हमारे देश की भाषा है. हिंदी में लिखकर मैं देश भर के पाठकों तक चपहुँच सकता हूँ.'
वे हँस देते और कहते, 'मैं तो केवल एक प्रान्त की भाषा में ही लिखता हूँ, लेकिन मेरी रचनाओं को सारा भारत ही नहीं, सारा संसार पढ़ता है. पाठकों की संख्या भाषा पर निर्भर नहीं करती.'
मैं उनकी बातें एक कान से सुनता और दूसरे कान से निकाल देता. बचपन से ही मेरे मन में यह धारणा पक्की हो चुकी थी कि हिंदी पंजाबी के मुकाबले में कहीं ऊँची और सभ्य भाषा है. वह एक प्रान्त की नहीं, बल्कि सारे देश की राष्ट्रीय भाषा है. (उन दिनों देश सम्बन्धी मेरा ज्ञान उत्तरी भारत तक ही सीमित था.)
एक दिन गुरुदेव ने जब फिर वही बात छेड़ी तो मैंने चिढ़कर कहा, 'पता नहीं क्यों आप मुझे यहाँ से निकालने पर तुले हुए हैं. मेरी कहानियाँ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं में छाप रही हैं. पढ़ाने का काम भी मैं चाव से करता हूँ. अगर यकीन न हो तो मेरे विद्यार्थियों से पूछ लीजिए. जिस प्रेरणादायक वातावरण की मुझे जरूरत थी, वह मुखे प्राप्त है. आखिर मैं यहाँ से क्यों चला जाऊं?'
उन्होंने कहा, 'विश्वभारती का आदर्श है कि साहित्यकार और कलाकार यहाँ से प्रेरणा लेकर अपने-अपने प्रान्तों में जाएँ और अपनी भाषाओँ और संस्कृतियों का विकास करें. तभी देश की सभ्यता और संस्कृति का भंडार भरपूर होगा.'
'आपको पंजाबी भाषा और संस्कृति के बारे में ग़लतफ़हमी है' मैंने कहा, 'हिंदुस्तान से अलग कोई पंजाबी संस्कृति नहीं है. पंजाबी भाषा भी वास्तव में हिंदी की एक उपभाषा है. उसमें सिख धर्मग्रंथों के अलावा और कोई साहित्य नहीं है.'
गुरुदेव चिढ़ गए. कहने लगे, ' जिस भाषा में नानक जैसे महान कवि ने लिखा है, तुम कह्ते हो उसमें कोई साहित्य नहीं है... कबीर की वाणी का अनुवाद मैंने बंगाली में किया है, लेकिन नानक की वाणी के अनुवाद का साहस नहीं हुआ. मुझे दर था कि मैं उनके साथ इंसाफ नहीं कर सकूँगा.'
उसी शाम आचार्य क्षितिमोहन सेन से बातें हुई. उनसे इस बात का जिक्र किया तो वह बोले, पराई भाषा में लिखने वाला लेखक वैश्या के समान है. वैश्या धन-दौलत, मशहूरी और ऐश-इशरत भरा घरबार सबकुछ प्राप्त कर सकती है, लेकिन एक गृहिणी नहीं कहला सकती.'
मैं मन-ही-मन बहुत खीझा. बंगाली लोग प्रांतीय संकीर्णता के लिए प्रसिद्ध थे. लेकिन टैगोर और क्षितिमोहन जैसे व्यक्ति भी उसका शिकार होंगे, यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी.
लन्दन में मेरे एक बहुत विद्वान बंगाली दोस्त थे. वे कभी पिस्तौलबाज इंकलाबी भी रह चुके थे. उन्होंने बताया कि ईस्टइण्डिया कंपनी का असर रसूख शुरू में हिंदुस्तान के तटवर्ती इलाकों में पैर ज़माने के बाद ही मध्यवर्ती इलाकों में फैला था. शुरू-शुरू में अंग्रेजों को कोई अनुमान नहीं था कि एक दिन वे हिंदुस्तान के मालिक बन जायेंगे. उनकी नीति व्यापार और छीना-झपटी तक ही सीमित थी. लेकिन उन्नीसवीं सदी के तीसरे या चौथे दशक तक सारा हिंदुस्तान अंग्रेजों के कब्जे में आ गया. अपनी साम्राज्यवादी पकड़ मजबूत करने के लिए उन्होंने ऐसी देशव्यापी अफसरशाही का अविष्कार किया जो जनता की पहुँच से दूर और निर्लिप्त रहकर कमाल की अक्लमंदी और सलीके से शासन-चक्कर चलाये जो बाहर से हिन्दुस्तानियों का हितैषी और पालक होने का दिखावा करे लेकिन अन्दर से साम्राज्यवादी हितों की रक्षा करे. इस प्रकार भारतीय भाषाएँ और संस्कृतियाँ नगण्य बन गईं, उन सब पर राज्यभाषा, अंग्रेजी की छाया पड़ने लगी.
इस नयी परिस्थिति का सबसे गहरा और घातक असर उन प्रान्तों पर पड़ा जो अंग्रेजों के कब्जे में बाद में आए. वे मध्यवर्ती और उत्तरी इलाके थे- उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि. इन इलाकों में यूरोपीय प्रभाव अभी बिल्कुल नए थे.
बंगालियों द्वारा बंगाली को अपनी साझी प्रांतीय भाषा मानने में अंग्रेजों को कोई संकोच नहीं हुआ था. लेकिन जब पंजाब की भाषा का सवाल आया तो उन्होंने बड़ी दूरदर्शिता से काम लेकर सिख राज्य कि प्राप्तियों को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए पंजाबी के बजाय उर्दू को पंजाब कि भाषा माना, क्योंकि पंजाब में मुसलमान बहुसंख्या में थे.
लगभग यही तरीकाउन्होंने उत्तर प्रदेश और केन्द्रीय भारत में इस्तेमाल किया. भाषा और संस्कृति की समस्याओं को धर्म के साथ जोड़कर उन इलाकों में भी उसी प्रकार के गुल खिलाये. ग़दर के बाद बीस वर्ष तक मुसलमानों को कुचला और हिन्दुओं को ऊपर उठाया. हिन्दुओं के सामने यह प्रकट किया कि उनकी अधोगति का मूल कारण अंग्रेज नहीं, बल्कि म्लेच्छ मुस्लमान हैं, जिन्होंने भारत की महान और संसार की सबसे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को भ्रष्ट किया है. फारसी लिपि और फारसी शब्द वास्तव में हिन्दू समाज की गिरावट और गुलामी के चिह्न थे. हिन्दुओं का अपना सच्चा विरसा था - आर्य काल, अर्थात देव भाषा संस्कृत, और देव लिपि नागरी, जिनमें कि वेदों और शास्त्रों की रचना हुई थी. संस्कृत ही यूरोप की भाषाओँ का भी मूल स्रोत थी. सो, अगर हिन्दू जाति अपने गौरवमय अतीत को पहचाने तो भारतवर्ष फिर से एक महान देश बन सकता है. हिन्दुओं को अपना चरित्र उस ज़माने के आदर्शों के अनुसार ढालने की जरूरत है जब भारत मुस्लिम प्रभावों से मुक्त था. इस काम में अंग्रेजों ने हिन्दुओं को अपनी पूरी सहायता देने का वचन दिया.
फिर सन 1870 के बाद, जब हिन्दुओं को प्रोत्साहन देने का सौदा महंगा पड़ता दिखाई देने लगा, तो बर्तानवी साम्राज्य ने बहुसंख्यक हिन्दुओं के उलट अल्पसंख्यक मुसलमानों के सहायक और रक्षक होने का रोल अदा करना शुरू कर दिया. इन परिस्थितियों में 'हिन्दू कौम' और 'मुस्लिम कौम' के नामुराद सिद्धांत का पैदा होना कोई अनोखी बात नहीं थी. दो कोमों के सिद्धांत को जन्म देने का सेहरा जिन्ना के सर पर बांधना अन्याय है. इसका आविष्कार सबसे पहले बंकिम बाबू के ज़माने में बंगाल के सुशिक्षित हिन्दू मध्यवर्ग में हुआ था. 'हिन्दू कौम' और 'हिन्दू राष्ट्र' के निर्माण की घोषणाएं सबसे पहले इसी वर्ग के लोगों ने शुरू की थीं. सच तो यह है कि बंगाल और महाराष्ट्र के आतंकवादी क्रन्तिकारी भी इस संकुचित और सांप्रदायिक मनोवृत्ति से मुक्त नहीं थे. बंगाल के क्रांतिकारियों की सबसे बड़ी गुप्त संस्था 'अनुशीलन समिति' के विधान में साफ लिखा गया था कि मुसलमान एक घटिया कौम है. 'समिति का आदर्श हिन्दू जाति का राज्य स्थापित करना है.' वीर सावरकर और भाई परमानन्द जैसे व्यक्ति कट्टर देशभक्त होने के साथ कट्टर साम्प्रदायिकतावादी भी थे. इसमें उन्हें कोई अंतर्विरोध नहीं दिखाई देता था.
मुझे अपने बंगाली दोस्त की इन बातों में काफी सच्चाई दिखाई दी, और अपने दिमाग की कई गांठें खुलती दिखाई दीं. अब मुझे अहसास हुआ कि मैं टैगोर और गाँधी के दृष्टिकोणों को समझने में क्यों असमर्थ रहा था. वे हिंदुस्तान के तटवर्ती इलाकों में जन्मे-पले थे. उनके दिल में अपनी मातृभाषा और संस्कृति सम्बन्धी संस्कार स्वाभाविक ढंग से प्रफुल्लित हुए थे और सच्ची राष्ट्रीयता की ओर विकास कर रहे थे. लेकिन मैं शुरू से ही सांप्रदायिक संस्कारों में पला था. पंजाबियत और हिंदुस्तानियत, दोनों के बारे में मेरे विचार अधूरे और विकृत थे. मातृभाषा और राष्ट्रभाषा सम्बन्धी उन महापुरुषों का दृष्टिकोण यथार्थवादी और सही था. किसी ने सच कहा है कि "जिसका दिमाग गुलाम हो जाय. उससे बड़ा दुनिया में और कोई गुलाम नहीं है."
(ज्ञानरंजन द्वारा सम्पादित 'पहल पुस्तिका, 2008' के सम्पादित अंश)
--- डा लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही के प्रति आभार सहित । 

6 नवंबर 2015

अमेरिका में हिन्दी

       

अमेरिका जनगणना ब्यूरो ने अमरीका में बोली जाने वाली सभी भाषाओं के आंकड़े जारी किए हैं।  


अमेरिका में बोले जाने वाली भारतीय भाषाओं में हिंदी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है।
 हिंदी बोलने वालों की संख्या लगभग 6.5 लाख है। 

अमेरिका में हिंदी के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाएं भी बोली जाती है। लगभग चार लाख अमेरिकी निवासी उर्दू बोलते हैं। अमेरिका में 3.7 लाख से अधिक लोग गुजराती बोलते हैं। जनगणना ब्यूरो के अनुसार 2.5 लाख से अधिक लोग बंगला और 2.5 लाख से अधिक लोग पंजाबी भाषा बोलते हैं। यहाँ 73 हजार से अधिक लोग मराठीलगभग हजार लोग सिंधी भाषा बोलते हैं, 5 हजार से अधिक लोग उड़ियाकरीब 1300 लोग असमिया और करीब 1700 लोग कश्मीरी भाषा बोलते हैं। लगभग 2.5 लाख लोग तेलुगु, 1.90 लाख लोग तमिल, 1.46 लाख मलयालम और 48 हजार लोग कन्नड़ भाषा बोलते हैं।
लगभग 600 लोग बिहारी भाषा और करीब 700 लोग राजस्थानी भाषा बोलते हैं। 94 हजार से अधिक लोग नेपाली बोलते हैं।
जनगणना ब्यूरो ने अमेरिकी समुदाय सर्वेक्षण के 2009 से  2013 के आंकड़ों के आधार पर यह जानकारी दी है कि अमेरिका में छह करोड़ से अधिक लोग घर पर अँग्रेज़ी के अलावा अन्य भाषाएं बोलते हैं। अमेरिका में घरों में अँग्रेज़ी के अलावा बोली जाने वाली शीर्ष भाषाओं में स्पेनिशचीनीफ्रेंचकोरियाईजर्मनवियतनामीअरबीटागालोग और रूसी भाषा शामिल 
है।
रोहित कुमार 'हैप्पी',
संपादक, भारत-दर्शन हिंदी पत्रिका, न्यूज़ीलैंड। 
2/156, Universal Drive, Henderson, Waitakere - 0610, Auckland (New Zealand)
Ph: (0064) 9 837 7052, Mobile: 021 171 3934http://www.bharatdarshan.co.nz
( एम एल गुप्ता आदित्य के सौजन्य से ) 

15 अक्तूबर 2015

इटली के हिन्दी विद्वान मार्कों जोल्ली से बातचीत


- न्यूज़ीलैंड से रोहित कुमार 'हैप्पी' की इटली के मार्कों जोल्ली से बातचीत ।

इटली के हिन्‍दी भाषाविद् मार्को जोल्ली हिन्‍दी साहित्य में पीएचडी हैं। आपने भीष्म साहनी पर थीसिस लिखा है। भीष्म साहनी के उपन्यास का इटालियन में अनुवाद किया है। वे लगभग दस वर्षों से हिन्‍दी पढ़ा रहे हैं। उनको इस बार विश्व हिन्‍दी सम्मेलन का भाषा पर केन्द्रित होना अच्छा लगा। 

आपने हिन्‍दी कहाँ सीखी?
"मैंने अपनी पढ़ाई इटली से की है लेकिन अभ्यास भारत में ही किया है।"
क्या आप भारत आते-जाते रहते हैं?
"हाँ, मैं भारत आता जाता रहता हूँ। मैं पिछले बीस सालों से यहाँ आता हूँ। सात साल पहले मैं देहली यूनिवर्सिटी में इटालियन पढ़ाता था हिन्‍दी माध्यम से।" कुछ क्षण रुक कर मार्को मुस्कराते हुए कहते हैं, "मज़े की बात यह है कि पूरे विभाग में मैं ही अकेला था जो हिन्‍दी माध्यम से पढ़ाता था। बाकी लोग अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाते थे।"
इटली में हिन्‍दी किस स्तर पर पढ़ाई जाती है?
"वहाँ विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्‍दी पढ़ाई जाती है। देखिए, इंडिया के साथ दिक्कत ये है कि लोग ये सोचते हैं कि इंडिया में अंग्रेज़ी चलती है और यह सोचते हैं हिंदुस्तानियों की वजह से। हिंदुस्तानी यही बोलते हैं कि यहाँ आने के लिए हिन्‍दी सीखने की जरूरत नहीं है, यहाँ पर अँग्रेज़ी चलती है। जबकि यह सच नहीं!"
फिर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, "मेरे ख्याल से अँग्रेज़ी बोलने वालों की संख्या होगा 10 प्रतिशत जो अच्छी अँग्रेज़ी बोलते हैं। अब इस अँग्रेज़ी के चक्कर में हमारे वहाँ के लोगों को लगता है कि हम क्यों हिन्‍दी सीखें जबकि कोई ज़रूरत है नहीं! मैं पिछले दस सालों से अपने वहाँ लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहा हूँ कि भारत जाने के लिए कम से कम वहाँ की एक भाषा सीखनी जरूरी है। सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा तो हिन्‍दी ही है तो हम बोलते हैं कि हिन्‍दी ही सीखो।" 
भाषा को लेकर आपके और किस प्रकार के अनुभव हैं?
"आप शुद्ध हिन्‍दी पढ़ाकर भी हिन्‍दी का विकास नहीं कर सकते। शुद्ध हिन्‍दी पढ़कर यदि बच्चे सब्जी वाले के पास जाते हैं तो वे उनकी बात नहीं समझ सकते और उन्हें ऐसे देखेंगे कि ये कहाँ से आए हैं। क्या बात कर रहे हैं? एक मध्यम रास्ता निकाला जाना चाहिए। भाषा लोगों से सम्पर्क करने का एक तरीका होता है। 
व्याकरण वगैरह बहुत ज़रूरी होता है पर उससे भी अधिक ज़रूरी होता है भाषा को बोलना। हम हिन्‍दी पढ़ाते हुए इस बात का ध्यान रखते हैं कि लोगों को भारत की संस्कृति के बारे में भी जानकारी दें। हम यह भी समझाते हैं कि हिंदोस्तानियों से मिलने के लिए व भारत की संस्कृति को समझने के लिए भाषा सीखना बहुत ज़रूरी है।"
--- वेब दुनिया से साभार । 
( एम एल गुप्ता आदित्य के सौजन्य से )