14 फ़रवरी 2013

कुछ लघु कथाएँ

                         कुछ लघुकथाएं 

          एक विंज्ञापन 
तलाश है एक वृद्ध की 
उम़ पैंसठ साल , आँखें कमज़ोर
उधार के कपड़े पहने हुए 
न जाने कब से ग़ायब है 
नाम है लोकतन्त्र ।
           सृजन 
दो साहित्यकार रोबोट काफ़ी हाउस में बैठे हुए साहित्यिक बातें कर रहे थे 
  क्यों आज परेशान कैसे हो ।
  यार , के थ़ी ,आज एक कविता बनाने की कोशिश की ,पर एरर आ गई ।
   भाव कहाँ से उठाये थे तुम ने ।
    बांयें वाली मैमोरी से ।
   बेवक़ूफ़ , वह तो कहानी के भावों की स्टैंडर्ड लाइब़ेरी है ।
और सामने बैठा साहित्यकार अपने सृजन पर शर्मिन्दा हो कर रह गया ।

   
                   लोक तन्त्र और कुर्सी

बाबा , आओ , मेरे पास कुर्सी पर बैठो ।                      


         और एक अन्तराल 
        कुछ समय बाद
एक मिनट बाबा, उस स्टूल पर बैठ जाओ ।
        कुछ समय बाद 
बाबा, कुछ देर टहल आओ, फिर बैठ जाना ।
        कुछ समय बाद 
बाबा, लोग क्या कहेंगे । चलो नीचे चटाई पक बैठो ।
         कुछ समय बाद 
अरे , सुना नहीं तुम ने ।चलो ,पाँच साल पूरे होने के बाद आना ।
         कुछ समय बाद 
पाँव लागूं ं, बाबा, कहाँ चले गये थे आप ।कहाँ नहीं ढूँढा हम लोगों ने । आओ ,बैठ जाओ 
यहाँ   , इस कुर्सी पर ।
और उन सफ़ेदपोश लोगों के बीच बूढ़ा लोकतन्त्र फिर कुर्सी पर जा बैठा । पाँच वर्षों के 
लिए ।        पूँजी वाद 
चाय वाले को दस का नोट दे कर मैं बाक़ी पैसों की इन्तज़ार में खड़ा था । उधर 
चाय वाला था कि दस का नोट मुँह में दबाए दूसरों को चाय परोसने में व्यस्त था ।
मुँह में दबे उस नोट से ज़्यादा चिन्ता उसे उन रुपयों की थी ,जो कि चाय पिला 
कर मिलने वाले थे ।
 वास्तव में वह चाय वाला नहीं पूँजीवाद था ।
       महापुरुष का मौन 
 बस किसी महापुरुष की तरह घर्र घर्र कर शान्त सी खड़ी हो गई । मूर्त्तिवत् बस को 
ठीक करने की कोशिश में उस का ड़ाइवर और तेल रिरियाने और रिसने लगा था ।
नज़र पड़ते ही झुग्गी में रहने वाली उस बुढ़िया ने एक चिथड़े को उठा कर बस के
नीचे डाल दिया । रोटी सेंकने का एक अच्छा जुगाड़ जो हो गया था तभी 

 उस की नज़र बचा कर एक मोटी सी औरत उस चिथड़े पर अपने साथ 
लाई बोरी फेंक कर चली गई ।
   थोड़ी देर बाद किसी मन्दिर मस्जिद विवाद की तरह झुग्गी वालों में हाथापाई 
हो रही थी और बस किसी महापुरुष की तरह चुपचाप खड़ी तमाशा देख रही थी ।
      अफ़वाह 
  दोस्त के घर मिलने गया तो पता चला कि कुछ ही दिन पहले उस का क़त्ल हो 
गया । उधर मेरे पुराने घर पर कोई मिलने आया था पर निराश हो कर वापस चला
गया ।
   एक वो जनाब मिले । पता चला कि उन के मरने की अफ़वाह उड़ गई थी । पर 
वे मेरे सामने खड़े थे ।
   इधर मेरे पड़़ौसी का लड़का  सालों से घर नहीं लौटा ।पता नहीं ज़िन्दा है या
मर गया ।
    सच अब तो इस दुनिया में मरना जीना एक अफ़वाह हो गया है ।

-- संजय शर्मा सुधेश  ( अमेरिका ) 
          

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुती.
    मेरे ब्लोग्स संकलक (ब्लॉग कलश) पर आपका स्वागत है.
    "ब्लॉग कलश"

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  2. लघुकथाएँ पढ़ीं, अच्छी लगीं। 'महापुरुष का मौन' और 'एक विज्ञापन' खूब सार्थक बन पड़ी हैं। बधाई।

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