1 अक्टूबर 2013

भाषाओं का क़ब्रगाह

        'भाषाओं की क़ब्रगाह बन गया भारत

पिछले 50 साल में भारत की क़रीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं. 50 साल पहले 1961 की जनगणना के बाद 1652 मातृभाषाओं का पता चला था. उसके बाद ऐसी कोई लिस्ट नहीं बनी ।
उस वक़्त माना गया था कि 1652 नामों में से क़रीब 1100 मातृभाषाएं थीं, क्योंकि कई बार लोग ग़लत सूचनाएं दे देते थे ।
वडोदरा के भाषा शोध और प्रकाशन केंद्र के सर्वे के मुताबिक यह बात सामने आई है ।
1971 में केवल 108 भाषाओं की सूची ही सामने आई थी क्योंकि सरकारी नीतियों के हिसाब से किसी भाषा को सूची में शामिल करने के लिए उसे बोलने वालों की तादाद कम से कम 10 हज़ार होनी चाहिए. यह भारत सरकार ने कटऑफ़ प्वाइंट स्वीकारा था ।
इसलिए इस बार भाषाओं के बारे में निष्कर्ष निकालने के लिए हमने 1961 की सूची को आधार बनाया ।
   गणेश डेवी के मुताबिक भारत की 250 भाषाएं विलुप्त हो गई हैं ।
जब हमने 'पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे' किया तब हमें 1100 में से सिर्फ़ 780 भाषाएं ही देखने को मिलीं. शायद हमसे 50-60-100 भाषाएं रह गईं हों क्योंकि भारत एक बड़ा देश है और यहां 28 राज्य हैं. हमारे पास इतनी ताक़त नहीं थी कि हम पूरे देश को कवर कर सकें. हमारे पास सिर्फ़ तीन हज़ार लोग ही थे और हमने चार साल तक काम किया । इस काम के लिए बहुत से लोग चाहिए थे ।
हम यह मान भी लें कि हमें 850 भाषाएं मिल गईं हैं तब भी 1100 में से 250 भाषाओं के विलुप्त होने का अनुमान है ।
       दो तरह की भाषाएं हुई लुप्त'

इसकी दो वजहें हैं और भारत में दो प्रकार की भाषाएं लुप्त हुईं हैं.
एक तो तटीय इलाक़ों के लोग 'सी फ़ार्मिंग' की तकनीक में बदलाव होने से शहरों की तरफ़ चले गए. उनकी भाषाएं ज़्यादा विलुप्त हुईं. दूसरे जो डीनोटिफ़ाइड कैटेगरी है, बंजारा समुदाय के लोग, जिन्हें एक समय अपराधी माना जाता था. वे अब शहरों में जाकर अपनी पहचान छिपाने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे 190 समुदाय हैं, जिनकी भाषाएं बड़े पैमाने पर लुप्त हो गईं हैं ।
हर भाषा में पर्यावरण से जुड़ा एक ज्ञान जुड़ा होता है. जब एक भाषा चली जाती है तो उसे बोलने वाले पूरे समूह का ज्ञान लुप्त हो जाता है. जो एक बहुत बड़ा नुकसान है क्योंकि भाषा ही एक माध्यम है जिससे लोग अपनी सामूहिक स्मृति और ज्ञान को जीवित रखते हैं ।

'      भाषा आर्थिक पूंजी भी है'
सी फ़ार्मिंग' की तकनीक में बदलाव आया और तटीय इलाक़ों के लोग शहरों में चले गए. इसी के साथ उनकी भाषाओं का पतन हो गया ।
भाषाओं का इतिहास तो 70 हज़ार साल पुराना है जबकि भाषाएं लिखने का इतिहास सिर्फ़ चार हज़ार साल पुराना ही है. इसलिए ऐसी भाषाओं के लिए यह संस्कृति का ह्रास है ।
ख़ासकर जो भाषाएं लिखी ही नहीं गईं और जब वो नष्ट होती हैं, तो यह बहुत बड़ा नुकसान होता है. यह सांस्कृतिक नुकसान तो है ही, साथ ही आर्थिक नुकसान भी है. भाषा आर्थिक पूंजी होती है क्योंकि आज की सभी तकनीक भाषा पर आधारित तकनीक हैं ।
    चाहे पहले की रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान या इंजीनियरिंग से जुड़ी तकनीक हो या आज के दौर का यूनिवर्सल अनुवाद, मोबाइल तकनीक सभी भाषा से जुड़ी हैं. ऐसे में भाषाओं का लुप्त होना एक आर्थिक नुकसान है ।

      'शहर में हो भाषाओं के लिए जगह'

भाषा बचाने का मतलब है कि भाषा बोलने वाले समुदाय को बचाना. ऐसे समुदायों के लिए जो नए विकास के विचार से पीड़ित हैं, उनके लिए एक माइक्रोप्लानिंग की ज़रूरत है । हर समुदाय चाहे वह सागर तटीय हो, घुमंतू समुदाय हो, पहाड़ी इलाक़ों, मैदानी और शहरी सभी समुदायों के लोगों के लिए अलग योजना की ज़रूरत है ।
बहुत से लोग शहरीकरण को भाषाओं के लुप्त होने का कारण मानते हैं, लेकिन मेरे हिसाब से शहरीकरण भाषाओं के लिए खराब नहीं है । शहरों में इन भाषाओं की अपनी एक जगह होनी चाहिए. बड़े शहरों का भी बहुभाषी होकर उभरना ज़रूरी है ।

'    सभी भाषाओं को मिले सुरक्षा'

"''हिंदी को डरने की ज़रूरत नहीं क्योंकि हिंदी दुनिया की भाषाओं के मामले में चीनी और अंग्रेज़ी के बाद सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है. वह स्पेनिश से आगे निकल गई है. मगर छोटी भाषाओं का बहुत ख़तरा है.''"
जिसकी लिपि नहीं हैं उसे बोली कहने का रिवाज़ है. ऐसे में अगर देखें तो अंग्रेज़ी की भी लिपि नहीं है वह रोमन इस्तेमाल करती है. किसी भी लिपि का इस्तेमाल दुनिया की किसी भी भाषा के लिए हो सकता है. जो भाषा प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी में नहीं आई, वह तो तकनीकी इतिहास का हिस्सा है न कि भाषा का अंगभूत अंग. इसलिए मैं इन्हें भाषा ही कहूंगा ।
सरकारें न तो भाषा को जन्म दे सकती हैं और न ही भाषा का पालन करा सकती हैं. मगर सरकार की नीतियों से कभी-कभी भाषाएं समय से पहले ही मर सकती हैं. इसलिए सरकार के लिए ज़रूरी है कि वह भाषा को ध्यान में रखकर विकास की माइक्रो प्लानिंग करे ।

हमारे देश में राष्ट्रीय स्तर की योजनाएं बनती हैं और राज्यों में इसकी ही छवि देखी जाती है. इसी तरह पूरे देश में भाषा के लिए योजना बनाना ज़रूरी है. मैं यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि 1952 के बाद देश में भाषावार प्रांत बने । इसीलिए हम मानते हैं कि हर राज्य उस भाषा का राज्य है, चाहे वह तमिलनाडु हो, कर्नाटक हो या कोई और. हमने केवल शेड्यूल में 22 भाषाएं रखी हैं. केवल उन्हें ही सुरक्षा देने के बजाय सभी भाषाओं को बगैर भेदभाव के सुरक्षा देना ज़रूरी है. अगर सरकार ऐसा नहीं करेगी तो बाकी सभी भाषाएं मृत्यु के रास्ते पर चली जाएंगीं ।

    'हिंदी को डरने की ज़रूरत नहीं'
बंजारे समुदायों ने अपनी छवि के चलते बड़े शहरों में पलायन किया और पहचान छिपाकर रखी. इस वजह से कई भाषाएं विलुप्त हो गईं.
दस हज़ार साल पहले लोग खेती की तरफ़ मुड़े उस वक़्त बहुत सी भाषाएं विलुप्त हो गईं. हमारे समय में भी बहुत बड़ा आर्थिक बदलाव देखने में आ रहा है. ऐसे में भाषाओं की दुर्दशा होना स्वाभाविक है. मगर अंग्रेज़ी से हिंदी को डर या हिंदी से अन्य भाषाओं को डर ठीक नहीं है ।

पिछले 50 साल में हिंदीभाषी 26 करोड़ से बढ़कर 42 करोड़ हो गए जबकि अंग्रेज़ी बोलने वालों की संख्या 33 करोड़ से बढ़कर 49 करोड़ हो गई. इस तरह हिंदी की वृद्धि दर अंग्रेज़ी से ज़्यादा है ।

मेरे हिसाब से हिंदी को डरने की ज़रूरत नही क्योंकि हिंदी दुनिया की भाषाओं के मामले में चीनी और अंग्रेज़ी के बाद सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है. वह स्पेनिश से आगे निकल गई है. मगर छोटी भाषाओं को बहुत ख़तरा है ।

(पीपुल लिंगुइस्टिक सर्वे के मुख्य संयोजक गणेश डेवी से अमरेश द्विवेदी की बातचीत पर आधारित)

-- गणेश डेवी
( बड़ोदरा , गुजरात )
बी बी सी हिन्दी  से साभार ।
१० अगस्त २०१३ ई

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