23 जनवरी 2013

आख़िर कविता ही क्यों

               आख़िर    कविता ही क्यों 

आज के मानव के लिए कविता की क्या आवंश्यकता है । आख़िर कविता ही क्यों । यों भी पूछा जा सकता है कि साहित्य ही क्यों । उत्तर आधुनिकता के शोर में ,वैश्वीकरण और उदारीकरंंण 
के वातावरण में,हर चीज़ के विज्ञापनों की भरमार में आज के शिक्षित मानव पर आकर्षण ,
विकर्षंण के इतने दबाव हैं कि उसे जीवन की गाड़ी को धकेलने के लिए  हर चीज़ चाहिए 
लेकिन कविता नहीं या कविता की बारी सब से बाद में आती है । इस स्थिति का क्या कारण है ।
अनेक लोगों के लिंए अनेक कारण हो सकते हैं । कुछ लोगों के लिंए यह प़श्न ही नहीं है ,क्योंकि 
उन्हें सोचने के लिए अन्य ज़रूरी बातें हैं ।जो जीवन को रोटी कमाने तक सीमित नहीं रखते ,
वे सोच सकते हैं कि  बेहतर जीवन के लिए रोटी के साथ अपनी अस्मिता , संस्कृति ,अपनी 
भाषा , साहित्य  ,संगीत ,कला और फ़िल्म जैसी मूर्त,अमूर्त चीज़ें भी चाहिएँ ।
  जो ऐसा सोचते हैं कि आदमी केवल और केवल रोटी के लिए नहीं जीता ,उन के लिए यह 
एक ज़रूरी प़श्न है कि आख़िर कविता ही क्यों । ऐसा सोचने वालों के लिए ही मैं सोच रहा 
हूँ कि कविता की मनुष्य के लिए क्या ज़रूरत है । 
   आज के पाठकों के लिए इतना सारा गद्य लिखा और छपा हुआ  पड़ा है और ज्ञान का इतना
भण्डार उपलब्ध है कि उसे पढ़ने के लिए पूरा जीवन कम है । फिर वह  कविता क्यों पढ़े जिसे 
वह प़ाय: समझ नहीं पाता अथवा जो उसे आनन्द नहीं देती ।  कविता का आनन्द उसे समझने 
के बाद ही लिया जा सकता है । तो क्या यह सही है है आज की कविता समझ में नहीं आती 
और इसी लिए आनन्द नहीं देती । कविता क्या कोई भी वस्तु हो ,यदि उस को इस्तेमाल करने 
की विधि कोई नहीं जानता तो उस के लिए बेकार है ।
   लेकिन आज की कविता अगर समझ में नहीं आती तो क्यों । कुछ उसे खूब समझते हैंं और 
जो नहीं समझने की शिकायत करते  हैं उन्हें वे मूर्ख समझते  हैं । पर यह व्यापक शिकायत 
क्यों होती है कि आज की कविता दुरूह है ,बनावटी है ,रसहीन है या वैसी नहीं है जैसी पुराने 
ज़माने के कवियों की होती थी , जो कठिन होने पर भी समझ ली जाती थी । तुलसी ,सूरदास ,
मीरा , कबीर  ,घना नन्द  ंआदि ढेरों कवि हैं जिन की कविता आज भी सिर्फ समझी नहीं जाती
बल्कि सराही भी जाती है । ंइस शिकायत का एक आधार आज की कविता का गद्या़त्मक 
होना है ।       मैं सोचता हूँ कि आज की कविता भी समझी और सराही जाती है ,पर सारी कविता ऐसी नहीं है । ऐसे अनेक कवि हैं जो विशुद्ध गुटबन्दी , विचारधारा विशेष से जुड़ने के कारण या साहित्य
के दादाओं से निकटता  के कारण या ऊँचे  पदों पर आसीन होने के काररण दूसरों से स्वयम् को 
कवि ही नहीं महाकवि मनवाने में सक्षम होने के प़माण देते  आए हैं और अनेक आज भी इस 
धन्धे में लगे हुए हैं । साहित्य रचना एक साधना है धन्धा नहीं ,पर कुछ के लिए वह यश और 
पैसा कमाने का धन्धा बना हुआ है । पैसे , तिकड़मों ,दलबन्दी ओर प़चार के साधनों पर
अपनी पकड़ के कारंण अनेक साहित्यकार पहलवान  अखाड़ों में अपने पट्ठों के साथ जमे 
हुए हैं । उनसे और उन की कविता से यदि किसी को वितृष्णा हो तो वे आज की कविता की 
उपेक्षा और शिकायत करेंगे ही । 
   मैं पाठकों का आह्वान करता हूँ कि आज की कविता की अलोकप़ियता के कारणों की खोज 
करें और अपने विचार मुझे लिखें ,ताकि उन्हें विस्तृत चर्चा के लिंए  प़चारित किया जाए । 
     हिन्दी के लोकप्रिय कवियों  और  उन की कविता पर केन्द़ित  विचारपूर्ण  लेखों को ंभी 
चिन्तनपल  में स्थान दिया जाएगा ।

1 टिप्पणी:

  1. 'एक दिल से दूजे दिल तक ...
    अहसासों की खुशबू फैले,
    महके-महके, रंग-बिरंगे
    शब्दों के जामे पहने,
    हर भाव खिले नव-रूप लिए
    मुस्कानों में भीगे नयन,
    दिल से दिल की दूरी हो कम
    जब 'कविता' ऐसी चाल चले !'
    मुझे साहित्य का कोई ख़ास ज्ञान नहीं है। साहित्य एक सागर के समान है। उसमें डुबकी लगाकर , उसमें से कोई मोती चुन कर ला सके तो इससे अच्छा क्या होगा? मगर फिर भी , मेरे हिसाब से , दिल से निकली बात जितने सरल व सहज ढंग से लिखी जाए उतनी ही वो मन को भाती है ! किसी बंधन में बंध कर लिखने से वो बात अपना मूल रूप खो देती है !
    मैं पहली बार आपके ब्लॉग में आई हूँ ! मुझे जो ठीक लगा वो विचार आपके सामने रख दिया। आशा है, कुछ ग़लत लिख दिया हो तो आप क्षमा कर देंगे !:)
    ~सादर

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