क्या हिंदी की खस्ता हालत के लिए हम हिंदी के बुद्धिजीवी जिम्मेदार नहीं ?
राधा भट्ट प्रसिद्ध, गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं । उम्र के इस पड़ाव पर भी गांधीवादी मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्हें देश भर में भागते-दौड़ते देखा जा सकता है । अपनी कद-काठी में भी अपने समय की ऐसी ही हस्तियाँ अरुणा राय,मेधा पाटेकर, इला भट्ट की तर्ज़ पर । सर्व सेवा संघ द्वारा संचालित किताबों की दुकान के सिलसिले में रेल भवन में मुलाकात हुई । सर्व सेवा संघ को देश के कई शहरों के रेलवे स्टेशनों पर गाँधीवादी साहित्य को बेचने, प्रचार-प्रसार की सुविधा मिली हुई है । उसी की कुछ समस्याओं पर बात हो रही थी । राधा बहन के साथी अशोक भारती एक अधिकारी को बात समझाने की कोशिश कर रहे थे । अधिकारी की समझ में बात आ गई और उन्होंने कहा कि इन बातों को ही लिख कर दे दीजिए । बात हिन्दी में समझाई थी और समझने में भी पाँच मिनट नहीं लगे होंगे जबकि अंग्रेज़ी में उनके लिखे आवेदन को किसी भी हालत में पढ़ने समझने में आधे घंटे से कम नहीं लगता । राधा बहन के दोनों साथी भी बनारस, पटना के रहने वाले थे । मैंने पूछा ‘आपने ये बात हिन्दी में क्यों नहीं लिखी ? गांधी के मूल्यों की सबसे खरी बात तो अपनी भाषा है’ । उन्होंने ऐसे प्रश्न की अपेक्षा नहीं की थी । राधा भट्ट बोलीं मैं पूरे देश में जाती हूँ और हर जगह अपनी बात हिन्दी में ही कहती हूँ । मुझे भी आसानी होती है और उन लोगों को भी समझने में । लेकिन दिल्ली के दफ्तरों में मुझे मजबूरन अंग्रेजी में ही लिखना पड़ता है । दिल्ली वाले हिन्दी में लिखे हुए को बड़ी लापरवाही से देखते हैं । क्या वाकई ? वे चुप हो गईं । ‘क्या बताएँ आप तो जानते ही हैं दिल्ली को’ ।
जो दिल्ली में रहते हैं वे वाकई दिल्ली और खुद को खूब जानते हैं । मयूर विहार के जिस कोने में मैं रहता हूँ वहाँ एक सोसायटी का नाम समाचार अपार्टमेंट है । हाल ही में मैट्रो से उतरा तो नया-निकोर समाचार सोसायटी का बोर्ड नज़र आया । और गौर से देखा तो चारों तरफ़ चार-पाँच बोर्ड लगे हैं लेकिन सब अंग्रेज़ी में । यह किस बात का प्रतीक है ? समाचार अपने आपमें हिन्दी का शब्द है । तो क्या हिन्दी में एक बोर्ड भी लगाना, लिखना गुनाह है? खुद समाचार सोसायटी के अंदर भी यू.पी., बिहार समेत हिन्दी राज्यों के दिग्गज पत्रकार, लेखक रहते हैं । वर्षों वर्षों से उनकी रोजी-रोटी राजसी वैभव के साथ हिन्दी में ही लिखने-पढ़ने पर चल रही है । उनके लिखे दर्जनों ग्रंथों में हिन्दी को देश और विदेश में फैलाने के दस-पाँच किलो लेख तो लिखे होंगे ही । फिर अपने पैरों की ज़मीन पर हिन्दी के निशान क्यों नहीं छोड़ना चाहते ये दिग्गज ? राजभाषा नियम, अधिनियम का भी सहारा लिया जाए तब भी यह हिन्दी भाषी क्षेत्र है जहाँ हिन्दी दिल्ली राज्य की मुख्य भाषा भी है । क्या यहाँ भी हिन्दी का बोर्ड वही सरकारी हिन्दी अधिकारी लिखवाएँगे जिन्हें दफ्तरों में मोहरें और नाम पट्टिकाएँ द्विभाषी लिखवाने के लिए बड़ी-बड़ी- तनख्वाहें मिलती हैं ? और बुद्धिजीवी बिना तनख्वाह के क्यों सामने आएँ ?हालाँकि इन दिग्गज लेखक, बुद्धिजीवियों को बेचारे हिन्दी अधिकारी को कोसते हुए आप अक्सर सुन सकते हैं । क्या अंग्रेज़ी न जानने वाले को ऐसे बोर्ड से कम असुविधा होगी ? क्या दीवारों पर, बोर्ड पर लिखी अंग्रेज़ी इबारत हमारे सारे भाषणों का मज़ाक उड़ाते नहीं लगते ?
दरअसल ये दोनों स्थितियाँ हमारे पूरे लोकतंत्र की शैली, ढोंग का आईना हैं । जहाँ कहा कुछ जाता है और किया कुछ । ऐसा लगता है कि हिन्दी का बुद्धिजीवी इसी बात से गद-गद है कि वह अंग्रेज़ी में लिखी ‘समाचार सोसायटी’ में रहता है । एक और सोसायटी कला विहार की कहानी भी बहुत अलग नहीं है । जब नाम कला विहार है तो कई दिग्गज कलाकार भी वहाँ रहते हैं लेकिन वहाँ भी हर चीज़ नोटिस बोर्ड पर अंग्रेज़ी में ही लिखी-पढ़ी जाती है । आसपास की कई सोसायटी के नाम ऐसे हैं लेकिन उनसे शिकायत नहीं । शिकायत अपने बुद्धिजीवियों से ज़्यादा है जो हिन्दी के लिए ही रोते-चीखते पाए जाते हैं । क्या बुद्धिजीवी इतने दुचित्तेपन का जीवन जी सकता है ? कुछ-कुछ नेहरू के अंदाज में । सिद्धांत के तौर पर शत-प्रतिशत सेक्युलर और अंग्रेज़ी के कपड़े पहने ।
कुछ वक्त पहले दक्षिणपंथी हिन्दी की गुहार लगाते थे । अब अपनी इमेज को उदार और राष्ट्रीय दिखाने के चक्कर में उन्होंने भी हिन्दी की बात करना छोड़ दिया है । कुछ वामपंथियों के लिए हिन्दी ‘प्रोगेसिव शब्द’ का विपरीतार्थ है यानी पिछड़ापन । ये सब बातें उस क्षरण की परतें हैं जिसने अपनी भाषा और उसके जरिए पूरे समाज का सबसे ज़्यादा नुकसान किया है । राजनेताओं को दोष देने से ही काम नहीं चलने वाला । पहली बात राजनेता आपके ही समाज से आए हैं और दूसरी- भाषा और साहित्य के मुखिया तो आप हैं । आपके जीवन से क्यों गायब है अपनी भाषा कॉमरेड ? क्या अवधी,भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने से अपना राज आ जाएगा ? यदि नहीं तो क्यों दिल्ली में संख्याबल पर सत्ता को गुमराह कर रहे हो ? हाँ,हिन्दी, भोजपुरी भले न आए उसके नाम पर भवन, अकादमियाँ, अध्यक्ष, सचिव और सेमिनार में ज़रूर दिखेंगे । सत्ता द्वारा पोषित, पल्लवित ।
भारत सरकार और उसके अधीनस्थ कार्यालयों में भाषा को बढ़ाने के नाम पर कम-से-कम सौ पत्रिकाएँ तो निकलती ही होंगी । जिस भी पत्रिका को खोलिए उसके चमकीले, चिकने पृष्ठों पर फोटो के साथ ऐसे विवरण पाएँगे ‘सर्वोत्कृष्ठ राजभाषा कार्यान्वयन के लिए पुरस्कृत’ आदि-आदि । इन पुरस्कृतों में से भी कुछ समाचार में ज़रूर रहते होंगे और उनमें से भी कुछ तो मैथिली, भोजपुरी की अकादमी दिल्ली में खुलवा ही चुके हैं और अब उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में डलवाने के लिए भी प्रयासरत हैं ।
आप दिल्ली में दस बारह वर्ष से कम के किसी भी बच्चे से बात कर लीजिए विशेषकर जो थोड़ा खाते-पीते घर का हो । शत-प्रतिशत उसका स्कूल प्राइवेट होगा । हिन्दी की किताब पढ़ने-पढ़ाने के नाम से ही या तो वह चौकन्ना हो उठेगा या उदासीन नज़रों से देखने लगता है । ऐसारातों-रात नहीं हुआ । यह क्षरण भी पिछले बीस-तीस वर्षों में और ज़्यादा हुआ है । यही दौर है कि जब दिल्ली के किसी भी अखबार बेचने वाले कोने पर हिन्दी से दस गुनी पत्रिकाएँ अंग्रेज़ी की मिलेंगी । यहाँ हिन्दी की किताब तो शायद ही कोई मिले । क्नॉट प्लेस समेत साउथ दिल्ली,हर जगह अंग्रेज़ी की सैंकड़ों किताबें एक साथ इनके यहाँ देखी जा सकती हैं ।
स्कूलों की हालत यह है कि छुट्टियों में एक बच्चे ने बताया कि उसे कहा गया है कि गर्मियों में चेतन भगत की अंग्रेज़ी की किताब पढ़ें । जब कोई प्रेमचंद, प्रसाद या अज्ञेय का नाम भी नहीं लेगा न स्कूलों में, न घर पर तो बच्चे हिन्दी पढ़ेंगे कहाँ से ? और यदि पढ़ना भी चाहें तो क्या उन्हें हमारे चालीस साल पहले बचपन के दिनों में हर जगह सस्ती और सुन्दर किताबें, पत्रिकाएँ पर्याप्त रूप से पढ़ने को मिलेंगी ? याद आ रही है हिंद पॉकेट बुक्स से निकली मन्मथ नाथ गुप्त की ‘भारत के क्रांतिकारी’ । वर्ष 1965 से1970 स्कूल के उन दिनों में न जाने कितनी बार पढ़ी होगी जतिन दास,अशफाकउल्ला की जीवनियाँ । हिंद पॉकेट बुक्स ने ऐसी सैंकड़ों किताबों को जन-जन तक पहुँचाया और सही मायनों में हिन्दी का अकेला प्रकाशन जिसने मिशनरी ढंग से यह काम किया । मेरे जैसे जाने कितने पाठकों ने पुस्तकों से लगाव का पहला पाठ सीखा । धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी पत्रिकाओं की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी । आज़ादी के बाद हिन्दी का इसे स्वर्णकाल कहा जा सकता है । जब ये पत्रिकाएँ भी लाखों में छपती थीं और हिंद पॉकेट बुक्स की किताबें भी । गुलशन नंदा का जिक्र यहाँ ज़रूरी लगता है । कम-से-कम किताबों को पढ़ने के लिए लाखों पाठक तो सामने आए और इन्हीं पाठकों ने हिन्दी को आगे बढ़ाया ।
इतिहास में दर्ज़ रहेगा कि क्यों हिन्दी सत्तर-अस्सी के दशक में हिंद पॉकट जैसे सर्व सुलभ सस्ती पुस्तकों के बूते इतनी ऊँचाइयों पर पहुँची और क्यों पिछले तीस सालों में ऐसे प्रकाशकों की बाढ़ आई जो केवल सरकारी खरीद के भरोसे ही ज़िंदा हैं । पाठक तक किताब पहुँचाना उनकी अंतिम प्राथमिकता है । बढ़ती कीमतें ,धंधेबाज प्रकाशकों, लेखकों के अपने-अपने गिरोह और पुस्तक खरीद में बेईमानी के इस दुष्चक्र ने इतनी समृद्ध भाषा और उसके साहित्य को जनता से इतना दूर कर दिया । क्या इसमें सारा दोष अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी जानने वालों का ही है ?अपनी भाषा पर ज़िंदा हिन्दी के हर शख्स को इस लड़ाई में अपनी भूमिका निभानी होगी ।
प्रेमपाल शर्मा
96, कला विहार अपार्टमेन्ट्स,मयूर विहार, फेज़-1 एक्सटेंशन, दिल्ली-91
( प्रवासी दुनिया से साभार )
२२ जुलाई २०१३ को प़काशित )
पहले जनसत्ता में प़काशित ।
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल { बुधवार}{21/08/2013} को
जवाब देंहटाएंचाहत ही चाहत हो चारों ओर हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः3 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर .... Darshan jangra
hindiblogsamuh.blogspot.com
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आपके आलेख से सहमत हूँ ! कहीं ना कहीं हिंदी के क्षरण के लिए हमारी मानसिकता भी जिम्मेदार है !!
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