भाषा और समाज
दोहराने की जरूरत नहीं कि भारतीय समाज की स्थिति और शासन व्यवस्था में अपनी भाषाओं के इस्तेमाल का प्रश्न निरंतर जटिलता की तरफ बढ़ रहा है । ऐसी उम्मीद किसी को भी नहीं थी कि 66 वर्ष के बाद भी इस मुद्दे पर ऐसी रस्साकसी चलती रहेगी । रस्साकसी का ताजा उदाहरण वर्ष 2013 के शुरू में प्रशासनिक सेवाओं के लिए संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा में अपनी भाषाओं को परीक्षा के माध्यम से हटाने का रहा था । इसे भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था का निम्नतम बिन्दु भी कह सकते हैं जब कोठारी समिति और भारत सरकार द्वारा स्वीकृत तीन साल से चले आ रहे प्रयोग को उलटा करने की कोशिश की गई । यहां ‘क्यों’ के विस्तार में जाने की जरूरत नहीं । लेकिन सुखद पक्ष यह है कि अंग्रेजी को प्राथमिकता देने और अपनी भाषाओं को हटाने के विरोध में उत्तर से दक्षिण तक बुद्धिजीवी और राजनेता एक साथ खड़े थे । संसद में बहस हुई और सिविल सेवाओं में भारतीय भाषाओं का माध्यम बने रहने का पूर्ववत फैसला रहने दिया ।
सारा देश जानता है कि डॉ. दौलत सिंह कोठारी एक जाने-माने वैज्ञानिक, शिक्षाविद और नीति नियंता थे । वे देश की शिक्षा व्यवस्था और प्रशासन को बखूबी समझते थे । उनका मानना था कि जिन नौकरशाहों को इस देश की भाषाएं नहीं आती उन्हें भारत सरकार में शामिल होने का कोई हक नहीं है । उससे और एक कदम आगे उन्होंने यह भी कहा था कि केवल भाषा ही नहीं सरकारी नौकरशाहों को भारतीय साहित्य का भी ज्ञान होना चाहिए क्योंकि साहित्य ही समाज को समझने की दृष्टि देता है । उनकी सिफारिशों के अनुसार वर्ष 1979 से सभी प्रशासनिक सेवाओं में पहली बार अपनी भाषाओं में लिखने की छूट मिली और अंजाम अभूतपूर्व रहा । परीक्षा में बैठने वालों की संख्या एक साथ दस गुना से ज्यादा हुई और पिछले तीस वर्षों के अनुभव बताते हैं कि कैसे गरीब आदिवासी, अनुसूचित जाति की पहली पीढ़ी के बच्चे प्रशासनिक सेवाओं में चुने गए । कभी पटना के रिक्शा चालक का लड़का तो कभी बाराबंकी के मोची का लड़का । हमारे संविधान में समानता के इसी आदर्श तक पहुंचने की कल्पना की जरूरत थी । हालांकि अभी भी वन सेवा, भारतीय चिकित्सा सेवा, इंजीनियरिंग सेवा में अपनी भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने की छूट देना अभी बाकी है ।
यह तो हुई सफलता की कहानी लेकिन असफलता की कहानी इससे हजार गुना ज्यादा है । हाल ही में एक दिन संसद जाना हुआ । रजिस्टर में नाम लिखना था । पूरे रजिस्टर में शायद ही किसी ने अपना नाम हिन्दी में लिखा हो । क्या संसद में आने वाले सभी लोग अंग्रेजी भाषी ही होते हैं ? हरगिज नहीं । मैं जहां रहता हूं उसके गेट पर भी जो रजिस्टर रखा होता है उसमें भी सभी अंग्रेजी में ही हस्ताक्षर करते हैं । उसी दिन का दूसरा अलग अनुभव । प्रश्न काल से पहले विशेष उल्लेख के अंतर्गत दस माननीय संसद सदस्य बोले जिनमें आठ अपनी भाषा हिन्दी में बोले शेष दो अंग्रेजी में । यानि कि जब सहज ढंग से जनता तक अपनी बात पहुंचानी होती है तो सभी हिन्दी का सहारा लेते हैं । जब भी किसी समस्या पर पूरे देश को संबोधित करना होता है बुद्धिजीवी से लेकर राजनेता की पहली प्राथमिकता हिन्दी ही होती है । हम सभी के समाने ऐसे सैंकड़ों अनुभव हैं । भारतीय हिन्दी फिल्मों की लोकप्रियता से लेकर कौन बनेगा । करोड़पति तक जो हर पल हिन्दी की ताकत का अहसास कराते हैं ।
लेकिन सरकार के कार्यालय में प्रवेश करते ही अंग्रेजी क्यों शुरू हो जाती है ? भारत सरकार की अनंत कहानियां हैं । आप किसी भी कार्यालय में जाइए मुश्किल से ही किसी फाइल पर नोटिंग या पत्राचार हिन्दी में मिलेगा । आखिर ये दुचित्तापन क्यों ? जब हम सहज होते हैं, मनोरंजन की दुनिया में होते हैं, गाने सुनते हैं, फिल्में देखते हैं, बाजार में सब्जी खरीदते हैं या दूसरी गपशप तो हिन्दी में होती है लेकिन जैसे ही सरकारी संस्थानों में प्रवेश होता है तो हमारे हाथ काँपने लगते हैं । यहां यह बात इसलिए विशेष रूप से कहनी पड़ रही है कि कई बार सरकारी कर्मचारी या दूसरे आलोचक इस बात का रोना रोने लगते हैं कि हिन्दी में कंप्यूटर पर काम नहीं हो सकता । टाइपिंग में दिक्कत होती है आदि-आदि । दशकों से वे यह भी कहते आ रहे हैं कि हिन्दी में अच्छे शब्द नहीं हैं, शब्दकोश नहीं है , पुस्तकें नहीं हैं । इसमें आंशिक सच्चाई हो सकती है लेकिन बड़ा सच तो यह है कि आपमें अपनी भाषा में काम करने का आत्मविश्वास नहीं है । अंग्रेजी लिखने में आप एक बनावटी दंभ महसूस करते हैं क्योंकि गुलाम मानसिकता इतनी जल्दी समाप्त नहीं होती ।
क्या जब आप अपनी कलम से किसी रजिस्टर में नाम लिखते हैं तो किस कंप्यूटर की जरूरत होती है ? और किस शब्दकोश या तकनीक की ? आपके पैन से निकली स्याही क्यों अंग्रेजी की तरफ ही बढ़ती है ? स्पष्ट है कि आप या तो अंग्रेजी के आतंक में हैं या अपने को कुछ हर समय साबित करने के लिए ऐसा कौतुकी व्यवहार करते हैं । संदेश साफ है कि तकनीक और शब्दकोशों से ज्यादा जरूरत हमें अपनी इच्छाशक्ति की है ।
इस इच्छाशक्ति के अभाव में सभी स्तरों पर देश का नुक्सान हो रहा है । स्कूल, कॉलेजों में शिक्षा के बजाए अंग्रेजी के रटंत पर जोर है और उसी अनुपात में बच्चे किसी मौलिक शोध या अनुसंधान से दूर हो रहे हैं । याद कीजिए वर्ष 1974 में जब डॉ. कोठारी अपनी रिपोर्ट लिख रहे थे तो उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र में लगभग बीस प्रतिशत विद्यार्थी हिन्दी माध्यम से पढ़ते थे । आज चालीस वर्षों के बाद स्थिति इतनी बदल गई है कि शायद ही स्नातकोत्तर में अपनी भाषाओं में पढ़ाई-लिखाई या उत्तर देने की सुविधा बची है । दिल्ली के गांवों के बीच स्थित कॉलेजों तक में हिन्दी माध्यम की सुविधाएं कम से कम होती जा रही हैं यह हाल तो तब है जब दिल्ली में उत्तर प्रदेश, बिहार से पढ़ने वाले लगभग पचास प्रतिशत तक छात्र हैं । उन्होंने कई बार अपनी भाषाओं में पढ़ाने के लिए आवाज ऊंची की तो उन्हें कहा गया कि हिन्दी माध्यम में पढ़ना हो तो पटना, इलाहाबाद, बनारस जाइए । क्या यह सब संविधान और नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुरूप है जहां बच्चों को अपने ही देश की भाषा में शिक्षा से वंचित किया जा रहा हो ? अफसोस इस बात पर है कि 1947 में आजादी के वक्त अपनी भाषाओं में शिक्षा देने का प्रतिशत आज से बेहतर था ।
एक और पक्ष पर विचार करते हैं और वह यह है कि क्या अंग्रेजी में शिक्षा देने से शिक्षा बेहतर हुई है ? शिक्षा और शिक्षा संस्थान बेहतर हुए हैं ? यहां भी हमें निराशा हाथ लगती है । जहां न अस्सी के दशकों में भारत के आई.आई.टी. और दूसरे संस्थानों की गिनती दुनिया के संस्थानों में होती थी वर्ष 2012 में हुए सर्वेक्षण में दुनिया के शीर्ष दो सौ संस्थानों और विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी नहीं था । यानी कि पिछले बीस वर्षों में जैसे-जैसे अंग्रेजी बढ़ती गई शिक्षा की गुणवत्ता, शोध, स्तर में गिरावट आ रही है । इसका सीधा-सीधा निष्कर्ष अंग्रेजी से न जु़ड़ा हो लेकिन शिक्षा में भाषा सबसे महत्वपूर्ण तो होती ही है ।
दिल्ली के समाज ने देश के सामने कई गलत उदाहरण रखे हैं । बी.बी.सी. के प्रसिद्ध संवाददाता मार्क टली ने कुछ वर्ष पहले कहा था कि खान मार्किट के आस-पास कोई भी हिन्दी की किताब मुश्किल से मिलती है । हम सभी जानते हैं कि सिर्फ खान मार्किट ही नहीं दिल्ली में शायद ही कोई कोना हो जहां हिन्दी की किताबें आसानी से मिलती हों । यहां तक कि अखबार बेचने वालों के पास जिन किताबों और पत्रिकाओं का ढेर होता है उसमें अस्सी प्रतिशत अंग्रेजी की होती हैं जिसे देखकर लगता है कि आप भारत में न होकर ऑक्सफोर्ड या न्यूयार्क के किसी बाजार में हों । समाज की यह स्थिति उन नीतियों के कारण हैं जहां नौकरी और दूसरे व्यवसाय में अंग्रेजी को प्राथमिकता दी जाती है और हिन्दी वालों या सभी भारतीय भाषाओं को दोयम दर्जे का माना जाता है । जब चौकीदार की नौकरी के लिए भी आप अंग्रेजी जानना अनिवार्य मानते हों तो समाज तो उधर ही चलेगा जहां उसे रोजी-रोटी मिल सके ।
अपनी भाषा को बढ़ाने के लिए सरकारी प्रयासों की एक लम्बी कहानी है । राजभाषा विभाग बनाए गए । केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय बना, शब्दावली आयोग, केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो की स्थापना के साथ-साथ कर्मचारियों के प्रशिक्षण के प्रयास आदि । संसदीय राजभाषा समिति भी भाषा को बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील है । बावजूद इस सबके अनुवाद की भाषा ऐसी होती जा रही है जिसे सरकारी कार्यालयों में शायद ही कोई पढ़ता हो । अंग्रेजी के साथ हिन्दी का अनुवाद तो जरूर लगा होता है लेकिन न उसे कोई पढ़ता है और न वह अक्सर समझ में आता है । ऐसे-ऐसे शब्द कि आप डर जाएंगे । क्या कोई बता सकता है कि हैतुक दर्शित का अर्थ या उपसंजात जैसे शब्द का अर्थ । आइये जिस हिन्दी अनुवादक या अधिकारी ने इन शब्दों का प्रयोग किया है जरा उसके समाज शास्त्र पर विचार करते हैं । उसके साथ सामने अंग्रेजी की सामग्री आई और अर्थ के लिए उसने शब्दकोश खोला । एक यांत्रिक ढंग से । काश ! उसके पास हिन्दी भाषा में बोल-चाल के शब्दों का भंडार होता और विषय का भी ज्ञान होता । उनके साथ पिछले दिनों की लगातार बातचीत से लगता है कि हिन्दी के इन अधिकारियों-कर्मचारियों ने वर्षों से कोई साहित्य नहीं पढ़ा । न वे मंटों का नाम जानते, न दूसरे साहित्यकारों का । शायद वे भी अपनी अंग्रेजी ठीक करने में ज्यादा लगे हैं बजाए हिन्दी की चिंता के । साहित्य का अध्ययन उनका जारी रहता तो उनके पास शब्द संपदा भी होती और बिना शब्दकोश के भी वे अनुवाद बेहतर कर पाते । हाल ही में एक अनुभव हुआ । रेल की यात्रा के दौरान मेरे हाथ में उर्दू के प्रसिद्ध साहित्यकार मंटो की कहानियां थीं । रेल यात्रा में बराबर की सीट पर छठी कक्षा में पढ़ने वाला एक बच्चा बैठा था । टोबा टेक सिंह कहानी उसने भी पढ़नी चाही और देखते ही देखते उसकी आँखों की चमक बढ़ती गई । हर थोड़ी देर बाद वह नए शब्दों का अर्थ पूछता । अंकल तैश माने क्या होता है, झेंप का क्या अर्थ होता है । शायद कोई बीसियों शब्द उसके अवचेतन में इस कहानी को पढ़ते-पढ़ते उसके दिमाग में समा गए होंगे । भाषा ऐसे ही रास्तों से सीखी जाती है और इतनी ही सहजता से साहित्य, नई किताबें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । पिछले दिनों हिन्दी को बढ़ाने में सूचना तकनीक पर तो ध्यान दिया जा रहा है साहित्य के पठन-पाठन पर उतना ही कम । इसलिए भाषा प्रयोग की जड़ें भी सूखती जा रही हैं ।
लेकिन इन सबके बावजूद हमें निराश होने की जरूरत नहीं है बस सचेत और सजग रहना है । गांधी, लोहिया, कोठारी के सतत प्रयासों से भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में अपनी भाषाएं आईं और पिछले दिनों जब इसे बदलना चाहा तो समाज की सजगता ने ऐसा नहीं होने दिया । अभी एक और फैसला सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बैंच के सामने लंबित है और वह फैसला है मातृभाषाओं में पढ़ाने का । दुनिया भर के शिक्षाविद यह मानते हैं कि प्रारम्भिक शिक्षा अपनी भाषा में ही होनी चाहिए । रचनात्मकता के लिए भी यह उतनी ही महत्वपूर्ण है और उतना ही महत्वपूर्ण है अपनी सांस्कृतिक पहचान और विरासत को बचाने के लिए । इसलिए सरकार से कई गुना जिम्मेदारी समाज की है कि वह अपनी भाषाओं को बचाने के लिए सामने आए ।
-- प़ेम पाल शर्मा
96, कला विहार अपार्टमेन्टस,मयूर विहार,फेज-1 एक्सटेंशन, दिल्ली-91
टेलीफोन नं- 22744596 (घर)
दोहराने की जरूरत नहीं कि भारतीय समाज की स्थिति और शासन व्यवस्था में अपनी भाषाओं के इस्तेमाल का प्रश्न निरंतर जटिलता की तरफ बढ़ रहा है । ऐसी उम्मीद किसी को भी नहीं थी कि 66 वर्ष के बाद भी इस मुद्दे पर ऐसी रस्साकसी चलती रहेगी । रस्साकसी का ताजा उदाहरण वर्ष 2013 के शुरू में प्रशासनिक सेवाओं के लिए संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा में अपनी भाषाओं को परीक्षा के माध्यम से हटाने का रहा था । इसे भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था का निम्नतम बिन्दु भी कह सकते हैं जब कोठारी समिति और भारत सरकार द्वारा स्वीकृत तीन साल से चले आ रहे प्रयोग को उलटा करने की कोशिश की गई । यहां ‘क्यों’ के विस्तार में जाने की जरूरत नहीं । लेकिन सुखद पक्ष यह है कि अंग्रेजी को प्राथमिकता देने और अपनी भाषाओं को हटाने के विरोध में उत्तर से दक्षिण तक बुद्धिजीवी और राजनेता एक साथ खड़े थे । संसद में बहस हुई और सिविल सेवाओं में भारतीय भाषाओं का माध्यम बने रहने का पूर्ववत फैसला रहने दिया ।
सारा देश जानता है कि डॉ. दौलत सिंह कोठारी एक जाने-माने वैज्ञानिक, शिक्षाविद और नीति नियंता थे । वे देश की शिक्षा व्यवस्था और प्रशासन को बखूबी समझते थे । उनका मानना था कि जिन नौकरशाहों को इस देश की भाषाएं नहीं आती उन्हें भारत सरकार में शामिल होने का कोई हक नहीं है । उससे और एक कदम आगे उन्होंने यह भी कहा था कि केवल भाषा ही नहीं सरकारी नौकरशाहों को भारतीय साहित्य का भी ज्ञान होना चाहिए क्योंकि साहित्य ही समाज को समझने की दृष्टि देता है । उनकी सिफारिशों के अनुसार वर्ष 1979 से सभी प्रशासनिक सेवाओं में पहली बार अपनी भाषाओं में लिखने की छूट मिली और अंजाम अभूतपूर्व रहा । परीक्षा में बैठने वालों की संख्या एक साथ दस गुना से ज्यादा हुई और पिछले तीस वर्षों के अनुभव बताते हैं कि कैसे गरीब आदिवासी, अनुसूचित जाति की पहली पीढ़ी के बच्चे प्रशासनिक सेवाओं में चुने गए । कभी पटना के रिक्शा चालक का लड़का तो कभी बाराबंकी के मोची का लड़का । हमारे संविधान में समानता के इसी आदर्श तक पहुंचने की कल्पना की जरूरत थी । हालांकि अभी भी वन सेवा, भारतीय चिकित्सा सेवा, इंजीनियरिंग सेवा में अपनी भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने की छूट देना अभी बाकी है ।
यह तो हुई सफलता की कहानी लेकिन असफलता की कहानी इससे हजार गुना ज्यादा है । हाल ही में एक दिन संसद जाना हुआ । रजिस्टर में नाम लिखना था । पूरे रजिस्टर में शायद ही किसी ने अपना नाम हिन्दी में लिखा हो । क्या संसद में आने वाले सभी लोग अंग्रेजी भाषी ही होते हैं ? हरगिज नहीं । मैं जहां रहता हूं उसके गेट पर भी जो रजिस्टर रखा होता है उसमें भी सभी अंग्रेजी में ही हस्ताक्षर करते हैं । उसी दिन का दूसरा अलग अनुभव । प्रश्न काल से पहले विशेष उल्लेख के अंतर्गत दस माननीय संसद सदस्य बोले जिनमें आठ अपनी भाषा हिन्दी में बोले शेष दो अंग्रेजी में । यानि कि जब सहज ढंग से जनता तक अपनी बात पहुंचानी होती है तो सभी हिन्दी का सहारा लेते हैं । जब भी किसी समस्या पर पूरे देश को संबोधित करना होता है बुद्धिजीवी से लेकर राजनेता की पहली प्राथमिकता हिन्दी ही होती है । हम सभी के समाने ऐसे सैंकड़ों अनुभव हैं । भारतीय हिन्दी फिल्मों की लोकप्रियता से लेकर कौन बनेगा । करोड़पति तक जो हर पल हिन्दी की ताकत का अहसास कराते हैं ।
लेकिन सरकार के कार्यालय में प्रवेश करते ही अंग्रेजी क्यों शुरू हो जाती है ? भारत सरकार की अनंत कहानियां हैं । आप किसी भी कार्यालय में जाइए मुश्किल से ही किसी फाइल पर नोटिंग या पत्राचार हिन्दी में मिलेगा । आखिर ये दुचित्तापन क्यों ? जब हम सहज होते हैं, मनोरंजन की दुनिया में होते हैं, गाने सुनते हैं, फिल्में देखते हैं, बाजार में सब्जी खरीदते हैं या दूसरी गपशप तो हिन्दी में होती है लेकिन जैसे ही सरकारी संस्थानों में प्रवेश होता है तो हमारे हाथ काँपने लगते हैं । यहां यह बात इसलिए विशेष रूप से कहनी पड़ रही है कि कई बार सरकारी कर्मचारी या दूसरे आलोचक इस बात का रोना रोने लगते हैं कि हिन्दी में कंप्यूटर पर काम नहीं हो सकता । टाइपिंग में दिक्कत होती है आदि-आदि । दशकों से वे यह भी कहते आ रहे हैं कि हिन्दी में अच्छे शब्द नहीं हैं, शब्दकोश नहीं है , पुस्तकें नहीं हैं । इसमें आंशिक सच्चाई हो सकती है लेकिन बड़ा सच तो यह है कि आपमें अपनी भाषा में काम करने का आत्मविश्वास नहीं है । अंग्रेजी लिखने में आप एक बनावटी दंभ महसूस करते हैं क्योंकि गुलाम मानसिकता इतनी जल्दी समाप्त नहीं होती ।
क्या जब आप अपनी कलम से किसी रजिस्टर में नाम लिखते हैं तो किस कंप्यूटर की जरूरत होती है ? और किस शब्दकोश या तकनीक की ? आपके पैन से निकली स्याही क्यों अंग्रेजी की तरफ ही बढ़ती है ? स्पष्ट है कि आप या तो अंग्रेजी के आतंक में हैं या अपने को कुछ हर समय साबित करने के लिए ऐसा कौतुकी व्यवहार करते हैं । संदेश साफ है कि तकनीक और शब्दकोशों से ज्यादा जरूरत हमें अपनी इच्छाशक्ति की है ।
इस इच्छाशक्ति के अभाव में सभी स्तरों पर देश का नुक्सान हो रहा है । स्कूल, कॉलेजों में शिक्षा के बजाए अंग्रेजी के रटंत पर जोर है और उसी अनुपात में बच्चे किसी मौलिक शोध या अनुसंधान से दूर हो रहे हैं । याद कीजिए वर्ष 1974 में जब डॉ. कोठारी अपनी रिपोर्ट लिख रहे थे तो उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र में लगभग बीस प्रतिशत विद्यार्थी हिन्दी माध्यम से पढ़ते थे । आज चालीस वर्षों के बाद स्थिति इतनी बदल गई है कि शायद ही स्नातकोत्तर में अपनी भाषाओं में पढ़ाई-लिखाई या उत्तर देने की सुविधा बची है । दिल्ली के गांवों के बीच स्थित कॉलेजों तक में हिन्दी माध्यम की सुविधाएं कम से कम होती जा रही हैं यह हाल तो तब है जब दिल्ली में उत्तर प्रदेश, बिहार से पढ़ने वाले लगभग पचास प्रतिशत तक छात्र हैं । उन्होंने कई बार अपनी भाषाओं में पढ़ाने के लिए आवाज ऊंची की तो उन्हें कहा गया कि हिन्दी माध्यम में पढ़ना हो तो पटना, इलाहाबाद, बनारस जाइए । क्या यह सब संविधान और नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुरूप है जहां बच्चों को अपने ही देश की भाषा में शिक्षा से वंचित किया जा रहा हो ? अफसोस इस बात पर है कि 1947 में आजादी के वक्त अपनी भाषाओं में शिक्षा देने का प्रतिशत आज से बेहतर था ।
एक और पक्ष पर विचार करते हैं और वह यह है कि क्या अंग्रेजी में शिक्षा देने से शिक्षा बेहतर हुई है ? शिक्षा और शिक्षा संस्थान बेहतर हुए हैं ? यहां भी हमें निराशा हाथ लगती है । जहां न अस्सी के दशकों में भारत के आई.आई.टी. और दूसरे संस्थानों की गिनती दुनिया के संस्थानों में होती थी वर्ष 2012 में हुए सर्वेक्षण में दुनिया के शीर्ष दो सौ संस्थानों और विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी नहीं था । यानी कि पिछले बीस वर्षों में जैसे-जैसे अंग्रेजी बढ़ती गई शिक्षा की गुणवत्ता, शोध, स्तर में गिरावट आ रही है । इसका सीधा-सीधा निष्कर्ष अंग्रेजी से न जु़ड़ा हो लेकिन शिक्षा में भाषा सबसे महत्वपूर्ण तो होती ही है ।
दिल्ली के समाज ने देश के सामने कई गलत उदाहरण रखे हैं । बी.बी.सी. के प्रसिद्ध संवाददाता मार्क टली ने कुछ वर्ष पहले कहा था कि खान मार्किट के आस-पास कोई भी हिन्दी की किताब मुश्किल से मिलती है । हम सभी जानते हैं कि सिर्फ खान मार्किट ही नहीं दिल्ली में शायद ही कोई कोना हो जहां हिन्दी की किताबें आसानी से मिलती हों । यहां तक कि अखबार बेचने वालों के पास जिन किताबों और पत्रिकाओं का ढेर होता है उसमें अस्सी प्रतिशत अंग्रेजी की होती हैं जिसे देखकर लगता है कि आप भारत में न होकर ऑक्सफोर्ड या न्यूयार्क के किसी बाजार में हों । समाज की यह स्थिति उन नीतियों के कारण हैं जहां नौकरी और दूसरे व्यवसाय में अंग्रेजी को प्राथमिकता दी जाती है और हिन्दी वालों या सभी भारतीय भाषाओं को दोयम दर्जे का माना जाता है । जब चौकीदार की नौकरी के लिए भी आप अंग्रेजी जानना अनिवार्य मानते हों तो समाज तो उधर ही चलेगा जहां उसे रोजी-रोटी मिल सके ।
अपनी भाषा को बढ़ाने के लिए सरकारी प्रयासों की एक लम्बी कहानी है । राजभाषा विभाग बनाए गए । केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय बना, शब्दावली आयोग, केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो की स्थापना के साथ-साथ कर्मचारियों के प्रशिक्षण के प्रयास आदि । संसदीय राजभाषा समिति भी भाषा को बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयत्नशील है । बावजूद इस सबके अनुवाद की भाषा ऐसी होती जा रही है जिसे सरकारी कार्यालयों में शायद ही कोई पढ़ता हो । अंग्रेजी के साथ हिन्दी का अनुवाद तो जरूर लगा होता है लेकिन न उसे कोई पढ़ता है और न वह अक्सर समझ में आता है । ऐसे-ऐसे शब्द कि आप डर जाएंगे । क्या कोई बता सकता है कि हैतुक दर्शित का अर्थ या उपसंजात जैसे शब्द का अर्थ । आइये जिस हिन्दी अनुवादक या अधिकारी ने इन शब्दों का प्रयोग किया है जरा उसके समाज शास्त्र पर विचार करते हैं । उसके साथ सामने अंग्रेजी की सामग्री आई और अर्थ के लिए उसने शब्दकोश खोला । एक यांत्रिक ढंग से । काश ! उसके पास हिन्दी भाषा में बोल-चाल के शब्दों का भंडार होता और विषय का भी ज्ञान होता । उनके साथ पिछले दिनों की लगातार बातचीत से लगता है कि हिन्दी के इन अधिकारियों-कर्मचारियों ने वर्षों से कोई साहित्य नहीं पढ़ा । न वे मंटों का नाम जानते, न दूसरे साहित्यकारों का । शायद वे भी अपनी अंग्रेजी ठीक करने में ज्यादा लगे हैं बजाए हिन्दी की चिंता के । साहित्य का अध्ययन उनका जारी रहता तो उनके पास शब्द संपदा भी होती और बिना शब्दकोश के भी वे अनुवाद बेहतर कर पाते । हाल ही में एक अनुभव हुआ । रेल की यात्रा के दौरान मेरे हाथ में उर्दू के प्रसिद्ध साहित्यकार मंटो की कहानियां थीं । रेल यात्रा में बराबर की सीट पर छठी कक्षा में पढ़ने वाला एक बच्चा बैठा था । टोबा टेक सिंह कहानी उसने भी पढ़नी चाही और देखते ही देखते उसकी आँखों की चमक बढ़ती गई । हर थोड़ी देर बाद वह नए शब्दों का अर्थ पूछता । अंकल तैश माने क्या होता है, झेंप का क्या अर्थ होता है । शायद कोई बीसियों शब्द उसके अवचेतन में इस कहानी को पढ़ते-पढ़ते उसके दिमाग में समा गए होंगे । भाषा ऐसे ही रास्तों से सीखी जाती है और इतनी ही सहजता से साहित्य, नई किताबें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । पिछले दिनों हिन्दी को बढ़ाने में सूचना तकनीक पर तो ध्यान दिया जा रहा है साहित्य के पठन-पाठन पर उतना ही कम । इसलिए भाषा प्रयोग की जड़ें भी सूखती जा रही हैं ।
लेकिन इन सबके बावजूद हमें निराश होने की जरूरत नहीं है बस सचेत और सजग रहना है । गांधी, लोहिया, कोठारी के सतत प्रयासों से भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में अपनी भाषाएं आईं और पिछले दिनों जब इसे बदलना चाहा तो समाज की सजगता ने ऐसा नहीं होने दिया । अभी एक और फैसला सुप्रीम कोर्ट की बड़ी बैंच के सामने लंबित है और वह फैसला है मातृभाषाओं में पढ़ाने का । दुनिया भर के शिक्षाविद यह मानते हैं कि प्रारम्भिक शिक्षा अपनी भाषा में ही होनी चाहिए । रचनात्मकता के लिए भी यह उतनी ही महत्वपूर्ण है और उतना ही महत्वपूर्ण है अपनी सांस्कृतिक पहचान और विरासत को बचाने के लिए । इसलिए सरकार से कई गुना जिम्मेदारी समाज की है कि वह अपनी भाषाओं को बचाने के लिए सामने आए ।
-- प़ेम पाल शर्मा
96, कला विहार अपार्टमेन्टस,मयूर विहार,फेज-1 एक्सटेंशन, दिल्ली-91
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