हिन्दी और बलराज साहनी
कभी मेरा नाम भी हिंदी लेखकों में गिना जाता था. मेरी कहानियाँ अपने समय की प्रमुख हिंदी पत्रिकाओं - विशाल भारत, हंस आदि - में नियमित रूप से प्रकाशित हुआ करती थीं. बच्चन, अज्ञेय, अमृतलाल नागर, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, उपेन्द्रनाथ अश्क - सब मेरे समकालीन लेखक प्रिय मित्र हैं.
मेरी शुरू की जवानी का समय था वह - बहुत ही प्यारा, बहुत ही हसीन मैंने कुछ समय शान्तिनिकेतन में गाँधीजी के चरणों में बिताया. मेरा जीवन बहुत समृद्ध बना. शान्तिनिकेतन में मैं हिंदी विभाग में काम करता था. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी मेरे अध्यक्ष थे. उनकी छत्रछाया में हिंदी के साथ मेरा सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन गहरा होता गया. सन 1939 के अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन में वे मुझे भी अपने संग प्रतिनिधि बनाकर बनारस ले गए थे और वहाँ मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बनारसीदास चतुर्वेदी, निराला और साहित्य के अन्य कितने ही महारथियों से मिलने और उनके विचार सुनने का मुझे गौरव प्राप्त हुआ.
यद्यपि आज मैं हिंदी में नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा पंजाबी में लिखता हूँ, फिर भी आप लोगों से खुद को अलग नहीं समझता. आज भी मैं हिंदी फिल्मों में कम करता हूँ, हिंदी-उर्दू रंगमंच से भी मेरा अटूट सम्बन्ध रहा है. ये चीजें, अगर साहित्य का हिस्सा नहीं तो उसकी निकटवर्ती जरूर हैं.
हिंदी हमारे देश की एक विशेष और महत्वपूर्ण भाषा है. इसके साथ हमारी राष्ट्रीय और भावनात्मक एकता का सवाल जुदा हुआ है. और इस दिशा में, अपनी अनेक बुराइयों के बावजूद हिंदी फ़िल्में अच्छा रोल अदा कर रही हैं.
लेकिन इस असलियत की ओर से भी आँखें बंद नहीं की जा सकतीं कि हिंदी, कई दृष्टियों से, अपने क्षेत्र में और उससे बहार भी, कई प्रकार से सांप्रदायिक और प्रांतीय बैर-विरोध और झगड़े-झमेलों का कारण बनी हुई है. कई बार तो डर लगने लगता है कि कहीं एकता के लिए रास्ते साफ करने के बजाय वह उन रास्तों पर कांटे तो नहीं बिछा रही, उन शक्तियों की सहायता तो नहीं कर रही, जो हमें उन्नति और विकास के बजाय अधोगति और विनाश की ओर ले जाना चाहती हैं, जो हमारे पांवों में फिर से साम्राज्यवादी गुलामी की बेड़ियाँ पहनना चाहती हैं.
मैं जब शान्तिनिकेतन में था, तो गुरुदेव टैगोर मुझसे बार-बार कहा करते थे, 'तुम पंजाबी हो, पंजाबी में क्यों नहीं लिखते? तुम्हारा उद्देश्य होना चाहिए कि अपने प्रान्त में जाकर वही कुछ करो जो हम यहाँ कर रहे हैं.'
मैंने जवाब में कहा, 'हिंदी हमारे देश की भाषा है. हिंदी में लिखकर मैं देश भर के पाठकों तक चपहुँच सकता हूँ.'
वे हँस देते और कहते, 'मैं तो केवल एक प्रान्त की भाषा में ही लिखता हूँ, लेकिन मेरी रचनाओं को सारा भारत ही नहीं, सारा संसार पढ़ता है. पाठकों की संख्या भाषा पर निर्भर नहीं करती.'
मैं उनकी बातें एक कान से सुनता और दूसरे कान से निकाल देता. बचपन से ही मेरे मन में यह धारणा पक्की हो चुकी थी कि हिंदी पंजाबी के मुकाबले में कहीं ऊँची और सभ्य भाषा है. वह एक प्रान्त की नहीं, बल्कि सारे देश की राष्ट्रीय भाषा है. (उन दिनों देश सम्बन्धी मेरा ज्ञान उत्तरी भारत तक ही सीमित था.)
एक दिन गुरुदेव ने जब फिर वही बात छेड़ी तो मैंने चिढ़कर कहा, 'पता नहीं क्यों आप मुझे यहाँ से निकालने पर तुले हुए हैं. मेरी कहानियाँ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं में छाप रही हैं. पढ़ाने का काम भी मैं चाव से करता हूँ. अगर यकीन न हो तो मेरे विद्यार्थियों से पूछ लीजिए. जिस प्रेरणादायक वातावरण की मुझे जरूरत थी, वह मुखे प्राप्त है. आखिर मैं यहाँ से क्यों चला जाऊं?'
उन्होंने कहा, 'विश्वभारती का आदर्श है कि साहित्यकार और कलाकार यहाँ से प्रेरणा लेकर अपने-अपने प्रान्तों में जाएँ और अपनी भाषाओँ और संस्कृतियों का विकास करें. तभी देश की सभ्यता और संस्कृति का भंडार भरपूर होगा.'
'आपको पंजाबी भाषा और संस्कृति के बारे में ग़लतफ़हमी है' मैंने कहा, 'हिंदुस्तान से अलग कोई पंजाबी संस्कृति नहीं है. पंजाबी भाषा भी वास्तव में हिंदी की एक उपभाषा है. उसमें सिख धर्मग्रंथों के अलावा और कोई साहित्य नहीं है.'
गुरुदेव चिढ़ गए. कहने लगे, ' जिस भाषा में नानक जैसे महान कवि ने लिखा है, तुम कह्ते हो उसमें कोई साहित्य नहीं है... कबीर की वाणी का अनुवाद मैंने बंगाली में किया है, लेकिन नानक की वाणी के अनुवाद का साहस नहीं हुआ. मुझे दर था कि मैं उनके साथ इंसाफ नहीं कर सकूँगा.'
उसी शाम आचार्य क्षितिमोहन सेन से बातें हुई. उनसे इस बात का जिक्र किया तो वह बोले, पराई भाषा में लिखने वाला लेखक वैश्या के समान है. वैश्या धन-दौलत, मशहूरी और ऐश-इशरत भरा घरबार सबकुछ प्राप्त कर सकती है, लेकिन एक गृहिणी नहीं कहला सकती.'
मैं मन-ही-मन बहुत खीझा. बंगाली लोग प्रांतीय संकीर्णता के लिए प्रसिद्ध थे. लेकिन टैगोर और क्षितिमोहन जैसे व्यक्ति भी उसका शिकार होंगे, यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी.
लन्दन में मेरे एक बहुत विद्वान बंगाली दोस्त थे. वे कभी पिस्तौलबाज इंकलाबी भी रह चुके थे. उन्होंने बताया कि ईस्टइण्डिया कंपनी का असर रसूख शुरू में हिंदुस्तान के तटवर्ती इलाकों में पैर ज़माने के बाद ही मध्यवर्ती इलाकों में फैला था. शुरू-शुरू में अंग्रेजों को कोई अनुमान नहीं था कि एक दिन वे हिंदुस्तान के मालिक बन जायेंगे. उनकी नीति व्यापार और छीना-झपटी तक ही सीमित थी. लेकिन उन्नीसवीं सदी के तीसरे या चौथे दशक तक सारा हिंदुस्तान अंग्रेजों के कब्जे में आ गया. अपनी साम्राज्यवादी पकड़ मजबूत करने के लिए उन्होंने ऐसी देशव्यापी अफसरशाही का अविष्कार किया जो जनता की पहुँच से दूर और निर्लिप्त रहकर कमाल की अक्लमंदी और सलीके से शासन-चक्कर चलाये जो बाहर से हिन्दुस्तानियों का हितैषी और पालक होने का दिखावा करे लेकिन अन्दर से साम्राज्यवादी हितों की रक्षा करे. इस प्रकार भारतीय भाषाएँ और संस्कृतियाँ नगण्य बन गईं, उन सब पर राज्यभाषा, अंग्रेजी की छाया पड़ने लगी.
इस नयी परिस्थिति का सबसे गहरा और घातक असर उन प्रान्तों पर पड़ा जो अंग्रेजों के कब्जे में बाद में आए. वे मध्यवर्ती और उत्तरी इलाके थे- उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि. इन इलाकों में यूरोपीय प्रभाव अभी बिल्कुल नए थे.
बंगालियों द्वारा बंगाली को अपनी साझी प्रांतीय भाषा मानने में अंग्रेजों को कोई संकोच नहीं हुआ था. लेकिन जब पंजाब की भाषा का सवाल आया तो उन्होंने बड़ी दूरदर्शिता से काम लेकर सिख राज्य कि प्राप्तियों को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए पंजाबी के बजाय उर्दू को पंजाब कि भाषा माना, क्योंकि पंजाब में मुसलमान बहुसंख्या में थे.
लगभग यही तरीकाउन्होंने उत्तर प्रदेश और केन्द्रीय भारत में इस्तेमाल किया. भाषा और संस्कृति की समस्याओं को धर्म के साथ जोड़कर उन इलाकों में भी उसी प्रकार के गुल खिलाये. ग़दर के बाद बीस वर्ष तक मुसलमानों को कुचला और हिन्दुओं को ऊपर उठाया. हिन्दुओं के सामने यह प्रकट किया कि उनकी अधोगति का मूल कारण अंग्रेज नहीं, बल्कि म्लेच्छ मुस्लमान हैं, जिन्होंने भारत की महान और संसार की सबसे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को भ्रष्ट किया है. फारसी लिपि और फारसी शब्द वास्तव में हिन्दू समाज की गिरावट और गुलामी के चिह्न थे. हिन्दुओं का अपना सच्चा विरसा था - आर्य काल, अर्थात देव भाषा संस्कृत, और देव लिपि नागरी, जिनमें कि वेदों और शास्त्रों की रचना हुई थी. संस्कृत ही यूरोप की भाषाओँ का भी मूल स्रोत थी. सो, अगर हिन्दू जाति अपने गौरवमय अतीत को पहचाने तो भारतवर्ष फिर से एक महान देश बन सकता है. हिन्दुओं को अपना चरित्र उस ज़माने के आदर्शों के अनुसार ढालने की जरूरत है जब भारत मुस्लिम प्रभावों से मुक्त था. इस काम में अंग्रेजों ने हिन्दुओं को अपनी पूरी सहायता देने का वचन दिया.
फिर सन 1870 के बाद, जब हिन्दुओं को प्रोत्साहन देने का सौदा महंगा पड़ता दिखाई देने लगा, तो बर्तानवी साम्राज्य ने बहुसंख्यक हिन्दुओं के उलट अल्पसंख्यक मुसलमानों के सहायक और रक्षक होने का रोल अदा करना शुरू कर दिया. इन परिस्थितियों में 'हिन्दू कौम' और 'मुस्लिम कौम' के नामुराद सिद्धांत का पैदा होना कोई अनोखी बात नहीं थी. दो कोमों के सिद्धांत को जन्म देने का सेहरा जिन्ना के सर पर बांधना अन्याय है. इसका आविष्कार सबसे पहले बंकिम बाबू के ज़माने में बंगाल के सुशिक्षित हिन्दू मध्यवर्ग में हुआ था. 'हिन्दू कौम' और 'हिन्दू राष्ट्र' के निर्माण की घोषणाएं सबसे पहले इसी वर्ग के लोगों ने शुरू की थीं. सच तो यह है कि बंगाल और महाराष्ट्र के आतंकवादी क्रन्तिकारी भी इस संकुचित और सांप्रदायिक मनोवृत्ति से मुक्त नहीं थे. बंगाल के क्रांतिकारियों की सबसे बड़ी गुप्त संस्था 'अनुशीलन समिति' के विधान में साफ लिखा गया था कि मुसलमान एक घटिया कौम है. 'समिति का आदर्श हिन्दू जाति का राज्य स्थापित करना है.' वीर सावरकर और भाई परमानन्द जैसे व्यक्ति कट्टर देशभक्त होने के साथ कट्टर साम्प्रदायिकतावादी भी थे. इसमें उन्हें कोई अंतर्विरोध नहीं दिखाई देता था.
मुझे अपने बंगाली दोस्त की इन बातों में काफी सच्चाई दिखाई दी, और अपने दिमाग की कई गांठें खुलती दिखाई दीं. अब मुझे अहसास हुआ कि मैं टैगोर और गाँधी के दृष्टिकोणों को समझने में क्यों असमर्थ रहा था. वे हिंदुस्तान के तटवर्ती इलाकों में जन्मे-पले थे. उनके दिल में अपनी मातृभाषा और संस्कृति सम्बन्धी संस्कार स्वाभाविक ढंग से प्रफुल्लित हुए थे और सच्ची राष्ट्रीयता की ओर विकास कर रहे थे. लेकिन मैं शुरू से ही सांप्रदायिक संस्कारों में पला था. पंजाबियत और हिंदुस्तानियत, दोनों के बारे में मेरे विचार अधूरे और विकृत थे. मातृभाषा और राष्ट्रभाषा सम्बन्धी उन महापुरुषों का दृष्टिकोण यथार्थवादी और सही था. किसी ने सच कहा है कि "जिसका दिमाग गुलाम हो जाय. उससे बड़ा दुनिया में और कोई गुलाम नहीं है."
(ज्ञानरंजन द्वारा सम्पादित 'पहल पुस्तिका, 2008' के सम्पादित अंश)
मेरी शुरू की जवानी का समय था वह - बहुत ही प्यारा, बहुत ही हसीन मैंने कुछ समय शान्तिनिकेतन में गाँधीजी के चरणों में बिताया. मेरा जीवन बहुत समृद्ध बना. शान्तिनिकेतन में मैं हिंदी विभाग में काम करता था. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी मेरे अध्यक्ष थे. उनकी छत्रछाया में हिंदी के साथ मेरा सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन गहरा होता गया. सन 1939 के अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन में वे मुझे भी अपने संग प्रतिनिधि बनाकर बनारस ले गए थे और वहाँ मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बनारसीदास चतुर्वेदी, निराला और साहित्य के अन्य कितने ही महारथियों से मिलने और उनके विचार सुनने का मुझे गौरव प्राप्त हुआ.
यद्यपि आज मैं हिंदी में नहीं, बल्कि अपनी मातृभाषा पंजाबी में लिखता हूँ, फिर भी आप लोगों से खुद को अलग नहीं समझता. आज भी मैं हिंदी फिल्मों में कम करता हूँ, हिंदी-उर्दू रंगमंच से भी मेरा अटूट सम्बन्ध रहा है. ये चीजें, अगर साहित्य का हिस्सा नहीं तो उसकी निकटवर्ती जरूर हैं.
हिंदी हमारे देश की एक विशेष और महत्वपूर्ण भाषा है. इसके साथ हमारी राष्ट्रीय और भावनात्मक एकता का सवाल जुदा हुआ है. और इस दिशा में, अपनी अनेक बुराइयों के बावजूद हिंदी फ़िल्में अच्छा रोल अदा कर रही हैं.
लेकिन इस असलियत की ओर से भी आँखें बंद नहीं की जा सकतीं कि हिंदी, कई दृष्टियों से, अपने क्षेत्र में और उससे बहार भी, कई प्रकार से सांप्रदायिक और प्रांतीय बैर-विरोध और झगड़े-झमेलों का कारण बनी हुई है. कई बार तो डर लगने लगता है कि कहीं एकता के लिए रास्ते साफ करने के बजाय वह उन रास्तों पर कांटे तो नहीं बिछा रही, उन शक्तियों की सहायता तो नहीं कर रही, जो हमें उन्नति और विकास के बजाय अधोगति और विनाश की ओर ले जाना चाहती हैं, जो हमारे पांवों में फिर से साम्राज्यवादी गुलामी की बेड़ियाँ पहनना चाहती हैं.
मैं जब शान्तिनिकेतन में था, तो गुरुदेव टैगोर मुझसे बार-बार कहा करते थे, 'तुम पंजाबी हो, पंजाबी में क्यों नहीं लिखते? तुम्हारा उद्देश्य होना चाहिए कि अपने प्रान्त में जाकर वही कुछ करो जो हम यहाँ कर रहे हैं.'
मैंने जवाब में कहा, 'हिंदी हमारे देश की भाषा है. हिंदी में लिखकर मैं देश भर के पाठकों तक चपहुँच सकता हूँ.'
वे हँस देते और कहते, 'मैं तो केवल एक प्रान्त की भाषा में ही लिखता हूँ, लेकिन मेरी रचनाओं को सारा भारत ही नहीं, सारा संसार पढ़ता है. पाठकों की संख्या भाषा पर निर्भर नहीं करती.'
मैं उनकी बातें एक कान से सुनता और दूसरे कान से निकाल देता. बचपन से ही मेरे मन में यह धारणा पक्की हो चुकी थी कि हिंदी पंजाबी के मुकाबले में कहीं ऊँची और सभ्य भाषा है. वह एक प्रान्त की नहीं, बल्कि सारे देश की राष्ट्रीय भाषा है. (उन दिनों देश सम्बन्धी मेरा ज्ञान उत्तरी भारत तक ही सीमित था.)
एक दिन गुरुदेव ने जब फिर वही बात छेड़ी तो मैंने चिढ़कर कहा, 'पता नहीं क्यों आप मुझे यहाँ से निकालने पर तुले हुए हैं. मेरी कहानियाँ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिकाओं में छाप रही हैं. पढ़ाने का काम भी मैं चाव से करता हूँ. अगर यकीन न हो तो मेरे विद्यार्थियों से पूछ लीजिए. जिस प्रेरणादायक वातावरण की मुझे जरूरत थी, वह मुखे प्राप्त है. आखिर मैं यहाँ से क्यों चला जाऊं?'
उन्होंने कहा, 'विश्वभारती का आदर्श है कि साहित्यकार और कलाकार यहाँ से प्रेरणा लेकर अपने-अपने प्रान्तों में जाएँ और अपनी भाषाओँ और संस्कृतियों का विकास करें. तभी देश की सभ्यता और संस्कृति का भंडार भरपूर होगा.'
'आपको पंजाबी भाषा और संस्कृति के बारे में ग़लतफ़हमी है' मैंने कहा, 'हिंदुस्तान से अलग कोई पंजाबी संस्कृति नहीं है. पंजाबी भाषा भी वास्तव में हिंदी की एक उपभाषा है. उसमें सिख धर्मग्रंथों के अलावा और कोई साहित्य नहीं है.'
गुरुदेव चिढ़ गए. कहने लगे, ' जिस भाषा में नानक जैसे महान कवि ने लिखा है, तुम कह्ते हो उसमें कोई साहित्य नहीं है... कबीर की वाणी का अनुवाद मैंने बंगाली में किया है, लेकिन नानक की वाणी के अनुवाद का साहस नहीं हुआ. मुझे दर था कि मैं उनके साथ इंसाफ नहीं कर सकूँगा.'
उसी शाम आचार्य क्षितिमोहन सेन से बातें हुई. उनसे इस बात का जिक्र किया तो वह बोले, पराई भाषा में लिखने वाला लेखक वैश्या के समान है. वैश्या धन-दौलत, मशहूरी और ऐश-इशरत भरा घरबार सबकुछ प्राप्त कर सकती है, लेकिन एक गृहिणी नहीं कहला सकती.'
मैं मन-ही-मन बहुत खीझा. बंगाली लोग प्रांतीय संकीर्णता के लिए प्रसिद्ध थे. लेकिन टैगोर और क्षितिमोहन जैसे व्यक्ति भी उसका शिकार होंगे, यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी.
लन्दन में मेरे एक बहुत विद्वान बंगाली दोस्त थे. वे कभी पिस्तौलबाज इंकलाबी भी रह चुके थे. उन्होंने बताया कि ईस्टइण्डिया कंपनी का असर रसूख शुरू में हिंदुस्तान के तटवर्ती इलाकों में पैर ज़माने के बाद ही मध्यवर्ती इलाकों में फैला था. शुरू-शुरू में अंग्रेजों को कोई अनुमान नहीं था कि एक दिन वे हिंदुस्तान के मालिक बन जायेंगे. उनकी नीति व्यापार और छीना-झपटी तक ही सीमित थी. लेकिन उन्नीसवीं सदी के तीसरे या चौथे दशक तक सारा हिंदुस्तान अंग्रेजों के कब्जे में आ गया. अपनी साम्राज्यवादी पकड़ मजबूत करने के लिए उन्होंने ऐसी देशव्यापी अफसरशाही का अविष्कार किया जो जनता की पहुँच से दूर और निर्लिप्त रहकर कमाल की अक्लमंदी और सलीके से शासन-चक्कर चलाये जो बाहर से हिन्दुस्तानियों का हितैषी और पालक होने का दिखावा करे लेकिन अन्दर से साम्राज्यवादी हितों की रक्षा करे. इस प्रकार भारतीय भाषाएँ और संस्कृतियाँ नगण्य बन गईं, उन सब पर राज्यभाषा, अंग्रेजी की छाया पड़ने लगी.
इस नयी परिस्थिति का सबसे गहरा और घातक असर उन प्रान्तों पर पड़ा जो अंग्रेजों के कब्जे में बाद में आए. वे मध्यवर्ती और उत्तरी इलाके थे- उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि. इन इलाकों में यूरोपीय प्रभाव अभी बिल्कुल नए थे.
बंगालियों द्वारा बंगाली को अपनी साझी प्रांतीय भाषा मानने में अंग्रेजों को कोई संकोच नहीं हुआ था. लेकिन जब पंजाब की भाषा का सवाल आया तो उन्होंने बड़ी दूरदर्शिता से काम लेकर सिख राज्य कि प्राप्तियों को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए पंजाबी के बजाय उर्दू को पंजाब कि भाषा माना, क्योंकि पंजाब में मुसलमान बहुसंख्या में थे.
लगभग यही तरीकाउन्होंने उत्तर प्रदेश और केन्द्रीय भारत में इस्तेमाल किया. भाषा और संस्कृति की समस्याओं को धर्म के साथ जोड़कर उन इलाकों में भी उसी प्रकार के गुल खिलाये. ग़दर के बाद बीस वर्ष तक मुसलमानों को कुचला और हिन्दुओं को ऊपर उठाया. हिन्दुओं के सामने यह प्रकट किया कि उनकी अधोगति का मूल कारण अंग्रेज नहीं, बल्कि म्लेच्छ मुस्लमान हैं, जिन्होंने भारत की महान और संसार की सबसे प्राचीन सभ्यता और संस्कृति को भ्रष्ट किया है. फारसी लिपि और फारसी शब्द वास्तव में हिन्दू समाज की गिरावट और गुलामी के चिह्न थे. हिन्दुओं का अपना सच्चा विरसा था - आर्य काल, अर्थात देव भाषा संस्कृत, और देव लिपि नागरी, जिनमें कि वेदों और शास्त्रों की रचना हुई थी. संस्कृत ही यूरोप की भाषाओँ का भी मूल स्रोत थी. सो, अगर हिन्दू जाति अपने गौरवमय अतीत को पहचाने तो भारतवर्ष फिर से एक महान देश बन सकता है. हिन्दुओं को अपना चरित्र उस ज़माने के आदर्शों के अनुसार ढालने की जरूरत है जब भारत मुस्लिम प्रभावों से मुक्त था. इस काम में अंग्रेजों ने हिन्दुओं को अपनी पूरी सहायता देने का वचन दिया.
फिर सन 1870 के बाद, जब हिन्दुओं को प्रोत्साहन देने का सौदा महंगा पड़ता दिखाई देने लगा, तो बर्तानवी साम्राज्य ने बहुसंख्यक हिन्दुओं के उलट अल्पसंख्यक मुसलमानों के सहायक और रक्षक होने का रोल अदा करना शुरू कर दिया. इन परिस्थितियों में 'हिन्दू कौम' और 'मुस्लिम कौम' के नामुराद सिद्धांत का पैदा होना कोई अनोखी बात नहीं थी. दो कोमों के सिद्धांत को जन्म देने का सेहरा जिन्ना के सर पर बांधना अन्याय है. इसका आविष्कार सबसे पहले बंकिम बाबू के ज़माने में बंगाल के सुशिक्षित हिन्दू मध्यवर्ग में हुआ था. 'हिन्दू कौम' और 'हिन्दू राष्ट्र' के निर्माण की घोषणाएं सबसे पहले इसी वर्ग के लोगों ने शुरू की थीं. सच तो यह है कि बंगाल और महाराष्ट्र के आतंकवादी क्रन्तिकारी भी इस संकुचित और सांप्रदायिक मनोवृत्ति से मुक्त नहीं थे. बंगाल के क्रांतिकारियों की सबसे बड़ी गुप्त संस्था 'अनुशीलन समिति' के विधान में साफ लिखा गया था कि मुसलमान एक घटिया कौम है. 'समिति का आदर्श हिन्दू जाति का राज्य स्थापित करना है.' वीर सावरकर और भाई परमानन्द जैसे व्यक्ति कट्टर देशभक्त होने के साथ कट्टर साम्प्रदायिकतावादी भी थे. इसमें उन्हें कोई अंतर्विरोध नहीं दिखाई देता था.
मुझे अपने बंगाली दोस्त की इन बातों में काफी सच्चाई दिखाई दी, और अपने दिमाग की कई गांठें खुलती दिखाई दीं. अब मुझे अहसास हुआ कि मैं टैगोर और गाँधी के दृष्टिकोणों को समझने में क्यों असमर्थ रहा था. वे हिंदुस्तान के तटवर्ती इलाकों में जन्मे-पले थे. उनके दिल में अपनी मातृभाषा और संस्कृति सम्बन्धी संस्कार स्वाभाविक ढंग से प्रफुल्लित हुए थे और सच्ची राष्ट्रीयता की ओर विकास कर रहे थे. लेकिन मैं शुरू से ही सांप्रदायिक संस्कारों में पला था. पंजाबियत और हिंदुस्तानियत, दोनों के बारे में मेरे विचार अधूरे और विकृत थे. मातृभाषा और राष्ट्रभाषा सम्बन्धी उन महापुरुषों का दृष्टिकोण यथार्थवादी और सही था. किसी ने सच कहा है कि "जिसका दिमाग गुलाम हो जाय. उससे बड़ा दुनिया में और कोई गुलाम नहीं है."
(ज्ञानरंजन द्वारा सम्पादित 'पहल पुस्तिका, 2008' के सम्पादित अंश)
--- डा लक्ष्मण सिंह बिष्ट बटरोही के प्रति आभार सहित ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Add