5 जनवरी 2019

मार्मिक प्रसंग

पाकिस्तान में फ़ौजी तानाशाही के दौर में एक बार किसी सरकारी इदारे ने तरही मुशायरे का आयोजन किया....
मिराि दिया गया
"पाकिस्तान में मौज ही मौज"
हबीब जालिब को भी दावत ए कलाम दी गई....
कुछ दिन पहले ही जेल से छूटे थे सो लगा होगा अक़्ल ठिकाने आ गई है....
ख़ैर.....जालिब साहब का कलाम पढ़ने का नम्बर आया...
दिए गए 'सरकारी' मिसरे पर ही गिरह लगाई....
मतला पढ़ा -
जहाँ भी देखो फ़ौज ही फ़ौज
"पाकिस्तान में मौज ही मौज"
चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया...
आयोजकों के पैरों के नीचे से ज़मीन निकल गई....
सबकी साँसे अटक गईं....
अगला शेर पढ़ने तक का मौक़ा दिए बग़ैर तुरन्त फ़ौजियों ने हबीब जालिब को मंच से नीचे खींचा और सीधे उनके घर (जेल) पहुँचा दिया....
   
           मार्मिक प्रसंग 

एक बिजली के पोल पर एक पर्ची लगी देख कर मैं करीब गया और लिखी तहरीर पढ़ने लगा
लिखा था
कृपा ज़रूर पढ़ें
इस रास्ते पर कल मेरा पचास रुपये का नोट गिर गया है, मुझे ठीक से दिखाई नहीं देता ,जिसे भी मिले कृपया पहुंचा दे.....!!!!

पता +++.....***.......
*****......****.....####...
ये तहरीर पढ़ने के बाद मुझे बहुत हैरत हुई कि पचास का नोट किसी के लिए जब इतना ज़रूरी है तो तुरंत दर्ज पते पर पहुंच कर आवाज़ लगाई तो एक बूढ़ी औरत बाहर निकली,पूछने पर मालूम हुआ कि बड़ी बी अकेली रहती हैं.. मैंने कहा,, मां जी ,, आपका खोया हुआ नोट मुझे मिला है ...उसे देने आया हूं 
ये सुनकर बड़ी बी रोते हुए कहने लगीं 
बेटा.....!
अब तक करीब 70/75 लोग मुझे पचास का नोट दे गए हैं!
मैं अन पढ़, अकेली हूं और नज़र भी कमज़ोर है.. पता नहीं कौन बंदा मेरी इस हालत को देखकर मेरी मदद के लिए वो पर्ची लगा गया है 
बहुत ज़िद करने पर बड़ी बी ने नोट तो ले लिया लेकिन एक विनती भी कर दी कि बेटा... जाते हुए वो पर्ची ज़रूर फाड़ कर फेंक देना!!
मैंने हां तो कर दिया लेकिन मेरे ज़मीर ने मुझे सोचने पर मजबूर किर दिया कि इससे पहले भी सभी लोगों से बुढ़िया ने वो पर्ची फाड़ने के लिए कहा होगा मगर जब किसी ने नहीं फाड़ा तो मैं क्यों फाड़ूं
फिर मैं उस आदमी के बारे में सोचने लगा कि वो कितना दिलदार रहा होगा जिसने मजबूर औरत की मदद के लिए ये रास्ता तलाश कर लिया ..मैं उसे दुआयें देने पर मजबूर हो गया 
#नोट-किसी की मदद करने के तरीक़े बहुत हैं.
अमजद जस्सल के सौजन्य  से ।
फेसबुक  ६ जनवरी २०१८ 

22 दिसंबर 2018

आधुनिक विज्ञान के जन्मदाता गैलेलियो




गैलीलियो गैलीली

गैलीलियो गैलीली एक इटालियन भौतिक विज्ञानी, गणितज्ञ, खगोलशास्त्री और दार्शनिक थे; जिन्होने आधुनिक वैज्ञानिल क्रांति की नींव रखी थी। उनका जन्म 15 फरवरी 1564 को हुआ था, तथा मृत्यु 8 जनवरी 1642 मे हुयी थी।

गैलीलियो गैलीली की उपलब्धियों मे उन्नत दूरबीन का निर्माण और खगोलिय निरिक्षण तथा कोपरनिकस के सिद्धांतो का समर्थन है। गैलीलियो को आधुनिक खगोलशास्त्र का पिता, आधुनिक भौतिकि का पिता, आधुनिक विज्ञान का पिता के नामो से सम्मान दिया जाता है।

"गैलेलियो, शायद किसी भी अन्य व्यक्ति की तुलना मे, आधुनिक विज्ञान के जन्मदाता थे।" - स्टीफन हांकिस

समरूप से त्वरित पिंडो की गति जिसे आज सभी पाठशालाओ और विश्वविद्यालयो मे पढाया जाता है, गैलीलियो द्वारा काईनेमेटीक्स(शुद्ध गति विज्ञान) विषय के रूप मे विकसित किया गया था। उन्होने अपनी उन्नत दूरबीन से शुक्र की कलाओ का सत्यापन किया था; बृहस्पति के चार बड़े चन्द्रमा खोजे थे(जिन्हे आज गैलेलीयन चन्द्रमा कहते है) तथा सूर्य धब्बो का निरिक्षण किया था। गैलीलियो ने विज्ञान और तकनिक के अनुप्रयोगो के लिये भी कर्य किया था, उन्होने सैन्य दिशादर्शक(Military Compass) और अन्य उपकरणो का आविष्कार किया था।

गैलीलियो द्वारा कोपरनिकस के सूर्य केन्द्रित सिद्धांत का समर्थन उनके संपूर्ण जीवन काल मे विवादास्पद बना रहा, उस समय अधिकतर दार्शनिक और खगोल विज्ञानी प्राचिन दार्शनिक टालेमी के भू केन्द्रित सिद्धांत का समर्थन करते थे जिसके अनुसार पृथ्वी ब्रम्हांड का केन्द्र है। 1610 के जब गैलीलियो ने सूर्यकेन्द्र सिद्धांत (जिसमे सूर्य ब्रम्हांड का केन्द्र है) का समर्थन करना शुरू किया उन्हे धर्मगुरुओ और दार्शनिको के कट्टर विरोध का सामना करना पडा़ और उन्होने 1615 मे गैलेलियो को धर्मविरोधी करार दे दिया। फरवरी 1616 मे वे आरोप मुक्त हो गये लेकिन चर्च ने सूर्य केन्द्रित सिद्धांत को गलत और धर्म के विपरित कहा। गैलेलियो को इस सिद्धांत का प्रचार न करने की चेतावनी दी गयी जिसे गैलीलियो ने मान लिया। लेकिन 1632 मे अपनी नयी किताब "डायलाग कन्सर्निंग द टू चिफ वर्ल्ड सीस्टमस" मे उन्होने सूर्य केन्द्री सिद्धांत के समर्थन के बाद उन्हे चर्च ने फिर से धर्मविरोधी घोषित कर दिया और इस महान वैज्ञानिक को अपना शेष जीवन अपने घर ने नजरबंद हो कर गुजारना पड़ा।

गैलीलियो का जन्म पीसा इटली मे हुआ था, वे वीन्सेन्ज़ो गैलीली की छः संतानो मे सबसे बड़े थे। उनके पिता एक संगितकार थे, गैलीलियो का सबसे छोटा भाई माइकलेन्जेलो भी एक प्रसिद्ध संगितकार हुये है। गैलीलियो का पूरा नाम गैलीलियो दी वीन्सेन्ज़ो बोनैउटी दे गैलीली था। आठ वर्ष की उम्र मे उनका परिवार फ्लोरेंस शहर चला गया था। उनकी प्राथमिक शिक्षा कैमलडोलेसे मान्स्टेरी वाल्लोम्ब्रोसा मे हुआ था।
गैलीलियो रोमन कैथोलिक थे। उन्होने किशोरावस्था मे पादरी बनने की सोची थी लेकिन पिता के कहने पर पीसा विश्वविद्यालय से चिकित्सा मे पदवी के लिये प्रवेश लिया लेकिन यह पाठ्यक्रम पूरा नही किया। उन्होने गणित मे शिक्षा प्राप्त की।

गैलीलियो की चित्रकला मे भी रूचि थी और उसमे भी उन्होने शिक्षा ग्रहण की। 1588 मे उन्होने अकेडीमिया डेल्ले आर्टी डेल डिसेग्नो फ्लोरेन्स मे शिक्षक के रूप मे कार्य प्रारंभ किया। 1589 मे वे पिसा मे गणित व्याख्याता के रूप मे कार्य शुरू किया। 1592 से उन्होने पौडा विश्वविद्यालय मे ज्यामिति, यांत्रिकि और खगोलशास्त्र पढाना प्रारंभ किया। इस पद पर वे 1610 तक रहे। इस पद पर रहते हुये उन्होने मूलभूत विज्ञान (गतिविज्ञान, खगोल विज्ञान) तथा प्रायोगिक विज्ञान (पदार्थ की मजबूती, उन्न्त दूरबीन इत्यादि) पर कार्य किया। उनकी एकाधिक अभिरूचियो मे ज्योतिष भी था जो उस समय गणित और खगोल विज्ञान से जुड़ा हुआ था।

गैलीलियो को सूक्ष्म गणितीय विश्लेषण करने का कौशल संभवत: अपने पिता विन्सैन्जो गैलिली से विरासत में आनुवांशिक रूप में तथा कुछ उनकी कार्यशैली को करीब से देख कर मिला होगा। विन्सैन्जो एक जाने-माने संगीत विशेषज्ञ थे और ‘ल्यूट’ नामक वाद्य यंत्र बजाते थे जिसने बाद में गिटार और बैन्जो का रूप ले लिया। उन्होंने भौतिकी में पहली बार ऐसे प्रयोग किए जिनसे ”अरैखिक संबंध(Non-Linear Relation)” का प्रतिपादन हुआ। तब यह ज्ञात था कि किसी वाद्य यंत्र की तनी हुई डोर (या तार) के तनाव और उससे निकलने वाली आवृत्ति में एक संबंध होता है, आवृत्ति तनाव के वर्ग के समानुपाती होती है। इस तरह संगीत के सिद्धांत में गणित की थोड़ी बहुत पैठ थी। प्रेरित हो गैलीलियो ने पिता के कार्य को आगे बढ़ाया और फिर उन्होंने बाद में पाया कि प्रकृति के नियम गणित के समीकरण होते हैं। गैलीलियो ने लिखा है –

”भगवान की भाषा गणित है”।

गैलीलियो ने दर्शन शास्त्र का भी गहन अध्ययन किया था साथ ही वे धार्मिक प्रवृत्ति के भी थे। पर वे अपने प्रयोगों के परिणामों को कैसे नकार सकते थे जो पुरानी मान्यताओं के विरुद्ध जाते थे और वे इनकी पूरी ईमानदारी के साथ व्याख्या करते थे। उनकी चर्च के प्रति निष्ठा के बावजूद उनका ज्ञान और विवेक उन्हें किसी भी पुरानी अवधारणा को बिना प्रयोग और गणित के तराजू में तोले मानने से रोकता था। चर्च ने इसे अपनी अवज्ञा समझा। पर गैलीलियो की इस सोच ने मनुष्य की चिंतन प्रक्रिया में नया मोड़ ला दिया। स्वयं गैलीलियो अपने विचारों को बदलने को तैयार हो जाते यदि उनके प्रयोगों के परिणाम ऐसा इशारा करते। अपने प्रयोगों को करने के लिए गैलीलियो ने लंबाई और समय के मानक तैयार किए ताकि यही प्रयोग अन्यत्र जब दूसरी प्रयोगशालाओं में दुहराए जाएं तो परिणामों की पुनरावृत्ति द्वारा उनका सत्यापन किया जा सके।

प्रकाश गति मापन का प्रयास
गैलीलियो ने प्रकाश की गति नापने का भी प्रयास किया और तत्संबंधी प्रयोग किए। गैलीलियो व उनका एक सहायक दो भिन्न पर्वत शिखरों पर कपाट लगी लालटेन लेकर रात में चढ़ गए। सहायक को निर्देश दिया गया था कि जैसे ही उसे गैलीलियो की लालटेन का प्रकाश दिखे उसे अपनी लालटेन का कपाट खोल देना था। गैलीलियो को अपने कपाट खोलने व सहायक की लालटेन का प्रकाश दिखने के बीच का समय अंतराल मापना था-पहाड़ों के बीच की दूरी उन्हें ज्ञात थी। इस तरह उन्होंने प्रकाश की गति ज्ञात की।

पर गैलीलियो – गैलीलियो ठहरे – वे इतने से कहां संतुष्ट होने वाले थे। अपने प्रायोगिक निष्कर्ष को दुहराना जो था। इस बार उन्होंने ऐसी दो पहाड़ियों का चयन किया जिनके बीच की दूरी कहीं ज्यादा थी। पर आश्चर्य, इस बार भी समय अंतराल पहले जितना ही आया। गैलीलियो इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रकाश को चलने में लग रहा समय उनके सहायक की प्रतिक्रिया के समय से बहुत कम होगा और इस प्रकार प्रकाश का वेग नापना उनकी युक्ति की संवेदनशीलता के परे था। पर गैलीलियो द्वारा बृहस्पति के चंद्रमाओं के बृहस्पति की छाया में आ जाने से उन पर पड़ने वाले ग्रहण के प्रेक्षण से ओल रोमर नामक हॉलैंड के खगोलविज्ञानी को एक विचार आया। उन्हें लगा कि इन प्रेक्षणों के द्वारा प्रकाश का वेग ज्ञात किया जा सकता है। सन् 1675 में उन्होंने यह प्रयोग किया जो इस तरह का प्रथम प्रयास था। इस प्रकार यांत्रिक बलों पर किए अपने मुख्य कार्य के अतिरिक्त गैलीलियो के इन अन्य कार्यों ने उनके प्रभाव क्षेत्र को कहीं अधिक विस्तृत कर दिया था जिससे लंबे काल तक प्रबुद्ध लोग प्रभावित होते रहे।

गैलीलियो ने आज से बहुत पहले गणित, सैद्धांतिक भौतिकी और प्रायोगिक भौतिकी के परस्पर संबंध को समझ लिया था। परवलय या पैराबोला का अध्ययन करते हुए वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि एक समान त्वरण (uniform acceleration) की अवस्था में पृथ्वी पर फेंका कोई पिंड एक परवलयाकार मार्ग पर चल कर वापस पृथ्वी पर आ गिरेगा – बशर्ते हवा के घर्षण का बल उपेक्षणीय हो। यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि उनका यह सिद्धांत जरूरी नहीं कि किसी ग्रह जैसे पिंड पर भी लागू हो। उन्हें इस बात का ध्यान था कि उनके मापन में घर्षण (friction) तथा अन्य बलों के कारण अवश्य त्रुटियां आई होंगी जो उनके सिद्धांत की सही गणितीय व्याख्या में बाधा उत्पन्न कर रहीं थीं। उनकी इसी अंतर्दृष्टि के लिए प्रसिद्ध भौतिकीविद् आइंस्टाइन ने उन्हें ”आधुनिक विज्ञान का पिता” की पदवी दे डाली। कथन में कितनी सचाई है पता नहीं – पर माना जाता है कि गैलीलियो ने पीसा की टेढ़ी मीनार से अलग-अलग संहति (mass) की गेंदें गिराने का प्रयोग किया और यह पाया उनके द्वारा गिरने में लगे समय का उनकी संहति से कोई सम्बन्ध नहीं था – सब समान समय ले रहीं थीं। ये बात तब तक छाई अरस्तू की विचारधारा के एकदम विपरीत थी – क्योंकि अरस्तू के अनुसार अधिक भारी वस्तुएं तेजी से गिरनी चाहिए। बाद में उन्होंने यही प्रयोग गेदों को अवनत तलों पर लुढ़का कर दुहराए तथा पुन: उसी निष्कर्ष पर पहुंचे।

गैलीलियो ने त्वरण के लिए सही गणितीय समीकरण खोजा। उन्होंने कहा कि अगर कोई स्थिर पिंड समान त्वरण के कारण गतिशील होता है तो उसकी चलित दूरी समय अंतराल के वर्ग के समानुपाती होगी।

S = ut + ½ft2, if u = 0 then S = ½ft2 or S ∝ t2

गैलीलियो ने ही जड़त्व का सिद्धांत हमें दिया जिसके अनुसार

”किसी समतल पर चलायमान पिंड तब तक उसी दिशा व वेग से गति करेगा जब तक उसे छेड़ा न जाए”।

बाद में यह जाकर न्यूटन के गति के सिद्धांतों का पहला सिद्धांत बना। पीसा के विशाल कैथेड्रल (चर्च) में झूलते झूमर को देख कर उन्हें ख्याल आया क्यों न इसका दोलन काल नापा जाए – उन्होंने अपनी नब्ज की धप-धप की मदद से यह कार्य किया – और इस प्रकार सरल दोलक का सिद्धांत बाहर आया – कि दोलक का आवर्त्तकाल उसके आयाम (amplitude) पर निर्भर नहीं करता (यह बात केवल छोटे आयाम पर लागू होती है – पर एक घड़ी का निर्माण करने के लिए इतनी परिशुद्धता काफी है)। सन् 1632 में उन्होंने ज्वार-भाटे की व्याख्या पृथ्वी की गति द्वारा की। इसमें उन्होंने समुद्र की तलहटी की बनावट, इसके ज्वार की तरंगों की ऊंचाई तथा आने के समय में संबंध की चर्चा की – हालांकि यह सिद्धांत सही नहीं पाया गया। बाद में केपलर व अन्य वैज्ञानिकों ने इसे सुधारा और सही कारण चंद्रमा को बताया।

जिसे आज हम सापेक्षिकता (Relativity) का सिद्धांत कहते हैं उसकी नींव भी गैलीलियो ने ही डाली थी। उन्होंने कहा है

”भौतिकी के नियम वही रहते हैं चाहे कोई पिंड स्थिर हो या समान वेग से एक सरल रेखा में गतिमान। कोई भी अवस्था न परम स्थिर या परम गतिमान अवस्था हो सकती है”।

इसी ने बाद में न्यूटन के नियमों का आधारगत ढांचा दिया।

दूरबीन और बृहस्पति के चंद्रमा
सन् 1609 में गैलीलियो को दूरबीन के बारे में पता चला जिसका हालैंड में आविष्कार हो चुका था। केवल उसका विवरण सुनकर उन्होंने उससे भी कहीं अधिक परिष्कृत और शक्तिशाली दूरबीन स्वयं बना ली। फिर शुरू हुआ खगोलीय खोजों का एक अद्भुत अध्याय। गैलीलियो ने चांद को देखा उसके ऊबड़-खाबड़ गङ्ढे देखे। फिर उन्होंने दूरबीन चमकीले शुक्र ग्रह पर साधी – एक और नई खोज – शुक्र ग्रह भी (चंद्रमा की तरह) कला (phases) का प्रदर्शन करता है। जब उन्होंने बृहस्पति ग्रह को अपनी दूरबीन से निहारा, फिर जो देखा और उससे उन्होंने जो निष्कर्ष निकाला उसने सौरमंडल को ठीक-ठीक समझने में बड़ी मदद की। गैलीलियो ने देखा की बृहस्पति ग्रह के पास तीन छोटे-छोटे ”तारे” जैसे दिखाई दे रहे हैं। कुछ घंटे बाद जब दुबारा उसे देखा तो वहां तीन नहीं बल्कि चार ”तारे” दिखाई दिए। गैलीलियो समझ गए कि बृहस्पति ग्रह का अपना एक अलग संसार है। उसके गिर्द घूम रहे ये पिंड अन्य ग्रहों की तरह पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए बाध्य नहीं हैं। (तब तक यह माना जाता था कि ग्रह और सूर्य सभी पिंड पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। हालांकि निकोलस कॉपरनिकस गैलीलियो से पहले ही यह कह चुके थे कि ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं न कि पृथ्वी की – पर इसे मानने वाले बहुत कम थे। गैलीलियो की इस खोज से सौरमडंल के सूर्य केंद्रित सिद्धांत को बहुत बल मिला।)

चर्च का कोपभाजन
इसके साथ ही गैलीलियो ने कॉपरनिकस के सिद्धांत को खुला समर्थन देना शुरू कर दिया। ये बात तत्कालीन वैज्ञानिक और धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध जाती थी। गैलीलियो के जीवनकाल में इसे उनकी भूल ही समझा गया। सन् 1633 में चर्च ने गैलीलियो को आदेश दिया कि वे सार्वजनिक रूप से कहें कि ये उनकी बड़ी भूल है। उन्होंने ऐसा किया भी। फिर भी गैलीलियो को कारावास भेज दिया गया। बाद में उनके बिगड़ते स्वास्थ्य के मद्देनजर सजा को गृह-कैद में तब्दील कर दिया गया। अपने जीवन का अंतिम दिन भी उन्होंने इसी कैद में गुज़ारा। कहीं वर्ष 1992 में जाकर वैटिकन शहर स्थित ईसाई धर्म की सर्वोच्च संस्था ने यह स्वीकारा कि गैलीलियो के मामले में उनसे गलती हुई थी। यानी उन्हें तीन सौ से अधिक साल लग गए असलियत को समझने और स्वीकारने में।

जब गैलीलियो पीसा के विश्वविद्यालय में खगोल विज्ञान के प्राध्यापक थे तो उन्हें अपने शिष्यों को यह पढ़ाना पढ़ता था कि ग्रह पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं। बाद में जब वे पदुवा नामक विश्वविद्यालय में गए तब उन्हें जाकर निकोलस कॉपरनिकस के नए सिद्धांत का पता चला था। खुद अपनी दूरबीन द्वारा किए गए प्रेक्षणों से (विशेषकर बृहस्पति के चंद्रमा देख कर) वे अब पूरी तरह आश्वस्त हो चुके थे कि कॉपरनिकस का सूर्य-केंद्रित सिद्धांत ही सौरमंडल की सही व्याख्या करता है। बहत्तर साल की अवस्था को पहुंचते-पहुंचते गैलीलियो अपनी आंखों की रोशनी पूरी तरह खो चुके थे। बहुत से लोग यह मानते हैं कि उनका अंधापन अपनी दूरबीन द्वारा सन् 1613 में सूर्य को देखने (जिसके द्वारा उन्होंने सौर-कलंक या सनस्पॉट्स भी खोजे थे) के कारण उत्पन्न हुआ होगा। पर जांच करने पर पता चला कि ऐसा मोतियाबिंद के आ जाने और आंख की ग्लौकोमा नामक बीमारी के कारण हुआ होगा।

सम्मान
वर्ष 1609 में दूरबीन के निर्माण और खगोलीय पिंडों के प्रेक्षण की घटना के चार सौ सालों के बाद 400वीं जयंती के रूप में वर्ष 2009 को अंतर्राष्ट्रीय खगोलिकी वर्ष के रूप में मनाकर इस महान वैज्ञानिक को श्रद्वांजलि अर्पित कर अपनी भूल का प्राश्चित्य करने का प्रयास किया। कालान्तर में प्रकाश की गति और उर्जा के संबंधों की जटिल गुल्थी को सुलझाने वाले महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन ने इसी कारण उन्हें ‘आधुनिक विज्ञान का पिता ‘ के नाम से संबोधित किया।
सन् 1642 में गृह-कैद झेल रहे गैलीलियो की 8 जनवरी को मृत्यु हो गई। कुछ मास बाद उसी वर्ष न्यूटन का जन्म हुआ। इस तरह कह सकते हैं कि तब एक युग का अंत और एक और नए क्रांतिकारी युग का शुभारंभ हुआ।

आशीष श्रीवास्तव | 
विज्ञान विश्व में फ़रवरी 15, 2014 को प्रकाशित 
फेसबुक से साभार ।


20 अगस्त 2017

जन कवि घाघ

लोकोतियोँ के रचनाकार प्राय:अग्यात होते हैँ लेकिन घाघ की लोक़ोक्तियोँ के रचनाकार के बारे मेँ यह विवरण रोचक है ।
 सूधेश

कहे घाघ सुन घाघनी ...

घाघ के जन्म स्थान के बावत लोगों में अनेकों कयास हैं.कुछ लोग उनका पैतृक निवास कन्नौज मानते हैं ,जब कि पंडित राम निवास त्रिपाठी के अनुसार घाघ बिहार के छपरा के रहने वाले थे . पंडित राम निवास त्रिपाठी की यह उक्ति ज्यादा सटीक जान पड़ती है, क्योंकि घाघ की कहावतें भोजपुरी भाषा में हैं. छपरा की भाषा भी भोजपुरी है . घाघ की कहावतों की कुछ बानगी देखिए ,जिनसे घाघ की मातृ भाषा भोजपुरी थी का पता चलता है ...

नाटा खोटा बेचि के चार धुरंधर लेहु ,
आपन काम निकारि के औरन मंगनि देहु .

करिया बादर जिव डेरवाये,
भूरा बादर पानी लावे .

उत्तम खेती मध्यम बान ,
निषिद्ध चाकरी भीखि निदान.

गोबर ,मैला ,नीम की खली ,
या से खेती दूनी फली  

सावन मास बहे पुरवईया ,
बछवा बेचु लेहु धेनु गइया.

हथिया पोंछि डोलावे ,
घर बईठल गेहूं पावे  .

घाघ की जन्म साल कोई 1693 तो कोई 1753 बताता है . ज्यादातर विद्वान 1753 को हीं घाघ का जन्म साल मानते हैं . पंडित राम नरेश त्रिपाठी भी 1753 को हीं घाघ का जन्म साल मानते हैं .रामनरेश त्रिपाठी ने शोध कर घाघ का नाम देवकुली दूबे पता किया है.देवकुली दूबे "घाघ " उपनाम से अपनी कहावतें कहा करते थे . घाघ की पत्नी का नाम पता नहीं चल पाया है . घाघ ने अक्सर अपनी पत्नी को घाघनी नाम से हीं पुकारा है - "कहे घाघ सुन घाघनी ..." घाघ की कृषि सम्बंधी कहावतें इतनी सटीक हुआ करती थीं कि दूर दूर से लोग उनसे कृषि सम्बंधी सलाह लेने आया करते थे . उनकी प्रसिद्धि सुन बादशाह अकबर शाह द्वीतिय ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया. कन्नौज में जागीर देकर उनका सम्मान किया . घाघ ने एक गांव हीं कन्नौज में बसा दिया था .चूंकि जागीर अकबर शाह ने दी थी, इसलिए गांव का नाम अकबर व घाघ दोनों के नाम पर रखा गया - "अकबराबाद सराय घाघ ".  आज भी इस गांव का नाम सराय घाघ है .

 देवकुली दुबे (घाघ ) के दो पुत्र थे - मार्कण्डेय दूबे और धीरधर दूबे .आज इस गांव में घाघ की सातवीं / आठवीं पीढ़ी निवास कर रही है .एक घाघ से इस गांव में अब 25 परिवार दूबे लोगों का हो गया है . इनकी भाषा भोजपुरी न होकर कन्नौजिया हो गयी है . ये लोग दान नहीं लेते . यजमानी नहीं करते . घाघ अपने धार्मिक विश्वासों के कट्टर समर्थक थे . इसलिए इनका मुगल शासकों से कभी नहीं बनी . घाघ की ज्यादातर जागीर बाद में जब्त कर ली गयी थी . घाघ की अपनी एक बहू से भी कभी नहीं बनी. वह उनकी कहावतों के उलट लिखा करती थी .

घाघ ( देव कुली दूबे ) की कुंडली में लिखा था कि उनकी मृत्यु पानी में डूबने से होगी . इसलिए वे नदी में नहाने से बचते थे . एक बार वे अत्यंत आवश्यक होने पर नदी में नहाने गये . डूबकी लगाते समय उनकी चुटिया जरांठ में फंस गयी . जुरांठ नदी में गाड़े हुए बांस को कहते हैं . उन्हें बाहर निकाला गया . उनकी सांस रुक रही थी . मरते मरते घाघ ने एक दोहा कहा था -

जानत रहलS घाघ निर्बुद्धि ,
आइल काल विनासे बुद्धि .

एस बी ओझा का लेख। भोला नाथ त्याघी के सौजन्य से । फेसबुक 7.6.2017

13 अगस्त 2017

क्या आर्य आक्रमणकारी थ?




Varangians
नार्मन सिद्धान्त के अनुसार, स्कैण्डिनेविया के लोगों ने पहले रूसी किसी भी देश के इतिहास का कोई सर्वस्वीकृत रूप नहीं मिलता। इसकी बजाय आपको अतीत के इतिहासकारों, वर्तमान शासकों, प्रतिद्वन्द्वी देशों, यात्रियों और विदेशी हितों के लिए काम करने वाले तथाकथित विद्वानों द्वारा लिखित इतिहास के अनेक रूप देखने को मिलेंगे। रूस और भारत जैसे विशाल देशों में इतिहास के इनमें से हर रूप को मानने वाले लोग पर्याप्त संख्या में मिलेंगे, जिसके कारण इतिहास से जुड़ा भ्रम 
भारत में वामपन्थी विद्वानों ने आर्यों के आक्रमण के सिद्धान्त का ज़ोर-शोर से समर्थन किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार यह दावा किया जाता है कि गोरे रंग के यूरोपीय लोगों ने भारत पर आक्रमण करके काले रंग के स्थानीय मूल निवासियों को अपना ग़ुलाम बना लिया था और इस तरह भारत में आर्य सभ्यता की स्थापना की थी। इस सिलसिले में दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों सिद्धान्तों को विदेशी विशेषज्ञों ने ही प्रस्तुत किया है। भले ही ये विदेशी विद्वान रूस और भारत का विशेषज्ञ होने का दावा करते थे, लेकिन सच्चाई यह है कि उन्हें इन देशों के बारे में ज़्यादा समझ नहीं थी। वैसे इस बात में भी काफी दम है कि इन सिद्धान्तों को विकसित करने के पीछे इन विदेशी विशेषज्ञों की मन्शा बहुत ही कुत्सित थी। 

नार्मन समस्या

नार्मन सिद्धान्त के अनुसार, स्कैण्डिनेविया के लोगों ने पहले रूसी राज्य की स्थापना की और उस पर शासन किया था। इस सिद्धान्त के समर्थक तर्क देते हैं कि रूस पर यदि पश्चिम का प्रभाव नहीं पड़ा होता, तो रूस का एक सभ्यता के रूप में कभी विकास ही नहीं हो पाया होता।
लगभग एक हजार वर्ष पहले ‘अतीत काल के इतिवृत्त’ के रूप में इस बारे में इतिहास लिखा गया। सन 1116 ईस्वी में लिखित ‘अतीत काल का इतिवृत्त’ में लिखा है कि रूस के लोगों ने स्कैण्डिनेविया के लोगों से कहा — हमारे पास बहुत ज़्यादा ज़मीन है और वह काफ़ी उर्वर भी है, पर हमारे यहाँ व्यवस्था ठीक नहीं है। कृपया आप लोग आइए, हमारे ऊपर शासन कीजिए और यहाँ पर सुराज की स्थापना कीजिए।
मिख़ाइल वेस्त्रात ने रूसी तथा एशियाई अध्ययन विद्यापीठ के लिए प्रस्तुत अपने शोधपत्र में समझाया है — हालाँकि रूसी विद्वान ‘अतीत काल के इतिवृत्त’ के बारे में जानते थे, किन्तु पश्चिम के लोगों को 1732 तक इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। साँक्त पितेरबुर्ग स्थित विज्ञान अकादमी में कार्यरत जर्मनी के विद्वान गेरार्ड फ्रेडरिक मूलर ने इस ग्रन्थ के कतिपय अंशों का अनुवाद करके 1732 में उन्हें प्रकाशित किया था। जर्मनी के अन्य विद्वानों ने इसमें खूब उत्सुकता दिखाई और गेरार्ड फ्रेडरिक मूलर, आगस्त लुडविग श्लोज़र तथा गोतलिब बेयर सहित अनेक जर्मन विद्वानों ने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जिसको रूसी राज्य के उद्भव का “नार्मन सिद्धान्त” कहा गया। इस सिद्धान्त में उन्होंने दावा किया कि वरंजियाई नामक एक जर्मन-स्कैण्डिनेवियाई जाति ने 'कियेव-रूस' राज्य की स्थापना की थी।
उल्लेखनीय है कि वरंजियाइयों को पश्चिम में वाइकिंग या नार्मन के नाम से जाना जाता था। ‘अतीत काल के इतिवृत्त’ में इस मुद्दे पर स्पष्ट रूप से सबकुछ लिखा हुआ है, इसलिए जर्मन विद्वानों के इस सिद्धान्त में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था।
हालाँकि नार्मन सिद्धान्त के विरोधियों का कहना है कि स्लाव सभ्यता स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई थी। इन राष्ट्रवादी विद्वानों में मिख़ाइल लमानोसफ़ का नाम सबसे प्रमुख है, जिन्होंने वरंजियाइयों की भूमिका को न्यूनतम करते हुए स्लाव जाति की प्रमुखता पर ज़ोर दिया था। तभी से रूसी राष्ट्रवादियों के बीच उनका “नार्मन-विरोधी सिद्धान्त” काफी लोकप्रिय रहा है।
निकलाय रियासनोव्स्की नामक एक अन्य विद्वान ने कहा कि 'कियेव-रूस' राज्य के स्लाव शासकों को दक्षिणी रूस का सदियों तक हुआ सांस्कृतिक विकास विरासत में मिला था। उन्होंने कहा — नार्मन लोगों का रूस के विकास में योगदान लगभग नहीं के बराबर था। रूस राज्य के निर्माण में उनका असर बहुत कम रहा, बल्कि यूँ कहें कि सिर्फ ऊपरी-ऊपरी ही रहा।
वास्तव में निकलाय रियासनोव्स्की ने कहा कि यदि उस समय सभ्यताओं के बीच कोई आदान-प्रदान अगर हुआ भी था, तो वह पश्चिम से पूर्व की ओर नहीं, बल्कि पूर्व से पश्चिम की ओर हुआ था। उन्होंने कहा —  स्कैण्डिनेविया पर रूस का काफ़ी सांस्कृतिक असर था।
यह बहस सिर्फ़ अकादेमिक बहस नहीं है। मिख़ाइल वेस्त्रात के अनुसार — इस बहस में ‘रूस’ शब्द, पहले रूसी राज्य और रूसी व उक्रइनी जाति, इन सभी का उद्भव ही दाँव पर लगा हुआ है।

आर्य आक्रमण का सिद्धान्त

जब अंग्रेज़ों को यह महसूस हो गया कि वे भारत के अनगिनत युद्धपिपासु राजे-रजवाड़ों को पूरी तरह से कभी पराजित नहीं कर सकते, तो उन्होंने 1847 में मैक्समूलर नामक जर्मनी के एक अत्यन्त महत्वाकांक्षी, काइयाँ व निर्लज्ज विद्वान को हिन्दू धर्म के बारे में बेहिसाब झूठ गढ़ने का काम सौंपा।
और इस काम में मैक्समूलर अंग्रेज़ों की आशाओं से भी आगे चला गया। उसने संस्कृत के एक प्रचलित शब्द ‘आर्य’ को लिया, जिसका अर्थ होता है - “श्रेष्ठ व्यक्ति”। उसने दावा किया कि संस्कृत का शब्द आर्य यूरोपीय लोगों की एक आद्य प्रजाति आर्यन को ही व्यक्त करता है। उल्लेखनीय है कि आर्यन प्रजाति का उद्भव-स्थान भारत से काफी दूर रूस, कोहकाफ़ या नार्दिक अंचल में कहीं पड़ता है। धूर्त मैक्समूलर ने कहा कि आर्यों ने 1200 ईसा पूर्व के आस-पास भारत पर आक्रमण करके यहाँ की फलती-फूलती सभ्यता को नष्ट कर दिया था और पशुपालन आधारित एक नई जीवन-पद्धति की स्थापना की थी।
सी० बेकरलेग ने ‘संस्कृति व साम्राज्य’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है — मैक्समूलर अंग्रेज़ों का पिट्ठू था। उसको अंग्रेज़ों ने विशेष रूप से वेदों का ऐसा घटिया अर्थ निकालने वाला अनुवाद करने के काम पर लगाया था कि हिन्दुओं की वेदों में आस्था ही समाप्त हो जाए।
मैक्समूलर द्वारा लिखे गए पत्रों से यह बात उजागर होती है कि वह भारत में ईसाई धर्म को लाने के लिए व्याकुल था ताकि हिन्दू धर्म को नष्ट किया जा सके। अपनी पत्नी को लिखे एक पत्र में उसने लिखा है — पूरे अफ्रीका को ईसाई बनाने में हमें केवल 200 साल लगे, लेकिन 400 साल के बाद भी भारत हमारी पकड़ से दूर है। मुझे अब ऐसा महसूस हो रहा है कि संस्कृत भाषा की वजह से ही भारत अभी तक हमारी गिरफ़्त से बचा रह गया है। भारत की इस ताक़त को ख़त्म करने के लिए मैंने संस्कृत सीखने का फ़ैसला किया है।
एक अन्य पत्र में उसने लिखा है — शिव, विष्णु व अन्य लोकप्रतिष्ठित देवी-देवताओं की उपासना की प्रकृति जूपिटर, अपोलो तथा मिनर्वा की उपासना की ही तरह, बल्कि कई बार तो उससे भी अधिक अधम व बर्बर है; इसका सम्बन्ध हमारे पुराने अतीत की विचारपद्धति से है। ऊपर से यह भले ही कितने भी प्रबल व ठोस आधार पर टिकी दिखाई देती हो, किन्तु मुक्त विचार तथा सभ्य जीवन का एक हल्का-सा झोंका भी उसे उड़ाने के लिए काफी होगा।
हालाँकि भारत ने 1947 में ही अंग्रेज़ों को खदेड़ कर बाहर निकाल दिया, लेकिन ग़ुलाम मानसिकता वाला मैकालेवादी भारतीय वर्ग, जो भारतीय होते हुए भी अपने विचारों की दृष्टि से अंग्रेज़ है, आज भी आर्य आक्रमण के सिद्धान्त से चिपका हुआ है।
हालाँकि इधर हाल के वर्षों में विद्वानों ने आर्य आक्रमण के सिद्धान्त में कई बड़ी-बड़ी कमियों को खोज निकाला है। बेल्जियम के भारतशास्त्री कोन्राड एल्स्ट के अनुसार — भारतीय पुरातत्वविदों ने आर्य आक्रमण के सिद्धान्त को पूरी तरह से नकार दिया है क्योंकि 150 साल तक आधिकारिक सिद्धान्त होने तथा इसके समर्थन में हुए शोधों पर काफी धनराशि व्यय होने के बाद भी आज तक इस बात का एक भी सबूत नहीं मिल सका है कि आर्य भारत में वास्तव में बाहर से आए थे।
डीएनए अध्ययन तथा भाषाविज्ञान में हुई प्रगति से यह सिद्ध हो गया है कि भारत पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धान्त सफ़ेद झूठ है और यूरोपीय लोगों ने भारत की ओर जाने का अभियान कभी नहीं किया था।
शोध व अनुसन्धान से इस बात के काफ़ी प्रमाण मिले हैं कि इसके विपरीत प्राचीन भारत के लोग ही अपनी भाषा व संस्कृति को लेकर पश्चिम की ओर गए थे। डीएनए विश्लेषणों से यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय लोगों का जीन समुच्चय विगत 50 हज़ार से भी अधिक वर्षों से कुल मिलाकर स्थिर ही बना हुआ है। अंग्रेज़ों के पिछलग्गू फर्जी इतिहासकार  यह दावा करते हैं कि 1200 ईसा पूर्व में भारत पर आर्यों ने आक्रमण किया था। यदि उस समय कोई आक्रमण हुआ होता, तो भारतीयों के जीन समुच्चय में काफ़ी बदलाव आना चाहिए था।
एम 17 नामक आनुवंशिक चिह्नक को कोहकाफ़ी गुण से सम्बन्धित माना जाता है। वास्तव में भारतीयों के बीच एम 17 की आवृत्ति सर्वाधिक है। इसका अर्थ यह है कि एम 17 की वाहक जातियों में भारतीय लोग सबसे पुराने हैं। यह इस बात का भी संकेत है कि जब भारतीय लोग कोहकाफ़ क्षेत्र में जाकर बस गए, तो धूप की कमी के कारण उनकी त्वचा धीरे-धीरे साफ़ होती चली गई।
मानव से इतर अन्य स्रोतों से भी डीएनए प्रमाण मिल सकते हैं। कोन्राड एल्स्ट के अनुसार — उक्रईना की गायों के वंशक्रम में अच्छा-खासा प्रतिशत भारतीय गायों का है। प्रवासी आर्य गोपालक ज़रूर अपने साथ अपने पशुधन को भी ले गए होंगे। इस निष्कर्ष से इस बात को बल मिलता है कि आर्य आक्रमण सिद्धान्त के विपरीत पूर्व से पश्चिम की ओर ही प्रवास हुआ होगा।
श्रीकान्त तलगेरी ने भी यह सिद्ध किया है कि प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में पूर्वी भारत की नदियों का उल्लेख हुआ है, जबकि परवर्ती ग्रन्थों में पश्चिमी व पश्चिमोत्तर भारत की नदियों का उल्लेख मिलता है, जिससे सिद्ध होता है कि भारोपीय सभ्यता का उद्गम भारत में हुआ और यहाँ से यह सभ्यता पश्चिम की ओर गई।
साफ है कि वामपन्थी फर्जी इतिहासकारों के कल्पनारंजित सिद्धान्त हमें सत्य से दूर ले जाते हैं, जबकि वैज्ञानिक अनुसन्धान हमें अभूतपूर्व रूप से सत्य के निकट ले जा रहा है।
इस लेख के लेखक  न्यूज़ीलैण्ड में रहने वाले राकेश कृष्णन सिंह पत्रकार व विदेशी मामलों के विश्लेषक हैं ।

रूस और भारत संवाद से साभार ( फेस बुक में १३ अगस्त २०१७ को प्रकाशित ) 
अनिल जन्मेजय के सौजन्य से । 

6 अप्रैल 2017

रोचक प्रसंग

जब जाति पाँति  टूट ग ई 

बहुत कम ही लोगो को मालूम  होगा कि 1917 ई मे चंपारण  मे गांधी जी के सहयोगी   डॉ राजेन्द्र प्रसाद   और काँग्रेस के बड़े नेता बाबू व्रजकिशोर  प्रसाद  जात -पात  को बहुत मानते  थे और वे लोग दूसरों के हाथ  का छुआ नहीं खाते थे ।उस समय बिहार मे जात -पात की प्रथा बहुत कड़ी थी ।यहाँ  तक ब्राह्मण मे भी निचले  पायदान के ब्राह्मण  का छुआ ऊंचे  पायदान  के ब्राहमन नहीं खाते थे ।गांधीजी के ये दोनों मददगार वकील  भी थे ,वे जब गांधी जी आंदोलन मे शामिल  होने आए तब अपने साथ नौकर लेकर  आए  लेकिन  एक समस्या खड़ी  हो गई कि वे सारे  नौकर खाना नहीं बनाना जानते थे ।तब  यह तय हुआ कि एक ब्राह्मण  रसोइया  ठीक किया जाये ।जब गांधी जी को इसका पता चला  तब उन्होने उन लोगो को बुला कर कहा कि यहाँ हम सभी एक ही उदेश्य  से एकत्र  हुये है ,इस लिए हमारी जाति भी एक है ,ऐसा माना जाये ।और इस लिए ब्राह्मण  रसोइया रखना  उचित नहीं होगा ।गांधीजी के कहने का यह प्रभाव हुआ कि वहाँ सार्वजनिक रसोई शुरू  हो गई  और जात  का बंधन  टूट गया ।डॉ राजेंद्र प्रसाद ने  अपनी जीवनी मे लिखा है  कि इस प्रकार समझाकर मोतीहारी मे जात पांत  तोड़ दी गई ।मैंने पहली बार वहाँ  दूसरी जाति के हाथ का खाना खाया ।
मुक्ताधारी अग्रवाल के सौजन्य से । 
फेसबुक मेँ 27.3.2017 

विक्रम संवत् 
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विक्रम संवत् ई. पू. 57 वर्ष प्रारंभ हुआ। यह संवत् मालव गण के सामूहिक प्रयत्नों द्वारा गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रम के नेतृत्व में उस समय विदेशी माने जानेवाले शक लोगों की पराजय के स्मारक रूप में प्रचलित हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि तत्समय  भारतीय जनता के देशप्रेम और विदेशियों के प्रति उनकी भावना सदा जागृत रखने के लिए जनता ने सदा से इसका प्रयोग किया है। ऐतिहासिक तथ्य एवं मान्यताएं इस बात की पुष्टि करती हैं कि  यह संवत् मालव गण द्वारा जनता की भावना के अनुरूप     प्रचलित हुआ और तभी से जनता द्वारा ग्राह्य एवं प्रयुक्त है। इस संवत् के प्रारंभिक काल में यह कृत, तदनंतर मालव और अंत में विक्रम संवत् रह गया। यही अंतिम नाम इस संवत् के साथ जुड़ा हुआ है। विक्रम संवत हिन्दू पंचांग में समय गणना की प्रणाली का नाम है। इसका प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। इसके बारह माहों के  नाम हैं - चैत्र , वैशाख , ज्येष्ठ , आषाढ़ , श्रावण , भाद्र , आश्विन , कार्तिक , मार्गशीर्ष , पौष , माघ , तथा फाल्गुन !
योगेन्द्र कुमार के सौजन्य से । फेसबुक 28.3.2017

12 जनवरी 2017

संस्कृत में वकालत

































    संस्कृत को मृत भाषा कहने वालों की कमी नहीं है । पर भारत में अब भी ऐसे क्षेत्र , गांव हैं जहाँ संस्कृत बोली जाती है । इसी क्रम में वाराणसी में एक वकील हैं , जो चालीस वर्षों से वकालत का धन्धा संस्कृत के माध्यम से कर रहे हैं । यह विवरण पढ़िये ---
सुधेश
देववाणी संस्कृत के प्रति भले ही लोगों का रुझान कम हो लेकिन वाराणसी के एडवोकेट आचार्य पंडित श्यामजी उपाध्याय का संस्कृत के लिए समर्पण शोभनीय है। 1976 से वकालत करने वाले आचार्य पण्डित श्यामजी उपाध्याय 1978 में वकील बने। इसके बाद इन्होंने देववाणी संस्कृत को ही तरजीह दी।
श्याम जी कहते हैं कि  ‘जब मैं छोटा था, तब मेरे पिताजी ने कहा था कि कचहरी में काम हिंदी, अंग़्रेजी और उर्दू में होता है परंतु संस्कृत भाषा में नहीं। ये बात मेरे मन में घर कर गई और मैंने संस्कृत भाषा में वकालत करने की ठानी और ये सिलसिला आज भी चार दशकों से जारी है !’ 
सभी न्यायालयीन काम जैसे- शपथपत्र, प्रार्थनापत्र, दावा, वकालतनामा और यहां तक की बहस भी संस्कृत में करते चले आ रहे हैं। पिछले ४ दशकों में संस्कृत में वकालत के दौरान श्यामजी के पक्ष में जो भी निर्णय और आदेश हुआ, उसे न्यायाधीश साहब ने संस्कृत में या तो हिंदी में सुनाया।
संस्कृत भाषा में कोर्टरूम में बहस सहित सभी लेखनी प्रस्तुत करने पर सामनेवाले पक्ष को असहजता होने के सवाल पर श्यामजी ने बताया कि वो संस्कृत के सरल शब्दों को तोड़-तोड़कर प्रयोग करते है, जिससे न्यायाधीश से लेकर विपक्षियों तक को कोई दिक्कत नहीं होती है और अगर कभी सामनेवाला राजी नहीं हुआ तो वो हिंदी में अपनी कार्यवाही करते हैं।
केवल कर्म से ही नहीं अपितु संस्कृत भाषा में आस्था रखनेवाले श्यामजी हर वर्ष कचहरी में संस्कृत दिवस समारोह भी मनाते चले आ रहे हैं। लगभग ५ दर्जन से भी अधिक अप्रकाशित रचनाओं के अलावा श्यामजी की २ रचनाएं “भारत-रश्मि” और “उद्गित” प्रकाशित हो चुकि है।
कचहरी समाप्त होने के बाद श्याम जी का शाम का समय अपनी चौकी पर संस्कृत के छात्रों और संस्कृत के प्रति जिज्ञासु अधिवक्ताों को पढ़ा कर बीताते है। संस्कृत भाषा की यह शिक्षा श्यामजी निःशुल्क देते हैं।
संस्कृत भाषा में रूचि लेनेवाले बुज़ुर्ग अधिवक्ता शोभनाथ लाल श्रीवास्तव ने बताया कि, संस्कृत भाषा को लेकर पूरे न्यायालय परिसर में श्यामजी के लोग चरण स्पर्श ही करते रहते हैं।
जब ये कोर्टरूम में रहते हैं तो इनके सहज-सरल संस्कृत भाषा के चलते श्रोता शांति से पूरी कार्यवाही में रुचि लेते हैं। श्यामजी के संपर्क में आने से उनके संस्कृत भाषा का ज्ञान भी बढ़ गया।
आचार्य श्यामजी उपाध्याय संस्कृत अधिवक्ता के नाम से प्रसिध्द हैं। वर्ष २००३ में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने संस्कृत भाषा में अभूतपूर्व योगदान के लिए इनको ‘संस्कृतमित्रम्’ नामक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया था।
फेसबुक से साभार  ११ जनवरी २०१७ को प्रकाशित




22 फ़रवरी 2016

चिन्दी चिन्दी होती हिन्दी , हम क्या करें?

   ज्ञान के सबसे बड़े सर्च इंजन विकीपीडिया ने अपने नए सर्वेक्षण नें दुनिया की सौ भाषाओं की सूची जारी की है, उसमें हिन्दी को चौथा स्थान दिया है। इसके पूर्व हिन्दी को दूसरे स्थान पर रखा जाता था। पहले स्थान पर चीनी थी। यह परिवर्तन इसलिए हुआ की सौ भाषाओं की इस सूची में भोजपुरी, अवधी, मैथिली, मगही, हरियाणवी और छत्तीसगढ़ी को स्वतंत्र भाषा का दर्जा दिया गया है। हिन्दी को खण्ड-खण्ड करके देखने की यह अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति है। आज भी यदि हम इनके सामने अंकित संख्याओं को हिन्दी बोलने वालों की संख्या में जोड़ दें तो फिर हिन्दी दूसरे स्थान पर पहुँच जाएगी। किन्तु यदि उक्त भाषाओं के अलावा राजस्थानी, ब्रजी, कुमायूनी-गढ़वाली, अंगिका, बुंदेली जैसी बोलियों को भी स्वतंत्र भाषाओं के रूप में गिन लें तो निश्चित रूप से हिन्दी सातवें-आठवें स्थान पर पहुंच जाएगी और जिस तरह से हिन्दी की उक्त बोलियों द्वारा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग जोरों से की जा रही है यह परिघटना आगे के कुछ ही वर्षों में यथार्थ बन जाएगी।
विशवस्त सूत्रों से मालूम हुआ है हमारे कुछ सांसद भोजपुरी, राजस्थानी आदि हिन्दी की बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने वाला बिल संसद के आगामी सत्र में  पेश करने पर जोर दे रहे हैं. इनमें लोकसभा में भाजपा के मुख्य सचेतक अर्जुनराम मेघपाल, सांसद जगदम्बिका पाल, सांसद मनोज तिवारी और भोजपुरी समाज के अजीत दूबे प्रमुख हैं। इनका शिष्ट मंडल हमारे प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और गृहमंत्री राजनाथ सिंह से भी मिल चुका है। यदि यह बिल पास हो गया तो हिन्दी के खूबसूरत घर का एक बड़ा हिस्सा और बँट जाएगा। अब भी यदि समय रहते हमने इस बिल के पीछे छिपी साम्राज्यवाद और उसके दलालों की साजिश का पर्दाफाश नहीं किया तो हमें डर है कि हमारी सरकार बहुत जल्दी संसद में यह बिल लाएगी और बिना किसी बहस के कुछ मिनटों में ही बिल पास भी हो जाएगा. हमारे भोजपुरीभाषी वन्धुओं ने तो मानो अपने हित के बारे में सोचने विचारने का काम भी ठेके पर दे रखा है, वर्ना अपने जिस पूर्व गृहमंत्री माननीय पी. चिदंबरम की जबान से इस देश की राजभाषा हिन्दी के शब्द सुनने के लिए हमारे कान तरसते रह गए उसी गृहमंत्री ने हम रउआ सबके भावना समझतानीं जैसा भोजपुरी का वाक्य संसद में बोलकर भोजपुरी भाषियों का दिल जीत लिया था। सच है भोजपुरी भाषी आज भी दिल से ही काम लेते हैं, दिमाग से नहीं, वर्ना, अपनी अप्रतिम ऐतिहासिक विरासत, सांस्कृतिक समृद्धि, श्रम की क्षमता, उर्वर भूमि और गंगा यमुना जैसी जीवनदायिनी नदियों के रहते हुए यह हिन्दी भाषी क्षेत्र आज भी सबसे पिछड़ा क्यों रहता ? यहाँ के लोगों को तो अपने हित- अनहित की भी समझ नहीं है। वैश्वीकरण के इस युग में जहां दुनिया के देशों की सरहदें टूट रही हैं,  टुकड़े टुकड़े होकर विखरना हिन्दी भाषियों की नियति बन चुकी है.
      सच है, जातीय चेतना जहाँ सजग और मजबूत नहीं होती वहाँ वह अपने समाज को विपथित भी करती हैं। समय-समय पर उसके भीतर विखंडनवादी शक्तियाँ सर उठाती रहती हैं। विखंडन व्यापक साम्राज्यवादी षड्यंत्र का ही एक हिस्सा है। दुर्भाग्य से हिन्दी जाति की जातीय चेतना मजबूत नहीं है और इसीलिए वह लगातार टूट रही है।
 अस्मिताओं की राजनीति आज के युग का एक प्रमुख साम्राज्यवादी एजेंडा है। साम्राज्यवाद यही सिखाता है कि थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली । जब संविधान बना तो मात्र 13 भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल थीं। फिर 14, 18  और अब 22 हो चुकी हैं। अकारण नहीं है कि जहाँ एक ओर दुनिया ग्लोबल हो रही है तो दूसरी ओर हमारी भाषाएं यानी अस्मिताएं टूट रही हैं और इसे अस्मिताओं के उभार के रूप में देखा जा रहा है। हमारी दृष्टि में ही दोष है। इस दुनिया को कुछ दिन पहले जिस प्रायोजित विचारधारा के लोगों द्वारा गलोबल विलेज कहा गया था उसी विचारधारा के लोगों द्वारा हमारी भाषाओं और जातीयताओं को टुकड़ो-टुकड़ो में बांट करके कमजोर किया जा रहा है.
भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग समय-समय पर संसद में होती रही है. श्री प्रभुनाथ सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, संजय निरूपम, अली अनवर अंसारी, योगी आदित्य नाथ जैसे सांसदों ने समय-समय पर यह मुद्दा उठाया है। मामला सिर्फ भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता देने का नहीं है। मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद छत्तीसगढ़ ने 28 नवंबर 2007 को अपने राज्य की राजभाषा छत्तीसगढ़ी घोषित किया और विधान सभा में प्रस्ताव पारित करके उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग की। यही स्थिति राजस्थानी की भी है। हकीकत यह है कि जिस राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग जोरों से की जा रही है उस नाम की कोई भाषा वजूद में है ही नहीं। राजस्थान की 74 में से सिर्फ 9 (ब्रजी, हाड़ौती, बागड़ी, ढूंढाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी) बोलियों को राजस्थानी नाम देकर संवैधानिक दर्जा देने की मांग की जा रही है। बाकी बोलियों पर चुप्पी क्यों ? इसी तरह छत्तीसगढ़ में 94  बोलियां हैं जिनमेंसरगुजिया और हालवी जैसी समृद्ध बोलियां भी है। छत्तीसगढ़ी को संवैधानिक दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ने वालों को इन छोटी-छोटी उप बोलियां बोलने वालों के अधिकारों की चिन्ता क्यों नहीं है ? पिछली सरकार के बहुचर्चित केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री नवीन जिंदल ने लोक सभा में एक चर्चा को दौरान कुमांयूनी-गढ़वाली को संवैधानिक दर्जा देने का आश्वासन दिया था। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि यदि हरियाणा सरकार हरियाणवी के लिए कोई संस्तुति भेजती है तो उसपर भी विचार किया जाएगा। मैथिली तो पहले ही शामिल हो चुकी है। फिर  अवधी और ब्रजी ने कौन सा अपराध किया है कि उन्हें आठवीं अनुसूची में जगह न दी जाय जबकि उनके पासरामचरितमानस और पद्मावत जैसे ग्रंथ है ? हिन्दी साहित्य के इतिहास का पूरा मध्य काल तो ब्रज भाषा में ही लिखा गया। इसी के भीतर वह कालखण्ड भी है जिसे हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग ( भक्ति काल ) कहते हैं।
संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हिन्दुस्तान की कौन सी भाषा है जिसमें बोलियां नहीं हैं ? गुजराती में सौराष्ट्री, गामड़िया, खाकी, आदि, असमिया में क्षखा, मयांग आदि, ओड़िया में संभलपुरी, मुघलबंक्षी आदि, बंगला में बारिक, भटियारी, चिरमार, मलपहाड़िया, सामरिया, सराकी, सिरिपुरिया आदि, मराठी में गवड़ी, कसारगोड़, कोस्ती, नागपुरी, कुड़ाली आदि। इनमें तो कहीं भी अलग होने का आन्दोलन सुनायी नहीं दे रहा है।  बंगला तक में नहीं, जहां अलग देश है। मैं बंगला में लिखना पढ़ना जानता हूं किन्तु ढाका की बंगला समझने में बड़ी असुविधा होती है।
 अस्मिताओं की राजनीति करने वाले कौन लोग हैं ? कुछ गिने –चुने नेता, कुछ अभिनेता और कुछ स्वनामधन्य बोलियों के साहित्यकार। नेता जिन्हें स्थानीय जनता से वोट चाहिए। उन्हें पता होता है कि किस तरह अपनी भाषा और संस्कृति की भावनाओं में बहाकर गाँव की सीधी-सादी जनता का मूल्यवान वोट हासिल किया जा सकता है।
      इसी तरह भोजपुरी का अभिनेता रवि किसन यदि भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए  संसद के सामने धरना देने की धमकी देता है तो उसका निहितार्थ समझ में आता है क्योकि, एक बार मान्यता मिल जाने के बाद उन जैसे कलाकारों और उनकी फिल्मों को सरकारी खजाने से भरपूर धन मिलने लगेगा। शत्रुघ्न सिन्हा ने लोकसभा में यह मांग उठाते हुए दलील दिया था कि इससे भोजपुरी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता और वैधानिक दर्जा दिलाने में काफी मदद मिलेगी।  
बोलियों को संवैधानिक मान्यता दिलाने में वे साहित्यकार सबसे आगे हैं जिन्हें हिन्दी जैसी समृद्ध भाषा में पुरस्कृत और सम्मानित होने की उम्मीद टूट चुकी है। हमारे कुछ मित्र तो इन्हीं के बलपर हर साल दुनिया की सैर करते हैं और करोड़ो का वारा- न्यारा करते है। स्मरणीय है कि नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी मैथिली कृति पर मिला था किसी हिन्दी कृति पर नहीं। बुनियादी सवाल यह है कि आम जनता को इससे क्या लाभ होगा ?
एक ओर सैम पित्रोदा द्वारा प्रस्तावित ज्ञान आयोग की रिपोर्ट जिसमें इस देश के ऊपर के उच्च मध्य वर्ग को अंग्रेज बनाने की योजना है और दूसरी ओर गरीब गँवार जनता को उसी तरह कूप मंडूक बनाए रखने की साजिश। इस साजिश में कारपोरेट दुनिया की क्या और कितनी भूमिका है –यह शोध का विषय है। मुझे उम्मीद है कि निष्कर्ष चौंकाने वाले होंगे।
      वस्तुत: साम्राज्यवाद की साजिश हिन्दी की शक्ति को खण्ड-खण्ड करने की है क्योकि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी, दुनिया की सबसे बड़ी दूसरे नंबर की भाषा है। इस देश में अंग्रेजी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हिन्दी ही है। इसलिए हिन्दी को कमजोर करके इस देश की सांस्कृतिक अस्मिता को, इस देश की रीढ़ को आसानी से तोड़ा जा सकता है। अस्मिताओं की राजनीति के पीछे साम्राज्यवाद की यही साजिश है।
      जो लोग बोलियो की वकालत करते हुए अस्मिताओं के उभार को जायज ठहरा रहे हैं वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, खुद व्यवस्था से साँठ-गाँठ करके उसकी मलाई खा रहे हैं और अपने आस-पास की जनता को जाहिल और गंवार बनाए रखना चाहते हैं ताकि भविष्य में भी उनपर अपना वर्चस्व कायम रहे। जिस देश में खुद राजभाषा हिन्दी अब तक ज्ञान की भाषा न बन सकी हो वहाँ भोजपुरी, राजस्थानी, और छत्तीसगढ़ी के माध्यम से बच्चों को शिक्षा देकर वे उन्हें क्या बनाना चाहते है ?  जिस भोजपुरी, राजस्थानी या छत्तीसगढ़ी का कोई मानक रूप तक तय नहीं है, जिसके पास गद्य तक विकसित नहीं हो सका है उस भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराकर उसमें मेडिकल और इंजीनियरी की पढ़ाई की उम्मीद करने के पीछे की धूर्त मानसिकता को आसानी से समझा जा सकता है।
      अगर बोलियों और उसके साहित्य को बचाने की सचमुच चिन्ता है तो उसके साहित्य को पाठ्यक्रमों में शामिल कीजिए, उनमें फिल्में बनाइए, उनका मानकीकरण कीजिए। उन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल करके हिन्दी से अलग कर देना और उसके समानान्तर खड़ा कर देना तो उसे और हिन्दी, दोनो को कमजोर बनाना है और उन्हें आपस में लड़ाना है।
बंगाल की दुर्गा पूजा मशहूर है। मैं जब भी हिन्दी के बारे में सोचता हूं तो मुझे दुर्गा का मिथक याद आता है। दुर्गा बनी कैसे ? महिषासुर से त्रस्त सभी देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए थे। अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्। एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा। अर्थात् सभी देवताओं के शरीर से प्रक़ट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया  और अपने प्रकाश से तीनो लोकों में व्याप्त हो गया । तब जाकर महिषासुर का बध हो सका।
हिन्दी भी ठीक दुर्गा की तरह है। जैसे सारे देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए और दुर्गा बनी वैसे ही सारी बोलियों के समुच्चय का नाम हिन्दी है। यदि सभी देवता अपने-अपने तेज वापस ले लें तो दुर्गा खत्म हो जाएगी, वैसे ही यदि सारी बोलियां अलग हो जायँ तो हिन्दी के पास बचेगा क्या ? हिन्दी का अपना क्षेत्र कितना है ? वह दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली कौरवी से विकसित हुई है। हम हिन्दी साहित्य के इतिहास में चंदबरदायी और मीरा  को पढ़ते है जो राजस्थानी के हैं, सूर को पढ़ते हैं जो ब्रजी के हैं, तुलसी और जायसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं, कबीर को पढ़ते हैं जो भोजपुरी के हैं और विद्यापति को पढ़ते है जो मैथिली के हैं। इन सबको हटा देने पर हिन्दी साहित्य में बचेगा क्या ?
हिन्दी की सबसे बड़ी ताकत उसकी संख्या है। इस देश की आधी से अधिक आबादी हिन्दी बोलती है और यह संख्या बल बोलियों के नाते है। बोलियों की संख्या मिलकर ही हिन्दी की संख्या बनती है। यदि बोलियां आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो आने वाली जनगणना में मैथिली की तरह भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि को अपनी मातृभाषा बताने वाले हिन्दी भाषी नहीं गिने जाएंगे और तब हिन्दी तो मातृ-भाषा बताने वाले गिनती के रह जाएंगे, हिन्दी की संख्या बल की ताकत स्वत: खत्म हो जाएगी और तब अंग्रेजी को भारत की राजभाषा बनाने के पक्षधर उठ खड़े होंगे और उनके पास उसके लिए अकाट्य वस्तुगत तर्क होंगे। ( अब तो हमारे देश के अनेककाले अंग्रेज बेशर्मी के साथ अंग्रेजी को भारतीय भाषा कहने भी लगे हैं।) उल्लेखनीय है कि सिर्फ संख्या-बल की ताकत पर ही हिन्दी, भारत की राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित है।
मित्रो, हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के बीच एकता का सूत्र यदि कोई है तो वह हिन्दी ही है। हिन्दी और उसकी बोलियों के बीच परस्पर पूरकता और सौहार्द का रिश्ता है। हिन्दी इस क्षेत्र की जातीय भाषा है जिसमे हम अपने सारे औपचारिक और शासन संबंधी काम काज करते हैं। यदि हिन्दी की तमाम बोलियां अपने अधिकारों का दावा करते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो हिन्दी की राष्ट्रीय छवि टूट जाएगी और राष्ट्रभाषा के रूप में उसकी हैसियत भी संदिग्ध हो जाएगी।
इतना ही नहीं, इसका परिणाम यह भी होगा कि मैथिली, ब्रजी, राजस्थानी आदि के साहित्य को विश्वविद्यालयों के हिन्दी पाठ्यक्रमों से हटाने के लिए हमें विवश होना पड़ेगा। विद्यापति को अबतक हम हिन्दी के पाठ्यक्रम में पढ़ाते आ रहे थे । अब हम उन्हें पाठ्यक्रम से हटाने के लिए बाध्य हैं। अब वे सिर्फ मैथिली के कोर्स में पढ़ाये जाएंगे। क्या कोई साहित्यकार चाहेगा कि उसके पाठकों की दुनिया सिमटती जाय़ ?
 हिन्दी ( हिन्दुस्तानी ) जाति इस देश की सबसे बड़ी जाति है। वह दस राज्यों में फैली हुई है। इस देश के अधिकाँश प्रधान मंत्री हिन्दी जाति ने दिए हैं। भारत की राजनीति को हिन्दी जाति दिशा देती रही है। इसकी शक्ति को छिन्न –भिन्न करना है। इनकी बोलियों को संवैधानिक दरजा दो। इन्हें एक-दूसरे के आमने-सामने करो। इससे एक ही तीर से कई निशाने लगेंगे। हिन्दी की संख्या बल की ताकत स्वत: खत्म हो जाएगी। हिन्दी भाषी आपस में बँटकर लड़ते रहेंगे और ज्ञान की भाषा से दूर रहकर कूपमंडूक बने रहेंगे। बोलियाँ हिन्दी से अलग होकर अलग-थलग पड़ जाएंगी और स्वत: कमजोर पड़कर खत्म हो जाएंगी।
मित्रो, चीनी का सबसे छोटा दाना पानी में सबसे पहले घुलता है। हमारे ही किसी अनुभवी पूर्वज ने कहा है, “अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च। अजा पुत्रं बलिं दद्यात दैवो दुर्बल घातक:
 अर्थात् घोड़े की बलि नहीं दी जाती, हाथी की भी बलि नही दी जाती और बाघ के बलि की तो कल्पना भी नही की जा सकती। बकरे की ही बलि दी जाती है। दैव भी दुर्बल का ही घातक होता है।
अब तय हमें ही करना है कि हम बाघ की तरह बनकर रहना चाहते हैं या बकरे की तरह।
हम सबसे पहले अपने माननीय सांसदों एवं अन्य जनप्रतिनिधियों से प्रार्थना करते हैं कि वे अत्यंत गंभीर और दूरगामी प्रभाव डालने वाली इस आत्मघाती मांग पर पुनर्विचार करें और भावना में न बहकर अपनी राजभाषा हिन्दी को टूटने से बचाएं।
हम हिन्दी समाज के अपने बुद्धिजीवियों से साम्राज्यवाद और व्यूरोक्रेसी की मिली भगत से रची जा रही इस साजिश से सतर्क होने और एकजुट होकर इसका पुरजोर विरोध करने की अपील करते हैं।
      डॉ. अमरनाथ
अध्यक्ष, अपनी भाषा तथा प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय
संपर्क: ईई-164 / 402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-700091
            मो. 09433009898 ई-मेल amarnath.cu@gmail.com  
--- एम एल गुप्त आदित्य के ब्लाग से साभार ।