जब जाति पाँति टूट ग ई
बहुत कम ही लोगो को मालूम होगा कि 1917 ई मे चंपारण मे गांधी जी के सहयोगी डॉ राजेन्द्र प्रसाद और काँग्रेस के बड़े नेता बाबू व्रजकिशोर प्रसाद जात -पात को बहुत मानते थे और वे लोग दूसरों के हाथ का छुआ नहीं खाते थे ।उस समय बिहार मे जात -पात की प्रथा बहुत कड़ी थी ।यहाँ तक ब्राह्मण मे भी निचले पायदान के ब्राह्मण का छुआ ऊंचे पायदान के ब्राहमन नहीं खाते थे ।गांधीजी के ये दोनों मददगार वकील भी थे ,वे जब गांधी जी आंदोलन मे शामिल होने आए तब अपने साथ नौकर लेकर आए लेकिन एक समस्या खड़ी हो गई कि वे सारे नौकर खाना नहीं बनाना जानते थे ।तब यह तय हुआ कि एक ब्राह्मण रसोइया ठीक किया जाये ।जब गांधी जी को इसका पता चला तब उन्होने उन लोगो को बुला कर कहा कि यहाँ हम सभी एक ही उदेश्य से एकत्र हुये है ,इस लिए हमारी जाति भी एक है ,ऐसा माना जाये ।और इस लिए ब्राह्मण रसोइया रखना उचित नहीं होगा ।गांधीजी के कहने का यह प्रभाव हुआ कि वहाँ सार्वजनिक रसोई शुरू हो गई और जात का बंधन टूट गया ।डॉ राजेंद्र प्रसाद ने अपनी जीवनी मे लिखा है कि इस प्रकार समझाकर मोतीहारी मे जात पांत तोड़ दी गई ।मैंने पहली बार वहाँ दूसरी जाति के हाथ का खाना खाया ।
मुक्ताधारी अग्रवाल के सौजन्य से ।
फेसबुक मेँ 27.3.2017
विक्रम संवत्
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विक्रम संवत् ई. पू. 57 वर्ष प्रारंभ हुआ। यह संवत् मालव गण के सामूहिक प्रयत्नों द्वारा गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रम के नेतृत्व में उस समय विदेशी माने जानेवाले शक लोगों की पराजय के स्मारक रूप में प्रचलित हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि तत्समय भारतीय जनता के देशप्रेम और विदेशियों के प्रति उनकी भावना सदा जागृत रखने के लिए जनता ने सदा से इसका प्रयोग किया है। ऐतिहासिक तथ्य एवं मान्यताएं इस बात की पुष्टि करती हैं कि यह संवत् मालव गण द्वारा जनता की भावना के अनुरूप प्रचलित हुआ और तभी से जनता द्वारा ग्राह्य एवं प्रयुक्त है। इस संवत् के प्रारंभिक काल में यह कृत, तदनंतर मालव और अंत में विक्रम संवत् रह गया। यही अंतिम नाम इस संवत् के साथ जुड़ा हुआ है। विक्रम संवत हिन्दू पंचांग में समय गणना की प्रणाली का नाम है। इसका प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। इसके बारह माहों के नाम हैं - चैत्र , वैशाख , ज्येष्ठ , आषाढ़ , श्रावण , भाद्र , आश्विन , कार्तिक , मार्गशीर्ष , पौष , माघ , तथा फाल्गुन !
योगेन्द्र कुमार के सौजन्य से । फेसबुक 28.3.2017
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