30 मार्च 2017
नार्मन सिद्धान्त के अनुसार, स्कैण्डिनेविया के लोगों ने पहले रूसी किसी भी देश के इतिहास का कोई सर्वस्वीकृत रूप नहीं मिलता। इसकी बजाय आपको अतीत के इतिहासकारों, वर्तमान शासकों, प्रतिद्वन्द्वी देशों, यात्रियों और विदेशी हितों के लिए काम करने वाले तथाकथित विद्वानों द्वारा लिखित इतिहास के अनेक रूप देखने को मिलेंगे। रूस और भारत जैसे विशाल देशों में इतिहास के इनमें से हर रूप को मानने वाले लोग पर्याप्त संख्या में मिलेंगे, जिसके कारण इतिहास से जुड़ा भ्रम
भारत में वामपन्थी विद्वानों ने आर्यों के आक्रमण के सिद्धान्त का ज़ोर-शोर से समर्थन किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार यह दावा किया जाता है कि गोरे रंग के यूरोपीय लोगों ने भारत पर आक्रमण करके काले रंग के स्थानीय मूल निवासियों को अपना ग़ुलाम बना लिया था और इस तरह भारत में आर्य सभ्यता की स्थापना की थी। इस सिलसिले में दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों सिद्धान्तों को विदेशी विशेषज्ञों ने ही प्रस्तुत किया है। भले ही ये विदेशी विद्वान रूस और भारत का विशेषज्ञ होने का दावा करते थे, लेकिन सच्चाई यह है कि उन्हें इन देशों के बारे में ज़्यादा समझ नहीं थी। वैसे इस बात में भी काफी दम है कि इन सिद्धान्तों को विकसित करने के पीछे इन विदेशी विशेषज्ञों की मन्शा बहुत ही कुत्सित थी।
नार्मन समस्या
नार्मन सिद्धान्त के अनुसार, स्कैण्डिनेविया के लोगों ने पहले रूसी राज्य की स्थापना की और उस पर शासन किया था। इस सिद्धान्त के समर्थक तर्क देते हैं कि रूस पर यदि पश्चिम का प्रभाव नहीं पड़ा होता, तो रूस का एक सभ्यता के रूप में कभी विकास ही नहीं हो पाया होता।
लगभग एक हजार वर्ष पहले ‘अतीत काल के इतिवृत्त’ के रूप में इस बारे में इतिहास लिखा गया। सन 1116 ईस्वी में लिखित ‘अतीत काल का इतिवृत्त’ में लिखा है कि रूस के लोगों ने स्कैण्डिनेविया के लोगों से कहा — हमारे पास बहुत ज़्यादा ज़मीन है और वह काफ़ी उर्वर भी है, पर हमारे यहाँ व्यवस्था ठीक नहीं है। कृपया आप लोग आइए, हमारे ऊपर शासन कीजिए और यहाँ पर सुराज की स्थापना कीजिए।
मिख़ाइल वेस्त्रात ने रूसी तथा एशियाई अध्ययन विद्यापीठ के लिए प्रस्तुत अपने शोधपत्र में समझाया है — हालाँकि रूसी विद्वान ‘अतीत काल के इतिवृत्त’ के बारे में जानते थे, किन्तु पश्चिम के लोगों को 1732 तक इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। साँक्त पितेरबुर्ग स्थित विज्ञान अकादमी में कार्यरत जर्मनी के विद्वान गेरार्ड फ्रेडरिक मूलर ने इस ग्रन्थ के कतिपय अंशों का अनुवाद करके 1732 में उन्हें प्रकाशित किया था। जर्मनी के अन्य विद्वानों ने इसमें खूब उत्सुकता दिखाई और गेरार्ड फ्रेडरिक मूलर, आगस्त लुडविग श्लोज़र तथा गोतलिब बेयर सहित अनेक जर्मन विद्वानों ने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जिसको रूसी राज्य के उद्भव का “नार्मन सिद्धान्त” कहा गया। इस सिद्धान्त में उन्होंने दावा किया कि वरंजियाई नामक एक जर्मन-स्कैण्डिनेवियाई जाति ने 'कियेव-रूस' राज्य की स्थापना की थी।
उल्लेखनीय है कि वरंजियाइयों को पश्चिम में वाइकिंग या नार्मन के नाम से जाना जाता था। ‘अतीत काल के इतिवृत्त’ में इस मुद्दे पर स्पष्ट रूप से सबकुछ लिखा हुआ है, इसलिए जर्मन विद्वानों के इस सिद्धान्त में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था।
हालाँकि नार्मन सिद्धान्त के विरोधियों का कहना है कि स्लाव सभ्यता स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई थी। इन राष्ट्रवादी विद्वानों में मिख़ाइल लमानोसफ़ का नाम सबसे प्रमुख है, जिन्होंने वरंजियाइयों की भूमिका को न्यूनतम करते हुए स्लाव जाति की प्रमुखता पर ज़ोर दिया था। तभी से रूसी राष्ट्रवादियों के बीच उनका “नार्मन-विरोधी सिद्धान्त” काफी लोकप्रिय रहा है।
निकलाय रियासनोव्स्की नामक एक अन्य विद्वान ने कहा कि 'कियेव-रूस' राज्य के स्लाव शासकों को दक्षिणी रूस का सदियों तक हुआ सांस्कृतिक विकास विरासत में मिला था। उन्होंने कहा — नार्मन लोगों का रूस के विकास में योगदान लगभग नहीं के बराबर था। रूस राज्य के निर्माण में उनका असर बहुत कम रहा, बल्कि यूँ कहें कि सिर्फ ऊपरी-ऊपरी ही रहा।
वास्तव में निकलाय रियासनोव्स्की ने कहा कि यदि उस समय सभ्यताओं के बीच कोई आदान-प्रदान अगर हुआ भी था, तो वह पश्चिम से पूर्व की ओर नहीं, बल्कि पूर्व से पश्चिम की ओर हुआ था। उन्होंने कहा — स्कैण्डिनेविया पर रूस का काफ़ी सांस्कृतिक असर था।
यह बहस सिर्फ़ अकादेमिक बहस नहीं है। मिख़ाइल वेस्त्रात के अनुसार — इस बहस में ‘रूस’ शब्द, पहले रूसी राज्य और रूसी व उक्रइनी जाति, इन सभी का उद्भव ही दाँव पर लगा हुआ है।
आर्य आक्रमण का सिद्धान्त
जब अंग्रेज़ों को यह महसूस हो गया कि वे भारत के अनगिनत युद्धपिपासु राजे-रजवाड़ों को पूरी तरह से कभी पराजित नहीं कर सकते, तो उन्होंने 1847 में मैक्समूलर नामक जर्मनी के एक अत्यन्त महत्वाकांक्षी, काइयाँ व निर्लज्ज विद्वान को हिन्दू धर्म के बारे में बेहिसाब झूठ गढ़ने का काम सौंपा।
और इस काम में मैक्समूलर अंग्रेज़ों की आशाओं से भी आगे चला गया। उसने संस्कृत के एक प्रचलित शब्द ‘आर्य’ को लिया, जिसका अर्थ होता है - “श्रेष्ठ व्यक्ति”। उसने दावा किया कि संस्कृत का शब्द आर्य यूरोपीय लोगों की एक आद्य प्रजाति आर्यन को ही व्यक्त करता है। उल्लेखनीय है कि आर्यन प्रजाति का उद्भव-स्थान भारत से काफी दूर रूस, कोहकाफ़ या नार्दिक अंचल में कहीं पड़ता है। धूर्त मैक्समूलर ने कहा कि आर्यों ने 1200 ईसा पूर्व के आस-पास भारत पर आक्रमण करके यहाँ की फलती-फूलती सभ्यता को नष्ट कर दिया था और पशुपालन आधारित एक नई जीवन-पद्धति की स्थापना की थी।
सी० बेकरलेग ने ‘संस्कृति व साम्राज्य’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है — मैक्समूलर अंग्रेज़ों का पिट्ठू था। उसको अंग्रेज़ों ने विशेष रूप से वेदों का ऐसा घटिया अर्थ निकालने वाला अनुवाद करने के काम पर लगाया था कि हिन्दुओं की वेदों में आस्था ही समाप्त हो जाए।
मैक्समूलर द्वारा लिखे गए पत्रों से यह बात उजागर होती है कि वह भारत में ईसाई धर्म को लाने के लिए व्याकुल था ताकि हिन्दू धर्म को नष्ट किया जा सके। अपनी पत्नी को लिखे एक पत्र में उसने लिखा है — पूरे अफ्रीका को ईसाई बनाने में हमें केवल 200 साल लगे, लेकिन 400 साल के बाद भी भारत हमारी पकड़ से दूर है। मुझे अब ऐसा महसूस हो रहा है कि संस्कृत भाषा की वजह से ही भारत अभी तक हमारी गिरफ़्त से बचा रह गया है। भारत की इस ताक़त को ख़त्म करने के लिए मैंने संस्कृत सीखने का फ़ैसला किया है।
एक अन्य पत्र में उसने लिखा है — शिव, विष्णु व अन्य लोकप्रतिष्ठित देवी-देवताओं की उपासना की प्रकृति जूपिटर, अपोलो तथा मिनर्वा की उपासना की ही तरह, बल्कि कई बार तो उससे भी अधिक अधम व बर्बर है; इसका सम्बन्ध हमारे पुराने अतीत की विचारपद्धति से है। ऊपर से यह भले ही कितने भी प्रबल व ठोस आधार पर टिकी दिखाई देती हो, किन्तु मुक्त विचार तथा सभ्य जीवन का एक हल्का-सा झोंका भी उसे उड़ाने के लिए काफी होगा।
हालाँकि भारत ने 1947 में ही अंग्रेज़ों को खदेड़ कर बाहर निकाल दिया, लेकिन ग़ुलाम मानसिकता वाला मैकालेवादी भारतीय वर्ग, जो भारतीय होते हुए भी अपने विचारों की दृष्टि से अंग्रेज़ है, आज भी आर्य आक्रमण के सिद्धान्त से चिपका हुआ है।
हालाँकि इधर हाल के वर्षों में विद्वानों ने आर्य आक्रमण के सिद्धान्त में कई बड़ी-बड़ी कमियों को खोज निकाला है। बेल्जियम के भारतशास्त्री कोन्राड एल्स्ट के अनुसार — भारतीय पुरातत्वविदों ने आर्य आक्रमण के सिद्धान्त को पूरी तरह से नकार दिया है क्योंकि 150 साल तक आधिकारिक सिद्धान्त होने तथा इसके समर्थन में हुए शोधों पर काफी धनराशि व्यय होने के बाद भी आज तक इस बात का एक भी सबूत नहीं मिल सका है कि आर्य भारत में वास्तव में बाहर से आए थे।
डीएनए अध्ययन तथा भाषाविज्ञान में हुई प्रगति से यह सिद्ध हो गया है कि भारत पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धान्त सफ़ेद झूठ है और यूरोपीय लोगों ने भारत की ओर जाने का अभियान कभी नहीं किया था।
शोध व अनुसन्धान से इस बात के काफ़ी प्रमाण मिले हैं कि इसके विपरीत प्राचीन भारत के लोग ही अपनी भाषा व संस्कृति को लेकर पश्चिम की ओर गए थे। डीएनए विश्लेषणों से यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय लोगों का जीन समुच्चय विगत 50 हज़ार से भी अधिक वर्षों से कुल मिलाकर स्थिर ही बना हुआ है। अंग्रेज़ों के पिछलग्गू फर्जी इतिहासकार यह दावा करते हैं कि 1200 ईसा पूर्व में भारत पर आर्यों ने आक्रमण किया था। यदि उस समय कोई आक्रमण हुआ होता, तो भारतीयों के जीन समुच्चय में काफ़ी बदलाव आना चाहिए था।
एम 17 नामक आनुवंशिक चिह्नक को कोहकाफ़ी गुण से सम्बन्धित माना जाता है। वास्तव में भारतीयों के बीच एम 17 की आवृत्ति सर्वाधिक है। इसका अर्थ यह है कि एम 17 की वाहक जातियों में भारतीय लोग सबसे पुराने हैं। यह इस बात का भी संकेत है कि जब भारतीय लोग कोहकाफ़ क्षेत्र में जाकर बस गए, तो धूप की कमी के कारण उनकी त्वचा धीरे-धीरे साफ़ होती चली गई।
मानव से इतर अन्य स्रोतों से भी डीएनए प्रमाण मिल सकते हैं। कोन्राड एल्स्ट के अनुसार — उक्रईना की गायों के वंशक्रम में अच्छा-खासा प्रतिशत भारतीय गायों का है। प्रवासी आर्य गोपालक ज़रूर अपने साथ अपने पशुधन को भी ले गए होंगे। इस निष्कर्ष से इस बात को बल मिलता है कि आर्य आक्रमण सिद्धान्त के विपरीत पूर्व से पश्चिम की ओर ही प्रवास हुआ होगा।
श्रीकान्त तलगेरी ने भी यह सिद्ध किया है कि प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में पूर्वी भारत की नदियों का उल्लेख हुआ है, जबकि परवर्ती ग्रन्थों में पश्चिमी व पश्चिमोत्तर भारत की नदियों का उल्लेख मिलता है, जिससे सिद्ध होता है कि भारोपीय सभ्यता का उद्गम भारत में हुआ और यहाँ से यह सभ्यता पश्चिम की ओर गई।
साफ है कि वामपन्थी फर्जी इतिहासकारों के कल्पनारंजित सिद्धान्त हमें सत्य से दूर ले जाते हैं, जबकि वैज्ञानिक अनुसन्धान हमें अभूतपूर्व रूप से सत्य के निकट ले जा रहा है।
इस लेख के लेखक न्यूज़ीलैण्ड में रहने वाले राकेश कृष्णन सिंह पत्रकार व विदेशी मामलों के विश्लेषक हैं ।
रूस और भारत संवाद से साभार ( फेस बुक में १३ अगस्त २०१७ को प्रकाशित )
अनिल जन्मेजय के सौजन्य से ।