आख़िर मैं लिखता ही क्यों हूँ
इस वाक्य से एक ध्वनि यह निकलती है किमेरा ज़ोर लिखने पर है ,पढ़ने पर नहीं ।
तो मुझे पूछना चाहिए कि मैं पढ़ता क्यों नहीं ।लेकिन यह क्यों पूछूँ जब कि मुझे
मालूम है किमैं प़ाय: साहित्य पढ़ता हूँ जो पुस्तकों पत्रिकाओं के रूप में और अब
तो इन्टरनेट पर भी मुझे उपलब्ध हो जाता है ।हर महीने मेरे पास अनेक पत्रिकाएँ
आती हैं । कुछ का मैं सदस्य हूँ और कुछ मुफ़्त में सम्पादकों के उपहार के रूप में
आती हैं । कुछ पुस्तकें भी यदा कदा डाक या कोरियर द्वारा आ जाती हैं , जिन्हें
मेरे प़शंसक अथवा वे लोग भेजते हैं , जो उन पर समीक्षा लिखवाना चाहते हैं । तो
इतना सारा साहित्य हर महीने मेरे पास आता है , जिसे पढ़ना ही पड़ता है । पढ़ना
कोई विवशता नहीं , बस शौक़ या ख़ब्त है । तो मैं स्वयम् से यह क्यों पूछूँ कि मैं
पढ़ता क्यों नहीं । और दूसरे को क्या पड़ी है जो वह मुझ से यह प़श्न पूछे ।
वास्तव में हर शिक्षित व्यक्ति को स्वयम् से पूछना चाहिए कि वह पढ़ता क्यों नहीं
और पढ़ता हे तो क्या पढ़ता है । मैं बहुत से शिक्षित लोगों ,शिक्षकों और छात्रों को
जानता हूँ जो कुछ नहीं पढ़ते , अख़्बार के सिवा । यदि कुछ में साहित्यिक चस्का
है भी तो वे सस्ते जासूसी उपन्यास या घासलेटी साहित्य पढ़ते हैं और समझते हैं कि
वे साहित्य पढ़ते हैं । मैं ऐसे साहित्य को साहित्य नहीं मानता ।
पर मैं ने बात यहाँ से शुरु की थी कि मैं लिखता ही क्यों हूँ ।" लिखता ही " में यह
ध्वनि अवश्य छिपी है कि मैं लिखता ही हूँ पढ़ता कुछ नहीं । पर मैं पढ़ता भी हूँ । तो
लिखता क्यों हूँ , यह पूछने के बजाए मैं स्वयम् से यह क्यों पूछ रहा हूँ कि मैं लिखता
ही क्यों हूँ ।
बात यह है कि इतना सारा साहित्य लिखने और उस के प़काशित होने के बाद मैं
ने देखा कि उसे बहुत कम लोगों मे पढ़ा और शायद अनेक लोगों ने लेखक के रूप
में मेरा नाम भी नहीं सुना । कोई आलोचक मेरे बारे में नहीं लिखता । अनेक आलोचक
बल्कि शलाकापुरुष और साहित्य के दादा मुझे जानते हैं , पर मेरी किसी रचना पर
कुछ नहीं लिखना चाहते , क्यों कि मैं उन का दरबारी नहीं हूँ ।कोई सम्पादक मेरी
कोई रचना छाप देता है तो वे उस से पूछते हैं कि सुधेश को क्यों छापा,छापने से
पहले हम से पूछ तो लेना चाहिए था । तो साहित्य के क्षेत्र में मैं उपेक्षितों में हूँ । तो
मन में यह बात उठती है कि मैं लिंखता ही क्यों हूँ । सब छोड़ हो कर सन्यासी हो
जाऊँ और पहाड़ के किसी कोने में बस जाऊँ ।
पर एकान्त में स्वयम् से पूछता हूँ कि आख़िर मैं लिखता ही क्यों हूँ । कोई और
काम करूँ , जैसे पढ़ने का पढ़ाने का गाने का या नाचने नचाने का । पढ़ने का
काम तो मैं रोज़ करता हूँ , यद्यपि बुढ़ापे में नज़रें कमज़ोर होने के कारण बारीक
अक्षर दिखाई नहीं देते , जिस का ख़मियाज़़ा मुझे भुगतना पड़ता है । एक मित्र ने
एक बड़े आलोचक की पुस्तक दी और कहा कि इस की समीक्षा लिख दो , जो उन
की आगामी पुस्तक में छपेगी । मैं ने हाँ कह दिया पर उस पुस्तक के बारीक अक्षरों के
कारण उसे पढ़ नहीं पाया । अब उसे लौटाने की सोच रहा हूँ ।
पढ़ने के बाद पढ़ाना बचता है । तो पढ़ाने की दास्तान यह है कि मैं ने ंएक विश्व
विद्यालय में तेईस वर्षों तक पढ़ाया । उस के पहले तीन कॉलेजों में आठ वर्षों तक
पढ़ाया था । उस के भी पहले चौदह वर्षों तक स्कूलों में पढ़ाया था । अब पढ़ाने से
मन ऊब गया है । पढ़ाने से अच्छा पढ़ना लगता है ।
गाने और नाचने के बारे में यह लिखना काफ़ी होगा कि बहुत पहले मुझे कवि
सम्मेलनों में अपने गीत गाने का शौक़ रहा , पर गले ने साथ नहीं दिया तो वह काम
भी छोड़ दिया । नाचना लड़कियों को अच्छा आता है , तो नाचने की हिमाक़त
मैं ने कभी नहीं की । हाँ जीवन का नाच तो विवश हो कर नाचना ही पड़ता है ।
तो उसे नाच रहा हूँ , पर नाचते हुए लोगों ने ऐसी टंगड़ी मारी कि मुँह के बल गिरा ।
पर मेरी बेशर्मी कि धूल झाड़ कर फिर खड़ा हो गया । नचाने की कला उसी के
पास होती है जो स्वयम् नाचना जानता हो । मतलब यह कि मैं जो काम नहीं कर
सकता था उसे नहीं किया ।
पढ़ने लिखने का जीवन में साथ रहा । पर उस से कुछ सुफल नहीं निकला ।अधिक
पढ़ने से आँखें दुर्बल हो गईं । तो आख़िर में बचा लिखना । तो अब तक क़लम घिस रहा
हूँ ।
अन्ततः स्वयम् से पूछना पड़ता है कि लिखता ही क्यों हूँ । बुद्धि कहती है कि। बहुत
लिख लिया , अब आराम करो । मन कहता है कि लिखना ही पड़ेगा क्योंकि सामने
इतने सारे प़श्न खड़े हैं , जो उत्तर माँग रहे हैं ।मेरी कविताएँ उन के उत्तर देती हैं , मेरे
लेख भी उन के जवाब देते हैं , मेरे व्यंग़्य उन पर कटाक्ष करते हैं , मेरे संस्मरण उन
का मनोरंजन करते हैं और मेरी आत्मकथा उन्हें उन की कहानी सुनाना शुरु करती है
तो प़श्न पूछने वाले ओझल हो जाते हैंं ।
तो मैं लिखता क्यों हुँ । सोचविचार के बाद यही कहना पड़ेगा कि मैं आत्माभिव्यक्ति
के लिए लिखता हूँ । कोई कह सकता है देखो आत्मा को बीच में मत लाओ । आज के
आदमी की आत्मा लुप्त हो चुकी है । अब आत्मा का स्थान वस्तु ने ले लिया है ।
अगर मैं कहूँ कि मेरा लेखन एक वस्तु है , ऐसी वस्तु जो बेची जाती है और ख़रीदी
जाती है , तो शायद कुछ लोग सहमत हों । लेकिन मैं अपनी रचना बेचने के लिए नहीं
लिखता । मन का चोर पूछ बैठा --तो फिर रोते क्यों हो कि मेरी पुस्तकें नहीं बिकतीं ।
मैं उसे समझाता हूँ भई बिकती तो हैं पर प़काशक रायल्टी नहीं देते ।
बुद्धि पूछती है तो क्या रायल्टी के लिए लिखते हो । मैं कहता हूँ कि रायल्टी मिल
जाए तो कोई हानि नहीं पर मैं रायल्टी के लिए नहीं मन की सन्तुष्टि के लिए लिखता
हूँ । अब मन की सन्तुष्टि को लीजिए । यह बड़ी गोलमोल चीज़ है , जिस का कोई कोना
नहीं होता जिसे पकड़ कर चाहे जिधर घुमा दिया जाए । किसी को शराब से सुख मिलता
है , किसी को कामतृप्ति से ओर भूखे को सूखी रोटी खा कर । जिन के पेट भरे हैं , उन्हें
अधिक से ंअधिक धन चाहिए जो मन्त्री है वह प़धान मन्त्री या राष्ट्र् पति बनने से ही
सन्तुष्ट होगा ।असल में लोगों को आत्मसन्तुष्टि नहीं शरीर की तुष्टि चाहिए क्योंकि उन
की आत्मा तो पूँजीपतियों , उद्योगपतियों और राजनेताओं के पास गिरवी रखी है ।
लेकिन यह तो परतुष्टि हुई , आत्म तुष्टि का क्या हुआ ।तो सुनिए । मुझे आत्मतुष्टि
लिखने से मिलती है , चाहे वह छपे या न छपे , छपा हुआ बिके या नहीं बिके ,और
बिके हुए से कुछ पैसा मिले या नहीं मिले । अगर मिले तो मैं उसे फेंक नहीं दूँगा ।
तुलसी ने स्वान्त: सुखाय रामचरितमानस लिख डाला , पर आलोचक ंउन के
स्वान्त: सुखाय में परसुखाय , लोकमंगल और न जाने क्या क्या ढूँढ चुके हैं और
उन की खोज अभी तक जारी है ।आप कहेंगे तुम तुलसी नहीं हो । हाँ मैं जानता हूँ
कि मैं तुलसी नहीं हूँ , पर सुधेश तो हूँ जिस के पास एक लेखनी है , जिसे मैं
जाने कब से काग़ज़ पर घिस रहा हूँ । जैसे पत्थर पर पत्थर रगड़ने से चिनगारी
निकल अती है वैसे काग़ज़ पर क़लम चलने से भी एक बिजली चमकती है , जिसे
अन्धे भी देख लेते हैं पर पूर्वाग़ही नहीं देखना चाहते ।
मैं ंउन पूर्वाग़ही लोगों की आँखें खोलने के लिए लिखता हूँ । जिन की आँखें खुली
हुई हैं उन्हें जीवन जगत के दर्शन अपनी आँखों के दर्पण में कराने की कोशिश
कर रहा हूँ ।
सुधेश
३१४ सरल अपार्टमैैंट्स , सेक्टर १० नई दिल्ली ११००७५
फ़ोन ०९३५०९७४ १२०
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (06-02-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ |
साहित्य अक्सर दूसरों के लिए लिखा जाता है मगर ब्लॉग लेखन मन की .
जवाब देंहटाएंएक ईमानदार प्रश्न जो हर लेखक कभी न कभी स्वयं से करता होगा !
हर रचना पहले अपने लिए लिखी जाती फिर अन्यों के लिए । ब्लाग लेखन भी अपवाद नहीं है । पर आप के
हटाएंमत का स्वागत करता हू़ं ।
अभिव्यक्ति की मानव-सुलभ तृष्णा.
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