कार्ल मार्क्स की औलादें
मार्क्स एक आदमी था , जिसे एक महापुरुष कहूँ तो सर्वथा उचित है , जो जर्मनी में पैदा हुआ
था , पर उस का सारा जीवन बृटेन में बीत गया । यह संयोग है कि वह जर्मनी में पैदा हुआ ।
वह पंजाब के भटिण्डा या उत्त्तर प़देश के नकुड़ में भी पैदा हो सकता था । तब मार्क्सवाद
का भारतीय संस्करण दुनिया के सामने आता । मार्क्स की एक ज्ञात पत्नी भी थी ( अज्ञात
पत्नी या पत्नियाँ हों तो मैं नहीं जानता ) और सम्भव है कि उन दोनों की कोई सन्तान भी
हो । उन का महान ग्रन्थ दास कैपिटल ( हिन्दी में जिस का अनुवाद होगा पूँजी ) मैं ने पढ़ा
है , पर उस में उन की सन्तान का कोई उल्लेख नहीं है । पर उन के मानस पुत्रों और मानस
पुत्रियों ,मित्रों, अनुयायी भक्तों ,पैरोकारों ,कटु और मधुर आलोचकों ,प़चारकों , व्याख्या
कारों ,अन्धमूढ़ प़शंसकों और लकीर के फ़क़ीरों की संख्या दुनिया भर में फैली हुई है । यह
मार्क्सवाद का प्रभाव या उस का चमत्कार है ,जो दुनिया के बगीचों में तरह तरह के गुल
खिला रहा है ।
भारत में मार्क्स की औलादें , औलादें की औलादें मौजूद हैं , जिन्हें सभ्य भाषा में मानसपुत्र
कहा जाता है । हो सकता है कि वे मानसपौत्र या मानसपौत्रियां हों ।ये औलादें जायज़ ़और
ग़ैरज़ायज़ दोनों प़कार के हैं । जो मार्क्स के नाम पर दल या उपदल बना कर राजनीति की
दलदल में धँसे हैं , उन्हें मार्क्स की जायज़ औलादें होने का गौरव दिया जा सकता है । जो
कम से कम ,मार्क्स के नाम का बिल्ला अपने माथे पर चिपकाए घूम रहे हैं और सरेआम
चिल्ला कर कहते हैं कि हम मार्क्स की जायज़ सन्तानें हैं ( औरस सन्तान उन के लिए कठिन
शब्द है या उस में से संस्कृत भाषा या उस के देश भारत की दुर्गन्ध आती है ) । उन्हें मानस
पुत्र कहलाने से परहेज़ है ,क्योंकि मानस से कोई पुत्र या पुत्री पैदा नहीं होती ।
भारत में मार्क्स की ग़ैरज़ायज़ औलादें ,औलादों की भी औलादें मौजूद हैं ।इन की विशेषता
यह है कि ये मार्क्स का नाम लिये बिना उन की बातों को अपनी स्थानीय बोली में लालू
यादव या मुलायम सिंह यादव के अन्दाज़ में बघारती हैं या कभी पेट भरने के बाद डकारती
हैं । मार्क्स सर्व हारा के समर्थक थे , पर उन की जायज़ ग़ैरज़ायज़ सन्तानें जनता या आम
आदमी की बात करती हैं ।मार्क्स ने कभी यह दावा नहीं किया कि वे मार्क्स वाद के प्रवर्तक
हैं , पर उन्होंने कभी यह अवश्य कहा कि दुनिया उन के अनुयायियों से सावधान रहे । हम भारत में ंदेखते हैं कि मार्क्स की ग़ैरज़ायज़ औलादें मार्क्सवाद के बजाए समाजवाद की
बात करती हैं ( यद्यपि मार्क्स का लक्ष्य साम्यवाद की स्थापना था और जो पहले समाजवादी
समाज की स्थापना से सम्भव था ) । वे समाजवाद के भी कई रंग दिखा चुकी हैं । उस का एक
रंग है राम मनोहर सोहिया का समाजवाद । दूसरा जयप़काश नारायण की सम्पूर्ण क़ान्ति
वाला समाजवाद । माओ और लेनिन के अनुयायी साम्यवाद की स्थापना तो चाहते हैं , पर
वे मार्क्स से अलग राह पकड़ते हैं । वे साम्यवादी तो हैं पर मार्क्सवादी व्यापक अर्थ में हैं ।
वे माओवादी और लेनिनवादी कहलाने का सुख और उस से अधिक गौरव का अनुभव करते
हैं ।
मार्क्सवाद की गाड़ी भारत में चल नहीं पा रही है , पर मार्क्स की जायज़ और ग़ैरज़ायज़
सन्तानें उसे घसीट रही हैं ।समाज में उन की बुलन्द आवाज़ें तब ज़ोर से गूँजती हैं , जब कोई
आन्दोलन होता है , कोई हड़ताल होती है या कभी भारतबन्द होता है । तब हर चीज़ पर जनता
के अधिकार की दुहाई दी जाती है , पर संसद में या विधानसभाओं में वे अपने विशेषाधिकार
नहीं छोड़ते बल्कि उन में वृद्धि करते जाते हैं ।
मार्क्स की मानस सन्तानें , जो संसद या विधानसभाओं में नहीं पहुँच पातीं ,वे क़साब या
अफ़ज़ल गुरु को फाँसी दिये जाने के विरोध में लेख लिखती हैं , इन्टरव्यू देती हैं ( अरुन्धति
राय की तरह ) और अपने सनसनीपूर्ण बयानों से प्रसिद्धि बटोरती हैं और आउट लुक जैसी
कुछ अंग़ेज़ी पत्रिकाओं की बिक़ी बढ़ा देती हैं ।
मार्क्स की कुछ ऐसी जायज़ ग़ैरज़ायज़ औलादें हैं जो भारत के दुश्मनों को भारतविरोधी
प़चार की सामग़ी उपलब्ध कराती हैं और इसे अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी का नाम देती
हैं । कुछ ऐसे बुद्धिजीवी हैं , जो मार्क्स के समान धर्म को अफ़ीम ही नहीं बल्कि विष बताते हैं ,
जो भारतीय संस्कृति से बिदकते हैं और उस की ऐसी व्याख्या करते हैं , जो भारत के दुश्मनों
को पसन्द हो । हिन्दू होना उन के लिए गाली के बराबर है ।
मैं ने कुछ ऐसी कविताएँ प़काशित रूप में देखीं , जिन में अफ़ज़ल गुरु की फाँसी पर गहरी
वेदना प़कट की गई । एक ऐसा लेख भी एक पत्रिका में पढ़ा , जिस में आतंकवादियों को
निर्दोष , अन्याय के शिकार , राजनीतिक क़ूरता के शिकार बताने के साथ उन्हें शहीद
होने की गरिमा से मण्डित किया गया है । ऐसे अन्य लेख भी छपे होंगे और ऐसी अन्य
कविताएँ भी छपी होगी , जो मेरी नज़र से नहीं गुज़रीं । मानवाधिकारों का हनन मासूम मरने वालों का नहीं होता , बल्कि उन्हें मारने वाले
आतंकवादियों का होता है , जब उन्हें जेलों में रखा जाता है या फाँसी पर चढ़ाया जाता
है । जब मुम्बई पर आतंकी हमला हुआ था या अब हैदराबाद में अनेक मासूम लोग मारे
गये हैं , तो ये बुद्धिजीवी चुप रहते हैं , मरने वालों के मानवाधिकारों के पक्ष में आवाज़
नहीं उठाते , बल्कि सरकार और भगवा झण्डे को ही कोसते रहते हैं । वे आतंक के किसी
शिकार पर कविता नहीं लिखते , पर आतंक वादी कसाब और अफ़ज़ल गुरु पर कविताएँ
लिखी जा रही हैं और उन की शहादत पर आँसू बहाए जा रहे हैं । बलात्कार की शिकार दामिनी पर ढेरों कविताएं लिखी गईं , अनेक लेख लिखे गये । पर वह आतंकवाद की शिकार तहीं थी ।
अरुन्धति राय सरकार के प़ति और भारत के प़ति विद्व़ेषपूर्ण विषवमन कर रहीं हैं , पर
मार्क्स के मानसपुत्र चुप हो कर तमाशा देख रहे हैं ।
यह मार्क्सवाद की शिक्षा नहीं है , एक भले दर्शन को बदनाम करने की घिनौनी कोंशिश
है । मार्क्स ने अपने जीवन काल में यह भाँप लिया होगा कि उन के अनुयायी उन के विचारों
की हत्या करेंगे । तभी उन्होंने कहा था कि मेरे अनुयायियों से सावधान रहना ।
-- सुधेश
३१४ सरल अपार्टमैैंट्स , द्वारिका सैैक्टर १०
नई दिल्ली ११००७५
आदरणीय प्रोफ़ेसर सुधेश जी,
जवाब देंहटाएंआपका दर्द हास्य-व्यंग्य के साथ जिस तरह इस आलेख में व्यक्त हुआ है उससे हमारे समय की बहुत बड़ी विडम्बना सामने आ सकी है. बाबा मार्क्स की सतमासी संतानों ने राजनैतिक संस्थाओं के साथ ही बौद्धिक एवं शैक्षिक जगत को इतना प्रदूषित कर दिया है कि विचार के स्तर पर लोकतंत्र ही नष्ट हो गया प्रतीत होता है. इनकी हाँ में हाँ मिलाते रहिए तो ठीक वरना ....... आप जानते ही हैं कि मार्क्सवादी आतंकवाद ने अच्छे- अच्छों की वाट ही नहीं लगा दी बल्कि प्रतिभाओं की कपाल क्रिया तक कर दी है. इस अखिल भारतीय महामारी का इलाज ? यमराज!!! क्या कीजिएगा भला अब जब -जिधर देखिए मार्क्स विराजे?!
डा शर्मा जी आप की टिप्पणी के लिए बहुत धन्यवाद । मैं ने आज के समाज में जो देखासुना उसके
हटाएंबारे में लिखा ।