उत्तराखण्ड में हाहाकार
खण्ड कालागढ़ उत्तराखंड में इतनी बरसात इस से पहले 1978 में हुई थी जब मैं मात्र 11 बरस का था। मुझे अच्छी तरह याद है के उस साल एक शेरनी का बच्चा सूकासोत में बह कर आ गया था और उसकी मृत्यु पानी में ही हो गयी थी।उसी दिन से शेरनी की दहाड़ें हम लोग पूरी पूरी रात साफ़ सुनते थे।
वो अभागन माँ रोती चीखती तो दिन में भी होगी लेकिन दिन के शोर में वो आवाजें बस्ती तक नहीं पहुँच पाती थी। जब वो शेरनी रात को दहाड़ मार मार कर रोती तो अम्मी कहतीं मामता से कोई दिल खाली नहीं वो चाहे इंसान हो या पशु ये शेरनी भी अपने बच्चे के दुःख में जान दे देगी, बाद में जब डी टाइप की पानी की टंकी के ऊपर उस शेरनी के मरे बच्चे में भूसा भर के जंगल में रखा गया तब कहीं उस शेरनी का रातों को रोना बंद हुआ लेकिन बस्ती बालों का दुःख उसके लगभग 10 दिन बाद और बढ़ गया जब उस शेरनी की लाश एक नाले में पड़ी मिली
ख़ुदा ने ये सिफत दुनिया की हर इक माँ को बख्शी है
अगर पागल भी हो जाए तो बच्चे याद रहते हैं (मुनव्वर राना )
1978 के इसी साल इतनी बरसात हुई थी के पानी सूकासोत के पुल के ऊपर से बहने लगा था नयी कालोनी और वर्क चार्ज के बीच का पुल टूट गया और नयी कालोनी का संपर्क वर्क चार्ज कालोनी से टूट गया था जिसके कारन हम लगभग 15 दिन स्कूल नहीं गए।
शुरू में तो स्कूल न जाना अच्छा लगा लेकिन तीन चार दिन बाद ही सहपाठियों की याद सताने लगी तब पहली बार उस ग्यारह साल की उम्र में महसूस किया के दोस्तों से दूर रहना कितना मुश्किल होता है और कितना दुश्वार होता है उन से दूर होना जिनको देखने की आपकी आखों को आदत पड़ चुकी होती है आज मैं सोचता हूँ जिनसे सिर्फ पंद्रह दिन दूर रहने पर हम रोने लगे थे क्या पता था के उनसे सदा सदा के लिए दूर हो जायेंगे।
जुदाई के तसव्वुर से लरज़ जाता है दिल अपना
हकीकत में अगर ये हादसा गुज़रा तो क्या होगा।
कालागढ़ में इस बार भी पानी लगभग पुल के ऊपर से ही बह रहा है बच्चे पानी में बहकर आई हुई सूखी लकड़ियाँ खेंच कर बाहर निकाल रहें है पुरानी यादे ताज़ा हो रहीं है मैं आज तनहा अकेला खड़ा इस नज़ारे को भीगी आँखों से देख रहा हूँ और बहुत सारे चेहरे मेरी आँखों के सामने हैं जो अभी भी उसी तरह ग्यारह बारह साल के बच्चे हैं जैसे मैं ने आख़री बार देखे थे ये अलग बात के वो जहाँ होंगें मेरी ही तरह बुढ़ापे की देहलीज पर क़दम रख चुके होंगे।
वो जब भी ख्वाब में आये तो रत्ती भर नहीं बदले
ख्यालों में बसे चेहरे कभी बूढ़े नहीं होते
अब राम गंगा की तरफ चल पड़ा हूँ छाता हाथ में हैं लेकिन खोला नहीं है पीछे से आने वाली सरकारी जीपें जो रामगंगा डैम पर जा रहीं हैं मुझे भीगता देख कर रुक जाती हैं ड्राइवर इशारा करता है के आओ लेकिन मेरे मन में आज किसी भी सवारी में बैठने का इरादा नहीं है क्यूंकि बरसात चाहें यादों की हो या पानी की उसमे में भीगने का अपना एक अलग आनंद है अलग सुख है .।
बरसात में जब डैम के गेट खोल दिए जाते हैं और रामगंगा का शुद्ध निर्मल पानी जिसमे छोटे बड़े मगरमच्छो के साथ हजारों लाखों मछलियाँ बह कर आ जातीं और रेत के दलदल में फंस जाती हैं उनको वहीँ भूनकर नौजवान और बूढों को खाते देखा तो आँखें एकबार फिर नम हो गयी और अपने दो बेहतरीन दोस्त ज़फर अली सिद्दीकी उर्फ़ शन्नू और शमीम अहमद सैफी याद आ गये दोनों को ही मछली पकड़ने और भूनकर खाने का बहुत शौक़ था अल्लाह उनकी रूह को सुकून अता करे और जन्नत में ऊंचा मक़ाम अत करे आमीन।
पहाड़ों में बरसात का अपना ही अलग मज़ा है।लेकिन इस बार उत्तराखंड में जो बरसात ने तबाही मचाई है उस ने अन्दर से रुला दिया है अल्लाह अपना रहम फरमा
मेरे न जाने कितने तीर्थ यात्री भाई वहां फंसे हुए हैं अऐ खुदा उनकी जान की माल की हिफाज़त फरमा ।
अऐ खुदा जो लोग इस आपदा में अपनों से बिछड़ गए हैं उनको मिला दे ।
अऐ खुदा जो लोग इस आपदा में जान से गए हैं उनकी आत्मा को शांति दे और उनके परिवार को सब्र करने की ताक़त अता फरमा। आमीन सुम्मा आमीन ।
ये माना कोई भी मरता नहीं जुदाई में
जुदा किसी को किसी से मगर खुदा न करे ( क़तील शिफ़़ाई )
-- आदिल रशीद
( उर्दू शायर )
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