शब्दों का नशा
मुझे वह दिन याद है जब मैंने पत्रकारिता संस्थान में दाखिला लिया था। मैं पहले दिन बहुत डरा हुआ सा संस्थान पहँुचा। थोड़ी सी जान पहचान के बाद उन्होंने पहले दिन ही हमें लाइब्रेरी भेज दिया और अपनी पसंद के मुताबिक किताब उठा कर पढ़ने का निर्देश दिया। मैंने अब तक कक्षाओं अपने कोर्स की किताबें तो पढ़ी थी पर विभिन्न क्षेत्रों की इतनी सारी किताबें देख कर मेरा दिमाग सुन्न हो गया, मैं स्तब्ध सा खड़ा रैक में लगे किताबों के ढ़ेऱ को देख रहा था। मैं काफी देर तक खड़ा यह सोच रहा था कि कौन सी किताब उठाऊँ, और फिर मैंने रैक में से एक राजनीतिक खबरों से पत्रिका उठाई। मैंने इसे पहले पृष्ठ से पढ़ना शुरू किया और अगले लैक्चर की घण्टी बजने तक मैं सिर्फ दो पेज ही पढ़ पाया था। शायद ऐसा इसलिए था क्यँूकि मुझे तब तक पत्र पत्रिकाऐं पढ़ने की आदत नहीं थी।
आज जब मैं उन दिनों को याद करता हँू तो अपने आप ही मेरे चेहरे पर एक मुस्कुराहट खिँच जाती है। आज किताबें, मैगजीन, अखबार और लेख पढ़ना मेरी आदत में शुमार है। अब इन सब चीजों की आदत हो गई है। पहले पढ़ते हुए अजीब लगता था और अब नहीं पढ़ता हँू तो अजीब लगता है। कभी-कभी मैं सोचता हँू कि उन दिनों में और अब में आखिर क्या फर्क है, मुझे सिर्फ एक ही अलग चीज समझ आती है और वह यह कि मुझे अब पढ़ने की लत लग चुकी है। अब अगर मुझे पढ़ने के लिए कुछ नहीं मिलता है तो मैं असहज महसूस करने लगता हँू। मुझे लगता है कि यह चीज हम में से कईयों के साथ होती होगी। शब्दों का अपना ही नशा होता है। ठीक किसी अन्य मादक पदार्थ या तत्व की ही तरह लगातार संपर्क में रहने पर आपको इनकी भी लत लग जाती है।
मुझे मेरे बचपन के वे दिन याद हैं जब मैं अपने पिताजी को घण्टों तक समाचार पढ़ते हुए देखता था और उनसे पूछता था कि, ‘‘आप दिन भर इसे पढ़ते हुए ऊबते नहीं हो?’’ आज मैं खुद जब भी मौका लगता है अखबार पढ़ने लग जाता हँू। इसलिए नहीं कि मुझे पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना भविष्य बनाना है, बल्कि इसलिए क्यँूकि मुझे अलग-अलग क्षेत्र से सम्बन्धित जानकारियाँ इकठ्ठी करना पसंद है। मुझे उस दुनियाँ के बारे में जानकारियाँ लेना पसंद है जिसमें मुझे जीना है।
अक्सर हम जिंदगी में शब्दों को कम आँकते हैं, या यँू कहें कि उन्हें ज्यादा महत्व नहीं देते हैं। कई लोग तो बोलते वक्त सोचते तक नहीं हैं कि वे क्या बोल रहे हैं और जिन शब्दों का वे प्रयोग कर रहे हैं उन शब्दों का सामने वाले पर क्या प्रभाव पड़ेगा। कबीर दास जी ने एक दोहे में यह कहा भी था कि मीठे वचन अमृत के समान हैं और तीखे वचन विष के समान हैं। एक मिनट जरा सोचें कि जिन्दगी में शब्दों का क्या महत्व है। हम इंसान असल में अपनी सारी जिंदगी ही शब्दों के आधारतल पर जी रहे हैं। कई लोग पैदा होते हैं और इस दुनिया से चले जाते हैं परन्तु शब्दों के इस अद्भुद विज्ञान को समझते ही नहीं हैं। इसी वजह से उन्हें कई बार अपने जीवन में समस्याओं का सामना भी करना पड़ता है। जरा सोचिये कि कैसे आपके बोलने के तरीके और शब्दों में जरा सा बदलाव करने पर एक अनजान व्यक्ति आपके किसी भी काम को आराम से करने के लिए तैयार हो जाता है। जब हम इन शब्दों को एक विशेष श्रंखला में लगाते हैं तो यह वाक्यों का रूप ले लेते हैं, कई वाक्य मिल कर भाषा का निर्माण करते हैं और यही भाषा जानकारी के सारे लेन देन में काम आती है। आखिर हमारी सारी दुनिया जानकारी के भंडारण और लेन देन पर ही तो चल रही है।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक हमारी जिंदगी में जो भी शब्द हम उपयोग करते हैं उनमें से ज्यादातर हम 13साल की आयु तक सीख चुके होते हैं। इस आयु के बाद हमारी शब्दों को सीखने की क्षमता तेजी से नीचे गिरती है। सर्वेक्षण के मुताबिक 13 साल की आयु के बाद शब्दों को सीखने की क्षमता में आयी यह कमी 60प्रतिशत तक होती है। बाजार में ऐसी सैकड़ो किताबें हैं जो शब्दों को सीखने की हमारी इस क्षमता को बढ़ाने का दावा करती हैं। यह किताबें हजारों शब्दार्थो और व्याकरण के नियमों से भरी होती हैं, परन्तु वास्तविकता यही है कि एक आयु के बाद हमारी
शब्दों के सीखने की क्षमता गिरने लग जाती है और इसे किसी पुस्तक के माध्यम से नहीं बढ़ाया जा सकता। यह मस्तिष्क और बुद्धि के बीच का फर्क है। यदि दिमाग की तंत्रिकायें स्वस्थ नहीं हैं तो आपकी बुद्धि कभी भी विकसित नहीं हो सकती है। बुद्धि दिमाग की तंत्रिकाओं में दौड़ने वाली विद्युत तरंगों पर निर्भर करती हैं। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे किसी तार के जर्जर हालत में होने पर उससे ठीक से विद्युत संचार नहीं हो सकेगा। भारत में हम स्मरण शक्ति को बढ़ाने के लिए बादाम और पिस्ता जैसे मेवे खाने में यकीन रखते हैं, पर वास्तविकता यह है कि बादाम और पिस्ते खाने से याददाश्त नहीं बढ़ती है। यह असल में पाॅलीकार्बोहाइड्रेट वाले सूखे फल होते हैं जिनमें मौजूद तत्व हमारी दिमाग की तंत्रिकाओं को स्वस्थ रखते हैं।
शब्द सिर्फ अक्षरों का जोड़-घटाओ नहीं है, यह असल में सरलता से अपने विचारों को व्यक्त करने का माध्यम है। भारत में ऐसे लोग हैं जिन्होंने इस बात को समझा है। प्रसिद्ध बालीवुड अभिनेता अमिताभ बच्चन को 21 भाषाओं का ज्ञान है। उनके अनुसार अपनी मातृ भाषा से प्रेम जरूरी है पर इसी के साथ अन्य देशों की भाषाओं का ज्ञान होना भी जरूरी है। इससे आपको अन्य देशों के संस्कृतियों, वहाँ के जीवन और रहन सहन के बारे में जानने में मदद मिलती है। कब तक आप अनुवादों पर निर्भर बने रहेंगे। आज भारत में अन्य देशों की भाषायें सिखाने के लिए कई जगहों पर छोटी फीस में कक्षायें चलती हैं। शब्द और भाषा जानकारियों के विशाल पिटारों को खोलने की चाभी हैं। इसलिए सीखते रहिए और इन पिटारों को खोलते रहिए।
---पुनीत पाराशर,
( कानपुर )
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