11 जुलाई 2013

सैकुलर अर्थात धर्मनिरपेक्षता





                                     सैकुलर अर्थात धर्मनिरपेक्षता

 टॉइम्स ऑफ इंडिया समाचार पत्र में समाचार प्रकाशित हुआ है कि नरेंद्र मोदी ने “डॉटकॉम पोस्टर बॉय्ज़” राजेश जैन एवं बी. जी. महेश को यह दायित्व सौंपा है कि वे इंटरनेट पर ऐसा अभियान चलावें जिससे सन् 2014 के लोक सभा के होने वाले आम चुनावों में भाजपा को 275 सीटें मिल सकें। अभियान का एकमात्र उद्देश्य है कि नरेंद्र मोदी के भारत के प्रधान मंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त हो सके। वफादार राजेश जैन एवं बी. जी. महेश ने मिलकर इस अभियान को अंजाम देने के लिए कथ्य एवं कंप्यूटर की तकनीक दोनों के माहिर 100 विशेषज्ञों की टीम बनाई है। इस टीम के सदस्यों का एकमात्र कार्य इंटरनेट पर मोदी के पक्ष में वातावरण निर्मित करना तथा यदि कोई देश का नागरिक मोदी पर लगे धब्बों के बारे में टिप्पण करता है तो उसके विरुद्ध अभद्र टिप्पणी करना तथा यह साबित करना है कि टिप्पणी करने वाले को तथ्यों की जानकारी नहीं है या वे तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहा है। “राजधर्म का पालन न होने” सम्बंधी अटल जी के कथन का संदर्भ आते ही टीम के कुछ सदस्य अति उत्साह में भाजपा के माननीय अटल जी को अज्ञानी (इग्नोरेंट) तक की उपाधि से विभूषित कर रहे हैं।

सम्प्रति, मेरा उद्देश्य टीम के सदस्यों के व्यवहार एवं आचरण पर टिप्पण करना नहीं है। पिछले कुछ दिनों से टीम के सदस्यों के द्वारा अंग्रेजी के समाचार पत्रों एवं इंटरनेट पर “सेकुलर” शब्द तथा हिन्दी के समाचार पत्रों एवं इंटरनेट पर हिन्दी की साइटों पर “धर्म निरपेक्षता” शब्द का अवमूल्यन करने का प्रयास किया जा रहा है। इधर मैंने हिन्दी की एक लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका में एक विदूषी चिंतक का लेख पढ़ा जिसमें सेकुलर पर कुछ ऐसा ही टिप्पण किया गया है। उस लेख में संदर्भित विचार की अभिव्यक्ति निम्न वाक्यों में हुई हैः

“--- - - “ रिलीजन” और “धर्म” के बीच बुनियादी अंतर को समझे-समझाए बिना न तो भक्ति और दर्शन की संकल्पना को अभिव्यक्त किया जा सकता है, न ही भारतीय साहित्य, संगीत तथा अन्य कलाओं को, न लोक जीवन को, और इन सबके बिना तो इतिहास बाहर की चीज ही रहेगा। “सेकुलर” और “कम्यूनल” जैसे शब्दों का अर्थ भी राजनैतिक पूर्वग्रह और विचारधाराओं की जकड़बंदी से मुक्त होकर ग्रहण करना होगा। - -”

इस लेख के उद्धृत अंशों को पढ़ने के बाद मुझे जनवरी, 2001 में भारत के प्रख्यात विधिवेत्ता, इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के तत्कालीन अध्यक्ष एवं गहन चिंतक तथा साहित्य मनीषी श्री लक्ष्मी मल्ल सिंघवी जी के साथ इसी विषय पर हुए वार्तालाप का स्मरण हो आया है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा में 31 जनवरी, 2001 को आयोजित होने वाली “हिन्दी साहित्य उद्धरण कोश” विषयक संगोष्ठी का उद्घाटन करने के लिए सिंघवी जी पधारे थे। संगोष्ठी के बाद घर पर भोजन करने के दौरान श्री लक्ष्मी मल्ल सिंघवी ने मुझसे कहा कि सेक्यूलर शब्द का अनुवाद धर्मनिरपेक्ष उपयुक्त नहीं है। उनका तर्क था कि रिलीज़न और धर्म पर्याय नहीं हैं। धर्म का अर्थ है = धारण करना। जिसे धारण करना चाहिए, वह धर्म है। कोई भी व्यक्ति अथवा सरकार धर्मनिरपेक्ष किस प्रकार हो सकती है। इस कारण सेक्यूलर शब्द का अनुवाद धर्मसापेक्ष्य होना चाहिए। मैंने उनसे निवेदन किया कि शब्द की व्युत्पत्ति की दृष्टि से आपका तर्क सही है। इस दृष्टि से धर्म शब्द किसी विशेष धर्म का वाचक नहीं है। जिंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्त्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है। मगर संकालिक स्तर पर शब्द का अर्थ वह होता है जो उस युग में लोक उसका अर्थ ग्रहण करता है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से तेल का अर्थ तिलों का सार है मगर व्यवहार में आज सरसों का तेल, नारियल का तेल, मूँगफली का तेल, मिट्टी का तेल भी “तेल” होता है। कुशल का व्युत्पत्यर्थ है कुशा नामक घास को जंगल से ठीक प्रकार से उखाड़ लाने की कला। प्रवीण का व्युत्पत्यर्थ है वीणा नामक वाद्य को ठीक प्रकार से बजाने की कला। स्याही का व्युत्पत्यर्थ है जो काली हो। मैंने उनके समक्ष अनेक शब्दों के उदाहरण प्रस्तुत किए और अंततः उनके विचारार्थ यह निरूपण किया कि वर्तमान में जब हम हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, इसाई धर्म, सिख धर्म, पारसी धर्म आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं तो इन प्रयोगों में प्रयुक्त “धर्म” शब्द रिलीज़न का ही पर्याय है। अब धर्मनिरपेक्ष से तात्पर्य सेक्यूलर से ही है। सेकुलर अथवा धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म विहीन होना नहीं है। इनका मतलब यह नहीं है कि देश का नागरिक अपने धर्म को छोड़ दे। इसका अर्थ है कि लोकतंत्रात्मक देश में हर नागरिक को अपने धर्म का पालन करने का समान अधिकार है मगर शासन को धर्म के आधार पर भेदभाव करने का अधिकार नहीं है। शासन को किसी के धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए। इसका अपवाद अल्पसंख्यक वर्ग होते हैं जिनके लिए सरकार विशेष सुविधाएँ तो प्रदान करती है मगर व्यक्ति विशेष के धर्म के आधार पर सरकार की नीति का निर्धारण नहीं होता। उन्होंने मेरी बात से अपनी सहमति व्यक्त की।

प्रत्येक लोकतंत्रात्मक देश में उस देश के अल्पसंख्यक वर्गों के लिए विशेष सुविधाएँ देने का प्रावधान होता है। अल्पसंख्यक वर्गों को विशेष सुविधाएँ देने का मतलब “तुष्टिकरण” नहीं होता। यह हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा प्रदत्त “प्रावधान” है। ऐसे प्रावधान प्रत्येक लोकतांत्रिक देशों के संविधानों में होते हैं। उनके स्वरूपों, मात्राओं एवं सीमाओं में अंतर अवश्य होता है। भारत एक सम्पूर्ण प्रभुता सम्पन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य है। संविधान में स्पष्ट है कि भारत “सेकुलर” अथवा “धर्मनिरपेक्ष” लोकतांत्रिक गणराज्य है। जिस प्रकार “लोकतंत्र” संवैधानिक जीवन मूल्य है उसी प्रकार “धर्मनिरपेक्ष” संवैधानिक जीवन मूल्य है। एक बार भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने देश पर आपात काल थोपकर लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत कदम उठाया था और उनको इसका परिणाम भुगतना पड़ा था। जो देश के सेकुलर अथवा धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से छेड़छाड़ करने की कोशिश करेगा, उसको भी उसका परिणाम भुगतना पड़ेगा।

स्वामी विवेकानन्द की डेढ़ सौवीं जयंती मनाई जा रही है। मैं देश के प्रबुद्धजनों से निवेदन करना चाहता हूँ कि वे केवल स्वामी विवेकानन्द के नाम का जाप ही न करें, उनके विचारों को आत्मसात करने की कोशिश करें। विवेकानन्द ने अपने सह-यात्री एवं सहगामी साथियों से कहा थाः “ हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि "दूसरों के धर्म के प्रति कभी द्वेष न करो"; इसके आगे बढ़कर हम सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उनको पूर्ण रूप से अंगीकार करते हैं”।

विवेकानन्द धार्मिक सामंजस्य एवं सद्भाव के प्रति सदैव सजग दिखाई देते हैं।विवेकानन्द ने बार-बार सभी धर्मों का आदर करने तथा मन की शुद्धि एवं निर्भय होकर प्राणी मात्र से प्रेम करने के रास्ते आगे बढ़ने का संदेश दिया।

पूरे विश्व में एक ही सत्ता है। एक ही शक्ति है। उस एक सत्ता, एक शक्ति को जब अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है तो व्यक्ति को विभिन्न धर्मों, पंथों, सम्प्रदायों, आचरण-पद्धतियों की प्रतीतियाँ होती हैं। अपने-अपने मत को व्यक्त करने के लिए अभिव्यक्ति की विशिष्ट शैलियाँ विकसित हो जाती हैं। अलग-अलग मत अपनी विशिष्ट पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग करने लगते हैं। अपने विशिष्ट ध्वज, विशिष्ट चिन्ह, विशिष्ट प्रतीक बना लेते हैं। इन्हीं कारणों से वे भिन्न-भिन्न नजर आने लगते हैं। विवेकानन्द ने तथाकथित भिन्न धर्मों के बीच अन्तर्निहित एकत्व को पहचाना तथा उसका प्रतिपादन किया। मनुष्य और मनुष्य की एकता ही नहीं अपितु जीव मात्र की एकता का प्रतिपादन किया।

काश, स्वामी विवेकानन्द का नाम जपने वाले विवेकानन्द का साहित्य भी पढ़ पाते तथा विवेकानन्द की मानवीय, उदार, समतामूलक दृष्टि को समझ पाते।

आज का युवा जागरूक है, सजग है। सब देख रहा है। उसे नारे नहीं चाहिए। काम चाहिए। देश को अतीत की तरफ नहीं, भविष्य की तरफ देखना है। हमें अपने हाथों अपने देश का भविष्य बनाना है। यह आपस में लड़कर नहीं, मिलजुलकर काम करने से ही सम्भव है। यह भारत देश है। भारत में रहने वाले सभी प्रांतों, जातियों, धर्मों के लोगों का देश है। सबके मिलजुलकर रहना है, निर्माण के काम में एक दूसरे का हाथ बटाना है। समवेत शक्ति को कोई पराजित नहीं कर सकता।

क्या हम ऐसे नेताओं की आरती उतारें जो वोट-बैंक की खातिर हमारे देश के समाज को समुदायों में बांटने का तथा उन समुदायों में नफरत फैलाने का घृणित काम करते हैं। अलकायदा एवं भारत के विकास तथा प्रगति को अवरुद्ध करने वाली शक्तियाँ तो चाहती ही यह हैं कि भारत के लोग आपस में लड़ मरें। भारत के समाज के विभिन्न वर्गों में द्वेष-भावना फैल जाए। देश में अराजकता व्याप्त हो जाए। देश की आर्थिक प्रगति के रथ के पहिए अवरुद्ध हो जायें। मेरा सवाल है कि जो नेता अपनी पार्टी के वोट बैंक को मज़बूत बनाने की खातिर देश को तोड़ने का काम करते हैं, वे क्या भारत-विरोधी शक्तियों के लक्ष्य की सिद्धि में सहायक नहीं हो रहे हैं।

देश को कमजोर करने तथा समाज की समरसता को तोड़ने वाले नेताओं का आचरण वास्तव में लोकतंत्र का गला घोटना है। नेताओं को यह समझना चाहिए कि दल से बडा देश है, देश की एकता है, लोगों की एकजुटता है। लोकतंत्र में प्रजा नेताओं की दास नहीं है। नेता जनता के लिए हैं, जनता के कल्याण के लिए हैं। वे जनता के स्वामी नहीं हैं; वे उसके प्रतिनिधि हैं।यह तो पढ़ा था कि राजनीति के मूल्य तात्कालिक होते हैं। उत्तराखण्ड की विनाश-लीला में भी जिस प्रकार की घिनोनी राजनीति हो रही है, उससे यह संदेश जा रहा है कि राजनीति मूल्यविहीन हो गई है। लगता है कि नेताओं के लिए देश की कोई चिंता नहीं है, उन्हें चिंता है तो बस किसी प्रकार सत्ता मिल जाए। मैं केवल दो बात कहना चाहता हूँ। जनता को सत्ता लोलुप लोगों को वोट नहीं देना चाहिए। दूसरी बात यह कि परम परमात्मा इन नेताओं को सद् बुद्धि प्रदान करे कि वे आत्मसात कर सकें कि दल से बड़ा देश होता है ।

प़ो महावीर शरण जैन 
१२३ हरि एन्क्लेव , चाँदपुर रोड ,बुलन्दशहर २०३००१ ज
(  रचनाकार नामक ब्लाग से .

1 टिप्पणी:

  1. वाह... आपने धर्म और धर्मनिरपेक्षता की आज के परिप्रेक्ष में बेहतरीन परिभाषा पेश की है।

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