22 अगस्त 2013

भारत में भारतीय भाषाओं का कोई भविष्य नहीं है ।


                        भारत में भारतीय भाषाओं का कोई भविष्य नहीं  है , क्योंकि अंग़ेज़ी 
उन सब पर साँप की तरह कुण्डली मारे बैठी है । जैसा मैकाले और अन्य अंग़ेज़ शासकों
ने चाहा वैसा चल रहा है और अब भारतीय नौकर शाह , जिन्हें काले अंग़ेज़ कहा जाता है , 
यथास्थिति के अभ्यस्त हो गये हैं । ऐसा लगने लगा है कि भारतीय भाषाएँ भारत में अंग़ेज़ी 
की विकल्प नहीं रह गई हैं , क्योंकि उन के बोलने वालों में हीनता की मनोग़न्थि घर कर 
गई है और उसे दूर करने के लिए मनोवैज्ञानिकों तथा भाषा वैज्ञानिकों के पास शायद कोई
उपाय नहीं है ।
  इस दशा पर डा नवीन चन्द़ लोहनी ने चिन्तन कर एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी लिखी है , जो 
२० अगस्त २०१३ को फेसबुक में छपी थी । इसे अपने पाठकों के सामने प़स्तुत कर रहा हूँ ।
-- डा सुधेश 

                        हिंदी दिवस के आसपास 

            वास्तव में भारत की भाषाएँ कोई विकल्प नहीं हैं अपने देश के लिए ?????

भारत में कितने प्रतिशत लोग अंगरेजी जानते हैं कोई 2 या तीन प्रतिशत, मैं भी भारत के एन.सी. आर. क्षेत्र में 21 वर्षों से रह रहा हूँ, और देखता हूं कि पास के ही गाँव देहात में पला और उन्हीं इलाकों में जीवन बसर कर रहा आदमी में हिंदी नहीं जानता, या मेरी हिंदी अच्छी नहीं है कहकर शर्म अनुभव नहीं करता बल्कि सोचता है कि वह कुछ बड़ी बात कह गया है , और जब वह गंवारू सी अंगरेजी बोल रहा होता है और उच्चारण भी भ्रष्ट होता है, तो भी यह सोचकर खुश हो लेता है कि ख़राब ही सही अंगरेजी तो बोल रहा हूं । सब्जी वाले , रिक्सेझच वाले या गाँव से आए हुए नए विद्यार्थी या युवक पर तो असर पड़ रहा है  ।
उच्च शिक्षा में तो इस प्रकार की तोता रटंत वाले बहुत हैं, जो किसी की भी ख़राब कुंजी को क्लास में उगल आते हैं और सोचते हैं कि भारी तीर मार दिया है .वह ज्ञान ही क्या जो अपनी भाषा तक में नहीं दोहराया जा सके, पर समझे बगैर उगलना हो तो रटा हुआ उगलना आसन है .  अपनी रटंत और नकल को दूसरों के सामने सुना देने के अलावा इंग्लीश कितने लोगों के लिए सामान्य बोलचाल की भाषा है? यह बहुत बड़ा सवाल है ।
सवाल अँग्रेज़ी के विरोध का नहीं है, आप दुनिया की तमाम भाषाएँ सीखें किसे विरोध है . पर अपने देश के बाहर यह सीन नहीं है, लोग अपनी भाषा से भी लगाव रखते है, और उसे हर हाल में अपने देश में शिक्षा और रोज़गार की भाषा बनाए रखना चाहते हैं, और मामलों में हम पश्चिम की नकल कर रहे हैं, पर इस मामले में नहीं . हम इस मामले में अच्छे नकलची भी नहीं हैं  ।
व्यावसायिक जगहों और जरूरतों की जगह पर तो यह स्थिति हो सकती है अंगरेजी का प्रतिशत बढ़ा होगा यह वास्तव में कितना होगा यह अलग सवाल है , मैं इस मजबूरी में या कार्यालय के घंटों को भाषा ज्ञान के संदर्भ में नहीं देख रहा हूं . परन्तु यह सब लोग घर में, दोस्तों में एवं अपने कार्यालय के बाहर अंग्रेज़ी नहीं प्रयोग करते बल्कि अपने घर की भाषा बंगला, मराठी, पंजाबी, उर्दू , तमिल , तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, हिंदी, गुजराती या फिर अपनी स्थानीय भाषा का प्रयोग करते हैं, वास्तव में व्यावसायिक भाषा नहीं घर की आम प्रयोग की भाषा क्या बोलचाल की भाषा अंगरेजी है,शायद ऐसा नहीं. इस प्रकार देखें तो शायद आपको मेरी बात कुछ अलग और शायद ठीक भी लगे ।
भाषाओँ का विकास उस समाज पर निर्भर करता है जो उसके प्रयोगकर्ताओं का समाज है ।,आखिर भारत की भाषा हिंदी को आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रयोग किया जा रहा है तो उसके लिए भाषा की इस ताकत को समझना पड़ेगा की दूर देशों में हिंदी को लेकर क्यों रुझान है ? लेकिन इसके विपरीत भारत के भाषा भाषी समाजों में अग्रणी होने के बाद भी देश के अंदर ही हिंदी को रोजगार से बाहर कर रहे लोगों के खेल से सजग होना होगा . विदेशों में हिंदी के प्रयोग एवं भविष्य में इस भाषा के जब संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रयोग को लेकर बात होती है तो तब अपने देश के उन लोगों की तरफ नजर जाती है जो इसके लिए जिम्मेदार हैं , क्योंकि देश के बाहर अपनी मातृभाषा को छोड़कर हिंदी पड़ा रहे लोग इस सवाल को पूछें तो उनको क्या जवाब दिया जाय यह समझ में नहीं आता ।
मेरी समझ में सबसे अच्छी ज्ञान की भाषा तो वह है जिसे हम ठीक से बोल,समझ,लिख सकते हैं, कंप्यूटर ने इस मामले में सब भाषाओँ को बराबरी पर ला दिया है. इसलिए फ्रेंच, जर्मन, स्पैनिश, रसियन, जापानी, चीनी भाषा भाषियों को ज्ञान एवं सूचना में अपनी भाषा कहीं भी कमजोर नहीं दीखती, उन्होंने अपने भाषा संस्थानों को मजबूत किया है, और बता दिया है कि वे इस सन्दर्भ में अगर अंगरेजी के मोहताज नहीं हैं और उनकी भाषा में ज्ञान और सूचना की सभी संभावनाओं का दोहन करने और समझने-समझाने की सारी संभावनाएं मौजूद हैं. इसलिए दुनिया भर की भाषाएँ सीखने और समझने के बावजूद वे अपनी भाषा के प्रति कोई समझौता नहीं करते ।
लेकिन क्या भारत सरकार के तमाम मंत्रालयों में इस विषय पर विचार होना जरूरी नहीं है कि तमाम विशेषज्ञों की राय को देखते हुए शिक्षा की भाषा और रोजगार की भाषा में वह अपने देश की भाषाओँ को विकल्प के रूप में लाएं.... सारे मामलों में पश्चिम की नक़ल हो रही है क्या उनकी भाषा नीतियों से भी कुछ सबक लिया जाएगा कि नहीं ?

-- नवीन चन्द़ लोहनी 
( अध्यक्ष  , हिन्दी विभाग,  चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय , मेरठ ) 

1 टिप्पणी:





  1. आदरणीय सुधेश जी
    बहुत महत्वपूर्ण आलेख है ...

    आपको भी धन्यवाद
    और मूल लेखक नवीन चंद लोहनी जी के प्रति भी आभार !

    हार्दिक मंगलकामनाओं सहित...
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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