8 दिसंबर 2013

कुछ स्मरणीय प़संग

कुछ स्मरणीय प़संग

नेलसन आर. मंडेला अंतिम गाँधी चला गया। मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि मैं शोक मनाऊँ या खुशी। हम भारतीयों का उनसे नाता है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि मैं सिद्धान्तिक स्तर पर सहमत नहीं था लेकिन मेरे पास अपने देश को आज़ाद कराने का उनके रास्ते पर चलने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था। मैं सोचता हूं कि दो व्यक्ति संसार में हुए जिनका जिर्गा हिंसा में विश्वास करता था पर उन्होंने अपने संघर्ष का हथियार अहिंसा को बनाया। एक बादशाह ख़ान यानी सरहदी गाँधी दूसरे नेलसन मंडेला। उन्हें भी दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीका का गाँधी कहा जाता था। मैं जब पहला गिरमिटिया के लिए दक्षिण अफ्रीका गया था तो मैंने उनसे मिलकर अपने इस प्रोजेक्ट के लिए आशीर्वाद के लिए पत्र लिखा था।उनका संदेश आया कि वे मिडिल ईस्ट गए हैं। मुझे एक अपने मंत्री से मिलने के लिए कहलाया तो मुझे लगा कि कितनी बड़ी संवेदना है। मैं वहाँ गया। जिस दिन लौटने वाला था उससे पहले दिन मैं सीदात साहब के साथ बीच पर गया तो पता चला कि मंडेला बीच पर खड़े हैं लोगों से शेक हैंड कर रहे हैं। हम दोनों वहाँ गए तो भीड़ लगी थी। मैंने देखा एक लंबा सा व्यक्ति जिसकी आँखों में अद्भुत चमक है मुस्कुराता हुआ खड़ा है। मैंने पहली बार देखा कि एक इतने बड़े देश का अध्यक्ष इतने खुलेपन से अपने लोगों से पब्लिक प्लेस पर मिल रहे हैं। वे भयमुक्त थे हमारे नेताओं की तरह मृत्यु उन्हें डराती नहीं थी। जब तक हम उन तक पहुंचे वे कार में बैठकर हाथ हिला रहे थे। मैं अपनी तरफ़ से और देश की तरफ से उनकी महान आत्मा को सलाम करता हूं।7
-- गिरि राज किशोर
( कानपुर उ प़ )

एक दिन मैं बस स्टाप पर खड़ा था । तभी एक छोटा लड़का फूल बेचता दिखाई दिया , जो तरह तरह की बानी में फूल बेचने की कोशिश कर रहा था । लोग अपने अपने ढंग से उसे टरका रहे थे । उस बच्चे के संघर्ष को देख कर मेरा मन द़वित हो गया । उसी अनुभव के दंश से यह कविता लिखी गई । पहले यह दैनिक भास्कर के साहित्यिक पृष्ठ पर छपी , फिर मेरे एक काव्यसंग़ह में । मेरे एक मित्र के पुत्र के हाथों में यह संग़ह अा गया । उस ने इस कविता को फेसबुक पर डाल दिया । इसे अनेक पाठकों ने पसन्द किया । पता चला कि कविताएँ भी यात्रा करती हैं । वह कविता यहाँ प़स्तुत है --

फुलवा

आंख खोलते ही
निकल पड़ा फुलवा
लंबी काली कठोर सड़कों पर
छाती में फूल छिपाये ,
उसके मैले कमीज के पल्ले में थी
गेंदे की पीली हँसी
जुही की कंवारी खुशबू
गुलाब की रक्तिम आभा
हरसिंगार की मस्त जवानी.

बस की बाट जोहते बाबु से पुछा
'फूल चाहिये ?'
उत्तर पाया - 'चल बे डेमफूल'
पास खड़ी सुन्दरी
खुद थी फूल केवड़े का गबरीला.
प्रेमी युगल
प्रेममदिरा के मद में बहका -
'जूही कितने की ?'
फुलवा उछाहा में कोयल- सा चहका -
'एक रुपैया'
ठिठका सुन-
'एक चवन्नी लेगा ?"

धरती का नन्हा फूल
बेचता रहा फूल
दिन भर सडकों की फांक धूल
उसका ना बिका पर एक फूल
था नहीं कागजी या प्लास्टिक
उसका था असली टंच फूल.

आखिर फुलवा थक गया बैठ
फिर जागी जालिम भूख पेट
उठ खड़ा हुआ
चल दिया उधर
आती थी मीठी महक जिधर
ढाबे पर पूछा-
'लोगे फूल
'ये देखो इत्ते सारे फूल ?'
मालिक ने यों ही पूछ लिया
'क्या लेगा इनका ?'
फुलवा ने समझा गाहक है
अब मोल बताना नाहक है
वह रुंधे गले से फूट पड़ा
तुमको क्या कहना लालाजी
इनकी कीमत इक रोटी
बस मना न करना लालाजी
इनकी कीमत इक रोटी
हाँ इक रोटी '.
हाँ इक रोटी .'.......

. डॉ सुधेश

पंडितजी या प्रधानमंत्री

कुम्भ का मेला लगा हुआ था और प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु और राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद संगम में स्नान करने आए थे । प्रधानमंत्री और सूर्यकांत त्रिपाठी निरालाजी पहले से परिचित थे। पंडितजी का निजी सचिव निरालाजी के पास आया और बोला, देश के पहले प्रधानमंत्री आपसे मिलना चाहते हैं। निरालाजी बोले मिलना चाहते हैं तो भेज दीजिए । सचिव का आशय था कि निरालाजी खुद जाकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मिलें,मगर निरालाजी नहीं गए, उनका कहना था कि अगर पंडित नेहरु बुलाते तो मैं ज़रूर जाता, लेकिन प्रधानमंत्री के बुलाने पर नहीं जाऊँगा।
-- जय प़काश मानस
( रायपुर छत्तीसगढ़ )

एक घटना ग्वालियर की, विषय ‘लीडरशिप’ ही था, इन्डियन जूनियर चेम्बर ने मेरे अतिरिक्त एक और प्रशिक्षक भेजा था जो आगरा के एक शासकीय महाविद्यालय में हिंदी की प्रोफ़ेसर थी। शुरुआती दो सत्र उन्हें लेने थे, लंच के बाद के दो मुझे। मेरी ट्रेन लगभग ग्यारह बजे ग्वालियर पहुँची, सज-संवर कर मैं लंच के समय सभागृह पहुँच गया। भोजन करते समय मैंने अपनी सहयोगी प्रशिक्षक से पूछा- ‘पिछले सत्र में आपने क्या ‘कव्हर’ किया?’
‘मैंने तो विषयसूची में निर्धारित चारों विषय दो सत्र में ही निपटा दिया।’ उन्होंने मासूमियत से बताया।
‘मेरे लिए क्या बचा?’
‘अब आपके लिए तो कुछ बचा नहीं, मैं तो समझी कि आप नहीं आओगे।’
‘पर मेडम, मेरा देर से आना तो पूर्वसूचित था, आपको कार्यक्रम संयोजक ने नहीं बताया? चलिए, कोई बात नहीं, उस विषय पर कुछ और बातें बता देता हूं।’ मैंने उन्हें समझाया। उन्होंने मुझे ज़रा अचरज़ से देखा।
लंच के बाद वाला सत्र तीन घंटे चला, ‘लीडरशिप’ व्यापक विषय है, 'हरि अनंत हरि कथा अनंता', चाहे जितना भी बता दो, कम है। मेरी उस प्रस्तुति के दौरान, पूरे समय मेरी सहयोगी प्रशिक्षक गौर से मुझे देखती-सुनती रही। समापन सत्र में हम दोनों अगल-बगल बैठे। उन्होंने मुझसे तनिक झुककर प्यार से पूछा- ‘आप कहीं पढ़ाते हैं क्या ?’
‘नहीं तो।’
‘फ़िर, क्या करते हैं?’
‘हलवाई हूं।’
‘ओ, नो।’ वे चमक कर बोली।
‘ओ, येस।’ मैंने मुस्कुराकर कहा।

--द्वारिका प़साद अग़वाल
( रायपुर , छत्तीसगढ़)

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (09-12-2013) को "हार और जीत के माइने" (चर्चा मंच : अंक-1456) पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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