11 दिसंबर 2013

दशरथ माँझी , एक मिसाल



दशरथ मांझी , एक मिसाल

बिहार के गया जिले के एक अति पिछड़े गांव गहलौर में रहने वाले दशरथ मांझी । उनकी पत्नी को पानी लाने के लिये रोज गहलौर पहाड़ पार करना पड़ता था। तीन किलोमीटर की यह यात्रा काफी दुखदायी है। एक सुबह उनकी पत्नी पानी के लिये घर से निकलीं। वापसी में उसके सिर पर घड़ा न देखकर मांझी ने पूछा कि घड़ा कहाँ है? पूछने पर बताया कि पहाड़ पार करते समय पैर फिसल गया। चोट तो आई ही,पानी भरा मटका भी गिर कर टूट गया। बस उसी दिन दशरथ ने पहाड़ का मानमर्दन करने का संकल्प कर लिया। यह बात 1960 की है। दशरथ अकेले ही पहाड़ कटाकर रास्ता बनाने में लग गये। हाथ में छेनी-हथौड़ी लिये वे बाइस साल पहाड़ काटते रहे। रात-दिन,आंधी पानी की चिंन्ता किये बिना मांझी नामुमकिन को मुमकिन करने में जुटे रहे। अंतत: पहाड़ को झुकना ही पड़ा। गहलौर पर्वत का मानमर्दन हो गया। अपने गांव से अमेठी तक 27 फुट ऊंचाई में पहाड़ काटकर 365 फीट लंबा और 30 फीट चौडा़ रास्ता बना दिया। पहाड़ काटकर रास्ता बनाए जाने से करीब 80 किलोमीटर लंबा रास्ता लगभग 3 किलोमीटर में सिमट गया। इस अजूबे का बाद दुनिया उन्हें ‘माउन्टेन कटर’ के नाम से पुकारने लगी। सड़क तो बन गई लेकिन इस काम को पूरा होने के पहले उनकी पत्नी का देहांत हो गया। मांझी अपनी पत्नी को इस सड़क पर चलते हुये देख नहीं पाये। अस्सी वर्षीय मांझी तमाम अनकहे दुखों के साथ अपनी विधवा बेटी लौंगा व विकलांग बेटे भगीरथ के साथ रहते हैं।दुख है कि उनको घेरे रहता है,लेकिन वे जूझते रहते हैं। उनका दर्शन है कि आम आदमी को वो सब बुनियादी हक मिलें , जिनका वह हकदार है। जुनूनी इतने हैं कि सड़क निर्माण के बाद वे गया से पैदल राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली पहुंच गये। लेकिन राष्ट्रपति से उनकी भेंट नहीं हो सकी। इस बात का उन्हें मलाल हमेशा रहा। मांझी की जद्दोजहद कभी  खत्म नहीं हुई । वे अपनी बनायी सड़क को पक्का करवाना चाहते थे। गाँव में सरकार से मिली पांच एकड़ जमीन पर वे एक बड़ा अस्पताल बनवाना चाहते थे । इसके लिये वे पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से भी मिले। आश्वासन भी मिला,लेकिन कुछ हुआ नहीं।  मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी जनता दरबार में मिले। मांझी को देखकर नीतीश कुमार इतना प्रभावित हुये कि उन्होंने मांझी को अपनी ही कुर्सी पर बैठा दिया। आश्वासन और आदेश भी दिये ,सड़क को पक्का कराने के।   वे पर्यावरण के प्रति भी काफी सजग हैं। आसपास के लोगों के लिये अब वे दशरथ मांजी नहीं अब दशरथ बाबा हो गये हैं। दशरथ मांझी ने जो काम किया उसकी कीमत सरकारी अनुसार करीब 20 - 22 लाख होती है। अगर यह काम कोई ठेकेदार करता तो कुछ महीनों में डायनामाइट वगैरह लगा के कर देता। लेकिन दशरथ मांझी अकेले जुटे रहे तथा बाईस साल में काम खत्म करके ही दम लिया। उनके हौसले को सलाम करते हुये यह लगता है कि ये कैसा समाज है जो एक अकेले आदमी को पहाड़ से जूझते देखता रहता है और उसे पागल ,खब्ती,सिरफिरा कहते हुये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हतोत्साहित करता है। असफल होने पर पागलपन को पुख्‍़ता मानकर ठिठोली करता है तथा सफल हो जाने पर माला पहनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। इसके पीछे दशरथ मांझी के छोटी जाति का होना,नेतृत्व क्षमता का अभाव आदि कारण रहे होंगे लेकिन लोगों की निरपेक्ष भाव से टकटकी लगाकर दूर से तमाशा देखने की प्रवृत्ति सबसे बड़ा कारक है इस उदासीनता का।जीवन के हर क्षेत्र में सामूहिकता की भावना का अभाव हमारे समाज का बहुत निराशा जनक पहलू है।
सिर्फ  छेनी और हथोडी और बहुत सारे आत्मबल के सहारे बिहार के दशरथ मांझी नाम के एक बहुत ही  गरीब आदमी ने एक पहाड़ का सीना चीर कर सड़क का निर्माण किया . उसने पहाड़ी के घूम कर जाने वाले 80 किलोमीटर  वाले रास्ते  को  3 किलोमीटर में  बदल दिया . 22 साल की लगातार मेहनत से उसने ये काम कर दिखाया . 22 साल  बाद उस आदमी का सपना पूरा हुआ जब उसने उस पहाड़ी की छाती चीर के रास्ता बना डाला .एकदम निपट  अकेले .बिना किसी सहायता के .बिना किसी प्रोत्साहन के .और बिना किसी प्रलोभन के .वो आदमी पूरे 22 साल लगा रहा. न दिन देखा न रात. न धूप देखी, न छाँव. न सर्दी न बरसात. वहां न कोई पीठ ठोकने वाला था, न शाबाशी देने वाला. उलटे गाँव वाले मज़ाक उड़ाते थे. परिवार के लोग हतोत्साहित करते थे. 22 साल तक वो आदमी अपना काम धाम छोड़ के लगा रहा. वो  आदमी अकेला लगा रहा . उस सुनसान बियाबान में. गर्मियों में वहाँ का तापमान 50 डिग्री तक पहुँच जाता है. खैर 22 साल बाद, जब वो सड़क या यूँ कहें रास्ता बन कर तैयार हो गया तो उस इलाके के गाँव वालों को अहसास हुआ अरे ........ये क्या हुआ ......गहलौर से वजीरगंज की दूरी जो पहले 60 किलोमीटर होती थी अब सिर्फ 10 किलोमीटर रह गयी  है. बच्चों का स्कूल जो 10 किलोमीटर दूर था अब सिर्फ 3 किलोमीटर रह गया है. पहले अस्पताल पहुँचने में सारा दिन लग जाता था, अब लोग सिर्फ आधे घंटे में पहुँच जाते हैं. आज उस रास्ते को उस इलाके के 60 गाँव इस्तेमाल करते हैं. धीरे धीरे लोगों को दशरथ मांझी की इस उपलब्धि का अहसास हुआ, बात बाहर निकली, पत्रकारों तक पहुंची  पत्र - पत्रिकाओं  में छपने लगा तो सरकार तक भी खबर पहुंची. सुशासन की तुरही बजी. मुख्यमंत्री नितीश कुमार  ने कहा सम्मान करेंगे . जो सड़क काट के बनायी है उसे PWD से पक्का करवाएंगे जिससे की  ट्रक बस आ सके. गहलौर से वजीर गंज तक पक्की सड़क बनवायेंगे. बिहार सरकार का सबसे बड़ा पुरस्कार दिया. भारत सरकार को पद्मभूषण देने के लिए नाम प्रस्तावित किया . आगे क्या हुआ ? खुद देखिये. पहला - वन विभाग बोला की दशरथ मांझी ने गैर कानूनी काम किया है. हमारी ज़मीन को हमसे पूछे बिना कैसे खोद दिया. इसलिए उसपे पक्की सड़क नहीं बन सकती. वन विभाग ने कोर्ट से stay ले लिया है .दशरथ मांझी देहांत हो गया पर वो रास्ता आज भी वैसा ही है जैसा वो छोड़ कर मरे थे. गाँव वाले किसी तरह वहां से साइकिल ,मोटर साइकिल वगैरह निकाल लेते हैं.  दूसरा - वजीर गंग से गहलौर वाली सड़क अभी तक अटकी हुई है क्योंकि वन विभाग की ज़मीन पर PWD कैसे सड़क बना देगी . तीसरा - भारत सरकार के बड़े बाबुओं ने पद्म भूषण ठुकरा दिया. ये कह  के की पहले जांच कराओ की क्या वाकई  एक आदमी ने ही अकेले इतना बड़ा पहाड़ खोद दिया. कैसे खोद सकता है . ज़रूर अन्य लोगों ने मदद की होगी . साबित करो की अकेले ही खोदा है .

इस पूरी कहानी का सबसे दर्दनाक पहलू ये रहा की 22 साल की इस लम्बी घनघोर तपस्या में सिर्फ एक आदमी जो दशरथ मांझी के साथ खड़ा रहा उनकी पत्नी फागुनी देवी वो उस दिन को देखने के लिए जिंदा नहीं रही जब वो सपना पूरा  हुआ . रास्ता बन कर तैयार होने से लगभग दो साल पहले वो बीमार हुई और सारा दिन लग गया उन्हें अस्पताल पहुंचाने में और रास्ते में ही उनकी मौत हो गयी.

पहाड़ का सीना चीर कर रास्ता बनाने वाले दशरथ मांझी के परिवार एवं उनके गांव गहलौर की तस्वीर सरकार के लाख आश्वासनों-दावों के बावजूद आज भी वैसी है, जैसी तब थी, जब माउंटेन मैन ने अंतिम सांस ली. महादलितों की हमदर्द इस सरकार में कुछ नहीं बदला. न तो गांव की तस्वीर और न ही दशरथ मांझी के परिवार की क़िस्मत. सरकारी आश्वासन, घोषणा और वादे सब कुछ इस महादलित बस्ती के लिए खोखले साबित हुए हैं. माउंटेन मैन दशरथ मांझी के विकलांग पुत्र भगीरथ मांझी एवं विकलांग पुत्रवधू बसंती देवी आम महादलित परिवारों की तरह का़फी कठिनाई में छोटे से परिवार के साथ किसी तरह जीवनयापन के लिए मजबूर हैं.  इस गांव में आने पर नहीं लगता है कि ह वही गांव है, जहां ’ज़दूर मंगरू मांझी एवं पतिया देवी की संतान दशरथ मांझी ने पहाड़ का सीना चीरकर इतिहास रच दिया.

मेरे जीवन का मकसद  है ‘आम आदमी को वे सभी सुविधायें दिलाना, जिसका वह हकदार है।
बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित अन्य दलित और महादलित बस्तियों की तरह है, गया ज़िले के मोहड़ा प्रखंड के गहलौर गांव का महादलित टोला दशरथ नगर. सुविधाओं के नाम पर दशरथ मांझी के निधन के बाद हां एक चापाकल लगा और एक छोटे से सामुदायिक भवन का निर्माण शुरू किया गया, जिसमें सामुदायिक भवन आज भी अधूरा पड़ा है. सरकारीकर्मियों की लूटखसोट और लापरवाही का नमूना है यह गांव. नरेगा में गड़बड़ी, बीपीएल सूची अनाज वितरण में अनियमितता, प्राथमिक विद्यालय में सप्ताह में सिर्फ  दो-तीन दिन ही शिक्षकों का आना, आंगनबाड़ी केंद्र का न होना आदि शिकायतें पूर्व की तरह ही विद्यमान हैं.
इसी माहौल में जी रहे हैं दशरथ मांझी के विकलांग पुत्र एवं पुत्रवधू अपनी एकमात्र संतान लक्ष्मी कुमारी के साथ. आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली लक्ष्मी ही उनके जीवन का एकमात्र सहारा है. वह मेहनत-मज़दूरी कर कमाती है, तो उसके विकलांग मां-बाप को रोटी नसीब होती है. सरकारी योजनाओं के अनुसार भगीरथ मांझी को दशरथ मांझी के जीवित रहने के समय से ही विकलांग होने के कारण सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिल रही है, लेकिन उनकी विकलांग पत्नी बसंती देवी को तमाम प्रयासों के बावजूद आज तक पेंशन नहीं मिल सकी. किसी तरह इंदिरा आवास मिला, जो उनके रहने का सहारा है. दशरथ मांझी के घर के बगल में स्थित प्राथमिक विद्यालय में भगीरथ मांझी एवं उनकी पत्नी बच्चों के लिए खिचड़ी बनाने का काम कर लेते हैं, जिससे प्रतिदिन दोनों को पचास रुपये मिल जाते हैं. बसंती देवी बताती हैं कि सप्ताह में तीन दिन ही मास्टर जी आते हैं, जिसके कारण तीन दिन ही खाना बन पाता है. भगीरथ मांझी बताते हैं कि सभी सरकारी घोषणाएं हवा-हवाई हो गईं. विकलांग होने के कारण वे लोग बहुत अधिक दौड़धूप नहीं कर पाते हैं. जब कभी भी सरकारी अधिकारियों से मुलाक़ात होती है, तो वह बाबा दशरथ मांझी के अधूरे सपने को पूरा करने के सरकार के वादे के बारे में पूछते ज़रूर हैं, लेकिन उन्हें सही जवाब नहीं मिल पाता. वैसे भी सुदूर पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण कभीकभार ही सरकारी कर्मचारियों का वहां आना-जाना होता है. नतीजतन, इस गांव के खुफिया और जन वितरण प्रणाली दुकानदार मनमानी कर महादलित परिवारों के इन ग़रीबों का शोषण करने से नहीं चूकते हैं. इसी गांव में रहता है दशरथ मांझी की विधवा पुत्री लौंगी देवी का परिवार. दशरथ मांझी के घरवालों के मतदाता पहचान पत्र आज तक नहीं बन पाए हैं. जबकि प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा समिति की सचिव बसंती देवी ही हैं. वह बताती हैं कि इस विद्यालय में डेढ़ सौ बच्चों को पढ़ाने वाले एकमात्र शिक्षक स्थानीय गहलौर के मुरली मनोहर पांडेय हैं. उन्हें 2006 से अब तक शिक्षा समिति के खाते से दो लाख से अधिक रुपये निकालकर दे चुकी हूं, लेकिन आज तक विद्यालय में विकास का कोई काम नहीं हुआ और न ही शिक्षक ने कोई  हिसाब-किताब शिक्षा समिति को दिया है. वह बताती हैं कि दशरथ मांझी की पुत्री लौंगी देवी को अब तक इंदिरा आवास का दस हज़ार रुपया नहीं मिला है. इस गांव के अन्य महादलित परिवार बताते हैं कि जन वितरण प्रणाली का दुकानदार गहलौर गांव के एक संपन्न परिवार के दरवाजे पर दो-तीन महीने में एक महीने का अनाज बांटने आता है और तीन-चार महीने के कूपन ले लेता है. कुल मिलाकर दशरथ मांझी के परिवार और उनके महादलित टोले के लोग आज भी बदहाल हैं और का़फी मशक़्क़त से जीवन जी रहे हैं.

अब बात दशरथ मांझी के सपनों की. उनका सपना था कि जिस पहाड़ी को तोड़कर उन्होंने वजीरगंज और अतरी प्रखंड की दूरी अस्सी किलोमीटर से घटाकर चौदह किलोमीटर कर दी, उस रास्ते का सरकार पक्कीकरण कर दे. गांव में चिकित्सा सुविधा के लिए अस्पताल और एक अच्छे विद्यालय की व्यवस्था हो. साथ ही  आरोपुर गांव में यातायात की सुविधा के लिए मुंगरा नदी पर पुल बनाया जाए. अपने इन्हीं सपनों को पूरा करने के लिए दशरथ मांझी अनेक जनप्रतिनिधियों से गुहार लगाते हुए मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार के यहां पहुंचे थे, जहां मुख्‍यमंत्री ने अपनी कुर्सी पर बैठाकर इस महान पुरुष को सम्मान दिया था. आज दशरथ मांझी को ग़ुजरे कई  वर्ष  हो गए, पर अभी तक कोई मुक़म्मल कार्य नहीं हुआ. अभी गहलौर घाटी से कुछ दूरी पर रइदी मांझी, सुकर दास, विश्वंभर मांझी द्वारा दी गई भूमि पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के निर्यण के लिए काम शुरू किया गया है, लेकिन घाटी की पहाड़ी पर सड़क निर्माण के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है. गांव के एकमात्र प्राथमिक विद्यालय की स्थिति का़फी खराब है. डेढ़ सौ बच्चों पर केवल एक शिक्षामित्र है. इतना ज़रूर हुआ है कि दशरथ मांझी द्वारा पहाड़ तोड़कर बनाए गए रास्ते के प्रवेश स्थल पर उनके स्मारक का काम पूरा हो चुका है. गहलौर होकर अतरी की ओर जाने वाली मुख्य सड़क में काम मंथर गति से हो रहा है. मुंगरा नदी पर पुल बनाने का काम अब तक शुरू नहीं हुआ है. इस प्रकार दशरथ मांझी के सपनों का गहलौर आज भी उपेक्षित और बदहाल है. अब दशरथ मांझी की संवेदनशीलता का भी उदाहरण देखिए, जब भारतीय स्टेट बैंक की वजीरगंज शाखा ने दशरथ मांझी को 2005 में सम्मानित करते हुए उपहार स्वरूप एक कंप्यूटर भेंट किया, तब दशरथ मांझी ने यह कहकर कंप्यूटर वापस कर दिया कि मैं इसका क्या करूंगा? इसके बदले हमारे गांव में रिंग बोरिंग करवाकर सार्वजनिक चापाकल लगवा दीजिए, जिससे लोगों और जानवरों को पेयजल की सुविधा मिल सके. कंप्यूटर आज भी बैंक की शोभा बढ़ा रहा है, लेकिन बैंक ने चापाकल लगाना उचित नहीं समझा. दशरथ मांझी ने मज़दूरी करके परिवार की जीविका चलाते हुए जिस बिहारी आत्मसम्मान, कर्मठता,  सहजता, विनम‘ता और गरिमा का परिचय दिया, वह किसी भी व्यक्ति के लिए अनुकरणीय है. रेल पटरी के सहारे गया से पैदल दिल्ली यात्रा कर जगजीवन राम और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने का अद्भुत कार्य भी दशरथ मांझी ने किया था. मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार ने उनके निधन के बाद राजकीय सम्मान देकर एक मिसाल क़ायम तो की, लेकिन बिहार की तस्वीर बदलने का दावा करने वाले मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार दशरथ मांझी के गांव गहलौर की तस्वीर बदलने में अभी तक कामयाब नहीं  हो पाए. 17 अगस्त 2007 को कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई!
बिहार के मोतिहारी के रहने वाले तथा पटना रंगमंच के रंगकर्मी कुमुद रंजन ने पर्वत पुरुष दशरथ माँझी पर एक डाक्युमेंटरी फ़िल्म बनाई है - “द मैन व्हू मूव्ड द माउंटेन” जिसे  फ़िल्म्स डिविजन ने प्रोड्युस किया है। फ़िल्म करीब तीन सालों में बनी। फ़िल्म में दशरथ माँझी और उनके जानने वालों के माध्यम से उनके जीवन के अनजाने पहलुओं को भी दिखाया गया है। फ़िल्म में उनका आत्मसंकल्प, स्वाभिमान और उनकी निश्छल आध्यात्मिक ऊंचाई को कैमरे में कैद किया गया है। हमेशा समाज की भलाई की  बात करने वाले माँझी के परिवार वालों की दशा भी दिखाई गई है।


एक साक्षात्कार में उन्होने कहा था - मेरी पत्नी(फगुनी देवी) रोज सुबह गांवसे गहलौर पर्वत पारकर पानी लाने के लिये अमेठी जाती थी। एक दिन वह खाली हाथ उदास मन से घर लौटी। मैंने पूछा तो बताया कि पहाड़ पार करते समय पैर फिसल गया। चोट तो आई ही पानी भरा मटका भी गिर कर टूट गया। बस मैंने उसी समय गहलौर पर्वत को चीर रास्ता बनाने का संकल्प कर लिया। लोगों ने मुझे सनकी करार दिया। कभी-कभी तो मुझे भी लगता कि मैं यह क्या कर रहा हूँ? क्या इतने बड़े पर्वत को काटकर रास्ता बना पाऊंगा? फिर मेरे मन में विचार आया ,यह पर्वत तो सतयुग,द्वापर और त्रेता युग में भी था।उस समय तो देवता भी यहाँ रहते थे।उन्हें भी इस रास्ते से आने-जाने में कष्ट होता होगा,लेकिन किसी ने तब ध्यान नहीं दिया। तभी तो कलयुग में मेरी पत्नी को कष्ट उठाना पड़ रहा है।मैंने सोचा, जो काम देवताओं को करना था ,क्यों न मैं ही कर दूँ। इसके बाद न जाने कहाँ से शक्ति आ गई मुझमें । न दिन कभी दिन लगा और न रात कभी रात। बस काटता चला गया पहाड़ को। मैंने तो कभी सोचा भी नहीं कि जो काम कर रहा हूं,उसके लिए समाज को मेरा सम्मान करना चाहिये। मेरे जीवन का एकमात्र मकसद है ‘आम आदमी को वे सभी सुविधायें दिलाना ,जिसका वह हकदार है।’पहले की सरकार ने मुझ करजनी गांव में पांच एकड़ जमीन दी,लेकिन उस पर मुझे आज तक कब्जा नहीं मिल पाया। बस यही चाहता हूँ कि आसपास के लोगों को इलाज की बेहतर सुविधा मिल जाये। इसलिये मैंने मुख्यमंत्री से करजनी गांव की जमीन पर बड़ा अस्पताल बनवाने का अनुरोध किया है।

-- पुंज प़काश
( बिहार के रंग कर्मी , एक  स्कूल में शिक्षक )
 दस्तक नामक सांस्कृतिक दल की ब्लाग पत्रिका मंडली से साभार ।
मंडली में २फ़रवरी सन २०१२ ई को प़काशित ।
गड़

1 टिप्पणी:

  1. पूरी जानकारी पढ़कर मन द्रवित हो गया...काश भारत सरकार और नेता परेता लोगों के समझ में आ जाये ये बातें की कहाँ क्या जरुरी है ...

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