8 मई 2015

राष्ट्रभाभाषा , मनन ,मन्थन , मन्तव्य


राष्ट्र भाषा , मनन , मन्थन , मन्तव्य 

भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। 
इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भॉंति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएं लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियॉं उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।
यहॉं तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी सभ्यता के अनुरुप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हे वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था। किंतु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। फिरंगी देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का "लॉलीपॉप' जरुर दिया गया। धीरे-धीरे "लॉलीपॉप' भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया। अब तो देसी चमड़ी के फिरंगियों की धूर्तता देखकर गोरी चमड़ी का फिरंगी भी दंग रह गया है।
प्रश्न है कि जब राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा माना जाता है तो क्या हमारी व्यवस्था को एक डरा-सहमा लोकतंत्र अपेक्षित था जो मूक और अपाहिज हो? विगत इकसठ वर्षों का घटनाक्रम देखें तो उत्तर "हॉं' में मिलेगा। 
राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहॉं की जा रही है।p
राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर सामान्य बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहॉं अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस्क़ृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।
सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया- Seeta was sweetheart of Rama! ठीक इसके विपरीत श्रीरामचरित मानस में श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मणजी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मणजी का कहना कि मैने सदैव भाभी मॉं के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?-  यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में "चार भिंतीत नाचली' का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।
शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने प्राथनिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें आज कूड़े-दानों में पड़ी हैं। त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं। 
छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात  संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में "हर-हर महादेव' और "पीरबाबा सलामत रहें' जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासन कठोर होता हो तो भावुकता देश के लिए अनिवार्य होनी चाहिए।
वर्तमान में सीनाजोरी अपने चरम पर है। काली चमड़ी के अंगे्रज पैदा करने के लिए भारत में अंग्रेजी शिक्षा लानेवाले मैकाले के प्रति नतमस्तक होता  आलेख पिछले दिनों एक हिंदी अखबार में पढ़ने को मिला। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनरल डायर और जनरल नील-छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के स्थान पर देश में शौर्य के प्रतीक के रूप में पूजे जाने लगेंगे।
सामान्यतः श्राद्धपक्ष में आयोजित होनेवाले हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वह सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएं। 
लगभग तीन दशक पूर्व दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा सा देश आज़ाद हुआ। मंत्रिमंडल की पहली बैठक में निर्णय लिया गया कि देश आज से "रोडेशिया' की बजाय "जिम्बॉब्वे' कहलायेगा।  राजधानी "सेंटलुई' तुरंत प्रभाव से "हरारे' होगी। नई सदी प्रतीक्षा में है कि कब "इंडिया'की केंचुली उतारकर "भारत' बाहर आयेगा। आवश्यकता है महानायकों के जन्म की बाट जोहने की अपेक्षा भीतर के महानायक को जगाने की। अन्यथा भारतेंदु हरिशचंद्र की पंक्तियॉं - "आवहु मिलकर रोवहुं सब भारत भाई, हा! हा! भारत दुर्दसा न देखन जाई!' क्या सदैव हमारा कटु यथार्थ बनी रहेंगी?
संजय भारद्वाज 
पुने , महाराष्ट्र 
-- हिन्दी सेन्टर नामक ब्लाग से साभार 

5 मार्च 2015

परपीडन में मनोरंजन

                      पर पीडन में मनोरंजन 

     हाल के दिनों में एक लघु फ़िल्म Indaia's daughter की सर्वत्र चर्चा है , जिसे बृटेन की एक महिला 
लेसली उड़विन ने बनाया है ।इस में दिसम्बर २०१२ में दिल्ली में एक मासूम लड़की के बलात्कारी का इन्टरव्यू 
दिखाया गया है । इसे भारत सरकार ने तो प्रतिबन्धित कर दिया है , पर बीबीसी द्वारा दिखाया जा रहा है । हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता को उड़विन ने बताया ( ५ मार्च २०१५ को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ) 
कि यह फ़िल्म न्यूयार्क आदि अमेरिकी शहरों और लन्दन में भी दिखाई जाएगी ।( शायद अब तक यह वहाँ दिखाई 
जा चुकी हो ) विश्व के अन्य देशों में भी यह दिखाई जा सकती है या दिखाई जा रही होगी । भारत सरकार 
की मनाही के बाद भी बीबीसी ने इसे दिखाया । 
        इस से पता चलता है कि विदेशी लोगों , विशेषत: बृटेन के लोगों और बीबीसी को भारत की ग़रीबी , 
अपराध , गन्दगी और अपराधी मनोवृत्ति के लोग ही प्रदर्शन के विषय दिखते हैं और उन्हें परपीडन में ही 
मनोरंजन दिखता है । उड़विन ने हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता को बताया कि खुद उस का भी किसी 
ने बलात्कार किया था । ( यह बात चीत हिन्दुस्तान टाइम्स में छपी है ) तो उस ने अपने बलात्कारी का 
इन्टरव्यू क्यों नही लिया? उस ने भारत को बदनाम करने के लिए एक मासूम भारतीय लड़की के 
बलात्कारी का इन्टरव्यू लेना और प्रचारित करना ज़रूरी समझा । 
          यह भी एक विडम्बना है कि उड़विन ने बलात्कारी से तिहाड़ जेल में जा कर बात की ।  उसे जिन 
अधिकारियों ने ऐसा करने की अनुमति दी उन की ग़लती है । शायद उन्हें यह पता नहीं होगा कि उड़विन 
क्या गुल खिलाएगी । 
              फेस बुक पर इस लघु फ़िल्म के विरोध में अधिक लिखा गया है , पर कुछ लोग इस फ़िल्म को आपत्तिजनक नहीं मानते । फ़िल्म को देखे बिना उस पर टिप्पणियाँ हो रही हैं । आज ( ५ मार्च २०१५ ) को 
मैं ने यूट्यूब पर यह फ़िल्म देखी । यह बलात्कार विरोधी ंफिल्म है , पर एक बलात्कारी ने अपने बचाव में 
जो कहा और उस के वक़ील ने जो कहा , वह पीड़िता लड़की को ही बलात्कार के लिए उत्तरदायी बताने की कोशिश है । इस से बलात्कारी की विकृत मानसिकता का पता चलता है , जिस का सहारा ले कर 
अन्य विकृत मन वाले लोग बलात्कार की ओर जा सकते हैं । इस तरह यह फ़िल्म प्रकारान्तर से बलात्कार 
विरोधी न रह कर उस के औचित्य के तर्क भी तलाशती दिखती है । भविष्य का बलात्कारी अपने बचाव 
के तर्क इस फ़िल्म से सीख सकता है । इस दृष्टि से इस पर प्रतिबन्ध लगाना उचित है ।
          सरकार इस पर प्रतिबन्ध न लगाती तो क्या करती ? वह जनता की उत्तेजित भावना की उपेक्षा 
करने की दोषी बतांई जाती । अब प्रतिबन्ध लगाने पर भी उस की आलोचना हो रही है और अभिव्यक्ति
की आज़ादी की दुहाई दी जा रही है । संसद में अनेक दलों की सदस्याएं  इस बात के लिए हंगामा करती 
हैं कि दो वर्षों  बाद भी सरकार ने बलात्कारियों को दण्ड नहीं दिया । दण्ड तो अदालत देती 
है । फिर संसद में हंगामा क्यों ? 
     इस घटना पर रचना त्रिपाठी के ब्लाग टूटी फूटी में रचना त्रिपाठी जी का एक लेखक छपा , जिस पर 
टिप्पणी करते हुए डी सी श्रीवास्तव मे वाजिब सवाल उठाते हुए लिखा --
 " मीडिया पहले समाजसेवा के लिए समाज का दर्पण हुआ करता था , परन्तु वह आज खुद को बेचने में और दूसरों को बिकने में मदद करने वाली एक संस्था हो गयी है। बीबीसी के इस डॉक्यूमेंट्री को पूरा देखे बिना टिप्पणी करना तो उचित नहीं है कि इसको बनाने के पीछे उनका क्या आशय था, और इस बलात्कार की डॉक्यूमेंट्री के माध्यम से भारत में होने वाले बलात्कार में किस भावना की महत्ता को वो सिद्ध करना चाहते हैं। सबसे गंभीर बात यह है कि तिहाड़ जेल में इस प्रकार के कैदी के इंटरव्यू की आज्ञा कैसे दी गई  जबकि विदेशी फिल्मकारों को जब भारत में शूटिंग करने की अनुमति दी जाती है तब उन्हें खास हिदायत दी जाती है कि शूटिंग में वे इस बात का ध्यान दें कि भारत की इमेज इस फिल्म के माध्यम से गलत ढंग से प्रस्तुत न हो। सबसे बड़ी बात यह कि जिस बलात्कारी का इंटरव्यू लिया गया था, उसका विचार बलात्कार के मामले में पूरे भारत के विचार का प्रतनिधित्व नहीं करता है। 
पश्चिमी मीडिया शुरू से ही भारत के नकारात्मक पक्ष को बढ़ा चढ़ा कर दुनिआ में प्रस्तुत करता  रहा है। जहाँ तक बलात्कार का प्रश्न है U.S., स्वीडन , फ्रांस , कनाडा , UK और जर्मनी , दक्षिण अफ्रीका १० शीर्षस्थ देशों में है जहाँ बलात्कार सर्वाधिक है। अतः बीबीसी को दूसरे के ऊपर कीचड उछलने के पहले अपने घर झांक कर देखना चाहिए। सरकार को ब्रिटिश सरकार तथा बीबीसी के साथ यह मामला दृढ़ता से उठाना चाहिए और भारत में जिन अधिकारिओं ने इसकी अनुमति दी है, इसकी जांच कर उन पर उचित कार्यवाही करनी चाहिए। " ( रचना त्रिपाठी के ब्लाग  टूटी फूटी में प्रकाशित लेख पर ४ मार्च सन २०१५ की टिप्पणी ) 
   मेरी सन्तुलित राय यह कि इस पिल्म पर प्रतिबन्ध उचित है , क्योंकि इस से चाहे बलात्कार बन्द नहीं होंगे  ,पर 
भारत के लोगों की विकृत मानसिकता का ढोल विदेशों मे  पीटा जाएगा , बल्कि पीटा जा रहा है । अभिव्यक्ति 
की आज़ादी का दुरुपयोग करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती । 

-- सुधेश 
३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैक्टर १० 
दिल्ली ११००७५ 

लेबल     मनोरंजन --   बलात्कार - दिल्ली में बलात्कार - बीबीसी की करतूत 







4 मार्च 2015

आत्म चिन्तन


आत्म चिन्तन 

महत्त्वाकांक्षा 

जीवन में महत्त्वाकांक्षा ने मुझे दु:ख दिये पर जब अल्प सन्तोषी बनने की कोशिश की तो दुनिया ने मुझे कायर समझा । पर जीवन संध्या में आकाँक्षाएं मेरा पीछा नहीं छोड़ रहीं । बल्कि नई नई इच्छाएँ पैदा हो रही हैं । क्या यह बुझते दीपक की बढ़ती लौ है?
मैं ने देखा और स्वयम् अनुभव किया कि महत्वाकांक्षी लोग जीवन में अधिक घुटते हैं और अल्प सन्तोषी मज़े में रहते हैं पर उन्हें मिलता कुछ नहीं । दिए की बुझती लौ की बात मैं ने मौत की ओर बढ़ते जीवन के सन्दर्भ में लिखी थी । अपने जीवन का कच्चा चिट्ठा मैं ने अपनी आत्मकथा के तीन भागों में लिखा है , जिस का पहला भाग छप गया है ।

निन्दा 

आप सब की निन्दा करें तो सब को दुश्मन बना लेंगे । आप सब की तारीफ़ करें तो सज्जन तो कहला सकते हैं पर आप विवेक हीन ख़ुशामदी माने जाएँगे । इस लिए बुरे को बुरा कहना और अच्छे को अच्छा कहना ज़्यादा व्यावहारिक है । ख़ुशामद का लाभ तो मिल सकता है पर ख़ुशामदी अच्छा नहीं माना जाता । सब की निन्दा करने वाला किसी को मित्र नहीं बना सकता । मित्रों के बिना जीवन एक रेगिस्तान की तरह है । तो अच्छा यह होगा कि दूसरों की निन्दा न करें या कम से कम करें और किसी आधार पर करें ।  दूसरे की तारीफ़ भी किसी आधार पर 
करें । पर दूसरे की प्रशंसा निन्दा की तुलना मे निरापद है ।


हिन्दी में विविध लेखन की आवश्यकता 

हिन्दी को विविध लेखन द्वारा इतनी समृद्ध कर दें कि अंग़ेज़ी उस के सामने बौनी लगे । पर यह काम दशकों में पूरा होगा । भारतीय वैज्ञानिक और समाजविज्ञानों के विद्वान प्राय: हिन्दी  में नहीं लिखते । उन्हें कैसे समझाया जाए? वे हिन्दी कम जानते हैं या नहीं जानते और यदि जानते भी हैं तो वे अंग़ेज़ी में लिखना पसन्द करते हैं । केवल साहित्य की समृद्धि से कुछ नहीं होगा । पर उत्कृष्ट साहित्य का महत्त्व कम नहीं है । हिन्दी का दुर्भाग्य है कि उस में उत्कृष्ट 
साहित्य भी कम लिखा जा रहा है । 
 जैसे प्राचीन काल मे संस्कृत में अनेक विषयों पर , यहाँ तक कि पशु चिकित्सा पर भी , साहित्य रचा गया , वैसे हिन्दी में आजकल अनेक विषयों पर क्यों नहीं लिखा जा रहा है? विज्ञान , यान्त्रिकी आदि पर जो ग्रन्थ लिखे भी 
गये उन का प्रचार नहीं हुआ , क्योंकि उन्हें कोई पढ़ता नहीं या बहुत कम लोग उन का लाभ लेते हैं । कारण यहीं कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है । 


जन कविता और लोकप्रिय कविता 

जनकविता के प्रति कविता प्रेमियों की चिन्ता उचित है पर लोकप्रिय कविता केवल जनकविता ही नहीं होती स्तरीय , उच्च कविता भी होती है । मंचों पर मिली लोकप्रियता सामयिक होती है । स्थायी और कालातीत लोकप्रियता उस कविता को मिलती है जो कविता के उच्च मानदण्डों पर खरी उतरती है । हर युग में जो कवि कविता का नया रूप और उच्च स्तर सामने रखता है वह कविता विधा को आगे बढ़ाता है । केवल मंचों की वाहवाही कविता के उच्च स्तर का मानदण्ड नहीं है ।
 आजकल संचार माध्यमों के सहारे लोकप्रियता पाने की होड़ लगी हुई है ।  जो कविता संचारमाध्यमों की 
सीढ़ी पर चढ़ कर लोकप्रिय होने का दावा करती है , उस की तथा कथित लोकप्रियता सच्ची लोकप्रियता 
नहीं है । हज़ारों सालों से जो कवि और कलाकार जनता के दिलों में बसे हुए हैं , वे संचार के साधनों के 
अभाव मे कैसे जनता में लोकप्रिय हो गये । 
  तो कहना होगा कि तथा कथित लोकप्रिय कविता अनिवार्यत: जन कविता नहीं है , जैसे लोक साहित्य 
जन साहित्य या जनता का साहित्य होता है । जन कविता लोकप्रिय भी होगी । 
     लोकप्रिय कविता का मतलब सस्ती कविता नहीं है , सस्ती कविता अर्थात घटिया कविता या साहित्य ।
सस्ते साहित्य को घासलेटी साहित्य या लुगदी साहित्य भी कहा गया ।  सस्ते का मतलब कम क़ीमत का नहीं 
बल्कि जिस का साहित्यिक मूल्य या गुण कम हो । 
         तो लोकप्रिय कविता , जन कविता , सस्ती कविता  शब्दों का एक ही अर्थ नहीं है। उन के मर्म को समझ कर उन में भेद करने की आवश्यकता है । 




आत्म कथा लेखन 

महा पुरुषों की जीवनी अन्य लोग लिखते हैं .जिन की जीवनी कोई नहीं लिखता वे स्वयं आत्म कथा लिखते हैं जिस में वे स्वयं को महान बना देते हैं । तो क्या आत्म कथा में झूट का सहारा लिया जाता है .पर सत्य के प्रयोग के व्रती महात्मा गांधी.जवाहर लाल नेहरु ,डॉ राजेन्द्र प्रसाद आदि महापुरुषों ने अपनी आत्म कथाओं में जो लिखा क्या वह झूठ है ? गांधी जी की जीवनी फ्रेंच लेखक रोमां रोलां ने फ्रेंच में लिखी थी । गांधी जी पर कितनी कवितायें ,खंड काव्य ,महा काव्य आदि लिखे गए .फिर भी उन्हों ने आत्म कथा क्यों लिखी ? मेरा विचार है कि लेखक की हर रचना सीमित अर्थ में उस की लघु आत्म कथा है । फिर आत्म कथा लिखने से इतना परहेज़ क्यों ?.यह भी साहित्य की एक विधा है जिस में बहुत सारा साहित्य लिखा गया है ,पर इस के लिए ईमानदारी , ,तटस्थता ,और साहस की ज़रूरत है ।


मिथक की उपयोगिता 

राम  एक मिथक या अन्ध विश्वास हो सकते हैं पर वे अरबों ख़रबों के दिलों में बसे हुए हैं । समाज की मानसिक रचना में मिथकों की भी भूमिका है । मिथकों का आधार कभी इतिहास होता है , कभी धर्म और कभी कोई सशक्त रचना , पर उन्हें जीवन से ख़ारिज नहीं किया जा सकता । वाल्मीकि ने राम के मिथक को महाकाव्य बना दिया , जिस के आधार पर न जाने कितनी रचनाएँ लिखी गईं । महाभारत महाकाव्य ने कृष्ण के मिथक को फैलाया , जिस के आधार पर न जाने कितने काव्य , उपन्यास आदि लिखें गये । तो राम और कृष्ण गल्प होते हुए भी हिन्दू मानसिकता के अंग हैं । यह भी विचारणीय है ।
--- सुधेश 
३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैैक्टर १० नई दिल्ली ११००७५ 
फ़ोन ०९३५०९७४१२० 









         


                                      
                                        

22 फ़रवरी 2015

भाषा का आधार और हिन्दी भाषा का आधार



भाषा का आधार एवं हिंदी
भाषा का आधार एवं हिन्दी

किसी भी विकसित भाषा के अनेक रूप और व्यवहार क्षेत्र होते हैं। यथा – (1) साहित्यिक भाषा (2) वैज्ञानिक भाषा (3) तकनीकी भाषा (4) व्यावसायिक भाषा (5) वाणिज्यिक भाषा (6) प्रशासनिक भाषा आदि आदि। प्रत्येक की अलग अलग प्रयुक्तियाँ एवं शैलियाँ होती हैं। मगर समस्त रूपों का आधार उस भाषा का जनभाषा रूप ही होता है। किसी भी भाषा के विभिन्न रूपों का अपनी आधारभूत जनभाषा से अलगाव कम से कम होना चाहिए। जनभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा। बोलचाल की भाषा के भी बहुविध रूप होते हैं। इनमें से भाषा-क्षेत्र के पढ़े लिखे लोगों के द्वारा जो भाषा बोली जाती है उसके आधार पर मानक भाषा का रूप निर्धारित होता है। यह मानक भाषा रूप भी एक बार निर्धारित होने के बाद स्थिर होकर नहीं रह जाता। इसका कारण यह है कि बोलचाल की सहज, रवानीदार एवं प्रवाहशील भाषा पाषाण खंडों में ठहरे हुए गंदले पानी की तरह नहीं होती। पाषाण खंडों के ऊपर से बहती हुई अजस्र धारा की तरह होती है। नदी की प्रकृति गतिमान होना है। भाषा की प्रकृति प्रवाहशील होना है। भाषा की इकाइयों में से सबसे ज्यादा बदलाव उसकी शब्दावली में होता है। मैंने अपने एक लेख में प्रतिपादित किया था कि भाषा नदी की धारा की तरह होती है। इस पर कुछ विद्वानों ने सवाल उठाया कि क्या नदी की धारा को अनियंत्रित, अमर्यादित एवं बेलगाम हो जाने दें। मेरा उत्तर है - नदी की धारा अपने तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा अपने व्याकरण की व्यवस्था एवं संरचना के तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा में बदलाव एवं ठहराव दोनों साथ साथ रहते हैं। ‘शब्दावली’ अपेक्षाकृत अधिक गतिशील एवं परिवर्तनशील है। व्याकरण भाषा को ठहराव प्रदान करता है। ऐसा नहीं है कि ‘व्याकरण’ कभी बदलता नहीं है। बदलता है मगर बदलाव की रफ़तार बहुत धीमी होती है। ‘शब्द’ आते जाते रहते हैं। हम विदेशी अथवा अन्य भाषा से शब्द तो आसानी से ले लेते हैं मगर उनको अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल लेते हैं। ‘शब्द’ को अपनी भाषा के व्याकरण की पद रचना के अनुरूप विभक्ति एवं परसर्ग लगाकर अपना बना लेते हैं। हम यह नहीं कहते कि मैंने चार ‘फिल्म्स’ देखीं; हम कहते हैं कि मैंने चार फिल्में देखीं।

एक काल की भाषा पर दूसरे काल की भाषा के नियमों को नहीं थोपा जा सकता। किसी भी भाषा के व्याकरण के नियमों को किसी भी अन्य भाषा पर थोपना गलत है।भाषाविज्ञान का यह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक नियम है। मैंने एक लेख में यह प्रतिपादित किया कि संस्कृत और हिंदी की शब्दावली में ही नहीं अपितु उनकी भाषिक व्यवस्थाओं एवं संरचनाओं में भी अंतर विद्यमान हैं। मैंने अपना मत व्यक्त किया कि जो शब्द लोक में प्रचलित हो गए हैं, उनके लिए मैं संस्कृत की शब्द रचना का सहारा लेकर नए शब्द गढ़ने के खिलाफ हूँ। मेरा भाषाविज्ञान का ज्ञान तथा लोक-व्यवहार का विवेक मुझे ऐसा करने वालों का समर्थन करने से रोकता है। इस पर कुछ विद्वानों ने ऐसा टिप्पण किया जैसे मैं संस्कृत के खिलाफ हूँ अथवा संस्कृत की महान व्याकरणिक परम्परा से अनजान हूँ। मैं मानता हूँ कि भारतीय भाषाविज्ञान की परम्परा बड़ी समृद्ध है और उसमें न केवल वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के भाषाविद् समाहित हैं अपितु प्राकृतों एवं अपभ्रंशों के भाषाविद् भी समाहित हैं। पाणिनी ने अपने काल के पूर्व के 10 आचार्यों का उल्लेख किया है। उन आचार्यों ने वेदों के काल की छान्दस् भाषा पर कार्य किया था। मगर पाणिनी ने वैदिक काल की छान्दस भाषा को आधार बनाकर अष्टाध्यायी की रचना नहीं की। उन्होंने अपने काल की जन-सामान्य भाषा संस्कृत को आधार बनाकर व्याकरण के नियमों का निर्धारण किया। वाल्मीकीय रामायण में इस भाषा के लिए ‘मानुषी´ विशेषण का प्रयोग हुआ है। पाणिनी के समय संस्कृत का व्यवहार एवं प्रयोग बहुत बड़े भूभाग में होता था। उसके अनेक क्षेत्रीय भेद-प्रभेदों की भाषिक सामग्री तो अब उपलब्ध नहीं है मगर उनकी होने के संकेत मिलते हैं। पाणिनी के समय में लौकिक संस्कृत का नहीं अपितु वैदिक भाषा का आदर होता था। उसे सम्माननीय माना जाता था। मगर यह ध्यातव्य है कि पाणिनी ने अपने व्याकरण के नियमों का निर्धारण करने के लिए वैदिक भाषा को आधार नहीं बनाया। पाणिनी ने उदीच्य भाग के गुरुकुलों में उनके समय में बोली जाने वाली लैकिक संस्कृत को प्रमाण मानकर अपने ग्रंथ में संस्कृत व्याकरण के नियमों का निर्धारण किया। पाणिनी के बाद महर्षि पतंजलि ने भी भाषा प्रयोग के मामले में भाषा के वैयाकरण से अधिक महत्व सामान्य गाड़ीवान (सारथी) को दिया। महाभाष्यकार पतंजलि के ´पतंजलिमहाभाष्य' का वैयाकरण तथा रथ चलानेवाले के बीच का संवाद प्रसिद्ध है जिसमें उन्होंने भाषा के प्रयोक्ता का महत्व प्रतिपादित किया है। प्रयोक्ता व्याकरणिक नियमों का भले ही जानकार नहीं होता किन्तु वह अपनी भाषा का प्रयोग करता है। व्याकरणिक नियमों के निर्धारण करने वाले से अधिक महत्व भाषा का प्रयोग करनेवाले का है।

इसी प्रसंग में, मेरा विनम्र निवेदन है कि हिन्दी का आधार हिन्दी क्षेत्र के पढ़े लिखे लोगों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा को माना जाना चाहिए। उसके आधार पर ही हिन्दी की शब्दावली, शब्दकोश, व्याकरण आदि का निर्माण होना चाहिए। हिन्दी के 40 या 50 साल पुराने परम्परागत शब्दकोशों और व्याकरण ग्रंथों को आज की हिन्दी का पैमाना नहीं माना जा सकता। परम्परागत शब्दकोशों और व्याकरण ग्रंथों में जिसको आदर्श माना गया है वह 50 साल पुरानी हिन्दी है। हिन्दी के समाचार पत्रों, टी. वी. के हिन्दी चैनलों तथा हिन्दी की फिल्मों में उस भाषा का प्रयोग हो रहा है जिसे हमारी संतति बोल रही है। भविष्य की हिन्दी का स्वरूप हमारे प्रपौत्र एवं प्रपौत्रियों की पीढ़ी के द्वारा बोली जानेवाली हिन्दी के द्वारा निर्धारित होगा जिसके आधार पर उस काल के शब्दकोशकार एवं वैयाकरण हिन्दी के शब्दकोशों तथा व्याकरण-ग्रंथों का निर्माण करेंगे।

एक बात और जोड़ना चाहता हूँ।ऐतिहासिक भाषाविज्ञान एवं एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान की दृष्टियाँ समान नहीं होती। उनमें अन्तर होता है। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो यह पता लगाने की कोशिश की जाती है कि भाषा के शब्द का स्रोत कौन सी भाषा है। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो भाषा का प्रयोक्ता जिन शब्दों का व्यवहार करता है, वे समस्त शब्द उसकी भाषा के होते हैं। उस धरातल पर कोई शब्द स्वदेशी अथवा विदेशी नहीं होता। प्रत्येक जीवन्त भाषा में अनेक स्रोतों से शब्द आते रहते हैं और उस भाषा के अंग बनते रहते हैं।भाषा में शुद्ध एवं अशुद्ध का, मानक एवं अमानक का, सुसंस्कृत एवं अपशब्द का तथा आजकल भाषा के मानकीकरण एवं आधुनिकीकरण के बीच वाद-वाद होता रहा है और होता रहेगा। भारत में ऐसे विद्वानों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो केवल मानक भाषा की अवधारणा से परिचित हैं। जो भाषाएँ इन्टरनेट पर अधिक विकसित एवं उन्नत हो गई हैं, उन भाषाओं के भाषाविद् मानकीकरण की अपेक्षा आधुनिकीकरण को अधिक महत्व देते हैं। सन् 1990 तक हमने भी हिन्दी भाषा के मानकीकरण पर अधिक बल दिया। हमारे डी. लिट्. की उपाधि के लिए प्रस्तुत एवं स्वीकृत शोध-प्रबंध का विषय ही मानक हिन्दी पर है। मगर सन् 1990 के बाद से हमने हिन्दी के आधुनिकीकरण पर अधिक बल देना शुरु कर दिया है।

परम्परा से चिपके रहने वालों की नजर में कुछ शब्द सुसंस्कृत होते हैं एवं कुछ अपशब्द होते हैं। भाषा की प्रकृति बदलना है। भाषा बदलती है। परम्परावादियों को बदली भाषा भ्रष्ट लगती है। मगर उनके लगने से भाषा अपने प्रवाह को, अपनी गति को, अपनी चाल को रोकती नहीं है। बहती रहती है। बहना उसकी प्रकृति है। इसी कारण कबीर ने कहा था - 'भाखा बहता नीर´।भाषा का अन्तिम निर्णायक उसका प्रयोक्ता होता है। प्रत्येक काल का व्याकरणिक संकालिक भाषा के व्याकरण के पुनः नए नियम बनाता है। व्याकरण के नियमों में भाषा को बाँधने की कोशिश करता है। भाषा गतिमान है। पुनः पुनः नया रूप धारण करती रहती है।

हमें आज की शिक्षित पीढ़ी जिन शब्दों का प्रयोग बोलचाल में करती है, उनको अपना लेना चाहिए। यदि वे शब्द अंग्रेजी से हमारी भाषाओं में आ गए हैं, हमारी भाषाओं के अंग बन गए हैं तो उन्हें भी अपना लेना चाहिए।मैं हिन्दी के विद्वानों को बता दूँ कि प्रेमचन्द जैसे महान रचनाकार ने भी प्रसंगानुरूप किसी भी शब्द का प्रयोग करने से परहेज़ नहीं किया। उनकी रचनाओं में अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। उनके लेखन में अंग्रेजी के ये शब्द ऊधारी के नहीं हैं; जनजीवन में प्रयुक्त शब्द भंडार के आधारभूत, अनिवार्य, अवैकल्पिक एवं अपरिहार्य अंग हैं। फिल्मों, रेडियो, टेलिविजन, दैनिक समाचार पत्रों में जिस हिन्दी का प्रयोग हो रहा है वह जनप्रचलित भाषा है। जनसंचार की भाषा है। समय समय पर बदलती भी रही है। इस भाषा में सोच एवं सामर्थ्य शब्द पुल्लिंग में नहीं अपितु स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं। यह मैंने इस कारण स्पष्ट किया कि मैंने अपने लेखों में इन शब्दों का प्रयोग स्त्रीलिंग में किया था। मगर मेरे जो लेख जनसत्ता में प्रकाशित हुए हैं, उनमें पत्र के सम्पादक महोदय ने उनको पुल्लिंग मानकर मेरी वाक्य रचना बदल दी है। यह स्पष्टीकरण इस कारण जरूरी है ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आए।

अंत में, मैं यह दोहराना चाहता हूँ कि आज की हिन्दी को नए शब्दकोशों तथा नए व्याकरण-ग्रंथों की आवश्यकता असंदिग्ध है। कोशों में तथा व्याकरणों में तो "पत्थर" संज्ञा शब्द है। मगर आज इसका प्रयोग संज्ञा के अतिरिक्त विशेषण, क्रिया तथा क्रिया विशेषण के रूप में भी होता है। क्या प्रयोक्ता को यह आदेश दिया जाए कि "पत्थर" का केवल संज्ञा के रूप में ही प्रयोग करो। क्या जनभाषा से निम्न प्रयोग करना निषिद्ध, अमान्य एवं अवैध माना जाए – 1.पत्थर दिल नहीं पसीजते। 2. वह पथरा गया है। 3. तुम मेरा काम क्या पत्थर करोगे। यदि उपर्युक्त प्रयोग ठीक हैं तो व्याकरण एवं कोश भी तदनुरूप बनाने होंगे।
Professor Mahavir Saran Jain                                  
( Retired Director, Central Institute Of Hindi )
Address: 
India:  Address:   Sushila Kunj, 123, Hari Enclave, Chandpur Road, Buland Shahr-203001, India.          
                       ( रचनाकार से साभार । २६ सितम्बर २०१४ को प्रकाशित ) 


8 जनवरी 2015

संस्कृत अब भी बोली जाती है



     पिछले कुछ दिनों से संस्कृत के विरोध में कुछ देशी और विदेशी स्वर सुनाई दे रहे 
हैं । केन्द्रीय विद्यालयों में जर्मन के स्थान पर संस्कृत को तृतीय भारतीय भाषा के रूप पढ़ाये जाने 
की व्यवस्था की गई है , जिस को लेकर अनेक लोगों ने फेसबुक पर नकारात्मक टिप्पणियाँ 
की हैं । संस्कत को मृत भाषा बताया जा रहा है , जब कि देश के कुछ स्थानों पर वह अब 
भी बोली जा रही है और अनेक संस्कृत प्रेमी उस में साहित्य लिख रहे हैं और अनेक स्थानों 
से संस्कृत में पत्रिकाएँ प्रकाशित  हो रही हैं ।
    फेसबुक पर ही यह रोचक समाचार पढनें को मिला , जिसे मैं पाठकों के अवलोकनार्थ 
नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ । 
-- सुधेश 

संस्कृत अब भी बोली जाती है 

लगभग 2000 की जनसंख्या और 250 परिवारों वाले
मुत्तुरू गाँव कर्नाटक के शिमोगा शहर से 10
किमी.दुर है । तुंग नदी के किनारे बसे इस गाँव मे
लोगो की आपसी बोलचाल की भाषा संस्कृत है ।
सिर्फ एक दुसरे का हालचाल जानने के लिए
ही नही बल्कि फोन पर बात करने,दुकान से सामान
खरीदने के समय भी संस्कृत मे ही वार्तालाप
देखने को मिलता है । यहाँ अब कोई
नही पुछता कि संस्कृत सीखने से उन्हे
क्या फायदा होगा ? इससे
नौकरी मिलेगी या नही ?
संस्कृत अपनी भाषा है और इसे हमे सीखना है,बसंत
यही भाव लोगो के मन मे है । वैसे इस गाँव मे
संस्कृत प्राचीन काल से ही बोली जाती है लेकिन
आधुनिक समय की आवश्यकताओ के अनुरूप इसे
संवारा है संस्कृत भारती ने ।
यहाँ बच्चे, बूढ़े, युवा और महिलाएं- सभी बहुत
ही सहजता से संस्कृत मे बात करते है । यहाँ तक
कि क्रिकेट खेलते हुए और आपस में झगड़ते हुए
भी बच्चे संस्कृत में ही बात करते हैं। गाँव के
सभी घरों की दीवारों पर लिखे हुए बोध वाक्य
संस्कृत में ही हैं।
इस गाँव में बच्चों की प्रारंभिक
शिक्षा संस्कृत में होती है। बच्चों को छोटे-
छोटे गीत संस्कृत में सिखाये जाते हैं।
चंदा मामा जैसी छोटी-
छोटी कहानियाँ भी संस्कृत
में ही सुनाई जाती हैं। बात सिर्फ छोटे
बच्चों की ही नहीं है, गाँव के उच्च
शिक्षा प्राप्त युवक प्रदेश के बड़े
शिक्षा संस्थानों व विश्वविद्यालयों में
संस्कृत पढ़ा रहे हैं और कुछ साफ्टवेयर
इंजीनियर के रूप में बड़ी कंपनियों में काम कर
रहे हैं। इस ग्राम के 150 से अधिक युवक व
युवतियाँ “आईटी इंजीनियर” हैं और बाहर काम करते
हैं। विदेशों से भी अनेक व्यक्ति यहाँ संस्कृत
सीखने आते हैं।
संस्कृत भारती की शाखा यहाँ विगत 25 वर्षों से
संस्कृत सिखा रही है। यहाँ पहला दस दिवसीय
संस्कृत संभाषण वर्ग 1982 में लगा था। इस वर्ग
में ग्राम के अधिसंख्य लोगों ने भाग लिया था।
उसके बाद तो जन-जन के ह्रदय में संस्कृत ऐसे
घर करती चली गयी कि उनके घरों में
छोटा बच्चा पहले शब्द का उच्चारण संस्कृत में
ही करता है ।

---अविनाश सिंह के सौजन्य से ।
(फेसबुक में प्रकाशित )

5 नवंबर 2014

एक प्रवासी भारतीय का सपना






एक प्रवासी भारतीय का सपना

आजीविका, साहस, घूमन्तूपन नयी जमीन या पृथ्वी का दूसरा छोर ढूंढना,  मानव के अलग अलग जमीनों पर बसने  ओर सपने बुनने की कहानी नयी नहीं है। बहुत पहले एक प्रवासी भारतीय ने दक्षिण अफ्रीका में भारत की आजादी का सपना देखा और वह वकालत छोड कर पुनः देश लोट आया।  भारत को आजाद हुऐ सढसठ वर्ष हो चुके है। भारतीय आजीविका, बेहतर जीवन या बेहतर कार्यप्रणाली की तलाश में आज भी देश छोड़ कर जाते हैं वैसे ही जैसे गांधी गये थे किंतु परिस्थितियॉ अब बहुत अलग है। वे देश लोटे बिना ही देश के लिये काम करते हैं। 2013 में प्रवासी भारतीयों द्वारा किया गया निवेश 71 अरब डालर का था। भारत की आर्थिक व्यवस्था में अनिवासी भारतीय भी एक आधार स्तम्भ है चाहे वह दुबई के माल बनाने वाला मजदूर हो या सिलिकान वेली का पूंजीपति इंजीनियर।  वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मैं विदेश में रहकर भी "विदेशी" नहीं हूं।
सपने भी वक्त के साथ बदल जाते हैं। विदेशी भूमि पर आते ही अधिकतर भारतीयों को सबसे पहला विचार आता है हमारा देश भी ऐसा ही साफ सुथरा हो जाये। दिनभर मेहनत के बाद सबको रिजनेबल अच्छा खाना मिले। दिनप्रतिदिन की जिंदगी में आवश्यक सुविाधाऐं, बिजली, पानी, टेलिफोन, गैस के लिये दिनों चलने वाली किचकिच  न रहे। मेकडोन्ल, पित्जा, लेविइस का होना आर्थिक विकास का एक आयाम है। भारत में यह एक फैशन है जबकि पश्चिम में वह एक आम आदमी की जरूरत है। यहां पर आम की आदमी की जरूरत लाइब्रेरी भी है।


मेरे दादाजी सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, मध्यभारत में स्वास्थय मंत्री रहे डा प्रेमसिंह राठौड़ समाजसुधारक व चिंतक थे। उनके साथ रहते हुऐ मैंने कई दार्शनिकों व चिंतकों को पढ़ा। बचपन में उनकी कई किताबों में से दो किताबें The age of analysis  और History of philosophy में एमर्सन,  हेनरी डेविड थरो, बर्टडें रसेल, आदि को टुकडों टुकडों में पढकर, आधा पोना समझकर मेरे मन में हमेशा एक सपना पलता था उन लोगों के बारे में अधिक जानने का। अमेरिका में आते ही मेरा सपना साकार हुआ। छोटे से टेरीटाउन की लाइब्रेरी मुझे बहुत बडी लगी। वैसे ही जैसे किसी कुंऐ के मेंढ़क को तालाब बडा लगता है। यहां हर छोटे से टाउन में भी लाइब्रेरी होती है। पूरी काउंटी की लाईब्रेरी एक नेटवर्क से जुडी है और काउंटी में रहने वाला किसी अन्य टाउन में उपलब्ध उस किताब का आग्रह कर सकता जो उसकी लाइब्रेरी में न हो। वह किताब उसे टाउन की लाइब्रेरी में उपलब्ध करवायी जाती है क्योंकि पश्चिम में ज्ञान व शिक्षा ही विकास का आधारस्तम्भ माने जाते हैं। हमारे यहां भी बडे बडे माल बनने से पहले लाईब्रेरी बने। पुरानी लाइब्रेरी के जीर्ण शीर्ण भवन सुधारे जायें।


भारत में प्रचलित शिक्षा पद्धति में मुझे कभी यह अवसर नहीं मिला की साहित्य व दर्शन का  विश्लेषणात्मक अध्ययन कर सकूं। यहां की लाइब्रेरी व कालेज पद्धति ने मेरे लिये यह द्वार खोल दिया। पश्चिम की सबसे बडी विशेषता है कि जानने व सीखने में उम्र का कोई बंधन नहीं है। भारत में वयस्कों को इस तरह के कोई अवसर उपलब्ध नहीं है।   जब मैंने शेक्सपियर से संबधी कोर्स लिया मेरे साथ दो बुजुर्ग थे वे रिटायर होने के बाद शेक्सपियर पढ़कर उसका समालोचनात्मक व प्रतीकात्मक पहलू जानना समझना चाहते थे। मुझे लगता है भारत के कालेजों को भी साहित्य, दर्शन, गणित के कोर्स हर किसी के लिये खोल देना चाहिये।  मैंने यहां पर कम्यूनिटी कालेज में विविध प्रकार के कोर्स किये। मेरा एक सपना अभी बाकी है Critical thinking in philosophy करने का।


भारतवासी पश्चिम का अंधानुकरण न करके पश्चिम में जो सर्वोत्तम हो उसे अभिसात करें जैसे पश्चिम की राजनैतिक चेतना, महिलाओं के अधिकार, स्वयंसेवक कार्य, कानून का पालन आदि। आज मेरी पाश्चात्य नारी मित्र स्वयं को खुशनसीब समझती है कि उन्होने पश्चिम में जन्म लिया एशिया या अफ्रीका में नहीं। ये एक विचारणीय तथ्य है। वे आक्रमक लगती है क्योंकि वे अपनी स्वतंत्रता के लिये मुखर है। वे कहती है बहुत संघर्ष के बाद उन्होने समानाधिकार पाया है। भारतीय नारी स्वतंत्रता का वर्तमान रूप पश्चिम में नहीं है। भारत में कई बार ऐसा लगता है जैसे "फेमिनिज्म" को स्त्री और पुरूष  दोनों ही एक टेबू की तरह मानते हैं -पुरूष से नफरत या सेक्स की स्वछंदता।  यहां नारी स्वतंत्रता नहीं अब समानाधिकार की बात होती है। मैं कई बार सुनती हूं "वी आर हयुमन फर्स्ट।"


अमेरिका में हर चौथा व्यक्ति स्वयंसेवक है और औसतन पचास घंटे स्वयंसेवा का कार्य करता है चाहे वह लाइब्रेरी हो पार्क हो या स्कूल । मैं जब अमेरिका आयी थी तब मैंने न्यूयार्क टाइम्स में एक लेख पढ़ा कि किस तरह से अप्रवासी आते हैं इस देश की सुविधाओं का लाभ उठाते हैं किंतु वालेंटियर वर्क नहीं करते। मैंने उसी दिन से ठान लिया था कि मैं वो अप्रवासी नहीं बनूगीं। मैं बहुत ही सक्रियता से स्कूलों में वालेंटियर बनी। मुझे खुशी है लाफयेत जैसे श्वेतबहुल टाउन ने मुझे पूर्णता से अंगीकार किया। मैंने सीखा कि जब समुद्र पार कर ही लिया तो एक द्वीप में न खो जाउं।  यहां अधिकांश भारतीय आज भी अपने छोटे छोटे द्वीप बनाकर रहते हैं। उनके लिये समाजसेवा मंदिर या भूखों को खाना खिलाने तक ही सीमित है। मुझे लगता है भारत में भी स्वयंसेवा स्कूल से ही अनिवार्य कर दी जाये।


न जाने क्यो देश में ‘एन आर आई ’ सुनते ही लोग सोचते हैं सोने चांदी के कटोरे हीरे मोती जड़ी चम्मचें!  मैंने एफिल टावर पर बंगलादेशी और भारतीय बच्चों को एफिल टावर व अन्य चीजें बेचते देखा है। इटली में स्कार्फ बेचते हुऐ जिससे महिलायें चर्च जाने से पूर्व अपने कंधे ढंक ले। ऐसे बच्चें विश्व के हर विकसित देश में है। इन बच्चों के सपनों को कोई जमीन नहीं मिलती है। ये  बच्चें सपने देखते हैं भरपेट खाने और भौतिक सुविधाओं को हासिल करने के।
सपने बीज की तरह है जिन्हे पल्लवित होने के लिये जमीन, हवा, पानी, धूप,  सभी चाहिये। सपनों की जमीन शिक्षा और सही दिशा हवा, पानी, धूप है। रात के नौ बजे फरवरी की ठंडी रात में पेरिस में एफिल टावर के नीचे एफिल टावर बेचने वालें इन बच्चों के साथ मैंने थोडा सा ही समय  बिताया।  उन बच्चों  और मुम्बई रेलवे स्टेशन पर बूट पालिश के डिब्बे से उल्लू बनाने वाले बच्चों की चतुराई या धूर्तता में कोई फर्क नहीं था। ये बच्चें मुझे किसी प्याज की तरह लगते हैं। जिन पर काफी अंदर तक चतुराई, झूठ,  धूर्तता आदि की परतें होती है जैसे जैसे पर्त खुलती है वही तीखी गैस निकलती है जिससे आंखों में पानी आता है। विडंबना यह है कि उनकी लाचारी और गरीबी जो कि एक सच है उसे ये हथियार की तरह करूणा भुनाने के लिये प्रयोग में लाते हैं। वे नहीं जानते कि यह एक अंतहीन सडक है इस पर पूरी जिंदगी भीख के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। रोज पेट भरने और सुविधाओं के सपने हवामहल बनकर खत्म हो जायेंगे।


मेरा सपना यहीं है कि मेरे देश के बच्चे भिखारी बन कर  दर दर भटक कर करूणा को उपजाने में आत्मसम्मान और मानवता न खोये। वे गरिमा से जीवन जीने का सपना देखे। उन्हे शिक्षा की जमीन और दिशा का पूर्ण पोषण मिले। वे प्रवासी भिखारी भारतीय न बने।  दूसरे देश में रह कर शोषित होना बचपन पर दुहरी मार है। अधिकतर प्रवासी भारतीय बच्चों की मदद करना चाहते हैं किंतु वे भ्रष्टाचार के कारण भारतीय संस्थाओं पर विश्वास नहीं करते हैं। एनजीओ से संबंधी वे संस्थाऐं जो बच्चों के लिये का काम करती है उनके लिये कानून सख्त हो। वो संस्थाऐं ईमानदारी से काम करें। जिससे प्रवासी भारतीयों का विश्वास उनमें बढ़े। अभी हम लोग अपने घर के और आस पास के बच्चों की मदद करने की कोशिश करते हैं। मैं सोचती हूं  जितना हो सके वो ही सही।
भारत उस दहलीज पर है जहां वह पूर्व पश्चिम दोनों का सर्वोत्तम ग्रहण करके संस्कृति और सभ्यता दोनों में ही सर्वश्रेष्ठ  देश बन सकता है और मैं पूरब और पश्चिम के बीच का एक पुल ही तो हूं  चाहे कितना भी संकरा और छोटा क्यो न हो !
-- राज श्री
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 परिचय-


शिक्षा बी एस सी गणित व  एम ए इकानामिक्स तथा विश्व साहित्य‚ दर्शन व भाषा का तुलनात्मक अध्ययन। ग्राफिक्स डिजाइनर व फोटोग्राफर ।
राजकमल से प्रकाशित उपन्यास ‘पशुपति’ जो कि मानव के गुफा से निकल कर संस्कृति की स्थापना व विध्वंस पर लिखा गया है चर्चा में है। अभी "एक बुलबुले की कहानी’ फैंटेसी उपन्यास पर काम कर रही हूं। यह उपन्यास बच्चे से लेकर बूढे तक के लिये है।
कई पत्र पत्रिकाओं व विश्व के कहानी संकलनों में कहानियॉ व  कविताऐं प्रकाशित ।अदिती,  मैं बोनसाई नहीं‚  मुक्ति और नियती‚ नीचों की गली कहानियां विशेष रूप से चर्चा में।
गत कई वर्षो से लाफेयेत केलिफोर्निया में निवास।

संपर्क:


3291,Gloria Terrace. Lafayette CA 94549

Email: raghyee@gmail.com

( रचनाकार नामक ब्लाग से साभार ,
९ अक्तूबर २०१४ को प्रकाशित )


3 जून 2014

शब्दकोश विवाद

शब्दकोश विवाद

शब्दकोष विवाद को लेकर वर्धा हिंदी अंतर्राष्ट्रीय विश्वद्यालय के पूर्व कुलपति विभूति नारायण राय विवादों में है। वे पहले भी विवादों में रहे हैं। राय से हुई बातचीत के प्रमुख अंश -

जनसत्ता आपके ऊपर अक्सर मेहरबान रहा है। आपको लेकर कई विवादों पर उसमें लंबी लंबी चर्चाएँ हुईं हैं। आजकल भी वर्धा हिंदी शब्दकोश को लेकर एक विवाद पिछले कुछ हफ़्तों से चल रहा है। जनसत्ता के संपादक ने तो आपसे अपना पक्ष रखने की अपेक्षा भी की है। आप जनसत्ता में अपना पक्ष क्यों नहीं रखते?
(हंसते हुए) सही बात है कि जनसत्ता के साथ पिछले तीन चार वर्षों से मेरे रागात्मक संबंध रहे हैं। शब्दकोश वाला विवाद शायद तीसरा या चौथा विवाद है पर यह संबंध इकतरफा है। मैंने कभी ओम थानवी को गंभीरता से नहीं लिया। मेरे मित्र जानते हैं कि मुझे शुरू से ही विवादों में मजा आता है और मैं कभी लड़ाई में भागता नहीं…. जम कर लड़ता हूँ। पर मैंने आरम्भ से ही लड़ाई के कुछ उसूल बना रखें हैं। उनमें से एक यह है कि मैं शिखंडियों से कभी नहीं लड़ता……
(बीच में टोकते हुए ) आप यह कहना चाहते हैं कि ओम थानवी के पीछे कोई और है जो यह सब करवा रहा है……..कौन है वह?
 देखिये अभी मैं उस व्यक्ति का नाम नहीं लूंगा पर मैं इतना कहूंगा कि हिंदी जगत का एक कल्चरल इवेंट मैनेजर है जो पिछले कई दशकों से स्वयं को कवि मनवाना चाहता है पर हिंदी जगत है कि उसे कल्चरल जाकी से अधिक मानने के लिए तैयार नहीं है। मैं इस व्यक्ति का नाम तब लूंगा जब यह अपने शिखंडी के स्थान पर खुद मेरे सामने खड़ा होगा। इस भूतपूर्व नौकरशाह पर मूर्तियों की तस्करी से लेकर अपने बेटे के लिए सरकारी पद के दुरुपयोग तक के गंभीर आरोप हैं। एक बार वह खुल कर सामने आयेगा तब मैं इन आरोपों की फेहरिस्त भी जारी करूंगा। रही बात ओम थानवी की तो मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूँ कि मैं उन्हें औसत पत्रकार से अधिक कुछ नहीं समझता और उनसे किसी विवाद में उलझना समय की बरबादी मानता हूँ। ज्ञानपीठ वाले विवाद के बाद भी कई लेखक मित्रों ने यह सलाह दी थी कि हमें विवेक गोयनका को एक सामूहिक पत्र लिखकर यह शिकायत करनी चाहिए कि यह शख्स व्यक्तिगत कुंठा और दुर्भावना के तहत उनके अखबार का दुरुपयोग कर रहा है पर मैंने ही यह कह कर ऐसा न करने की सलाह दी थी कि हमें इस व्यक्ति को लेकर अपना समय बरबाद नहीं करना चाहिए। मुझे पता है कि भविष्य में भी मुझे लेकर ओम थानवी विवाद खड़े करते रहेंगे पर मैं उन्हें इस लायक नहीं समझता कि उन पर अपना समय जाया करूं। अत: अगले विवादों में भी उनसे नहीं उलझूंगा। जनसत्ता में अपना पक्ष न रखने का एक कारण यह भी है कि बदनीयती से चलाये गये अभियानों में ओम थानवी नें फोन कर कर लोगों से मेरे खिलाफ लिखवाया और बहुत से ऐसे लोगों को नही छापा जिन्होंने मेरे पक्ष में लिखा था। इस लिए वहां लिखने का मेरे मन में कभी कोई उत्साह नही रहा।
 हिंदी विश्वविद्यालय द्वारा जो शब्दकोश बनाया गया है उसके पीछे परिकल्पना क्या थी?

नागरी लिपि में लिखी जाने वाली खड़ी बोली को मानक हिंदी के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुए अभी सौ से कुछ ही अधिक वर्ष हुयें हैं। नई भाषा के सामने प्रारंभिक दौर में जो चुनौतियां आतीं हैं उनमें से एक मानक शब्दकोश का निर्माण भी है। हिंदी इस मामले में सौभाग्यशाली है कि उसे शुरुआत में ही अद्भुत मेधा, क्षमता और लगन वाले सेवी मिले। प्रारंभिक चरण में बने नागरी प्रचारिणी सभा, ज्ञानमंडल और इलाहाबाद साहित्य सम्मलेन जैसी संस्थाओं के शब्दकोश इस सन्दर्भ में बड़े सांस्थानिक उदाहरण हैं। बाद में कामिल बुल्के, हरदेव बाहरी तथा अन्य कई विद्वानों के व्यक्तिगत प्रयासों से भी महत्वपूर्ण शब्दकोश बने। पर इन सारे प्रयासों में एक कमी खटकती है। ये सारे शब्दकोश एक संस्करण वाले हैं। बाद में इन सबकी बीसियों आवृत्तियाँ छपीं पर यदि आप ध्यान से देखें तो आपको उनमें बहुत कम कुछ नया जुड़ा दिखाई देगा। वस्तुत: जिन प्रतियों पर चौथा, छठा या बीसवां संस्करण लिखा दिखाई भी दे आप मान सकते हैं कि यह उस कोश की चौथी, छठी या बीसवीं आवृत्ति होगी। इसके बरक्स यदि आप अंगरेजी में आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज डिक्शनरियों की परंपरा देखें तो आप पायेंगे कि इनका हर संस्करण एक नई खबर बनता है। हर बार यह बताया जाता है कि इस नए संस्करण में कितने सौ शब्द किन-किन भाषाओं से आकर जुड़ें हैं। इन शब्दकोशों का हर संस्करण इस अर्थ में संशोधित/परिवर्धित होता है कि उनमें बहुत से नए शब्द जुड़ते हैं, बहुत से अप्रचलित या कम प्रचलित शब्द कोश से बाहर चले जातें हैं और नए संस्करणों में शब्दों के अर्थों में समय के साथ आये बदलावों को पकड़ने का प्रयास भी किया जाता है। अभी पिछले हफ्ते ही एक खबर सुर्ख़ियों में थी कि आक्सफोर्ड डिक्शनरी के ताज़ा संस्करण में नौ सौ से अधिक नए शब्द जुड़ें हैं और इनमें से अधिकतर शब्द एस.एम.एस.या इंटरनेट जैसे माध्यमों से आयें हैं। दुर्भाग्य से हमारे यहाँ ऐसा नहीं हुआ। वर्धा शब्दकोश की परिकल्पना के पीछे यही सोच काम कर रही थी। मैंने योजना बनायी थी कि मेरे वर्धा छोड़ने के पहले एक स्थायी शब्दकोश प्रकोष्ठ काम करने लगेगा जो न सिर्फ हिंदी-हिंदी शब्दकोश, हिंदी-अंगरेजी शब्दकोश, अंगरेजी-हिंदी शब्दकोश का निर्माण करेगा बल्कि हर दो तीन वर्ष बाद इनके संशोधित/परिवर्धित संस्करण भी तैयार करता रहेगा। मेरा लक्ष्य था कि अक्टूबर 2013 (जब मैं विश्वविद्यालय से रिटायर होने वाला था) तक वर्धा हिंदी शब्दकोश तथा उसका लघु संस्करण वर्धा छात्रोपयोगी हिंदी शब्दकोश बाजार में आ जाये। मुझे प्रसन्नता है कि मेरे विश्वविद्यालय छोड़ने तक वर्धा हिंदी शब्दकोश प्रकाशित हो गया। अब यह मेरे सुयोग्य उत्तराधिकारी को देखना है कि वे इस परियोजना को किस तरह आगे बढ़ाते हैं।
शब्दकोशों का निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है तथा उसमें भाषा शास्त्रियों तथा शब्दकोशकारों की उपस्थिति बहुत जरूरी है। आशा है आपने इसका ध्यान रखा होगा।
सही है शब्दकोश निर्माण में कोशकारों का बहुत महत्व है। हमने देश भर में एक दर्जन से अधिक भाषा वैज्ञानिकों और शब्दकोशकारों को इस परियोजना से जोड़ा था और वे समय समय पर इलाहाबाद तथा वर्धा में आयोजित बैठकों में शरीक होकर इस परियोजना के संबंध में महत्वपूर्ण सुझाव देते रहे। यदि मुझे यह ज्ञान होता कि ओम थानवी और कमल किशोर गोयनका तथा अवनिजेश अवस्थी महत्वपूर्ण भाषा वैज्ञानिक हैं तो मैं उन्हें भी इस परियोजना से जोड़ने का प्रयास करता। इस परियोजना से जुड़े विद्वानों ने ही तय किया था कि हम मानक वर्तनी का प्रयोग करेंगे और इसी लिए यह हिंदी का अकेला मानक वर्तनी वाला कोश है। आप इसे देखें …( फादर कामिल बुल्के का कोश दिखाते हुए ) इसमें मुखपृष्ठ पर हिन्दी लिखा है जबकि अंदर के पृष्ठों में हिंदी है। वर्तनी को लेकर हिंदी समाज अराजक है और वही अराजकता शब्दकोशों में भी है। इस शब्दकोश में आप वर्तनी में एकरूपता पायेंगे।
वर्धा हिंदी शब्दकोश के प्रारंभ में आपकी एक टिप्पणी है जिसमें आपने शब्दकोशों की राजनीति की बात की है। अपना आशय तनिक और स्पष्ट करेंगे……।
हाँ, यह एक बहुत दिलचस्प तथ्य है जिस पर मेरा ध्यान इस परियोजना से जुड़ने के बाद गया। शब्दकोशों के निर्माण में लगभग वही राजनीति काम कर रही थी जो तत्कालीन हिंदी समाज की थी। मसलन हम सभी जानते हैं कि जिस समय खड़ी बोली आधिकारिक हिंदी बनाने का प्रयास कर रही थी उस समय भारतेंदु जैसा विराट व्यक्ति भी यह मानता था कि खड़ी बोली में कविता नहीं लिखी जा सकती। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि उनका गद्य खड़ी बोली में तथा अधिकांश पद्य ब्रज भाषा में है। 1893 में नागरी प्रचारिणी सभा ने शब्दकोश पर पहली बार गंभीरता से विचार करना शुरू किया। अपनी पहली वार्षिक रिपोर्ट(1894) में नागरी प्रचारिणी सभा ने यह माना कि हिंदी गद्य का अर्थ खड़ी बोली में लिखा जाने वाला गद्य है और ब्रज तथा दूसरी बोलियों में लिखे गए पद्य से उसका कविता संसार बनता है। यद्यपि नागरी प्रचारिणी सभा के संस्थापकों में से एक श्यामसुन्दर दास तथा खड़ी बोली के जुझारू समर्थक अयोध्या प्रसाद खत्री मजबूती से खड़ी बोली में कविता लिखने की वकालत कर रहे थे, यह एक तथ्य है कि 1920 तक पाठ्यपुस्तकों में ब्रज तथा अवधी में लिखी कविताएँ ही पढ़ाई जाती थीं। खड़ी बोली समर्थक श्रीधर पाठक तथा ब्रज भाषा समर्थक राधा चरण गोस्वामी के बीच लंबा विवाद चला था जिसका उल्लेख स्थानाभाव के कारण करना सम्भव नही है पर हिंदी समाज की इस सोच का असर नागरी प्रचारिणी सभा के शब्दकोश (1922-1929 खंड के ) पर पड़ा और पूरा शब्द कोश ब्रज के शब्दों से भरा हुआ है। इनमें से ज्यादातर शब्द अब हमारी बोलचाल या लिखित भाषा में प्रयोग में नही आते। हमें उन्हें निकालना पड़ा। इस निर्णय के पहले विचार विमर्श के दौरान एक तर्क यह दिया गया कि शब्दकोशों में कम प्रचलित शब्द भी रहने चाहिए क्योंकि पुराने साहित्य के पाठक उनके अर्थ तलाशते हुए शब्दकोश उलट पुलट सकते हैं पर एक खंड के शब्दकोश की अपनी शब्द सीमा होती है और जब भाषा में नये आये हजारों शब्द कोश में सम्मिलित होने को बेकरार हों तो अप्रचलित या कम प्रचलित शब्दों को उनके लिए स्थान खाली करना ही पड़ेगा।
हिंदी भाषिक समाज की दूसरी बड़ी राजनीति भाषा के समावेशी चरित्र को लेकर है। हम जानते हैं कि खड़ी बोली हिन्दुओं और मुसलमानों की साझी परम्परा है। यह दुनिया की अकेली भाषा है जो दो लिपियों में लिखी जाती है और लिपियों के साथ इसका नाम बदल जाता है – फारसी लिपि में लिखी भाषा उर्दू तथा नागरी लिपि में लिखी हिंदी कहलाती है। हिन्दुओं और मुसलमानों के हजार साल के साथ ने कुछ अद्भुत चीजें मनुष्यता को दी हैं उदाहरण के लिए हम इनके सहअस्तित्व से उपजे संगीत, स्थापत्य, मूर्तिकला, वास्तुकला और पाकशास्त्र को ले सकते हैं पर यह भी सही है कि इन दोनों के आपसी सम्बन्धों का इतिहास रक्तरंजित संघर्षों का भी रहा है। जब बोली के रूप में एक साझी भाषा खड़ी बोली विकसित होने की प्रक्रिया में थी तो स्वाभाविक है कि दोनों धर्मावलंबियों के आपसी संबंधों का यह वैशिष्ट्य इसके विकास पर भी असर डालता। एक तरफ तो दोनों जीवन पद्धतियों को अभिव्यक्त करने वाले शब्द इस नयी भाषा में आ रहे थे और दूसरी तरफ इसे सांप्रदायिक चोला पहनाने की भी कोशिश हो रही थी। एक तरफ तो शाह हातिब के नेतृत्त्व में चलने वाला मतरूकात आन्दोलन था जिसका आग्रह था कि खड़ी बोली से भाखा के शब्द निकाल दिए जाय और उनकी जगह अरबी फारसी का इस्तेमाल हो। इसी तरह हिंदी में ऐसे उत्साहियों की कभी कमी नहीं रही जो मानते हैं कि संस्कृत हिंदी की जननी है और हिंदी से अरबी फारसी के शब्द निकाल दिए जाय। व्रज समर्थक राधा चरण गोस्वामी का खड़ी बोली में कविता लिखने के विरुद्ध एक तर्क यह भी देते थे कि इससे उर्दू मज़बूत होगी जबकि अयोध्या प्रसाद खत्री हिंदी वालों से खड़ी बोली में कविता लिखने को कहते थे और उर्दू शायरों को नागरी लिपि अपनाने की सलाह देते थे। छायावाद तक आप पायेंगे कि हिंदी के कविताओं में ठूंस-ठूंस कर क्लिष्ट संस्कृत शब्द भरे गए हैं। यह तो 1936 के बाद परवान चढ़े मजबूत प्रगतिशील आंदोलन से ही संभव हो पाया कि जनता के बीच बोली जाने वाली भाषा साहित्य की भाषा बन गयी। नागरी प्रचारिणी सभा, साहित्य सम्मेलन प्रयाग या ज्ञानमंडल के शब्दकोशों पर संस्कृत के प्रति आग्रह स्पष्ट दिखता है। डाक्टर रघुबीर जैसे लोगों के नेतृत्व में आजादी के बाद संस्कृत बोझिल हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रयास हुआ पर हमनें उसका हश्र देखा है। लोगो नें इस भाषा का इस्तेमाल लतीफे गढ़नें में अधिक किया। आज भारत सरकार के गृह मंत्रालय को, जो राजभाषा का प्रभारी मंत्रालय है, एक सरकुलर जारी कर कहना पड़ा है कि सरकारी कामकाज में जरूरत पड़ने पर मुश्किल हिंदी शब्दों के स्थान पर प्रचलित अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। हम अपनी फ़िल्में, मीडिया, बोलचाल – किसी को लें, हमें सैकड़ों ऐसे अंगरेजी के शब्द मिलेंगे जो सहज स्वाभाविक रूप से हमारी भाषा में घुल मिल गए हैं और अब हिंदी के शब्द बन गए हैं। यह हिंदी की कमजोरी नहीं बल्कि उसके समावेशी चरित्र का उदाहरण है जिसने इसके पहले अरबी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली और न जाने कितनी अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण किया है और अपने क्रियापदों से तालमेल बैठाकर उन्हें हिंदी का शब्द बना दिया है। विश्व की सभी बड़ी भाषाएं दूसरी भाषाओँ से आदान प्रदान करतीं हैं। खुद अंगरेजी के शब्दकोश में आधे से अधिक शब्द मूल रूप से उसके नहीं हैं। जो लोग इस शब्द कोश में अंगरेजी के शब्दों को लिए जाने का विरोध कर रहें हैं वे उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में प्रचलित हिंदुत्व की धारणा के अनुरूप काम कर रहे हैं जो उस समय अरबी,फारसी के शब्दों के प्रयोग का विरोध कर हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाना चाहती थी। वे पहले भी सफ़ल नहीं हुए और अब भी नहीं होंगे क्योकि वे भूल रहे हैं कि भाषा जनता बनाती है भाषाविद या शब्द्कोशकर नही।
-- प्रेम भारद्वाज
( हस्तक्षेप से साभार । २८ मई २०१४ को प्रकाशित )