20 अगस्त 2017

जन कवि घाघ

लोकोतियोँ के रचनाकार प्राय:अग्यात होते हैँ लेकिन घाघ की लोक़ोक्तियोँ के रचनाकार के बारे मेँ यह विवरण रोचक है ।
 सूधेश

कहे घाघ सुन घाघनी ...

घाघ के जन्म स्थान के बावत लोगों में अनेकों कयास हैं.कुछ लोग उनका पैतृक निवास कन्नौज मानते हैं ,जब कि पंडित राम निवास त्रिपाठी के अनुसार घाघ बिहार के छपरा के रहने वाले थे . पंडित राम निवास त्रिपाठी की यह उक्ति ज्यादा सटीक जान पड़ती है, क्योंकि घाघ की कहावतें भोजपुरी भाषा में हैं. छपरा की भाषा भी भोजपुरी है . घाघ की कहावतों की कुछ बानगी देखिए ,जिनसे घाघ की मातृ भाषा भोजपुरी थी का पता चलता है ...

नाटा खोटा बेचि के चार धुरंधर लेहु ,
आपन काम निकारि के औरन मंगनि देहु .

करिया बादर जिव डेरवाये,
भूरा बादर पानी लावे .

उत्तम खेती मध्यम बान ,
निषिद्ध चाकरी भीखि निदान.

गोबर ,मैला ,नीम की खली ,
या से खेती दूनी फली  

सावन मास बहे पुरवईया ,
बछवा बेचु लेहु धेनु गइया.

हथिया पोंछि डोलावे ,
घर बईठल गेहूं पावे  .

घाघ की जन्म साल कोई 1693 तो कोई 1753 बताता है . ज्यादातर विद्वान 1753 को हीं घाघ का जन्म साल मानते हैं . पंडित राम नरेश त्रिपाठी भी 1753 को हीं घाघ का जन्म साल मानते हैं .रामनरेश त्रिपाठी ने शोध कर घाघ का नाम देवकुली दूबे पता किया है.देवकुली दूबे "घाघ " उपनाम से अपनी कहावतें कहा करते थे . घाघ की पत्नी का नाम पता नहीं चल पाया है . घाघ ने अक्सर अपनी पत्नी को घाघनी नाम से हीं पुकारा है - "कहे घाघ सुन घाघनी ..." घाघ की कृषि सम्बंधी कहावतें इतनी सटीक हुआ करती थीं कि दूर दूर से लोग उनसे कृषि सम्बंधी सलाह लेने आया करते थे . उनकी प्रसिद्धि सुन बादशाह अकबर शाह द्वीतिय ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया. कन्नौज में जागीर देकर उनका सम्मान किया . घाघ ने एक गांव हीं कन्नौज में बसा दिया था .चूंकि जागीर अकबर शाह ने दी थी, इसलिए गांव का नाम अकबर व घाघ दोनों के नाम पर रखा गया - "अकबराबाद सराय घाघ ".  आज भी इस गांव का नाम सराय घाघ है .

 देवकुली दुबे (घाघ ) के दो पुत्र थे - मार्कण्डेय दूबे और धीरधर दूबे .आज इस गांव में घाघ की सातवीं / आठवीं पीढ़ी निवास कर रही है .एक घाघ से इस गांव में अब 25 परिवार दूबे लोगों का हो गया है . इनकी भाषा भोजपुरी न होकर कन्नौजिया हो गयी है . ये लोग दान नहीं लेते . यजमानी नहीं करते . घाघ अपने धार्मिक विश्वासों के कट्टर समर्थक थे . इसलिए इनका मुगल शासकों से कभी नहीं बनी . घाघ की ज्यादातर जागीर बाद में जब्त कर ली गयी थी . घाघ की अपनी एक बहू से भी कभी नहीं बनी. वह उनकी कहावतों के उलट लिखा करती थी .

घाघ ( देव कुली दूबे ) की कुंडली में लिखा था कि उनकी मृत्यु पानी में डूबने से होगी . इसलिए वे नदी में नहाने से बचते थे . एक बार वे अत्यंत आवश्यक होने पर नदी में नहाने गये . डूबकी लगाते समय उनकी चुटिया जरांठ में फंस गयी . जुरांठ नदी में गाड़े हुए बांस को कहते हैं . उन्हें बाहर निकाला गया . उनकी सांस रुक रही थी . मरते मरते घाघ ने एक दोहा कहा था -

जानत रहलS घाघ निर्बुद्धि ,
आइल काल विनासे बुद्धि .

एस बी ओझा का लेख। भोला नाथ त्याघी के सौजन्य से । फेसबुक 7.6.2017

13 अगस्त 2017

क्या आर्य आक्रमणकारी थ?




Varangians
नार्मन सिद्धान्त के अनुसार, स्कैण्डिनेविया के लोगों ने पहले रूसी किसी भी देश के इतिहास का कोई सर्वस्वीकृत रूप नहीं मिलता। इसकी बजाय आपको अतीत के इतिहासकारों, वर्तमान शासकों, प्रतिद्वन्द्वी देशों, यात्रियों और विदेशी हितों के लिए काम करने वाले तथाकथित विद्वानों द्वारा लिखित इतिहास के अनेक रूप देखने को मिलेंगे। रूस और भारत जैसे विशाल देशों में इतिहास के इनमें से हर रूप को मानने वाले लोग पर्याप्त संख्या में मिलेंगे, जिसके कारण इतिहास से जुड़ा भ्रम 
भारत में वामपन्थी विद्वानों ने आर्यों के आक्रमण के सिद्धान्त का ज़ोर-शोर से समर्थन किया है। इस सिद्धान्त के अनुसार यह दावा किया जाता है कि गोरे रंग के यूरोपीय लोगों ने भारत पर आक्रमण करके काले रंग के स्थानीय मूल निवासियों को अपना ग़ुलाम बना लिया था और इस तरह भारत में आर्य सभ्यता की स्थापना की थी। इस सिलसिले में दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों सिद्धान्तों को विदेशी विशेषज्ञों ने ही प्रस्तुत किया है। भले ही ये विदेशी विद्वान रूस और भारत का विशेषज्ञ होने का दावा करते थे, लेकिन सच्चाई यह है कि उन्हें इन देशों के बारे में ज़्यादा समझ नहीं थी। वैसे इस बात में भी काफी दम है कि इन सिद्धान्तों को विकसित करने के पीछे इन विदेशी विशेषज्ञों की मन्शा बहुत ही कुत्सित थी। 

नार्मन समस्या

नार्मन सिद्धान्त के अनुसार, स्कैण्डिनेविया के लोगों ने पहले रूसी राज्य की स्थापना की और उस पर शासन किया था। इस सिद्धान्त के समर्थक तर्क देते हैं कि रूस पर यदि पश्चिम का प्रभाव नहीं पड़ा होता, तो रूस का एक सभ्यता के रूप में कभी विकास ही नहीं हो पाया होता।
लगभग एक हजार वर्ष पहले ‘अतीत काल के इतिवृत्त’ के रूप में इस बारे में इतिहास लिखा गया। सन 1116 ईस्वी में लिखित ‘अतीत काल का इतिवृत्त’ में लिखा है कि रूस के लोगों ने स्कैण्डिनेविया के लोगों से कहा — हमारे पास बहुत ज़्यादा ज़मीन है और वह काफ़ी उर्वर भी है, पर हमारे यहाँ व्यवस्था ठीक नहीं है। कृपया आप लोग आइए, हमारे ऊपर शासन कीजिए और यहाँ पर सुराज की स्थापना कीजिए।
मिख़ाइल वेस्त्रात ने रूसी तथा एशियाई अध्ययन विद्यापीठ के लिए प्रस्तुत अपने शोधपत्र में समझाया है — हालाँकि रूसी विद्वान ‘अतीत काल के इतिवृत्त’ के बारे में जानते थे, किन्तु पश्चिम के लोगों को 1732 तक इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। साँक्त पितेरबुर्ग स्थित विज्ञान अकादमी में कार्यरत जर्मनी के विद्वान गेरार्ड फ्रेडरिक मूलर ने इस ग्रन्थ के कतिपय अंशों का अनुवाद करके 1732 में उन्हें प्रकाशित किया था। जर्मनी के अन्य विद्वानों ने इसमें खूब उत्सुकता दिखाई और गेरार्ड फ्रेडरिक मूलर, आगस्त लुडविग श्लोज़र तथा गोतलिब बेयर सहित अनेक जर्मन विद्वानों ने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया, जिसको रूसी राज्य के उद्भव का “नार्मन सिद्धान्त” कहा गया। इस सिद्धान्त में उन्होंने दावा किया कि वरंजियाई नामक एक जर्मन-स्कैण्डिनेवियाई जाति ने 'कियेव-रूस' राज्य की स्थापना की थी।
उल्लेखनीय है कि वरंजियाइयों को पश्चिम में वाइकिंग या नार्मन के नाम से जाना जाता था। ‘अतीत काल के इतिवृत्त’ में इस मुद्दे पर स्पष्ट रूप से सबकुछ लिखा हुआ है, इसलिए जर्मन विद्वानों के इस सिद्धान्त में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था।
हालाँकि नार्मन सिद्धान्त के विरोधियों का कहना है कि स्लाव सभ्यता स्वतन्त्र रूप से विकसित हुई थी। इन राष्ट्रवादी विद्वानों में मिख़ाइल लमानोसफ़ का नाम सबसे प्रमुख है, जिन्होंने वरंजियाइयों की भूमिका को न्यूनतम करते हुए स्लाव जाति की प्रमुखता पर ज़ोर दिया था। तभी से रूसी राष्ट्रवादियों के बीच उनका “नार्मन-विरोधी सिद्धान्त” काफी लोकप्रिय रहा है।
निकलाय रियासनोव्स्की नामक एक अन्य विद्वान ने कहा कि 'कियेव-रूस' राज्य के स्लाव शासकों को दक्षिणी रूस का सदियों तक हुआ सांस्कृतिक विकास विरासत में मिला था। उन्होंने कहा — नार्मन लोगों का रूस के विकास में योगदान लगभग नहीं के बराबर था। रूस राज्य के निर्माण में उनका असर बहुत कम रहा, बल्कि यूँ कहें कि सिर्फ ऊपरी-ऊपरी ही रहा।
वास्तव में निकलाय रियासनोव्स्की ने कहा कि यदि उस समय सभ्यताओं के बीच कोई आदान-प्रदान अगर हुआ भी था, तो वह पश्चिम से पूर्व की ओर नहीं, बल्कि पूर्व से पश्चिम की ओर हुआ था। उन्होंने कहा —  स्कैण्डिनेविया पर रूस का काफ़ी सांस्कृतिक असर था।
यह बहस सिर्फ़ अकादेमिक बहस नहीं है। मिख़ाइल वेस्त्रात के अनुसार — इस बहस में ‘रूस’ शब्द, पहले रूसी राज्य और रूसी व उक्रइनी जाति, इन सभी का उद्भव ही दाँव पर लगा हुआ है।

आर्य आक्रमण का सिद्धान्त

जब अंग्रेज़ों को यह महसूस हो गया कि वे भारत के अनगिनत युद्धपिपासु राजे-रजवाड़ों को पूरी तरह से कभी पराजित नहीं कर सकते, तो उन्होंने 1847 में मैक्समूलर नामक जर्मनी के एक अत्यन्त महत्वाकांक्षी, काइयाँ व निर्लज्ज विद्वान को हिन्दू धर्म के बारे में बेहिसाब झूठ गढ़ने का काम सौंपा।
और इस काम में मैक्समूलर अंग्रेज़ों की आशाओं से भी आगे चला गया। उसने संस्कृत के एक प्रचलित शब्द ‘आर्य’ को लिया, जिसका अर्थ होता है - “श्रेष्ठ व्यक्ति”। उसने दावा किया कि संस्कृत का शब्द आर्य यूरोपीय लोगों की एक आद्य प्रजाति आर्यन को ही व्यक्त करता है। उल्लेखनीय है कि आर्यन प्रजाति का उद्भव-स्थान भारत से काफी दूर रूस, कोहकाफ़ या नार्दिक अंचल में कहीं पड़ता है। धूर्त मैक्समूलर ने कहा कि आर्यों ने 1200 ईसा पूर्व के आस-पास भारत पर आक्रमण करके यहाँ की फलती-फूलती सभ्यता को नष्ट कर दिया था और पशुपालन आधारित एक नई जीवन-पद्धति की स्थापना की थी।
सी० बेकरलेग ने ‘संस्कृति व साम्राज्य’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है — मैक्समूलर अंग्रेज़ों का पिट्ठू था। उसको अंग्रेज़ों ने विशेष रूप से वेदों का ऐसा घटिया अर्थ निकालने वाला अनुवाद करने के काम पर लगाया था कि हिन्दुओं की वेदों में आस्था ही समाप्त हो जाए।
मैक्समूलर द्वारा लिखे गए पत्रों से यह बात उजागर होती है कि वह भारत में ईसाई धर्म को लाने के लिए व्याकुल था ताकि हिन्दू धर्म को नष्ट किया जा सके। अपनी पत्नी को लिखे एक पत्र में उसने लिखा है — पूरे अफ्रीका को ईसाई बनाने में हमें केवल 200 साल लगे, लेकिन 400 साल के बाद भी भारत हमारी पकड़ से दूर है। मुझे अब ऐसा महसूस हो रहा है कि संस्कृत भाषा की वजह से ही भारत अभी तक हमारी गिरफ़्त से बचा रह गया है। भारत की इस ताक़त को ख़त्म करने के लिए मैंने संस्कृत सीखने का फ़ैसला किया है।
एक अन्य पत्र में उसने लिखा है — शिव, विष्णु व अन्य लोकप्रतिष्ठित देवी-देवताओं की उपासना की प्रकृति जूपिटर, अपोलो तथा मिनर्वा की उपासना की ही तरह, बल्कि कई बार तो उससे भी अधिक अधम व बर्बर है; इसका सम्बन्ध हमारे पुराने अतीत की विचारपद्धति से है। ऊपर से यह भले ही कितने भी प्रबल व ठोस आधार पर टिकी दिखाई देती हो, किन्तु मुक्त विचार तथा सभ्य जीवन का एक हल्का-सा झोंका भी उसे उड़ाने के लिए काफी होगा।
हालाँकि भारत ने 1947 में ही अंग्रेज़ों को खदेड़ कर बाहर निकाल दिया, लेकिन ग़ुलाम मानसिकता वाला मैकालेवादी भारतीय वर्ग, जो भारतीय होते हुए भी अपने विचारों की दृष्टि से अंग्रेज़ है, आज भी आर्य आक्रमण के सिद्धान्त से चिपका हुआ है।
हालाँकि इधर हाल के वर्षों में विद्वानों ने आर्य आक्रमण के सिद्धान्त में कई बड़ी-बड़ी कमियों को खोज निकाला है। बेल्जियम के भारतशास्त्री कोन्राड एल्स्ट के अनुसार — भारतीय पुरातत्वविदों ने आर्य आक्रमण के सिद्धान्त को पूरी तरह से नकार दिया है क्योंकि 150 साल तक आधिकारिक सिद्धान्त होने तथा इसके समर्थन में हुए शोधों पर काफी धनराशि व्यय होने के बाद भी आज तक इस बात का एक भी सबूत नहीं मिल सका है कि आर्य भारत में वास्तव में बाहर से आए थे।
डीएनए अध्ययन तथा भाषाविज्ञान में हुई प्रगति से यह सिद्ध हो गया है कि भारत पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धान्त सफ़ेद झूठ है और यूरोपीय लोगों ने भारत की ओर जाने का अभियान कभी नहीं किया था।
शोध व अनुसन्धान से इस बात के काफ़ी प्रमाण मिले हैं कि इसके विपरीत प्राचीन भारत के लोग ही अपनी भाषा व संस्कृति को लेकर पश्चिम की ओर गए थे। डीएनए विश्लेषणों से यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय लोगों का जीन समुच्चय विगत 50 हज़ार से भी अधिक वर्षों से कुल मिलाकर स्थिर ही बना हुआ है। अंग्रेज़ों के पिछलग्गू फर्जी इतिहासकार  यह दावा करते हैं कि 1200 ईसा पूर्व में भारत पर आर्यों ने आक्रमण किया था। यदि उस समय कोई आक्रमण हुआ होता, तो भारतीयों के जीन समुच्चय में काफ़ी बदलाव आना चाहिए था।
एम 17 नामक आनुवंशिक चिह्नक को कोहकाफ़ी गुण से सम्बन्धित माना जाता है। वास्तव में भारतीयों के बीच एम 17 की आवृत्ति सर्वाधिक है। इसका अर्थ यह है कि एम 17 की वाहक जातियों में भारतीय लोग सबसे पुराने हैं। यह इस बात का भी संकेत है कि जब भारतीय लोग कोहकाफ़ क्षेत्र में जाकर बस गए, तो धूप की कमी के कारण उनकी त्वचा धीरे-धीरे साफ़ होती चली गई।
मानव से इतर अन्य स्रोतों से भी डीएनए प्रमाण मिल सकते हैं। कोन्राड एल्स्ट के अनुसार — उक्रईना की गायों के वंशक्रम में अच्छा-खासा प्रतिशत भारतीय गायों का है। प्रवासी आर्य गोपालक ज़रूर अपने साथ अपने पशुधन को भी ले गए होंगे। इस निष्कर्ष से इस बात को बल मिलता है कि आर्य आक्रमण सिद्धान्त के विपरीत पूर्व से पश्चिम की ओर ही प्रवास हुआ होगा।
श्रीकान्त तलगेरी ने भी यह सिद्ध किया है कि प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में पूर्वी भारत की नदियों का उल्लेख हुआ है, जबकि परवर्ती ग्रन्थों में पश्चिमी व पश्चिमोत्तर भारत की नदियों का उल्लेख मिलता है, जिससे सिद्ध होता है कि भारोपीय सभ्यता का उद्गम भारत में हुआ और यहाँ से यह सभ्यता पश्चिम की ओर गई।
साफ है कि वामपन्थी फर्जी इतिहासकारों के कल्पनारंजित सिद्धान्त हमें सत्य से दूर ले जाते हैं, जबकि वैज्ञानिक अनुसन्धान हमें अभूतपूर्व रूप से सत्य के निकट ले जा रहा है।
इस लेख के लेखक  न्यूज़ीलैण्ड में रहने वाले राकेश कृष्णन सिंह पत्रकार व विदेशी मामलों के विश्लेषक हैं ।

रूस और भारत संवाद से साभार ( फेस बुक में १३ अगस्त २०१७ को प्रकाशित ) 
अनिल जन्मेजय के सौजन्य से । 

6 अप्रैल 2017

रोचक प्रसंग

जब जाति पाँति  टूट ग ई 

बहुत कम ही लोगो को मालूम  होगा कि 1917 ई मे चंपारण  मे गांधी जी के सहयोगी   डॉ राजेन्द्र प्रसाद   और काँग्रेस के बड़े नेता बाबू व्रजकिशोर  प्रसाद  जात -पात  को बहुत मानते  थे और वे लोग दूसरों के हाथ  का छुआ नहीं खाते थे ।उस समय बिहार मे जात -पात की प्रथा बहुत कड़ी थी ।यहाँ  तक ब्राह्मण मे भी निचले  पायदान के ब्राह्मण  का छुआ ऊंचे  पायदान  के ब्राहमन नहीं खाते थे ।गांधीजी के ये दोनों मददगार वकील  भी थे ,वे जब गांधी जी आंदोलन मे शामिल  होने आए तब अपने साथ नौकर लेकर  आए  लेकिन  एक समस्या खड़ी  हो गई कि वे सारे  नौकर खाना नहीं बनाना जानते थे ।तब  यह तय हुआ कि एक ब्राह्मण  रसोइया  ठीक किया जाये ।जब गांधी जी को इसका पता चला  तब उन्होने उन लोगो को बुला कर कहा कि यहाँ हम सभी एक ही उदेश्य  से एकत्र  हुये है ,इस लिए हमारी जाति भी एक है ,ऐसा माना जाये ।और इस लिए ब्राह्मण  रसोइया रखना  उचित नहीं होगा ।गांधीजी के कहने का यह प्रभाव हुआ कि वहाँ सार्वजनिक रसोई शुरू  हो गई  और जात  का बंधन  टूट गया ।डॉ राजेंद्र प्रसाद ने  अपनी जीवनी मे लिखा है  कि इस प्रकार समझाकर मोतीहारी मे जात पांत  तोड़ दी गई ।मैंने पहली बार वहाँ  दूसरी जाति के हाथ का खाना खाया ।
मुक्ताधारी अग्रवाल के सौजन्य से । 
फेसबुक मेँ 27.3.2017 

विक्रम संवत् 
________

विक्रम संवत् ई. पू. 57 वर्ष प्रारंभ हुआ। यह संवत् मालव गण के सामूहिक प्रयत्नों द्वारा गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रम के नेतृत्व में उस समय विदेशी माने जानेवाले शक लोगों की पराजय के स्मारक रूप में प्रचलित हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि तत्समय  भारतीय जनता के देशप्रेम और विदेशियों के प्रति उनकी भावना सदा जागृत रखने के लिए जनता ने सदा से इसका प्रयोग किया है। ऐतिहासिक तथ्य एवं मान्यताएं इस बात की पुष्टि करती हैं कि  यह संवत् मालव गण द्वारा जनता की भावना के अनुरूप     प्रचलित हुआ और तभी से जनता द्वारा ग्राह्य एवं प्रयुक्त है। इस संवत् के प्रारंभिक काल में यह कृत, तदनंतर मालव और अंत में विक्रम संवत् रह गया। यही अंतिम नाम इस संवत् के साथ जुड़ा हुआ है। विक्रम संवत हिन्दू पंचांग में समय गणना की प्रणाली का नाम है। इसका प्रणेता सम्राट विक्रमादित्य को माना जाता है। इसके बारह माहों के  नाम हैं - चैत्र , वैशाख , ज्येष्ठ , आषाढ़ , श्रावण , भाद्र , आश्विन , कार्तिक , मार्गशीर्ष , पौष , माघ , तथा फाल्गुन !
योगेन्द्र कुमार के सौजन्य से । फेसबुक 28.3.2017

12 जनवरी 2017

संस्कृत में वकालत

































    संस्कृत को मृत भाषा कहने वालों की कमी नहीं है । पर भारत में अब भी ऐसे क्षेत्र , गांव हैं जहाँ संस्कृत बोली जाती है । इसी क्रम में वाराणसी में एक वकील हैं , जो चालीस वर्षों से वकालत का धन्धा संस्कृत के माध्यम से कर रहे हैं । यह विवरण पढ़िये ---
सुधेश
देववाणी संस्कृत के प्रति भले ही लोगों का रुझान कम हो लेकिन वाराणसी के एडवोकेट आचार्य पंडित श्यामजी उपाध्याय का संस्कृत के लिए समर्पण शोभनीय है। 1976 से वकालत करने वाले आचार्य पण्डित श्यामजी उपाध्याय 1978 में वकील बने। इसके बाद इन्होंने देववाणी संस्कृत को ही तरजीह दी।
श्याम जी कहते हैं कि  ‘जब मैं छोटा था, तब मेरे पिताजी ने कहा था कि कचहरी में काम हिंदी, अंग़्रेजी और उर्दू में होता है परंतु संस्कृत भाषा में नहीं। ये बात मेरे मन में घर कर गई और मैंने संस्कृत भाषा में वकालत करने की ठानी और ये सिलसिला आज भी चार दशकों से जारी है !’ 
सभी न्यायालयीन काम जैसे- शपथपत्र, प्रार्थनापत्र, दावा, वकालतनामा और यहां तक की बहस भी संस्कृत में करते चले आ रहे हैं। पिछले ४ दशकों में संस्कृत में वकालत के दौरान श्यामजी के पक्ष में जो भी निर्णय और आदेश हुआ, उसे न्यायाधीश साहब ने संस्कृत में या तो हिंदी में सुनाया।
संस्कृत भाषा में कोर्टरूम में बहस सहित सभी लेखनी प्रस्तुत करने पर सामनेवाले पक्ष को असहजता होने के सवाल पर श्यामजी ने बताया कि वो संस्कृत के सरल शब्दों को तोड़-तोड़कर प्रयोग करते है, जिससे न्यायाधीश से लेकर विपक्षियों तक को कोई दिक्कत नहीं होती है और अगर कभी सामनेवाला राजी नहीं हुआ तो वो हिंदी में अपनी कार्यवाही करते हैं।
केवल कर्म से ही नहीं अपितु संस्कृत भाषा में आस्था रखनेवाले श्यामजी हर वर्ष कचहरी में संस्कृत दिवस समारोह भी मनाते चले आ रहे हैं। लगभग ५ दर्जन से भी अधिक अप्रकाशित रचनाओं के अलावा श्यामजी की २ रचनाएं “भारत-रश्मि” और “उद्गित” प्रकाशित हो चुकि है।
कचहरी समाप्त होने के बाद श्याम जी का शाम का समय अपनी चौकी पर संस्कृत के छात्रों और संस्कृत के प्रति जिज्ञासु अधिवक्ताों को पढ़ा कर बीताते है। संस्कृत भाषा की यह शिक्षा श्यामजी निःशुल्क देते हैं।
संस्कृत भाषा में रूचि लेनेवाले बुज़ुर्ग अधिवक्ता शोभनाथ लाल श्रीवास्तव ने बताया कि, संस्कृत भाषा को लेकर पूरे न्यायालय परिसर में श्यामजी के लोग चरण स्पर्श ही करते रहते हैं।
जब ये कोर्टरूम में रहते हैं तो इनके सहज-सरल संस्कृत भाषा के चलते श्रोता शांति से पूरी कार्यवाही में रुचि लेते हैं। श्यामजी के संपर्क में आने से उनके संस्कृत भाषा का ज्ञान भी बढ़ गया।
आचार्य श्यामजी उपाध्याय संस्कृत अधिवक्ता के नाम से प्रसिध्द हैं। वर्ष २००३ में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने संस्कृत भाषा में अभूतपूर्व योगदान के लिए इनको ‘संस्कृतमित्रम्’ नामक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया था।
फेसबुक से साभार  ११ जनवरी २०१७ को प्रकाशित




22 फ़रवरी 2016

चिन्दी चिन्दी होती हिन्दी , हम क्या करें?

   ज्ञान के सबसे बड़े सर्च इंजन विकीपीडिया ने अपने नए सर्वेक्षण नें दुनिया की सौ भाषाओं की सूची जारी की है, उसमें हिन्दी को चौथा स्थान दिया है। इसके पूर्व हिन्दी को दूसरे स्थान पर रखा जाता था। पहले स्थान पर चीनी थी। यह परिवर्तन इसलिए हुआ की सौ भाषाओं की इस सूची में भोजपुरी, अवधी, मैथिली, मगही, हरियाणवी और छत्तीसगढ़ी को स्वतंत्र भाषा का दर्जा दिया गया है। हिन्दी को खण्ड-खण्ड करके देखने की यह अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति है। आज भी यदि हम इनके सामने अंकित संख्याओं को हिन्दी बोलने वालों की संख्या में जोड़ दें तो फिर हिन्दी दूसरे स्थान पर पहुँच जाएगी। किन्तु यदि उक्त भाषाओं के अलावा राजस्थानी, ब्रजी, कुमायूनी-गढ़वाली, अंगिका, बुंदेली जैसी बोलियों को भी स्वतंत्र भाषाओं के रूप में गिन लें तो निश्चित रूप से हिन्दी सातवें-आठवें स्थान पर पहुंच जाएगी और जिस तरह से हिन्दी की उक्त बोलियों द्वारा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग जोरों से की जा रही है यह परिघटना आगे के कुछ ही वर्षों में यथार्थ बन जाएगी।
विशवस्त सूत्रों से मालूम हुआ है हमारे कुछ सांसद भोजपुरी, राजस्थानी आदि हिन्दी की बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने वाला बिल संसद के आगामी सत्र में  पेश करने पर जोर दे रहे हैं. इनमें लोकसभा में भाजपा के मुख्य सचेतक अर्जुनराम मेघपाल, सांसद जगदम्बिका पाल, सांसद मनोज तिवारी और भोजपुरी समाज के अजीत दूबे प्रमुख हैं। इनका शिष्ट मंडल हमारे प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और गृहमंत्री राजनाथ सिंह से भी मिल चुका है। यदि यह बिल पास हो गया तो हिन्दी के खूबसूरत घर का एक बड़ा हिस्सा और बँट जाएगा। अब भी यदि समय रहते हमने इस बिल के पीछे छिपी साम्राज्यवाद और उसके दलालों की साजिश का पर्दाफाश नहीं किया तो हमें डर है कि हमारी सरकार बहुत जल्दी संसद में यह बिल लाएगी और बिना किसी बहस के कुछ मिनटों में ही बिल पास भी हो जाएगा. हमारे भोजपुरीभाषी वन्धुओं ने तो मानो अपने हित के बारे में सोचने विचारने का काम भी ठेके पर दे रखा है, वर्ना अपने जिस पूर्व गृहमंत्री माननीय पी. चिदंबरम की जबान से इस देश की राजभाषा हिन्दी के शब्द सुनने के लिए हमारे कान तरसते रह गए उसी गृहमंत्री ने हम रउआ सबके भावना समझतानीं जैसा भोजपुरी का वाक्य संसद में बोलकर भोजपुरी भाषियों का दिल जीत लिया था। सच है भोजपुरी भाषी आज भी दिल से ही काम लेते हैं, दिमाग से नहीं, वर्ना, अपनी अप्रतिम ऐतिहासिक विरासत, सांस्कृतिक समृद्धि, श्रम की क्षमता, उर्वर भूमि और गंगा यमुना जैसी जीवनदायिनी नदियों के रहते हुए यह हिन्दी भाषी क्षेत्र आज भी सबसे पिछड़ा क्यों रहता ? यहाँ के लोगों को तो अपने हित- अनहित की भी समझ नहीं है। वैश्वीकरण के इस युग में जहां दुनिया के देशों की सरहदें टूट रही हैं,  टुकड़े टुकड़े होकर विखरना हिन्दी भाषियों की नियति बन चुकी है.
      सच है, जातीय चेतना जहाँ सजग और मजबूत नहीं होती वहाँ वह अपने समाज को विपथित भी करती हैं। समय-समय पर उसके भीतर विखंडनवादी शक्तियाँ सर उठाती रहती हैं। विखंडन व्यापक साम्राज्यवादी षड्यंत्र का ही एक हिस्सा है। दुर्भाग्य से हिन्दी जाति की जातीय चेतना मजबूत नहीं है और इसीलिए वह लगातार टूट रही है।
 अस्मिताओं की राजनीति आज के युग का एक प्रमुख साम्राज्यवादी एजेंडा है। साम्राज्यवाद यही सिखाता है कि थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली । जब संविधान बना तो मात्र 13 भाषाएं आठवीं अनुसूची में शामिल थीं। फिर 14, 18  और अब 22 हो चुकी हैं। अकारण नहीं है कि जहाँ एक ओर दुनिया ग्लोबल हो रही है तो दूसरी ओर हमारी भाषाएं यानी अस्मिताएं टूट रही हैं और इसे अस्मिताओं के उभार के रूप में देखा जा रहा है। हमारी दृष्टि में ही दोष है। इस दुनिया को कुछ दिन पहले जिस प्रायोजित विचारधारा के लोगों द्वारा गलोबल विलेज कहा गया था उसी विचारधारा के लोगों द्वारा हमारी भाषाओं और जातीयताओं को टुकड़ो-टुकड़ो में बांट करके कमजोर किया जा रहा है.
भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग समय-समय पर संसद में होती रही है. श्री प्रभुनाथ सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, संजय निरूपम, अली अनवर अंसारी, योगी आदित्य नाथ जैसे सांसदों ने समय-समय पर यह मुद्दा उठाया है। मामला सिर्फ भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता देने का नहीं है। मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद छत्तीसगढ़ ने 28 नवंबर 2007 को अपने राज्य की राजभाषा छत्तीसगढ़ी घोषित किया और विधान सभा में प्रस्ताव पारित करके उसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग की। यही स्थिति राजस्थानी की भी है। हकीकत यह है कि जिस राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग जोरों से की जा रही है उस नाम की कोई भाषा वजूद में है ही नहीं। राजस्थान की 74 में से सिर्फ 9 (ब्रजी, हाड़ौती, बागड़ी, ढूंढाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, मारवाड़ी, मालवी, शेखावटी) बोलियों को राजस्थानी नाम देकर संवैधानिक दर्जा देने की मांग की जा रही है। बाकी बोलियों पर चुप्पी क्यों ? इसी तरह छत्तीसगढ़ में 94  बोलियां हैं जिनमेंसरगुजिया और हालवी जैसी समृद्ध बोलियां भी है। छत्तीसगढ़ी को संवैधानिक दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ने वालों को इन छोटी-छोटी उप बोलियां बोलने वालों के अधिकारों की चिन्ता क्यों नहीं है ? पिछली सरकार के बहुचर्चित केन्द्रीय गृहराज्य मंत्री नवीन जिंदल ने लोक सभा में एक चर्चा को दौरान कुमांयूनी-गढ़वाली को संवैधानिक दर्जा देने का आश्वासन दिया था। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि यदि हरियाणा सरकार हरियाणवी के लिए कोई संस्तुति भेजती है तो उसपर भी विचार किया जाएगा। मैथिली तो पहले ही शामिल हो चुकी है। फिर  अवधी और ब्रजी ने कौन सा अपराध किया है कि उन्हें आठवीं अनुसूची में जगह न दी जाय जबकि उनके पासरामचरितमानस और पद्मावत जैसे ग्रंथ है ? हिन्दी साहित्य के इतिहास का पूरा मध्य काल तो ब्रज भाषा में ही लिखा गया। इसी के भीतर वह कालखण्ड भी है जिसे हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग ( भक्ति काल ) कहते हैं।
संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हिन्दुस्तान की कौन सी भाषा है जिसमें बोलियां नहीं हैं ? गुजराती में सौराष्ट्री, गामड़िया, खाकी, आदि, असमिया में क्षखा, मयांग आदि, ओड़िया में संभलपुरी, मुघलबंक्षी आदि, बंगला में बारिक, भटियारी, चिरमार, मलपहाड़िया, सामरिया, सराकी, सिरिपुरिया आदि, मराठी में गवड़ी, कसारगोड़, कोस्ती, नागपुरी, कुड़ाली आदि। इनमें तो कहीं भी अलग होने का आन्दोलन सुनायी नहीं दे रहा है।  बंगला तक में नहीं, जहां अलग देश है। मैं बंगला में लिखना पढ़ना जानता हूं किन्तु ढाका की बंगला समझने में बड़ी असुविधा होती है।
 अस्मिताओं की राजनीति करने वाले कौन लोग हैं ? कुछ गिने –चुने नेता, कुछ अभिनेता और कुछ स्वनामधन्य बोलियों के साहित्यकार। नेता जिन्हें स्थानीय जनता से वोट चाहिए। उन्हें पता होता है कि किस तरह अपनी भाषा और संस्कृति की भावनाओं में बहाकर गाँव की सीधी-सादी जनता का मूल्यवान वोट हासिल किया जा सकता है।
      इसी तरह भोजपुरी का अभिनेता रवि किसन यदि भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए  संसद के सामने धरना देने की धमकी देता है तो उसका निहितार्थ समझ में आता है क्योकि, एक बार मान्यता मिल जाने के बाद उन जैसे कलाकारों और उनकी फिल्मों को सरकारी खजाने से भरपूर धन मिलने लगेगा। शत्रुघ्न सिन्हा ने लोकसभा में यह मांग उठाते हुए दलील दिया था कि इससे भोजपुरी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता और वैधानिक दर्जा दिलाने में काफी मदद मिलेगी।  
बोलियों को संवैधानिक मान्यता दिलाने में वे साहित्यकार सबसे आगे हैं जिन्हें हिन्दी जैसी समृद्ध भाषा में पुरस्कृत और सम्मानित होने की उम्मीद टूट चुकी है। हमारे कुछ मित्र तो इन्हीं के बलपर हर साल दुनिया की सैर करते हैं और करोड़ो का वारा- न्यारा करते है। स्मरणीय है कि नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार उनकी मैथिली कृति पर मिला था किसी हिन्दी कृति पर नहीं। बुनियादी सवाल यह है कि आम जनता को इससे क्या लाभ होगा ?
एक ओर सैम पित्रोदा द्वारा प्रस्तावित ज्ञान आयोग की रिपोर्ट जिसमें इस देश के ऊपर के उच्च मध्य वर्ग को अंग्रेज बनाने की योजना है और दूसरी ओर गरीब गँवार जनता को उसी तरह कूप मंडूक बनाए रखने की साजिश। इस साजिश में कारपोरेट दुनिया की क्या और कितनी भूमिका है –यह शोध का विषय है। मुझे उम्मीद है कि निष्कर्ष चौंकाने वाले होंगे।
      वस्तुत: साम्राज्यवाद की साजिश हिन्दी की शक्ति को खण्ड-खण्ड करने की है क्योकि बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से हिन्दी, दुनिया की सबसे बड़ी दूसरे नंबर की भाषा है। इस देश में अंग्रेजी के सामने सबसे बड़ी चुनौती हिन्दी ही है। इसलिए हिन्दी को कमजोर करके इस देश की सांस्कृतिक अस्मिता को, इस देश की रीढ़ को आसानी से तोड़ा जा सकता है। अस्मिताओं की राजनीति के पीछे साम्राज्यवाद की यही साजिश है।
      जो लोग बोलियो की वकालत करते हुए अस्मिताओं के उभार को जायज ठहरा रहे हैं वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, खुद व्यवस्था से साँठ-गाँठ करके उसकी मलाई खा रहे हैं और अपने आस-पास की जनता को जाहिल और गंवार बनाए रखना चाहते हैं ताकि भविष्य में भी उनपर अपना वर्चस्व कायम रहे। जिस देश में खुद राजभाषा हिन्दी अब तक ज्ञान की भाषा न बन सकी हो वहाँ भोजपुरी, राजस्थानी, और छत्तीसगढ़ी के माध्यम से बच्चों को शिक्षा देकर वे उन्हें क्या बनाना चाहते है ?  जिस भोजपुरी, राजस्थानी या छत्तीसगढ़ी का कोई मानक रूप तक तय नहीं है, जिसके पास गद्य तक विकसित नहीं हो सका है उस भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराकर उसमें मेडिकल और इंजीनियरी की पढ़ाई की उम्मीद करने के पीछे की धूर्त मानसिकता को आसानी से समझा जा सकता है।
      अगर बोलियों और उसके साहित्य को बचाने की सचमुच चिन्ता है तो उसके साहित्य को पाठ्यक्रमों में शामिल कीजिए, उनमें फिल्में बनाइए, उनका मानकीकरण कीजिए। उन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल करके हिन्दी से अलग कर देना और उसके समानान्तर खड़ा कर देना तो उसे और हिन्दी, दोनो को कमजोर बनाना है और उन्हें आपस में लड़ाना है।
बंगाल की दुर्गा पूजा मशहूर है। मैं जब भी हिन्दी के बारे में सोचता हूं तो मुझे दुर्गा का मिथक याद आता है। दुर्गा बनी कैसे ? महिषासुर से त्रस्त सभी देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए थे। अतुलं तत्र तत्तेज: सर्वदेवशरीरजम्। एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा। अर्थात् सभी देवताओं के शरीर से प्रक़ट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया  और अपने प्रकाश से तीनो लोकों में व्याप्त हो गया । तब जाकर महिषासुर का बध हो सका।
हिन्दी भी ठीक दुर्गा की तरह है। जैसे सारे देवताओं ने अपने-अपने तेज दिए और दुर्गा बनी वैसे ही सारी बोलियों के समुच्चय का नाम हिन्दी है। यदि सभी देवता अपने-अपने तेज वापस ले लें तो दुर्गा खत्म हो जाएगी, वैसे ही यदि सारी बोलियां अलग हो जायँ तो हिन्दी के पास बचेगा क्या ? हिन्दी का अपना क्षेत्र कितना है ? वह दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली कौरवी से विकसित हुई है। हम हिन्दी साहित्य के इतिहास में चंदबरदायी और मीरा  को पढ़ते है जो राजस्थानी के हैं, सूर को पढ़ते हैं जो ब्रजी के हैं, तुलसी और जायसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं, कबीर को पढ़ते हैं जो भोजपुरी के हैं और विद्यापति को पढ़ते है जो मैथिली के हैं। इन सबको हटा देने पर हिन्दी साहित्य में बचेगा क्या ?
हिन्दी की सबसे बड़ी ताकत उसकी संख्या है। इस देश की आधी से अधिक आबादी हिन्दी बोलती है और यह संख्या बल बोलियों के नाते है। बोलियों की संख्या मिलकर ही हिन्दी की संख्या बनती है। यदि बोलियां आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो आने वाली जनगणना में मैथिली की तरह भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि को अपनी मातृभाषा बताने वाले हिन्दी भाषी नहीं गिने जाएंगे और तब हिन्दी तो मातृ-भाषा बताने वाले गिनती के रह जाएंगे, हिन्दी की संख्या बल की ताकत स्वत: खत्म हो जाएगी और तब अंग्रेजी को भारत की राजभाषा बनाने के पक्षधर उठ खड़े होंगे और उनके पास उसके लिए अकाट्य वस्तुगत तर्क होंगे। ( अब तो हमारे देश के अनेककाले अंग्रेज बेशर्मी के साथ अंग्रेजी को भारतीय भाषा कहने भी लगे हैं।) उल्लेखनीय है कि सिर्फ संख्या-बल की ताकत पर ही हिन्दी, भारत की राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित है।
मित्रो, हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न बोलियों के बीच एकता का सूत्र यदि कोई है तो वह हिन्दी ही है। हिन्दी और उसकी बोलियों के बीच परस्पर पूरकता और सौहार्द का रिश्ता है। हिन्दी इस क्षेत्र की जातीय भाषा है जिसमे हम अपने सारे औपचारिक और शासन संबंधी काम काज करते हैं। यदि हिन्दी की तमाम बोलियां अपने अधिकारों का दावा करते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हो गईं तो हिन्दी की राष्ट्रीय छवि टूट जाएगी और राष्ट्रभाषा के रूप में उसकी हैसियत भी संदिग्ध हो जाएगी।
इतना ही नहीं, इसका परिणाम यह भी होगा कि मैथिली, ब्रजी, राजस्थानी आदि के साहित्य को विश्वविद्यालयों के हिन्दी पाठ्यक्रमों से हटाने के लिए हमें विवश होना पड़ेगा। विद्यापति को अबतक हम हिन्दी के पाठ्यक्रम में पढ़ाते आ रहे थे । अब हम उन्हें पाठ्यक्रम से हटाने के लिए बाध्य हैं। अब वे सिर्फ मैथिली के कोर्स में पढ़ाये जाएंगे। क्या कोई साहित्यकार चाहेगा कि उसके पाठकों की दुनिया सिमटती जाय़ ?
 हिन्दी ( हिन्दुस्तानी ) जाति इस देश की सबसे बड़ी जाति है। वह दस राज्यों में फैली हुई है। इस देश के अधिकाँश प्रधान मंत्री हिन्दी जाति ने दिए हैं। भारत की राजनीति को हिन्दी जाति दिशा देती रही है। इसकी शक्ति को छिन्न –भिन्न करना है। इनकी बोलियों को संवैधानिक दरजा दो। इन्हें एक-दूसरे के आमने-सामने करो। इससे एक ही तीर से कई निशाने लगेंगे। हिन्दी की संख्या बल की ताकत स्वत: खत्म हो जाएगी। हिन्दी भाषी आपस में बँटकर लड़ते रहेंगे और ज्ञान की भाषा से दूर रहकर कूपमंडूक बने रहेंगे। बोलियाँ हिन्दी से अलग होकर अलग-थलग पड़ जाएंगी और स्वत: कमजोर पड़कर खत्म हो जाएंगी।
मित्रो, चीनी का सबसे छोटा दाना पानी में सबसे पहले घुलता है। हमारे ही किसी अनुभवी पूर्वज ने कहा है, “अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च। अजा पुत्रं बलिं दद्यात दैवो दुर्बल घातक:
 अर्थात् घोड़े की बलि नहीं दी जाती, हाथी की भी बलि नही दी जाती और बाघ के बलि की तो कल्पना भी नही की जा सकती। बकरे की ही बलि दी जाती है। दैव भी दुर्बल का ही घातक होता है।
अब तय हमें ही करना है कि हम बाघ की तरह बनकर रहना चाहते हैं या बकरे की तरह।
हम सबसे पहले अपने माननीय सांसदों एवं अन्य जनप्रतिनिधियों से प्रार्थना करते हैं कि वे अत्यंत गंभीर और दूरगामी प्रभाव डालने वाली इस आत्मघाती मांग पर पुनर्विचार करें और भावना में न बहकर अपनी राजभाषा हिन्दी को टूटने से बचाएं।
हम हिन्दी समाज के अपने बुद्धिजीवियों से साम्राज्यवाद और व्यूरोक्रेसी की मिली भगत से रची जा रही इस साजिश से सतर्क होने और एकजुट होकर इसका पुरजोर विरोध करने की अपील करते हैं।
      डॉ. अमरनाथ
अध्यक्ष, अपनी भाषा तथा प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय
संपर्क: ईई-164 / 402, सेक्टर-2, साल्टलेक, कोलकाता-700091
            मो. 09433009898 ई-मेल amarnath.cu@gmail.com  
--- एम एल गुप्त आदित्य के ब्लाग से साभार ।

   

6 फ़रवरी 2016

हिन्दी शब्दों का उच्चारण

                                  हिन्दी शब्दों के उच्चारण 

   बहुत से हिन्दी प्रेमी भ्रष्ट उच्चारण अर्थात गलत उच्चारण पर नांक भौंह सिकोड़ते हैं , जो स्वाभाविक 
है और उचित भी । यदि शिक्षित व्यक्ति और विशेषत: हिन्दी भाषी और हिन्दी के ज्ञाता किसी शब्द का 
गलत उच्चारण करते हैं , तो आपत्ति होनी चाहिये । पर सामान्य लोग , चाहे वे किसी प्रान्त के हों , चाहे 
वे शिक्षित हों या साक्षर हों , यदि हिन्दी शब्दों का भ्रष्ट उच्चारण करते हैं , तो आँख मूँद कर उन की 
आलोचना करना ठीक नहीं होगा । यह देखना चाहिये कि वह कहाँ का है , देशी है या विदेशी और उस 
की शिक्षा का स्तर क्या है । 
   कुछ दिनों पहले बिहार में नवमनोनीत मन्त्री श्री तेज प्रताप ने शपथ ग्रहण के समय उच्चारण की ग़लती 
की तो फेसबुक पर अनेक लोगों ने उन की आलोचना की , जो सही थी । पर कुछ सज्जन उन के बचाव 
में विचित्र तर्क देने लगे । वे श्री नरेन्द्र मोदी को बीच में लाकर कहने लगे कि वे अनेक बार  कृपा शब्द को 
क्रुपा के रूप में बोलते सुने गये हैं । यदि उन के गलत उच्चारण पर ध्यान नहीं दिया जाता , तो बेचारे 
तेजप्रताप को क्यों आलोचना के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है । इस पर मैं मे टिप्पणी करते हुए लिखा 
गुजरात और महाराष्ट्र के लोग प्राय: कृपा को क्रुपा बोलते हैं । तो श्री नरेन्द्र मोदी को क्यों निशाना बनाया 
जाए । 
  तो जितेन्द्र जिज्ञासु ने उत्तर में जो लिखा नीचे दे रहा हूँ --
" सर, हमारे बिहार में अक्सर लोग 'शर्मा जी' को 'सर्मा जी' और 'सिन्हा जी' को 'शिन्हा जी' बुलाते हैं, और उनकी ये आदत जीवन भर नहीं जाती है। मगर हर ज़गह इस उच्चारण-दोष की ख़ूब आलोचना होती है। इसलिए, गुजरात या महाराष्ट्र में अगर 'कृपा' को 'क्रूपा' बोला जाता है, तो ये उच्चारण-दोष है, जिसे जबरन सही नहीं ठहराया जा सकता। औऱ, ऐसा भी नहीं कि इसे ठीक नहीं किया जा सकता है।"
 मै ने उन की प्रतिक्रिया का यह उत्तर दिया -- 
" उच्चारण दोष को मैं ने ठीक नहीं ठहराया । केवल यह बताया कि यह प्रादेशिक दोष है , जिस के लिए आप ने बिहार के लोगों के उच्चारण दोष के उदाहरण दिये । दोष तो दोष है पर जो दोष बहुत से लोगों के उच्चारण में है , उस के लिए क्या सिर्फ मोदी जी को लांछित किया जाए? हिन्दी प्रेमियों को चाहिये कि वे व्यापक दोषों को नज़रअन्दाज़ करें ( उन का इस कमी के लिए उपहास न करें ) , अन्यथा वे स्ययम् को हिन्दी से अलग कर लेंगे । विदेशी लोग भारत में गलत हिन्दी बोलते हैं तो हम उन के बोलने पर ख़ुश होते हैं यह सोच कर कि वे हिन्दी तो बोल रहे हैं । अहिन्दी भाषी प्रान्तो के लोग कैसी भी हिन्दी बोलते हैं तो हम उन का स्वागत करते हैं । सिर्फ इसलिए कि कम से कम हिन्दी तो बोल रहे हैं । अन्यथा देश में हिन्दी के विरोधियों की संख्या कम नहीं है । " 
  यह केवल एक प्रसंग है , पर केवल हिन्दी शब्दों के ही गलत उच्चारण नहीं होते बल्कि अँगरेजी , उर्दू आदि 
भाषाओं के शब्दों के भी भ्रष्ट उच्चारण प्रचलित हैं । उदाहरण के लिए अंगरेजी के pleasure शब्द को प्लेयियर 
बोलने वाले ( प्राय: पंजाबी ) ओर budget को बडजेट बोलने वाले ( प्राय: दक्षिण भारतीय ) मिल जाते हैं । 
उर्दू के फ़िज़ूल शब्द को फजूल ( न फ के नीचे नुक़्ता और न ज के नीचे नुक़्ता ) और बेफजूल बोलने वाले भी 
मिल जाते हैं । अँगरेजी शब्दों के उच्चारण बंगाली और तमिल भाषी विविध ढंग से करते मिल जाते हैं और 
पंजाबियों की अँगरेजी का उच्चारण और भी रोचक है । प्राय: पंजाबी school को सकूल बोलते हैं और उर्दू 
वाले इस्कूल बोलते हैं । उत्तर प्रदेश के अनेक लोग भी इस्कूल या इसकूल बोलते हैं । तो उच्चारण की यह 
समस्या केवल हिन्दी के साथ नहीं है , अन्य भाषाओं के साथ भी है । मूल कारण यह है कि प्रत्येक भाषा का 
लिखित रूप एक होता है और मौखिक रूप में कुछ भिन्नताएँ आजाती हैं । किसी भी भाषा का रूप बोलने के स्तर पर विविध होजाता है , क्योंकि बोलने वाले का शिक्षा स्तर , परिवेष और आवश्यकताका दबाव विविध होता है । 
   --- सुधेश  
३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैक्टर १० 
दिल्ली ११००७५ 
फ़ोन  ९३५०९७४१२०





22 जनवरी 2016

Amazing facts of Sanskrit language

Amazing Facts of Sanskrit Language[A Scientific Language]

Rohan Sharma in Sanskrit | May 04
It is the Mother of all languages. About 97% of world languages have been directly or indirectly influenced by this language.(Ref: UNO)
Most efficient & best algorithms for computer have been made in Sanskrit not in english.
Sanskrit has the highest number of vocabularies than any other language in the world.
102 arab 78 crore 50 lakh words have been used till now in Sanskrit. If it will be used in computers & tecknology, then more these number of words will be used in next 100 years.
Sanskrit has the power to say a sentence in a minimum number of words than any other language.
America has a University dedicated to Sanskrit and the NASA too has a department in it to research on Sanskrit manuscripts.
Sanskrit is the best computer friendly language.(Ref: Forbes Magazine July 1987).
Sanskrit is a highly regularized language. In fact, NASA declared it to be the “only unambiguous spoken language on the planet” – and very suitable for computer comprehension.
Sanskrit is an official language of the Indian state of Uttarakhand.
There is a report by a NASA scientist that America is creating 6th and 7th generation super computers based on Sanskrit language. Project deadline is 2025 for 6th generation and 2034 for 7th generation computer. After this there will be a revolution all over the world to learn Sanskrit.
The language is rich in most advanced science, contained in their books called Vedas, Upanishads, Shruti, Smriti, Puranas, Mahabharata, Ramayana etc. (Ref: Russian State University, NASA etc. NASA possesses 60,000 palm leaf manuscripts, which they are studying.)
Learning of Sanskrit improves brain functioning. Students start getting better marks in other subjects like Mathematics, Science etc., which some people find difficult. It enhances the memory power. James Junior School, London, has made Sanskrit compulsory. Students of this school are among the toppers year after year. This has been followed by some schools in Ireland also.
Research has shown that the phonetics of this language has roots in various energy points of the body and reading, speaking or reciting Sanskrit stimulates these points and raises the energy levels, whereby resistance against illnesses, relaxation to mind and reduction of stress are achieved.
Sanskrit is the only language, which uses all the nerves of the tongue. By its pronunciation, energy points in the body are activated that causes the blood circulation to improve. This, coupled with the enhanced brain functioning and higher energy levels, ensures better health. Blood Pressure, diabetes, cholesterol etc. are controlled. (Ref: American Hindu University after constant study)
There are reports that Russians, Germans and Americans are actively doing research on Hindu's sacred books and are producing them back to the world in their name. Seventeen countries around the world have a University or two to study Sanskrit to gain technological advantages.
Surprisingly, it is not just a language. Sanskrit is the primordial conduit between Human Thought and the Soul; Physics and Metaphysics; Subtle and Gross; Culture and Art; Nature and its Author; Created and the Creator.
Today, there are a handful of Indian villages (in Rajasthan, Madhya Pradesh, Orissa, Karnataka and Uttar Pradesh) where Sanskrit is still spoken as the main language. For example in the village of Mathur in Karnataka, more than 90% of the population knows Sanskrit.
Even a Sanskrit daily newspaper exists! Sudharma, published out of Mysore, has been running since 1970 and is now available online as an e-paper (sudharma.epapertoday.com)!
The best type of calendar being used is hindu calendar(as the new year starts with the geological change of the solar system)
ref: german state university
The UK is presently researching on a defence system based on Hindu's shri chakra.
Aren’t these facts enough for us to think of learning Sanskrit?

--- वैस्टर्न हिन्दू नामक वेब साइट से ।