जनसत्ता संपादक श्री ओम थानवी के स्तम्भ 'अनंतर' में अपने आंशिक जिक्र के प्रतिवाद में श्री आशुतोष कुमार ने एक लम्बा आलेख 'जनसत्ता' को भेजा था। जनसत्ता संपादक ने उन्हें सूचित किया कि आलेख उपलब्ध स्पेस से लंबा होने के कारण वे इसे अगले रविवार इसे प्रकाशित करेंगे। रविवार का इंतजार न कर श्री आशुतोष कुमार ने वह आलेख दो ब्लॉग पर प्रसारित करवा दिया- यह कहते कि जनसत्ता संपादक "कायर" हैं और अपनी आलोचना का सामना नहीं कर सकते। इसके साथ फेसबुक के कुछ हलकों में जनसत्ता को लेकर निंदा अभियान शुरू हो गया, जिसमें अपनी लोकतांत्रिक छवि के लिए जाने जाने वाले संपादक को "अलोकतांत्रिक" भी करार दे दिया गया।
जनसत्ता में रविवार (26/05/13) को श्री आशुतोष कुमार का वह आलेख पूरा छप गया है। सवाल उठा है कि इसके बाद संपादक पर 'कायर' और 'अलोकतांत्रिक' होने का आरोप क्या लोग वापस लेंगे? क्या श्री आशुतोष कुमार ने जल्दबाजी से काम नहीं लिया? श्री ओम थानवी ने अपनी वाल पर कहा है, लगता है कुछ लोगों के लिए "लोकतंत्र" की उम्र महज एक सप्ताह होती है। काश, जनसत्ता संपादक के वादे को सप्ताह भर रुक कर चुनौती दी जाती। लेकिन अब प्रतिवाद छपने के बाद उनके कैंप में शायद कहने को ही कुछ नहीं रह गया है। हम यहां शब्दांकन पर श्री आशुतोष कुमार का प्रतिवाद और जनसत्ता संपादक श्री ओम तानवी का जवाब जनसत्ता से साभार प्रकाशित कर रहे हैं।
प्रतिवाद
बदचलनी की नैतिकता
आशुतोष कुमार
बहस दो हर्फों के बीच नहीं, भाषा और संस्कृति के बारे में दो नजरियों के बीच है।
‘गाली-गलौज’ कोशसिद्ध है, प्रयोगसिद्ध भी। मैंने ‘गाली-गलौच’ लिखा। बहुत से लोग लिखते-बोलते हैं। ओमजी के हिसाब से (अनंतर, जनसत्ता, 5 मई) यह गलत है। शिक्षक ऐसी गलती करें, यह और भी गलत है। गलती कोई भी बताए, आभार मानना चाहिए। निरंतर सीखते रहना शिक्षक की पेशागत जिम्मेदारी है।
जिम्मेदारी या जिम्मेवारी? कोश या कोष?
ओमजी को ‘जिम्मेवारी’ पसंद है। फेसबुक पर फरमाते हैं, कोश में तो ‘जिम्मेदारी’ ही है। फिर भी, अपने एक सहयोगी का यह खयाल उन्हें गौरतलब लगता है कि ‘जिम्मेदारी’ का बोझ घटाना हो तो उसे जिम्मेवारी कहा जा सकता है। लेकिन इसी तर्ज पर हमारा यह कहना उन्हें बेमानी लगता है कि ‘गलौच’ बोलने से ‘गाली-गलौज’ लफ्ज की कड़वाहट कम हो जाती है। कि गलौज से गलाजत झांकती है, जबकि गलौच से, हद से हद, गले या गालों की मश्क। भोजपुरी में गलचउर और हिन्दी में गलचौरा इसी अर्थ में प्रचलित हैं। हो सकता है इनका आपस में कोई संबंध न हो। लेकिन वे एक दूसरे की याद तो दिलाते ही हैं। सवाल बोलचाल में दाखिल दो प्रचलित शब्दों में से एक को चुनने का है। चुनाव का मेरा तर्क अगर गलचउर है तो ओमजी का भी गैर-जिम्मेदाराना। (गैर-जिम्मेवाराना नहीं।)
हिंदी में, तमाम भाषाओं में, एक दो नहीं, ढेरों ऐसे शब्द होते हैं जिनके एक से अधिक उच्चारण / वर्तनियां प्रचलित हों। श्यामसुन्दर दास के प्रसिद्ध ‘हिंदी शब्दसागर’ में एक ही अर्थ में शब्दकोष और शब्दकोश दोनों मौजूद हैं।
भाषा में इतनी लोच जरूरी है। यह भाषाओं के बीच परस्पर आवाजाही का नतीजा भी है, पूर्वशर्त भी। आवाजाही ओमजी का चहेता शब्द है। क्या यह सही शब्द है? हिंदी के सवर्मान्य वैयाकरण किशोरीदास वाजपेयी और उनकी रचना ‘हिंदी शब्दानुशासन’ के अनुसार हरगिज नहीं। उनके लिए राष्ट्रभाषा हिंदी का शब्द है- आवाजाई। वे मानते हैं कि हिंदी का यह शब्द पूरबी बोलियों से प्रभावित है। लेकिन हिंदी की प्रकृति के अनुरूप है। (शब्दानुशासन, पृ. 522, सं. 1998) आचार्य की रसीद के बावजूद आवाजाई समाप्तप्राय है, आवाजाही चालू।
हिंदी के सामाजिक अध्येता रविकांत के मुताबिक भाषाएं बदचलनी से ही पनपती हैं। शुद्ध हिंदी के हिमायती सुन लें तो कैसा हड़कंप मचे! हड़कंप? या ‘भड़कंप’? वाजपेयीजी का शब्द ‘भड़कंप’ है। (वही, पृ. 02)। आज सभी हड़कंप लिखते हैं।
‘बदचलनी’ चलन बदलने का निमित्त है। समय के साथ जो चले गा, वही बचे गा। चले गा? या चलेगा? ‘शब्दानुशासन’ में अधिकतर पहला रूप है। कहीं कहीं दूसरा भी है। क्या मैं किशोरीदास वाजपेयी पर गलत हिंदी लिखने का इल्जाम लगा रहा हूं? उनका अपमान कर रहा हूं?
मैं ने कहा था- अज्ञेय ने भी गाली-गलौच लिखा है। फेसबुक पर मौजूद हिंदीप्रेमी मित्रों ने मूर्धन्य लेखकों की रचनाओं से ‘गाली-गलौच’ के ढेरों उदाहरण पेश कर दिए। आप ने पुस्तकालय की तलाशी ली और संतोष की गहरी प्रसन्न सांस लेते हुए घोषित किया- सब की सब प्रूफ की गलतियां हैं। लेखकों के जीवित रहते छपे संस्करणों में ‘गलौज’ लिखा है ।
मान भी लें कि बाद की तमाम किताबों के ढेर सारे संस्करणों में गलौच का आना महज प्रूफ की गलती है। लेकिन सारे के सारे प्रूफ-रीडर एक ही गलती क्यों करते हैं? कोई असावधान प्रूफ-रीडर गलौझ या गलौछ क्यों नहीं लिखता? क्योंकि कोशकारों के अनजाने-अनचाहे गलौच अपनी जगह बना चुका है।
बेशक भाषा के मामले में लोच की एक लय होती ही है। बदचलनी की भी नैतिकता होती है। अंगरेजी में इसे ‘पागलपन में छुपी पद्धति’ कहते हैं। भाषाएं नयी ‘चाल’ में ढलती हैं। लेकिन चरित्र और चेहरा उस तरह नहीं बदलता। व्याकरण शब्दानुशासन है। अनुशासन शासन नहीं है। अनुसरण भी नहीं है। भाषा के चरित्र और चेहरे की शिनाख्त है। अंतर्निहित लय की पहचान है। उस के स्व-छंद की खोज है। इसी अर्थ में वह स्वच्छंद भी है, अनुशासित भी। चाल, चरित्र, चेहरा, छंद और लय- इन्हीं तत्वों से भाषा की ‘प्रकृति’ पहचानी जाती है। वैयाकरण का काम है, भाषा की प्रकृति की पहचान कर भाषा के नीर-क्षीर विवेक को निरंतर जगाये रखना ।
हिंदी की प्रकृति को परिभाषित करनेवाली एक विशेषता यह है कि वह ‘हिंदी भाषा-संघ’ में शामिल है। ‘हिन्दी भाषा-संघ’ आचार्य किशोरीदास वाजपेयी की सुविचारित अवधारणा है। एक भाषा के मातहत अनेक बोलियों का परिवार नहीं , ‘बराबरी’ पर आधारित संघ। ‘संघ’ की सभी भाषाओं में शब्दोंं, मुहावरों, भावों, विचारों और संस्कारों की निरंतर परस्पर आवाजाही रही है। लेकिन इस तरह, कि भाषा विशेष की प्राकृतिक विशेषताएं प्रभावित न हों। इन्हीं भाषाओं ने कुरु जनपद की ‘खड़ी बोली’ को छान-फटक, घुला-मिला, सजा-संवार व्यापक जनभाषा का रूप दिया। यों ही नहीं मुहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ ने उर्दू अदब के बेहद मकबूल इतिहास ‘आबे हयात’ की शुरुआत इस वाक्य से की- ‘‘यह बात तो सभी जानते हैं कि उर्दू भाषा का उद्गम ब्रजभाषा है!’’ जानते तो लोग यह हैं कि उर्दू / हिंदी की आधार बोली ब्रजभाषा नहीं दिल्ली-मेरठ की बोली है। फिर भी ‘आज़ाद’ ब्रजभाषा को हिन्दी / उर्दू की गंगा की गंगोत्री के रूप में रेखांकित करते हैं। जबकि जनसत्ता-संपादक को डर है कि बोलियों के बेरोकटोक हस्तक्षेप से हिंदी की स्वच्छ नदी गंदे ‘नाले’ में बदल जायेगी। कहते हैं- ‘पंजाबी में कीचड़ को चीकड़, मतलब को मतबल, निबंध को प्रस्ताव कहते हैं। क्या हम इन्हें भी अपना लें?’ न अपनाइए। चाह कर भी अपना न सकेंगे। चीकड़, मतबल, अमदी, अमदुर, चहुंपना आदि भोजपुरी में अनंत काल से प्रचलित हैं। लेकिन हिंदी की प्रकृति के अनुरूप नहीं हैं। सो हिंदी के न हो सके। ध्वनि-व्यतिक्रम हिंदी की विशेषता नहीं है। लोकाभिमुखता, सरलता और मुख-सुख है। आए कहीं से भी लेकिन चले वे ही हैं, जो यहां के लोगों की उच्चारण-शैली में ढल गए।
कुछ दिन पहले मेरे ही अदर्शनीय मुंह से पंजाबी का ‘हरमनप्यारा’ लफ्ज सुन कर पाव भर आपका खून बढ़ गया था। ‘आकर्षण’ के लिए पंजाबी में शब्द है- खींच! खींच में अधिक खींच है या आकर्षण में? पंजाबी ने हिंदी-संघ की भाषाओं के साथ अधिक करीबी रिश्ता बनाए रखा, इसलिए आज उसके पास अधिक रसीले-सुरीले शब्द हैं। हम पहले संस्कृत और अरबी -फारसी और अब अंगरेजी का मुंह ज्यादा जोहते रहे, सो जोहड़ में पड़े हैं।
‘गलौच’ के बारे में एक कयास यह है कि यह पंजाबी से आया है। पंजाबी में लोग गलोच लिखते-बोलते हैं। हिंदी ने गलोच को अपने हिसाब से ढाल कर चुपचाप गलौच बना लिया। यानी हिंदी पड़ोसी भाषाओं की छूत से नाले में न बदल जाएगी। आप ‘शुद्धिवादी’ न हों, लेकिन ‘नाला’ खुद एक प्रकार के पवित्रतावादी नजरिए की ओर इशारा करता है। नाला मतलब अपवित्रता, गन्दगी और धर्म-भ्रष्टता। भाषा की पवित्रतावादी दृष्टि हिंदी के ऊपर सांस्कृतिक या भाषाई राष्ट्रवाद के आरोप लगाने वालों का हौसला बढ़ाती है। इसके दीगर खतरे भी हैं।
जनसत्ता ने मेरे एक लेख में आए ‘‘कैननाइजेशन’’ शब्द को बदल कर ‘प्रतिमानीकरण’ कर दिया था। इस तरह एक परिचित परिभाषित शब्द की हिंदी तो कर दी गयी, लेकिन इस हिंदी को समझने के लिए पहले अंगरेजी शब्द जानना जरूरी है, यह न सोचा गया। हिंदी का अंगरेजीकरण जितना बुरा है, उतना ही संस्कृतीकरण या अरबी-फारसीकरण। ये सारे ‘करण’ सत्ताओं और स्वार्थों के खेल हैं। लेकिन भाषा की प्रकृति को कृत्रिम रूप से बदलने की असली प्रयोगशाला शब्द नहीं, वाक्य है। औपनिवेशिक प्रभाव के चलते अंगरेजी वाक्यविन्यास, मुहावरे, अंदाज और आवाज ने हिंदी को कुछ वैसा ही बना दिया है, जैसा मैकाले ने अंगरेजी शिक्षा के बल पर हिंदुस्तानियों को बनाना चाहा था। ऊपर से भारतीय, लेकिन भीतर से अंगरेज।
आपने भी लिखा है- ‘‘... (अमुक) कुमार यह बोले: ‘‘मुझे मालूम था कि बात प्रूफ पर आएगी।’’ यह हिन्दी का वाक्य-विन्यास है या अंगरेजी का?
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जवाब
शब्द बनाम भाषा
ओम थानवी
जिद में तथ्यों का गड्डमड्ड होना सहज संभव है। जिम्मेदार सही शब्द है। पर इसलिए जिम्मेवारी को गलत ठहराना जल्दबाजी होगी। जिम्मा और जिम्मादारी अरबी से आए। ‘वारी’ प्रत्यय से हिंदी क्षेत्रों में जिम्मावारी शब्द पनपा। फिर जिम्मेवारी। बाबू श्यामसुंदर दास का हिंदी शब्दसागर आप भी प्रामाणिक मानते हैं। समय निकालकर उसे (खंड-4, पृष्ठ 1756, संस्क. 2010) देखिए। जिम्मावार/जिम्मेवार को तरजीह देते हुए कोश निराला की पंक्ति का साक्ष्य भी सामने रखता है- ‘‘जिस गांव के हैं, वहां का जमींदार जिम्मेवार होगा।’’
जीवंत भाषा में वक्त के साथ प्रयोग बदलते हैं। जिम्मावार या जिम्मादार (‘मद्दाह’ में यही रूप है, जिम्मेदार नहीं है) अब प्रयोग नहीं होता। जिम्मेदार ही ज्यादा चलता है। जिम्मेवार उसके मुकाबले बहुत कम। फिर भी गूगल में दोनों प्रयोगों वाले वाक्य हजारों की संख्या में मिल जाएंगे। पत्रकारिता के काम में भी हम दोनों प्रयोग देखते हैं; बारीक पड़ताल करने पर जिम्मेदारी शब्द ‘ड्यूटी’ और जिम्मेवारी ‘सरोकार’ के करीब ठहरता अनुभव हुआ है।
लेकिन यह विवाद आपने क्यों उठाया है? इसलिए कि जब मैं ‘जिम्मेवारी’ लिख सकता हूं तो आपके प्रयोग ‘गाली-गलौच’ को क्यों गलत ठहराता हूं? यह भेद आप शायद समझना नहीं चाहते। ‘जिम्मेवारी’ कोशसम्मत है, ‘गलौच’ नहीं है। यह बात दर्जन भर कोश (शब्दसागर, मानक हिंदी कोश सहित) देखकर कह रहा हूं। बाकी जिसको जो जंचे, लिखे। पर खयाल रखें कि शिक्षक के नाते आप पर अपना नहीं, पीढ़ी का बोझ रहता है। भाषा में चलन का महत्त्व है- साहित्य में विशेष रूप से- पर वह मानक हिंदी की काट नहीं होता। हिंदी शिक्षण में तो बिलकुल नहीं।
आप कहते हैं, मेरा ‘चहेता’ (?) शब्द ‘आवाजाही’ क्या सही शब्द है? आचार्य किशोरी दास वाजपेयी की कृति ‘शब्दानुशासन’ के हवाले से आप बताते हैं हिंदी का शब्द ‘आवाजाई’ है। ‘शब्दानुशासन’ 1958 में आया। पर बाबू श्यामसुंदर दास ग्यारह खंडों का ‘शब्दसागर’ 1929 में दे गए थे। उसमें आवाजाही ही मिलता है। बाद के कोशों में भी।
रही बात आचार्य वाजपेयी के ‘सर्वमान्य वैयाकरण’ होने की। तो ‘‘सर्वमान्य’’ तो कामताप्रसाद गुरु भी नहीं हो सके। आपको पता है या नहीं, आचार्य वाजपेयी उर्दू को ‘मुसलमानी’ और हिंदी को हिंदुओं की भाषा मानते थे: ‘‘अंगरेजी राज आने पर एक नया जागरण जनता में हुआ। हिंदुओं ने अपनी चीज पहचान ली और सोचा कि उर्दू का विदेशी जामा हटा दिया जाए, तो वह हमारी हिंदी ही तो है।’’ (भारतीय भाषाविज्ञान, अध्याय आठ, पृष्ठ 218, संस्क. 1994)
विद्वत्ता का पता इससे चलता है कि हम किन्हें उद्धृत करते हैं। आपने मेरे मित्र रविकांत के हवाले से कहा है ‘‘भाषाएं बदचलनी से ही पनपती हैं’’। यह मूलत: डॉ. राममनोहर लोहिया का विचार था: भाषा ऐसी हो जो ‘‘छिनाली’’ के भी काम आए। हिंदी में उनके कथन से कहीं कोई ‘हड़कंप’ नहीं मचा था, बल्कि लोहिया का वह कथन सबसे पहले मुझे अच्छी हिंदी (‘शुद्ध’ आपका शब्द है) के हिमायती अज्ञेय जैसे साहित्यकार के मुख से सुनने को मिला था। जोधपुर में अगस्त 1980 में, जब मैंने उनसे ‘इतवारी पत्रिका’ के लिए एक इंटरव्यू किया।
‘बदचलनी’ का अर्थ ‘चलन बदलने’ और ‘समय के साथ’ चलने से है, यह आपकी अपनी व्याख्या है जो मनोरंजक है।
आप शब्दकोश को शब्दकोष लिखते और प्रचारित करते हैं। निश्चय ही किसी वक्त दोनों रूप चलन में थे, दोनों सही हैं, लेकिन अब दशकों से शब्द-संग्रह या ज्ञान के संदर्भ में कोश और धन-संचय के लिए कोष वर्तनी रूढ़ हो चुकी है। इसलिए हमें शब्दकोश और राजकोष रूप लिखे दिखाई पड़ते हैं। आप्टे के संस्कृत-हिंदी कोश से लेकर मानक हिंदी कोश, बृहत् हिंदी शब्दकोश, उर्दू-हिंदी शब्दकोश, अंगरेजी-हिंदी कोश, हिंदी-अंगरेजी कोश, समांतर कोश, मुहावरा-लोकोक्ति कोश, इतिहास कोश, पुराण कोश, अहिंसा कोश- इन सबके बीच आपका ‘कोष-कोष’ करना क्या उसी जिद का प्रमाण नहीं है?
सबसे विकट है आपकी तर्क-पद्धति का शीर्षासन। ‘गलौच’ के समर्थन में आप कोश को नहीं मानते थे, चलन (या ‘बदचलनी’) को प्रमाण मानते थे। अब आप कहते हैं- ‘‘हिंदी शब्दसागर में एक ही अर्थ में शब्दकोष और शब्दकोश दोनों मौजूद हैं।’’ किस खूबसूरती से आपने अपनी सुविधा से इन दोनों शब्दों का क्रम भी बदल लिया है। खैर, यह खास फेर नहीं। खास बात यह है कि आपने उसी कोश में ‘‘कोष/कोश’’ शब्दों की ओर जाने की जहमत ही नहीं उठाई। शोधार्थी शोध ऐसे तो नहीं करते।
शब्दसागर में (मात्र एक जगह, जहां आप पहुंचे) वर्तनी के दोनों रूप इसलिए मौजूद हैं क्योंकि दोनों ‘अशुद्ध’ नहीं हैं; कोई भी जिज्ञासु किसी भी वर्तनी से अर्थ देखने वहां पहुंच सकता है। लेकिन अब जरा शब्दसागर में ‘‘कोष’’ शब्द पर आइए: कोषाध्यक्ष को छोड़कर एक जगह भी ‘‘कोष’’ का अर्थ तक नहीं बताया गया है। लिखा है: ‘‘कोष: देखिए ‘कोश’; कोषकार: देखिए ‘कोशकार’; कोषफल: देखिए ‘कोशफल’; कोषिन: देखिए ‘कोशिन’; कोषी: देखिए ‘कोशी’ ...’’
शब्दसागर में ‘‘कोश’’ शब्द के पचासों अर्थ दिए गए हैं, जिनमें एक यह है- ‘‘वह ग्रन्थ जिसमें अर्थ या पर्याय के सहित शब्द इकट्ठे किए गए हों। अभिधान। जैसे अमरकोश। मेदिनीकोश। ...’’ ऐसे ही ‘‘कोशकार’’ भी देखें: ‘‘शब्दकोश बनाने वाला ..’’ गौर करने की बात है कि यहां कोशकार ‘‘शब्दकोश’’ ही लिखते हैं, ‘‘शब्दकोष’’ नहीं।
बाबू श्यामसुंदर दास के कोश आप इस तरह देखते और उद्धृत करते हैं तो मुझे कोई हैरानी नहीं जो उस फेसबुकिया ‘‘बहस’’ में आप अज्ञेय को और आपके एक सद्भावी प्रेमचंद, रेणु, सियारामशरण गुप्त से लेकर कमलेश्वर तक को ‘‘गलौच’’ यानी ‘बदचलनी’ हिंदी वाला बता जाते हैं। खोज करने पर उनके पुराने संस्करणों में वर्तनी सही (यानी गलौज) मिली। अज्ञेय की तीन किताबों में छपी वही कहानी (सभ्यता का एक दिन), विविध प्रसंग/प्रेमचंद के विचार (भाग-3) में प्रेमचंद का लेख ‘गालियां’ या रेणु रचनावली (भाग-1) में कहानी ‘टौंटी नैन का खेल’ आप भी तो देख सकते थे। क्या आपको मालूम नहीं कि लेखक किताब लिखता है, उसे छापता कोई और है?
अपनी बात रखने के लिए महान कोशकारों और लेखकों को गलत उद्धृत करना अनैतिक ही नहीं, आपराधिक है। इससे उनके भाषा-ज्ञान और चरित्र पर बेवजह ‘बदचलनी’ के छींटे जा गिरते हैं। रेणु जैसे लेखक कल्पना से कहीं ज्यादा प्रयोग हिंदी के साथ कर गए हैं, लेकिन सोच-समझ कर। ठीक से समझें तो उनके प्रयोग भाषा के साथ हैं, वर्तनी के साथ नहीं।
दरअसल, भाषा और वर्तनी दो अलग चीजें हैं। प्रयोगशाला शब्द या वाक्य नहीं होते, अभिव्यक्ति होती है। मैंने कई लेखकों की हस्तलिपि में रचनाएं पढ़ी हैं, वर्तनी और वाक्य-विन्यास में भूल-चूक के बाद भी शानदार गद्य उनकी कलम से निकलते पाया है। इसका मतलब समझने का प्रयास कीजिए, तब शब्दों में चोंच गड़ाना बंद कर देंगे। जिद एक किस्म की बीमारी ही है, जो बचपन से लग जाती है। बाद में लाख पैर पटकें, तब भी जाती नहीं है।
श्यामसुंदर दास और अज्ञेय आपके हाथों गलत उद्धृत हो जाएं तो मैं किस खेत की मूली हूं। आप समझते हैं मुझे डर है कि ‘‘बोलियों के बेरोकटोक हस्तक्षेप से हिंदी की स्वच्छ नदी गंदे ‘नाले’ में बदल जायेगी।’’ बोलियां नहीं, मैंने अंगरेजी के गैर-जरूरी शब्दों और हिंदी शब्दों की लापरवाह वर्तनी की बात उठाई थी। रहा आपका प्यारा शब्द हरमनप्यारा। तो वह जल्द ही ‘हरदिलअजीज’ का पंजाबी अनुवाद निकला!
आपका कहना सही है कि मेरी हिंदी खराब है। किसी को बताइएगा नहीं, नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, कुंवर नारायण, कृष्णा सोबती, कृष्ण बलदेव वैद, कैलाश वाजपेयी, केदारनाथ सिंह आदि लेखक कोरी हौसला-अफजाई के लिए मेरी पीठ थपथपा गए। पर आपका प्रमाण-पत्र मेरे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है। मैं अपनी हिंदी सुधारने का जतन करूंगा।
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