समय से संवाद ( कवि दिनकर के परिप़ेक्ष्य में )
कहां गांवों तक ईल फिल्मों का प्रदूषण, एमएमएस वगैरह पहुंच गये हैं. इस स्थिति में भी दिनकर के गांव में एक अलग माहौल है। इससे भी उल्लेखनीय बात कि अब इस आयोजन का नेतृत्व या कमान संभाल रहे हैं, युवा. मुचकुंद कुमार, राजेश कुमार जैसे अनेक युवा न सिर्फ आयोजन के प्राण हैं, बल्कि दिनकर उन्हें कंठस्थ है ।उनके जीवन में दिनकर रच-बस गये हैं या ये दिनकर में समा गये हैं, कहना मुश्किल । इन युवाओं की बौद्धिकता, प्रतिबद्धता और समर्पण, मन को प्रभावित करते हैं. ।
बेगूसराय की धरती बोलती है. जीवंतता, सृजन और ऊर्जा के संदर्भ मे ।
दिनकर की 105वीं जन्मतिथि के अवसर पर उनकी जन्मस्थली सिमरिया गांव, बेगूसराय (गांव की आबादी लगभग दस हजार) जाना हुआ । पूर्व सांसद शत्रुघ्न बाबू का आदेश था । पिछले साल भी. पर जाना इस साल हुआ ।संयोगवश बता दें कि शत्रुघ्न बाबू साम्यवादी हैं. पर मेरी नजर में गांधीवादी साम्यवादी हैं. एमएलसी रहे, एमपी रहे. बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ के अध्यक्ष हैं. लंबे समय से. पर इनका जीवन, दर्शन और आचरण शुद्ध गांधीवादी है ।इसी इलाके के रामजीवन बाबू भी हैं. समाजवादी पृष्ठभूमि के. बिहार सरकार में दो बार मंत्री रहे. एक बार सांसद भी. पर समाजवादी गांधीवादी । उसी तरह राजेंद्र राजन जी हैं, जिनके गांव गोदरगांवा भी जाना हुआ है.। तीन बार विधायक रहे हैं. भाकपा से । खुद साहित्यकार हैं. गांव में राष्ट्रीय स्तर का पुस्तकालय है. नाम है, विप्लवी पुस्तकालय. देवी वैदेही सभागार है. शहीद भगत सिंह के जन्मदिन के अवसर पर भव्य आयोजन होता है. देश के जाने-माने लोग बोलने आते हैं. हर साल. इस गांव ने आजादी की लड़ाई में जो शानदार शिरकत की थी, उसे भी इस अवसर पर याद करते हैं. इस आशय या बड़े फलक पर आज भी बेगूसराय, बोलती धरती लगती है. फड़कती. बेचैन. बाजारवाद और भोगवाद की बाढ़ के बीच भी अपनी पहचान बनाये हुए.।
जाना हुआ था, दिनकर जयंती के अवसर पर आयोजित समारोह में. पर अनेक लोगों ने उसी सभागार में अपनी रचनाएं दीं. यह सृजन जीवंतता का बोध है. बहस, लेखन, सृजन, मिट्टी के उर्वर होने के प्रतीक हैं. दिनकर जयंती समारोह में ही संपादक डॉ अनिल पतंग ने अपनी पत्रिका रंग अभियान दी. दीनानाथ सुमित्र ने गीत गजल संग्रह 2013 भेंट किया. प्रहरी पत्रिका मिली. गूंज पत्रिका मिली. शैलेंद्र झा ‘उन्मन’ की छह पुस्तिकाएं एक साथ मिलीं. सोई जनता जाग, दहेज को जला डालो, परिवर्तन, बदहाल व्यवस्था, आतंकवाद, बूढ़ा हिंदुस्तान. दिनकर स्मारिका (समर शेष है-3 , संपादक मुचकुंद कुमार, संपादन सहयोग : एस मनोज और राजेश कुमार सिंह) का भी लोकार्पण हुआ. यह टेलीविजन-मोबाइल युग. संचार क्रांति की ग्लोबल दुनिया. मनुष्य मशीन से चिपका है. पर बेगूसराय में सामाजिक संवाद है. बहुदलीय लोकतंत्र में बहुआयामी वैचारिक मंथन-विचार भी चाहिए. अखबारों की दुनिया भी पहले ‘दलों’ की तरह थी, अनेक अखबार. पर बड़ी पूंजी, विदेशी पूंजी, शेयर बाजार की पूंजी ने 1991 के बाद एक-एक कर छोटे अखबारों को मार दिया. देश भर में. सरकारों के सहयोग से. पेड न्यूज के बल. इसलिए अखबारों की दुनिया में पूंजीसंपन्न घराने ही रह जायेंगे, वहां प्रकाशनों की दुनिया सिमटेगी. बहुदलीय लोकतंत्र में बहुदलीय, बहुविचार वाले अनेक अखबार नहीं रहनेवाले. कुछेक पूंजीसंपन्न अखबार घराने ही बचेंगे. फिर क्या दृश्य होगा? सरकारी झूठ, समाज के ताकतवर-शासकवर्ग के छल, पूंजीवाले अपराधी नेताओं के असल चरित्र वगैरह की सौदेबाजी होगी ‘पेड न्यूज’ संस्कृति से. तब इसी तरह छोटी-छोटी पत्रिकाओं-पुस्तकों (जो बेगूसराय में मिलीं) से सच के स्वर जिंदा रहेंगे. इस तरह इस दौर में बेगूसराय में सृजन के बहुआयामी प्रयास देख कर अच्छा लगता है. दिनकर जी स्मृति में यह कार्यक्रम 23-24 सितंबर 2013 को उनके गांव सिमरिया में संपन्न हुआ. इसका आयोजन किया था, राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विकास समिति ने. आज कहां एक साथ इतनी रचनाओं के माध्यम से लोग बोलते, बतियाते, बहस या हस्तक्षेप करते हैं? यहीं मुझे धर्मयुग और रविवार के मेरे पाठक मिले. सबसे उल्लेखनीय बात है कि दिनकर के गांव, सिमरिया जाने के पहले हिंदी इलाके के गांवों के प्रति मन में एक गहरा क्षोभ था. हम अपने सरस्वतीपुत्रों को, सांस्कृतिक नायकों को, धरती प्रतिभाओं को न याद करते हैं, न आदर देते हैं. मन में बसा था कि वर्ष 2007 में जादुई यथार्थवाद के सबसे बड़े लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्केज कोलंबिया में अपने शहर एराकटाका लौटे, तो लोगों ने कैसे उमड़ कर उनका स्वागत किया. सैकड़ों लोग उनकी ट्रेन के साथ भागते हुए स्टेशन तक पहुंचे थे. अब सरकार कैसे उनके घर का जीर्णोद्धार करा रही है. वहां एक बड़े संग्रहालय की स्थापना करा रही है. इसी तरह शेक्सपियर का जन्मस्थल स्ट्रैटफर्ड अपॉन एवन स्मृति में उभरता है. किस आदर, श्रद्धा और सम्मान से अंगरेज सरकार ने उनकी स्मृति को सहेज कर रखा है? कैसे वह एक बड़ा पर्यटन स्थल है? पश्चिम में कैसे लोग अपने रचनाकारों की स्मृति को सम्मान के साथ सुरक्षित रखते हैं, ताकि आनेवाली पीढ़ियां, उनके विचार, जीवन-दर्शन और सृजन क्षमता से प्रेरित हो सकें. लगता था, खासतौर से हिंदी इलाकों में हम अपात्र लोग अपने सम्माननीय पुरखों को अपने हित में ही सम्मान देना नहीं जानते. पर, यहां आकर यह भ्रम टूटा. समारोह की चर्चा बाद में. पहले उसकी कुछ झलकियां. बरौनी, जीरो माइल पर स्थित दिनकर जी की आदमकद प्रतिमा पर माल्यार्पण के बाद, जुलूस चला. 10-12 किमी दूर उनके गांव की ओर. हरे-भरे पेड़-पौधों और गंगा के किनारे दूर बसे दिनकर जी के गांव. गांव के घरों पर दिनकर की लिखी ओजस्वी पंक्तियां. जीरो माइल पर लगी दिनकर प्रतिमा के नीचे खुदी दिनकर की पंक्तियां पढ़ता हूं. भोगवादी-बाजारवादी भौतिकता की दुनिया में उनकी ये पंक्तियां पढ़ कर सुख मिलता है.
‘भुवन की जीत मिटती है, भुवन में,
उसे क्या खोजना, गिर कर पतन में?
शरण केवल उजागर धर्म होगा,
सहारा अंत में सत्कर्म होगा.’ (रश्मिरथी)
‘रश्मिरथी’, या दिनकर की अन्य चीजें पढ़कर अब भी उदास मन संकल्प से भर जाता है. गांव के घरों की दीवारों पर दिनकर की पुरानी चीजें पढ़ कर अच्छा लगता है.।
‘तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं, गोत्र बतलाके,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना कर्तव्य दिखलाके.’
एक और दिवार पर ही लिखा पढ़ता हूं.
‘जुल्मी को जुल्मी कहने से जीभ जहां पर डरती है,
पौरुष होता क्षार वहां, दमघोट जवानी मरती है.’।
कहां गांवों तक ईल फिल्मों का प्रदूषण, एमएमएस वगैरह पहुंच गये हैं. इस स्थिति में भी दिनकर के गांव में एक अलग माहौल है. इससे भी उल्लेखनीय बात कि अब इस आयोजन का नेतृत्व या कमान संभाल रहे हैं, युवा. मुचकुंद कुमार, राजेश कुमार जैसे अनेक युवा न सिर्फ आयोजन के प्राण हैं, बल्कि दिनकर उन्हें कंठस्थ हैं. उनके जीवन में दिनकर रच-बस गये हैं या ये दिनकर में समा गये हैं, कहना मुश्किल. इन युवाओं की बौद्धिकता, प्रतिबद्धता और समर्पण, मन को प्रभावित करते हैं. आज जहां युवाओं के भटकाव, हाइटेक के प्रति उनके मोह और अलग जीवन दर्शन को लेकर चर्चा होती है, वहीं सिमरिया के युवा एक नयी राह दिखाते हैं. बिहार समेत देश के अधिसंख्य गांवों में अगर ऐसा माहौल बन जाये, तो भारत का नवनिर्माण कौन रोक सकता है? इस गांव में भी विवाद थे. हिंसक झगड़े थे. गुट थे. मनमुटाव था. इसे युवकों ने अपने पहल, प्रयास से पाटा. पर इससे भी उल्लेखनीय बात. कार्यक्रम में छह-सात घंटे तक लगातार हजारों लोगों का हाल में बैठना. भारी गर्मी के बावजूद. दिनकर जी को आस्था और श्रद्धा से याद करना, एक अलग अनुभव है. मंच पर चार वक्ता बैठे थे. अध्यक्ष रवींद्रनाथ जी, जाने-माने लेखक अब्दुल बिसमिल्लाह जी, लेखिका पूनम सिंह जी और साथ में हम. हमारे साथ ही थे दिनकर जी के सुपुत्र केदार बाबू, जिन्हें आमांत्रित कर ऊपर बुलाया गया. पर पूरे कार्यक्रम में शत्रुघ्न बाबू या राजेंद्र राजन जी नीचे भीड़ में ही बैठे रहे. आज विशिष्ट बनने की होड़ है. पर जो लोग अपने आचरण और कर्म से विशिष्टि हैं, वे खुद भीड़ में ही बैठे रहे. आज के भारतीय समाज के लिए यह स्तब्ध करनेवाली उत्साहवर्धक बात है. दिनकर जयंती का यह आयोजन तकरीबन तीस वर्षो से हो रहा है. पिछले 10-12 वर्षाे से इस कार्यक्रम में युवाओं की सक्रियता ने इसे नयी पहचान दी है.।
जीवन की शुरुआत बिहार से बाहर रह कर. तब बेगूसराय का नाम सुना. कामदेव सिंह के कारण. दशकों तक उनके साम्राज्य की चर्चा रही. उनके संरक्षण में चले तस्करी के दौर की भी. फिर कांग्रेस-कम्युनिस्ट वर्चस्व की लड़ाई में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के संदर्भ में भी बेगूसराय की चर्चा सुनता रहा. एक तरफ यह अपराध था, उजड्डता थी, तो दूसरी तरफ कम्युनिस्ट प्रश्रय से यहां विधवा विवाह का अभियान चला. जो सैकड़ों युवा मारे गये, उनकी विधवाओं के पुनर्विवाह का कार्यक्रम. समाजवादी भी इस अभियान के समर्थक रहे. पर सूत्रधार तो कम्युनिस्ट ही रहे. यही बीहट गांव के रामचरित्र बाबू हुए, जो श्रीकृष्ण सिंह के मंत्रिमंडल में सिंचाई और बिजली मंत्री थे. उनके पुत्र कामरेड चंद्रशेखर सिंह हुए. कांग्रेसी पिता के मशहूर कम्युनिस्ट पुत्र. पहली गैर कांग्रेसी सरकार में सिंचाई और बिजली मंत्री. जब हरिहर सिंह जी मुख्यमंत्री बने, तो यहां के जाने-माने कांग्रेसी नेता सरयू प्रसाद सिंह भी मंत्री रहे. आदर और सम्मान के साथ आज भी लोग इन्हें अपने इलाके में याद करते हैं. अनेक सांस्कृतिक संस्थाएं आज बेगूसराय में सक्रिय हैं. मशहूर आशीर्वाद रंगमंच है. पूरे वर्ष इनका कार्यक्रम चलता है. देश- दुनिया में यहां के खिलाड़ियों की चर्चा है. युवक-युवतियां वॉलीबॉल, कबड्डी में राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय पहचान रखते हैं. बेगूसराय की धरती पर ही सुना कि अनेक जमीन मालिकों ने समाज को बहुत कुछ दिया. एक धरतीसंपन्न व्यक्ति ने अपनी जमीन देकर बिहार का बड़ा आयुर्वेद कॉलेज यहां बनवाया. जीडी कॉलेज, कोऑपरेटिव कॉलेज, बरौनी कॉलेज भी दान से ही बने. जिन्होंने अच्छे काम किये, उन्हें गये दशकों हो गये, पर वे अब भी लोगों की स्मृति में आदर के केंद्र हैं. मसलन, आरएस शर्मा (अब मुख्य सचिव, झारखंड), जो बहुत पहले यहां कलकटर थे. उनके काम, रचनात्मक सहयोग को लेकर लोग सम्मान के साथ आज भी उन्हें याद करते हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा का जन्म भी बरौनी में हुआ था. मेरे युवा मित्र निराला इसलिए बार-बार कहते हैं कि बेगूसराय बिहार की सांस्कृतिक राजधानी है.।
कुछ पंक्तियां दिनकर स्मृति समारोह के संदर्भ में. बरसों से यहां हिंदी के बड़े नाम आते-बोलते रहे हैं. अपने विचार, व्याख्या और आलोचना से परिपूर्ण चिंतन से जनता से संवाद करते रहे हैं. पर जरूरत है, इससे भी आगे बढ़ने की. इतिहास, दर्शन और समाजशास्त्र के लोग भी ऐसे कवियों के समाजिक योगदान पर विचार करें. साहित्य या कविता को सिर्फ उस भाषा के पंडितों-ज्ञानवानों तक छोड़ना सही नहीं है. लय, ताल, गेयता, छंद, बाड़ और अलंकार की चौहद्दी से बहुत आगे के कवि हैं, दिनकर. वह जीवन के कवि हैं. संघर्ष की आवाज हैं. चेतना को नये धरातल पर ले जानेवाले रचनाकार, मानव-मुक्ति के चिंतक हैं. हिंदी में शायद दिनकर उन कुछेक कवियों में से एक हुए, जिन्होंने मनुष्य के विकास (इवोल्यूशन) को समझने की कोशिश की. वह रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, महर्षि अरविंद, रमण महर्षि, मुक्तानंद जी तक गये. मानव मुक्ति की तलाश में. कहा, ‘साबरमती, पांडिचेरी, तिरुवण्णमलई और दक्षिणोश्वर, ये मानवता के आगामी मूल्यपीठ होंगे. पंडित नेहरू और अन्य महापुरुष पुस्तकों में लिख गये, ‘राम, कृष्ण, सुकरात, ईसा, कबीर और गांधी, ये अपने जीवन में कामयाब नहीं हुए थे, मगर दुनिया को रोशनी उन्हीं के आदर्शो से मिल रही है?’
प्रतिकूल परिस्थितियों (जो आज है) में जीने की ताकत देनेवाले महाकवि के योगदान पर चौतरफा खुला विचार हो.।
-- हरिवंश ( प़भात ख़बर से साभार )
८ दिसम्बर २०१३ को प़काशित ।
अखिलेश शर्मा के सौजन्य से ।
कहां गांवों तक ईल फिल्मों का प्रदूषण, एमएमएस वगैरह पहुंच गये हैं. इस स्थिति में भी दिनकर के गांव में एक अलग माहौल है। इससे भी उल्लेखनीय बात कि अब इस आयोजन का नेतृत्व या कमान संभाल रहे हैं, युवा. मुचकुंद कुमार, राजेश कुमार जैसे अनेक युवा न सिर्फ आयोजन के प्राण हैं, बल्कि दिनकर उन्हें कंठस्थ है ।उनके जीवन में दिनकर रच-बस गये हैं या ये दिनकर में समा गये हैं, कहना मुश्किल । इन युवाओं की बौद्धिकता, प्रतिबद्धता और समर्पण, मन को प्रभावित करते हैं. ।
बेगूसराय की धरती बोलती है. जीवंतता, सृजन और ऊर्जा के संदर्भ मे ।
दिनकर की 105वीं जन्मतिथि के अवसर पर उनकी जन्मस्थली सिमरिया गांव, बेगूसराय (गांव की आबादी लगभग दस हजार) जाना हुआ । पूर्व सांसद शत्रुघ्न बाबू का आदेश था । पिछले साल भी. पर जाना इस साल हुआ ।संयोगवश बता दें कि शत्रुघ्न बाबू साम्यवादी हैं. पर मेरी नजर में गांधीवादी साम्यवादी हैं. एमएलसी रहे, एमपी रहे. बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ के अध्यक्ष हैं. लंबे समय से. पर इनका जीवन, दर्शन और आचरण शुद्ध गांधीवादी है ।इसी इलाके के रामजीवन बाबू भी हैं. समाजवादी पृष्ठभूमि के. बिहार सरकार में दो बार मंत्री रहे. एक बार सांसद भी. पर समाजवादी गांधीवादी । उसी तरह राजेंद्र राजन जी हैं, जिनके गांव गोदरगांवा भी जाना हुआ है.। तीन बार विधायक रहे हैं. भाकपा से । खुद साहित्यकार हैं. गांव में राष्ट्रीय स्तर का पुस्तकालय है. नाम है, विप्लवी पुस्तकालय. देवी वैदेही सभागार है. शहीद भगत सिंह के जन्मदिन के अवसर पर भव्य आयोजन होता है. देश के जाने-माने लोग बोलने आते हैं. हर साल. इस गांव ने आजादी की लड़ाई में जो शानदार शिरकत की थी, उसे भी इस अवसर पर याद करते हैं. इस आशय या बड़े फलक पर आज भी बेगूसराय, बोलती धरती लगती है. फड़कती. बेचैन. बाजारवाद और भोगवाद की बाढ़ के बीच भी अपनी पहचान बनाये हुए.।
जाना हुआ था, दिनकर जयंती के अवसर पर आयोजित समारोह में. पर अनेक लोगों ने उसी सभागार में अपनी रचनाएं दीं. यह सृजन जीवंतता का बोध है. बहस, लेखन, सृजन, मिट्टी के उर्वर होने के प्रतीक हैं. दिनकर जयंती समारोह में ही संपादक डॉ अनिल पतंग ने अपनी पत्रिका रंग अभियान दी. दीनानाथ सुमित्र ने गीत गजल संग्रह 2013 भेंट किया. प्रहरी पत्रिका मिली. गूंज पत्रिका मिली. शैलेंद्र झा ‘उन्मन’ की छह पुस्तिकाएं एक साथ मिलीं. सोई जनता जाग, दहेज को जला डालो, परिवर्तन, बदहाल व्यवस्था, आतंकवाद, बूढ़ा हिंदुस्तान. दिनकर स्मारिका (समर शेष है-3 , संपादक मुचकुंद कुमार, संपादन सहयोग : एस मनोज और राजेश कुमार सिंह) का भी लोकार्पण हुआ. यह टेलीविजन-मोबाइल युग. संचार क्रांति की ग्लोबल दुनिया. मनुष्य मशीन से चिपका है. पर बेगूसराय में सामाजिक संवाद है. बहुदलीय लोकतंत्र में बहुआयामी वैचारिक मंथन-विचार भी चाहिए. अखबारों की दुनिया भी पहले ‘दलों’ की तरह थी, अनेक अखबार. पर बड़ी पूंजी, विदेशी पूंजी, शेयर बाजार की पूंजी ने 1991 के बाद एक-एक कर छोटे अखबारों को मार दिया. देश भर में. सरकारों के सहयोग से. पेड न्यूज के बल. इसलिए अखबारों की दुनिया में पूंजीसंपन्न घराने ही रह जायेंगे, वहां प्रकाशनों की दुनिया सिमटेगी. बहुदलीय लोकतंत्र में बहुदलीय, बहुविचार वाले अनेक अखबार नहीं रहनेवाले. कुछेक पूंजीसंपन्न अखबार घराने ही बचेंगे. फिर क्या दृश्य होगा? सरकारी झूठ, समाज के ताकतवर-शासकवर्ग के छल, पूंजीवाले अपराधी नेताओं के असल चरित्र वगैरह की सौदेबाजी होगी ‘पेड न्यूज’ संस्कृति से. तब इसी तरह छोटी-छोटी पत्रिकाओं-पुस्तकों (जो बेगूसराय में मिलीं) से सच के स्वर जिंदा रहेंगे. इस तरह इस दौर में बेगूसराय में सृजन के बहुआयामी प्रयास देख कर अच्छा लगता है. दिनकर जी स्मृति में यह कार्यक्रम 23-24 सितंबर 2013 को उनके गांव सिमरिया में संपन्न हुआ. इसका आयोजन किया था, राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विकास समिति ने. आज कहां एक साथ इतनी रचनाओं के माध्यम से लोग बोलते, बतियाते, बहस या हस्तक्षेप करते हैं? यहीं मुझे धर्मयुग और रविवार के मेरे पाठक मिले. सबसे उल्लेखनीय बात है कि दिनकर के गांव, सिमरिया जाने के पहले हिंदी इलाके के गांवों के प्रति मन में एक गहरा क्षोभ था. हम अपने सरस्वतीपुत्रों को, सांस्कृतिक नायकों को, धरती प्रतिभाओं को न याद करते हैं, न आदर देते हैं. मन में बसा था कि वर्ष 2007 में जादुई यथार्थवाद के सबसे बड़े लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्केज कोलंबिया में अपने शहर एराकटाका लौटे, तो लोगों ने कैसे उमड़ कर उनका स्वागत किया. सैकड़ों लोग उनकी ट्रेन के साथ भागते हुए स्टेशन तक पहुंचे थे. अब सरकार कैसे उनके घर का जीर्णोद्धार करा रही है. वहां एक बड़े संग्रहालय की स्थापना करा रही है. इसी तरह शेक्सपियर का जन्मस्थल स्ट्रैटफर्ड अपॉन एवन स्मृति में उभरता है. किस आदर, श्रद्धा और सम्मान से अंगरेज सरकार ने उनकी स्मृति को सहेज कर रखा है? कैसे वह एक बड़ा पर्यटन स्थल है? पश्चिम में कैसे लोग अपने रचनाकारों की स्मृति को सम्मान के साथ सुरक्षित रखते हैं, ताकि आनेवाली पीढ़ियां, उनके विचार, जीवन-दर्शन और सृजन क्षमता से प्रेरित हो सकें. लगता था, खासतौर से हिंदी इलाकों में हम अपात्र लोग अपने सम्माननीय पुरखों को अपने हित में ही सम्मान देना नहीं जानते. पर, यहां आकर यह भ्रम टूटा. समारोह की चर्चा बाद में. पहले उसकी कुछ झलकियां. बरौनी, जीरो माइल पर स्थित दिनकर जी की आदमकद प्रतिमा पर माल्यार्पण के बाद, जुलूस चला. 10-12 किमी दूर उनके गांव की ओर. हरे-भरे पेड़-पौधों और गंगा के किनारे दूर बसे दिनकर जी के गांव. गांव के घरों पर दिनकर की लिखी ओजस्वी पंक्तियां. जीरो माइल पर लगी दिनकर प्रतिमा के नीचे खुदी दिनकर की पंक्तियां पढ़ता हूं. भोगवादी-बाजारवादी भौतिकता की दुनिया में उनकी ये पंक्तियां पढ़ कर सुख मिलता है.
‘भुवन की जीत मिटती है, भुवन में,
उसे क्या खोजना, गिर कर पतन में?
शरण केवल उजागर धर्म होगा,
सहारा अंत में सत्कर्म होगा.’ (रश्मिरथी)
‘रश्मिरथी’, या दिनकर की अन्य चीजें पढ़कर अब भी उदास मन संकल्प से भर जाता है. गांव के घरों की दीवारों पर दिनकर की पुरानी चीजें पढ़ कर अच्छा लगता है.।
‘तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं, गोत्र बतलाके,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना कर्तव्य दिखलाके.’
एक और दिवार पर ही लिखा पढ़ता हूं.
‘जुल्मी को जुल्मी कहने से जीभ जहां पर डरती है,
पौरुष होता क्षार वहां, दमघोट जवानी मरती है.’।
कहां गांवों तक ईल फिल्मों का प्रदूषण, एमएमएस वगैरह पहुंच गये हैं. इस स्थिति में भी दिनकर के गांव में एक अलग माहौल है. इससे भी उल्लेखनीय बात कि अब इस आयोजन का नेतृत्व या कमान संभाल रहे हैं, युवा. मुचकुंद कुमार, राजेश कुमार जैसे अनेक युवा न सिर्फ आयोजन के प्राण हैं, बल्कि दिनकर उन्हें कंठस्थ हैं. उनके जीवन में दिनकर रच-बस गये हैं या ये दिनकर में समा गये हैं, कहना मुश्किल. इन युवाओं की बौद्धिकता, प्रतिबद्धता और समर्पण, मन को प्रभावित करते हैं. आज जहां युवाओं के भटकाव, हाइटेक के प्रति उनके मोह और अलग जीवन दर्शन को लेकर चर्चा होती है, वहीं सिमरिया के युवा एक नयी राह दिखाते हैं. बिहार समेत देश के अधिसंख्य गांवों में अगर ऐसा माहौल बन जाये, तो भारत का नवनिर्माण कौन रोक सकता है? इस गांव में भी विवाद थे. हिंसक झगड़े थे. गुट थे. मनमुटाव था. इसे युवकों ने अपने पहल, प्रयास से पाटा. पर इससे भी उल्लेखनीय बात. कार्यक्रम में छह-सात घंटे तक लगातार हजारों लोगों का हाल में बैठना. भारी गर्मी के बावजूद. दिनकर जी को आस्था और श्रद्धा से याद करना, एक अलग अनुभव है. मंच पर चार वक्ता बैठे थे. अध्यक्ष रवींद्रनाथ जी, जाने-माने लेखक अब्दुल बिसमिल्लाह जी, लेखिका पूनम सिंह जी और साथ में हम. हमारे साथ ही थे दिनकर जी के सुपुत्र केदार बाबू, जिन्हें आमांत्रित कर ऊपर बुलाया गया. पर पूरे कार्यक्रम में शत्रुघ्न बाबू या राजेंद्र राजन जी नीचे भीड़ में ही बैठे रहे. आज विशिष्ट बनने की होड़ है. पर जो लोग अपने आचरण और कर्म से विशिष्टि हैं, वे खुद भीड़ में ही बैठे रहे. आज के भारतीय समाज के लिए यह स्तब्ध करनेवाली उत्साहवर्धक बात है. दिनकर जयंती का यह आयोजन तकरीबन तीस वर्षो से हो रहा है. पिछले 10-12 वर्षाे से इस कार्यक्रम में युवाओं की सक्रियता ने इसे नयी पहचान दी है.।
जीवन की शुरुआत बिहार से बाहर रह कर. तब बेगूसराय का नाम सुना. कामदेव सिंह के कारण. दशकों तक उनके साम्राज्य की चर्चा रही. उनके संरक्षण में चले तस्करी के दौर की भी. फिर कांग्रेस-कम्युनिस्ट वर्चस्व की लड़ाई में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के संदर्भ में भी बेगूसराय की चर्चा सुनता रहा. एक तरफ यह अपराध था, उजड्डता थी, तो दूसरी तरफ कम्युनिस्ट प्रश्रय से यहां विधवा विवाह का अभियान चला. जो सैकड़ों युवा मारे गये, उनकी विधवाओं के पुनर्विवाह का कार्यक्रम. समाजवादी भी इस अभियान के समर्थक रहे. पर सूत्रधार तो कम्युनिस्ट ही रहे. यही बीहट गांव के रामचरित्र बाबू हुए, जो श्रीकृष्ण सिंह के मंत्रिमंडल में सिंचाई और बिजली मंत्री थे. उनके पुत्र कामरेड चंद्रशेखर सिंह हुए. कांग्रेसी पिता के मशहूर कम्युनिस्ट पुत्र. पहली गैर कांग्रेसी सरकार में सिंचाई और बिजली मंत्री. जब हरिहर सिंह जी मुख्यमंत्री बने, तो यहां के जाने-माने कांग्रेसी नेता सरयू प्रसाद सिंह भी मंत्री रहे. आदर और सम्मान के साथ आज भी लोग इन्हें अपने इलाके में याद करते हैं. अनेक सांस्कृतिक संस्थाएं आज बेगूसराय में सक्रिय हैं. मशहूर आशीर्वाद रंगमंच है. पूरे वर्ष इनका कार्यक्रम चलता है. देश- दुनिया में यहां के खिलाड़ियों की चर्चा है. युवक-युवतियां वॉलीबॉल, कबड्डी में राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय पहचान रखते हैं. बेगूसराय की धरती पर ही सुना कि अनेक जमीन मालिकों ने समाज को बहुत कुछ दिया. एक धरतीसंपन्न व्यक्ति ने अपनी जमीन देकर बिहार का बड़ा आयुर्वेद कॉलेज यहां बनवाया. जीडी कॉलेज, कोऑपरेटिव कॉलेज, बरौनी कॉलेज भी दान से ही बने. जिन्होंने अच्छे काम किये, उन्हें गये दशकों हो गये, पर वे अब भी लोगों की स्मृति में आदर के केंद्र हैं. मसलन, आरएस शर्मा (अब मुख्य सचिव, झारखंड), जो बहुत पहले यहां कलकटर थे. उनके काम, रचनात्मक सहयोग को लेकर लोग सम्मान के साथ आज भी उन्हें याद करते हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा का जन्म भी बरौनी में हुआ था. मेरे युवा मित्र निराला इसलिए बार-बार कहते हैं कि बेगूसराय बिहार की सांस्कृतिक राजधानी है.।
कुछ पंक्तियां दिनकर स्मृति समारोह के संदर्भ में. बरसों से यहां हिंदी के बड़े नाम आते-बोलते रहे हैं. अपने विचार, व्याख्या और आलोचना से परिपूर्ण चिंतन से जनता से संवाद करते रहे हैं. पर जरूरत है, इससे भी आगे बढ़ने की. इतिहास, दर्शन और समाजशास्त्र के लोग भी ऐसे कवियों के समाजिक योगदान पर विचार करें. साहित्य या कविता को सिर्फ उस भाषा के पंडितों-ज्ञानवानों तक छोड़ना सही नहीं है. लय, ताल, गेयता, छंद, बाड़ और अलंकार की चौहद्दी से बहुत आगे के कवि हैं, दिनकर. वह जीवन के कवि हैं. संघर्ष की आवाज हैं. चेतना को नये धरातल पर ले जानेवाले रचनाकार, मानव-मुक्ति के चिंतक हैं. हिंदी में शायद दिनकर उन कुछेक कवियों में से एक हुए, जिन्होंने मनुष्य के विकास (इवोल्यूशन) को समझने की कोशिश की. वह रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, महर्षि अरविंद, रमण महर्षि, मुक्तानंद जी तक गये. मानव मुक्ति की तलाश में. कहा, ‘साबरमती, पांडिचेरी, तिरुवण्णमलई और दक्षिणोश्वर, ये मानवता के आगामी मूल्यपीठ होंगे. पंडित नेहरू और अन्य महापुरुष पुस्तकों में लिख गये, ‘राम, कृष्ण, सुकरात, ईसा, कबीर और गांधी, ये अपने जीवन में कामयाब नहीं हुए थे, मगर दुनिया को रोशनी उन्हीं के आदर्शो से मिल रही है?’
प्रतिकूल परिस्थितियों (जो आज है) में जीने की ताकत देनेवाले महाकवि के योगदान पर चौतरफा खुला विचार हो.।
-- हरिवंश ( प़भात ख़बर से साभार )
८ दिसम्बर २०१३ को प़काशित ।
अखिलेश शर्मा के सौजन्य से ।
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