उल्लेखनीय बातें
''कविता का जन्म कोरे सिद्धांतों या वैचारिक आदर्शों से नहीं वरन् कवि की वास्तविक सृजनात्मक अनुभूति से होता है । केवल सैद्धांतिक आधार या जीवन-दर्शन की कसौटी पर किसी कवि के रचना संसार को महत्वपूर्ण या प्रामाणिक ठहराना काव्य के मूलभूत रचनाशील पक्षों की उपेक्षा करना है । सैद्धांतिक आग्रहशीलता रचना को संकीर्ण, सपाट यथातथ्यवादी- और इसलिए अप्रामाणिक - बना देती है ।''
- प्रमोद वर्मा
जय प्रकाश मानस के सौजन्य से ।
आज भाई ज़हीर ललितपुरी जी Zaheer Lalitpuri ने "उर्दू " शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से होने के विषय में एक बड़ी ही अजीबोगरीब बात बताई। वे बता रहे है कि उन्होंने कहीं पढ़ा था कि उर का अर्थ ह्रदय और दो का अर्थ ह्रदय में रहने वाली है। मेरी जितनी भी थोड़ी सी जानकारी है, उसके आधार पर बताना चाहता हूँ कि संस्कृत मूलतः अवेस्ता से प्रत्यक्षतः जुडी भाषा थी, जिसका उद्गम स्थल वर्तमान मध्य एशिया ( प्री इस्लामिक ईरान और पकिस्तान तथा अन्य पड़ोसी देश) था न कि एशियाई उपमहाद्वीप विशेषकर भारत या इसके आसपास तो यह बाद में आई। भारतीयों को आर्यन कहा जाता है जो वास्तव में वर्तमान ईरान शब्द का ही पूर्वज शब्द है। वहीँ से संस्कृत की सहायक भारोपीय भाषा परिवार की भाषाएं विकसित हुईं। जहाँ तक उर्दू का प्रश्न है तो उर्दू तुर्की भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है सेना का शिविर। मान्यता भी यही है कि उर्दू भाषा की पैदाइश आगरा के मुग़ल फौजी शिविरों में हुई थी। तुर्की में सम्भव है कि यह उर्दू शब्द संस्कृत से आया हो। लेकिन उर्दू के संस्कृतनिष्ठ शाब्दिक अर्थ को शायद स्वीकार कर पाना मुश्किल होगा ।
-- पुनीत बिसारिया
( ललितपुर , उ प्र )
राष्ट्र का सेवक
प्रेमचंद
राष्ट्र के सेवक ने कहा - देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सलूक,पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव। दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीच नहीं, कोई ऊँच नहीं।
दुनिया ने जय-जयकार की - कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हृदय!
उसकी सुंदर लड़की इंदिरा ने सुना और चिंता के सागर में डूब गई।
राष्ट्र के सेवक ने नीची जाति के नौजवान को गले लगाया।
दुनिया ने कहा - यह फरिश्ता है, पैगंबर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है।
इंदिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा।
राष्ट्र का सेवक नीची जाति के नौजवान को मंदिर में ले गया, देवता के दर्शन कराए और कहा - हमारा देवता गरीबी में है, जिल्लत में है, पस्ती में है।
दुनिया ने कहा - कैसे शुद्ध अंतःकरण का आदमी है! कैसा ज्ञानी!
इंदिरा ने देखा और मुसकराई।
इंदिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली - श्रद्धेय पिताजी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूँ।
राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नजरों से देखकर पूछा - मोहन कौन है?
इंदिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा - मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मंदिर में ले गए, जो सच्चा, बहादुर और नेक है।
राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आँखों से उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया।
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3834&pageno=1
--रिषभदेव देव शर्मा के सौजन्य स ।
नालन्दा (बिहार शरीफ) के पुस्तक मेले में जाने के बहाने नालंदा के खडहर को देखने का अवसर मिला,भगवान बुद्ध अक्सर यहाँ आया करते थे । इसी नालंदा महाविहार (विश्वविद्यालय) के कारण भारत विश्व गुरु कहलाता था. नालंदा (यानी न+अलम +द =नालंदा यानी अनंत दान देने वाला) में नागार्जुन और आर्यदेव जैसे महान शिक्षा शास्त्री अध्यापन करते थे, यही हुआ था 'शून्य' का आविष्कार। नालंदा के वैभव को बख्तियार खिलजी नामक हमलावर ने नष्ट करवा दिया था,तब अनेक दुर्लभ हस्तलिखित पांडुलिपिया राख हो गयी थी, दुःख की बात है कि हम लोग उस खँडहर को भी अब ठीक से सम्भाल नहीं पा रहे है , नीचे प्रस्तुत दो छाया चित्र देख कर आप समझ सकते है. नालंदा पर अलग से लेख लिखूंगा,।
- गिरीश पंकज
( रायपुर ,छत्तीसगढ़ )
''"हर धर्म की 'लिप सर्विस' (चापलूसी) करना 'धर्मनिरपेक्षता' नहीं है। 'धर्मनिरपेक्षता' का मतलब न तो हर धर्म की अंधभक्ति है और न ही 'नास्तिकता' । अब ऐसा समय आ गया है जब हर धार्मिक संप्रदाय को यह बताना ज़रूरी हो गया है कि ज़माना तेज़ी से बदल रहा है। तुम्हें भी बदलना चाहिए। आगे की ओर चलना चाहिए। अगर पुरानी इबारतों, पुरानी किताबों, पुरानी रूढ़ियों से चिपके रहोगे तो पीछे छूट जाओगे। हमारे सारे संचार माध्यमों का इस्तेमाल यही बताने के लिए होना चाहिए। मेरा तो कहना है कि टेलीविज़न में यह कभी नहीं दिखाना चाहिए कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री फलां मंदिर या फलां मस्ज़िद, फलां गुरुद्वारा या चर्च में गये और वहां शीश नवाया, प्रार्थना-पूजा की । अगर ऐसा दिखाया जाता है तो आडिटर (सालिसिटर) जनरल को इस पर कड़ा एतराज़ करना चाहिए ।अगर कोई अपनी निजी आस्था के कारण ऐसा करता है, तो करे लेकिन सरकारी वाहन, सरकारी सुरक्षा, राजकीय विशेषाधिकारों का इस्तेमाल न करे और न मीडिया को अपना प्रचार तंत्र बनाए । आज जिस तरह राजनीति का सांप्रदायिकीकरण हो गया है, उसमें ऐसी हरकतें विभिन्न समुदायों के बीच एकता की जगह उन्हें अलग-अलग बांट कर फूट डालती हैं।
किसी धर्म को सत्ता की कोई बैसाखी नहीं मिलनी चाहिए। संतों-पीरों ने कहा है कि धर्म और सत्ता का हमेशा से बैर रहा है । अब हमारे यहां ये कैसे धर्म पैदा हो गये हैं, जिनकी आंखें लगातार सत्ता की ओर लगी रहती हैं।
जो धर्म सत्ताओं का सहारा ले या सत्ता-लोलुप हो, वह अनैतिक है। उसको सत्ता में रहने का कोई हक़ नहीं है।''
---- पी.सी. जोशी, (जन्म ९ मार्च, १९२८, दिगोली, अल्मोड़ा - निधन : २ मार्च २०१४, नयी दिल्ली)
-- उदय प्रकाश
( अरुण देव के सौजन्य से )
कहा उन्होंने
पाकिस्तान में रेडियो में हारमोनियम इसलिए बंद करा दिया क्योंकि भारतीय फनकार इसमें माहिर थे । इसलिए ही बड़े गुलाम अली जैसे लोग भारत लौट आये ।
मेरी बेटी का नाम वीरता और बेटे का कबीर है ।
- फहमीदा रियाज ( मशहूर साहित्यकार, पाकिस्तान ) कल रायपुर में
( जय प्रकाश मानस के सौजन्य से )
ख़ुश वन्त सिंंह का महत्त्व
जिन्होने ख़ुशवंत सिह का उपन्यास " ट्रेन टू पाकिस्तान" नहीं पढ़ा वे उनको जानने का दावा नहीं कर सकते और वे सिर्फ खुश्वंत सिंह के जीवन से जुड़े संदर्भो तको बिना गहराई में जाने, चटकारे लेकर उल्लेख करते समय अपनी कामुकता का ही परिचय देते हैं. " ट्रेन टू पाकिस्तान" त्याग, मानवीय सम्वेदनाओं और धर्म से ऊपर उठकर प्रेम के माध्य्म से हिन्दू- मुस्लिम समबंधों को ऊचाई प्रदान करनेवाला उपन्यास है. पत्रिकारिता और साहित्य के बल पर स्म्मांपूर्वक जीवन व्यतीत करना और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाना कोई छोटी उपलब्ढि नहीं है. ख़ुशवंत सिह ने अंग्रेज़ी पत्रिकारिता के माध्यम से समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में कालम् लिख कर सिर्फ हिंदी ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों और पत्रकारों को कालम लिखना सिखाया उसे रोचक ढंग से प्रस्तुत करना सिखाया और यह भी सिखाया कि कैसे समाचार पत्र में कम जगह में भी बड़े संदर्भ को पिरोया जा सकता है.
मित्रता की मर्यादाओं में स्त्री-पुरुष की मित्रता को उन्होनें अर्थ देने की कोशिश की जिसे लोगों ने अपने नज़रिए से देखा, जिन्हें सिवाय सेक्स के और कुछ नज़र ही नहीं आता और वे दूसरी और उन सम्मानित और प्रबुद्ध महिला पत्रकारों का भी अपमान करते हैं जो ख़ुशवंत सिह के आत्मीय और करीबी मित्रों में थीं. अगर वो खराब होते तो किसी महिला ने कभी तो आरोप लगाए होते उनपर. दिन भर राधे कृष्ण का जाप करनेवले लोग जब इतनी संकुचित दृष्टि से मानवीय सम्बंधों को कुत्सित रूप में बखान करते हैं तो अफसोस होता है.
भारतीय समाज का यही दोहरापन वर्त्मान में स्त्री समस्याओं की सबसे बड़ी जड़ है जो उसे मनुष्य समझने के स्थान पर उपभोग की वस्तु समझता है और उन पर सारी नैतिकताओं को ढोने की ज़िम्मेदारी डाल देता है.
ख़ुशवंत सिह के बाद भारत में कमलेश्वर शायद अकेले ऐसे हिंदी की साहित्यकार थे जिन्होने हिंदी पत्रिकारिता को नई ज़मीन देने की कोशिश की और उन्होनें हिंदी साहित्य को फिल्म और टेलीविज़न जैसे लोकप्रिय माधय्मों से भी जोड़ने की कोशिश की. अनय्था अपनी अपनी कैंचुली में सुरक्षित बैठे हिंदी के तमाम तथाकथित और एक समीक्षक द्वारा गढ़े गए बड़े साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य को पाठकों से हज़ारों कोस दूर कर दिया.
मैं ख़ुशवंत सिह को श्रंद्धाजलि देता हूँ अपने तमाम साहित्यकार मित्रों की ओर से.
अशोक रावत
( नोएडा , ग़ाज़ियाबाद ,उ प्र )
''कविता का जन्म कोरे सिद्धांतों या वैचारिक आदर्शों से नहीं वरन् कवि की वास्तविक सृजनात्मक अनुभूति से होता है । केवल सैद्धांतिक आधार या जीवन-दर्शन की कसौटी पर किसी कवि के रचना संसार को महत्वपूर्ण या प्रामाणिक ठहराना काव्य के मूलभूत रचनाशील पक्षों की उपेक्षा करना है । सैद्धांतिक आग्रहशीलता रचना को संकीर्ण, सपाट यथातथ्यवादी- और इसलिए अप्रामाणिक - बना देती है ।''
- प्रमोद वर्मा
जय प्रकाश मानस के सौजन्य से ।
आज भाई ज़हीर ललितपुरी जी Zaheer Lalitpuri ने "उर्दू " शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से होने के विषय में एक बड़ी ही अजीबोगरीब बात बताई। वे बता रहे है कि उन्होंने कहीं पढ़ा था कि उर का अर्थ ह्रदय और दो का अर्थ ह्रदय में रहने वाली है। मेरी जितनी भी थोड़ी सी जानकारी है, उसके आधार पर बताना चाहता हूँ कि संस्कृत मूलतः अवेस्ता से प्रत्यक्षतः जुडी भाषा थी, जिसका उद्गम स्थल वर्तमान मध्य एशिया ( प्री इस्लामिक ईरान और पकिस्तान तथा अन्य पड़ोसी देश) था न कि एशियाई उपमहाद्वीप विशेषकर भारत या इसके आसपास तो यह बाद में आई। भारतीयों को आर्यन कहा जाता है जो वास्तव में वर्तमान ईरान शब्द का ही पूर्वज शब्द है। वहीँ से संस्कृत की सहायक भारोपीय भाषा परिवार की भाषाएं विकसित हुईं। जहाँ तक उर्दू का प्रश्न है तो उर्दू तुर्की भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है सेना का शिविर। मान्यता भी यही है कि उर्दू भाषा की पैदाइश आगरा के मुग़ल फौजी शिविरों में हुई थी। तुर्की में सम्भव है कि यह उर्दू शब्द संस्कृत से आया हो। लेकिन उर्दू के संस्कृतनिष्ठ शाब्दिक अर्थ को शायद स्वीकार कर पाना मुश्किल होगा ।
-- पुनीत बिसारिया
( ललितपुर , उ प्र )
राष्ट्र का सेवक
प्रेमचंद
राष्ट्र के सेवक ने कहा - देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सलूक,पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव। दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीच नहीं, कोई ऊँच नहीं।
दुनिया ने जय-जयकार की - कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हृदय!
उसकी सुंदर लड़की इंदिरा ने सुना और चिंता के सागर में डूब गई।
राष्ट्र के सेवक ने नीची जाति के नौजवान को गले लगाया।
दुनिया ने कहा - यह फरिश्ता है, पैगंबर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है।
इंदिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा।
राष्ट्र का सेवक नीची जाति के नौजवान को मंदिर में ले गया, देवता के दर्शन कराए और कहा - हमारा देवता गरीबी में है, जिल्लत में है, पस्ती में है।
दुनिया ने कहा - कैसे शुद्ध अंतःकरण का आदमी है! कैसा ज्ञानी!
इंदिरा ने देखा और मुसकराई।
इंदिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली - श्रद्धेय पिताजी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूँ।
राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नजरों से देखकर पूछा - मोहन कौन है?
इंदिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा - मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मंदिर में ले गए, जो सच्चा, बहादुर और नेक है।
राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आँखों से उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया।
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3834&pageno=1
--रिषभदेव देव शर्मा के सौजन्य स ।
नालन्दा (बिहार शरीफ) के पुस्तक मेले में जाने के बहाने नालंदा के खडहर को देखने का अवसर मिला,भगवान बुद्ध अक्सर यहाँ आया करते थे । इसी नालंदा महाविहार (विश्वविद्यालय) के कारण भारत विश्व गुरु कहलाता था. नालंदा (यानी न+अलम +द =नालंदा यानी अनंत दान देने वाला) में नागार्जुन और आर्यदेव जैसे महान शिक्षा शास्त्री अध्यापन करते थे, यही हुआ था 'शून्य' का आविष्कार। नालंदा के वैभव को बख्तियार खिलजी नामक हमलावर ने नष्ट करवा दिया था,तब अनेक दुर्लभ हस्तलिखित पांडुलिपिया राख हो गयी थी, दुःख की बात है कि हम लोग उस खँडहर को भी अब ठीक से सम्भाल नहीं पा रहे है , नीचे प्रस्तुत दो छाया चित्र देख कर आप समझ सकते है. नालंदा पर अलग से लेख लिखूंगा,।
- गिरीश पंकज
( रायपुर ,छत्तीसगढ़ )
''"हर धर्म की 'लिप सर्विस' (चापलूसी) करना 'धर्मनिरपेक्षता' नहीं है। 'धर्मनिरपेक्षता' का मतलब न तो हर धर्म की अंधभक्ति है और न ही 'नास्तिकता' । अब ऐसा समय आ गया है जब हर धार्मिक संप्रदाय को यह बताना ज़रूरी हो गया है कि ज़माना तेज़ी से बदल रहा है। तुम्हें भी बदलना चाहिए। आगे की ओर चलना चाहिए। अगर पुरानी इबारतों, पुरानी किताबों, पुरानी रूढ़ियों से चिपके रहोगे तो पीछे छूट जाओगे। हमारे सारे संचार माध्यमों का इस्तेमाल यही बताने के लिए होना चाहिए। मेरा तो कहना है कि टेलीविज़न में यह कभी नहीं दिखाना चाहिए कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री फलां मंदिर या फलां मस्ज़िद, फलां गुरुद्वारा या चर्च में गये और वहां शीश नवाया, प्रार्थना-पूजा की । अगर ऐसा दिखाया जाता है तो आडिटर (सालिसिटर) जनरल को इस पर कड़ा एतराज़ करना चाहिए ।अगर कोई अपनी निजी आस्था के कारण ऐसा करता है, तो करे लेकिन सरकारी वाहन, सरकारी सुरक्षा, राजकीय विशेषाधिकारों का इस्तेमाल न करे और न मीडिया को अपना प्रचार तंत्र बनाए । आज जिस तरह राजनीति का सांप्रदायिकीकरण हो गया है, उसमें ऐसी हरकतें विभिन्न समुदायों के बीच एकता की जगह उन्हें अलग-अलग बांट कर फूट डालती हैं।
किसी धर्म को सत्ता की कोई बैसाखी नहीं मिलनी चाहिए। संतों-पीरों ने कहा है कि धर्म और सत्ता का हमेशा से बैर रहा है । अब हमारे यहां ये कैसे धर्म पैदा हो गये हैं, जिनकी आंखें लगातार सत्ता की ओर लगी रहती हैं।
जो धर्म सत्ताओं का सहारा ले या सत्ता-लोलुप हो, वह अनैतिक है। उसको सत्ता में रहने का कोई हक़ नहीं है।''
---- पी.सी. जोशी, (जन्म ९ मार्च, १९२८, दिगोली, अल्मोड़ा - निधन : २ मार्च २०१४, नयी दिल्ली)
-- उदय प्रकाश
( अरुण देव के सौजन्य से )
कहा उन्होंने
पाकिस्तान में रेडियो में हारमोनियम इसलिए बंद करा दिया क्योंकि भारतीय फनकार इसमें माहिर थे । इसलिए ही बड़े गुलाम अली जैसे लोग भारत लौट आये ।
मेरी बेटी का नाम वीरता और बेटे का कबीर है ।
- फहमीदा रियाज ( मशहूर साहित्यकार, पाकिस्तान ) कल रायपुर में
( जय प्रकाश मानस के सौजन्य से )
ख़ुश वन्त सिंंह का महत्त्व
जिन्होने ख़ुशवंत सिह का उपन्यास " ट्रेन टू पाकिस्तान" नहीं पढ़ा वे उनको जानने का दावा नहीं कर सकते और वे सिर्फ खुश्वंत सिंह के जीवन से जुड़े संदर्भो तको बिना गहराई में जाने, चटकारे लेकर उल्लेख करते समय अपनी कामुकता का ही परिचय देते हैं. " ट्रेन टू पाकिस्तान" त्याग, मानवीय सम्वेदनाओं और धर्म से ऊपर उठकर प्रेम के माध्य्म से हिन्दू- मुस्लिम समबंधों को ऊचाई प्रदान करनेवाला उपन्यास है. पत्रिकारिता और साहित्य के बल पर स्म्मांपूर्वक जीवन व्यतीत करना और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाना कोई छोटी उपलब्ढि नहीं है. ख़ुशवंत सिह ने अंग्रेज़ी पत्रिकारिता के माध्यम से समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में कालम् लिख कर सिर्फ हिंदी ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों और पत्रकारों को कालम लिखना सिखाया उसे रोचक ढंग से प्रस्तुत करना सिखाया और यह भी सिखाया कि कैसे समाचार पत्र में कम जगह में भी बड़े संदर्भ को पिरोया जा सकता है.
मित्रता की मर्यादाओं में स्त्री-पुरुष की मित्रता को उन्होनें अर्थ देने की कोशिश की जिसे लोगों ने अपने नज़रिए से देखा, जिन्हें सिवाय सेक्स के और कुछ नज़र ही नहीं आता और वे दूसरी और उन सम्मानित और प्रबुद्ध महिला पत्रकारों का भी अपमान करते हैं जो ख़ुशवंत सिह के आत्मीय और करीबी मित्रों में थीं. अगर वो खराब होते तो किसी महिला ने कभी तो आरोप लगाए होते उनपर. दिन भर राधे कृष्ण का जाप करनेवले लोग जब इतनी संकुचित दृष्टि से मानवीय सम्बंधों को कुत्सित रूप में बखान करते हैं तो अफसोस होता है.
भारतीय समाज का यही दोहरापन वर्त्मान में स्त्री समस्याओं की सबसे बड़ी जड़ है जो उसे मनुष्य समझने के स्थान पर उपभोग की वस्तु समझता है और उन पर सारी नैतिकताओं को ढोने की ज़िम्मेदारी डाल देता है.
ख़ुशवंत सिह के बाद भारत में कमलेश्वर शायद अकेले ऐसे हिंदी की साहित्यकार थे जिन्होने हिंदी पत्रिकारिता को नई ज़मीन देने की कोशिश की और उन्होनें हिंदी साहित्य को फिल्म और टेलीविज़न जैसे लोकप्रिय माधय्मों से भी जोड़ने की कोशिश की. अनय्था अपनी अपनी कैंचुली में सुरक्षित बैठे हिंदी के तमाम तथाकथित और एक समीक्षक द्वारा गढ़े गए बड़े साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य को पाठकों से हज़ारों कोस दूर कर दिया.
मैं ख़ुशवंत सिह को श्रंद्धाजलि देता हूँ अपने तमाम साहित्यकार मित्रों की ओर से.
अशोक रावत
( नोएडा , ग़ाज़ियाबाद ,उ प्र )
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