2 जुलाई 2015

रोचक तथ्य

          रोचक तथ्य

     जिन्ना का सच 

बरेली से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका साहित्यायन के अक्तूबर दिसम्बर सन२०१४ के अंक में 
डा सुरेश चन्द्र गुप्त का एक लेख " जिन्ना और गांधी " पढ़ कर पता चला कि पाकिस्तान के 
बानी मुहम्मद अली जिन्ना के पितामह एक गुजराती हिन्दू बनिया थे । उन से पूर्वज इस्लाम 
में किस कारण धर्मान्तरित हुए , यह तो पता नहीं पर हिन्दू के वंशज जिन्ना हिन्दू विरोधी 
हो गये । भारत विभाजन में उन की ज़िद और अंग्रेज़ों की कूटनीति की विशेष भूमिका थी । 
पाकिस्तान बनने पर लाखों हिन्दुओं   मुसलमानों और सिक्खों का जो ख़ून बहा , उस के 
लिए जिन्ना भी ज़िम्मेदार थे । 

     कश्मीर के शेख़ अब्दुल्ला का सच 

एक दिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शेख़ अब्दुल्ला के पुत्र फ़ारुक अब्दुल्ला 
भाषण देने आए । भाषण के बाद वे कहीं जा रहे थे । रास्ते में मैं ने सुना कि वे किसी से 
कह रहे थे " हमारे forefathers भी कभी पण्डित थे । " 
पण्डित के एक वंशज शेख़ अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर राज्य के भारत में विलय के बाद 
उसे भारत से अलग एक स्वतन्त्र राज्य बनाने का षड़यन्त्र रचा जो जवाहर लाल नेहरू 
के कारण सफल नहीं हो सका । 
हिन्दू धर्म के अनेक लोग किन्हीं कारणों से मुसलमान बनने के बाद हिन्दुओं के कट्टर 
शत्रु होगये । 
-- सुधेश

  ग़दर पार्टी का इतिहास 

   डा वेद प़काश वटुक हिन्दी ,संस्कृत ,लोकसाहित्य के विद्वान  कवि ,आलोचक और
चिन्तक हैं ।उन की नई पुस्तक विपन्नता से क्रान्ति की ओर सन २०११ में छपी थी जिस की मेरे 
द्वारा लिखित समीक्षा का सार नीचे दिया जा रहा है --
        डा वेद प़काश वटुक की प्रस्तुत  पुस्तक में ग़दर पार्टी की गतिविधियों का प्रामाणिक 
इतिहास दिया गया है ,जिसे पढ़ कर पाठक प्रभावित सेंंअधिक उत्तेजित होंगे  ।जिसे ग़दर पार्टी 
कहा जाता है वह अमेरिका के राज्य कैलिफ़ोर्निया के नगर सानफ़ांसिसको में अप़ैल सन १९१३ मे ं
स्थापित संंस्था हिन्दी एसोशिएशन आफ पैसेंफिक कोस्ट का प़चलित नाम है । यह नाम इसे 
इस के साप्ताहिक पत्र  ग़दर के कारण मिला । इस की बड़ी लोक प्रियता  के कारण इसे छापने 
वाली संस्था को भी ग़दर पार्टी कहने लगे । यह साप्ताहिक पहले उर्दू में छपता था , बाद में
पंजाबी में भी छपने लगा । 
       इस तथाकथित ग़दर पार्टी के प्रधान सोहन सिंह मकना और प्रथम  महासचिव लाला
हर दयाल थे । उन के सम्पादकीयों तथा अन्य सामग़ी के कारण भारत की ब़िटिंश सरकार 
ने इस के भारत प्रवेश पर पाबन्दी लगा दी ।  ग़दर पार्टी के मुख्यालय का नाम युगान्तर  आश्रम था ,
जिस का नामकरंण  बंगाल के क़ान्तिकारी समाचारपत्र  युगान्तर के आधार पर किया 
गया था । 
       युगान्तर आश्रम आज भी सानफ्रांसिसको की ५ नम्बर की वुडस्ट्रीट पर आधुनिक नाम 
ग़दर मैमेरियल भवन के रूप में स्थापित है,जो ंउन बलिदानियों की याद दिलाता है  जो सात
समुन्दर पार अपनी जन्म भूमि ंभारत को ंअंग़ेजों की ग़ुलामी से मुक्त कराने के लिए  शहीद 
होगये ।
        ग़दर पार्टी के नेताओं में सोहन सिंह मकना  , हर दयाल ,केसर सिंह ,ज्ञानी भगवान 
सिंह ,भाई महावीर ,पंडित काशी राम , जगत राम ,बरक़तुल्ला खां ,हरि सिंह ंउस्मान आदि 
अनेक वीर बलिदानी थे । डा वटुक ने ये सारे तथ्य प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किये हैं ।
       जिन बलिदानियों को भारत में लगभग भुला दिया गया है उन्हें वटुक जी ने बड़े 
आदर के साथ याद किया है और ंभारतीयों को ंउन की  अहसानफरामोशी  की याद भी 
दिलाई  है ।
        जैसे नेता जी सुभाष चन्द़ बोस के योगदान की चर्चा प्राय: नहीं होती वैसे ग़दर 
पार्टी के योग दान को हिन्दुस्तानी भूलते  जा रहे हैं । डा वटुक की यह पुस्तक एक अनिवार्य 
और पठनीय पुस्तक है ,जिसे दिल्ली के अलंकार प्रकाशन ने छापा है ।लेखक और प्रकाशक 
बंधाई के पात्र हैंं ।
 -- डा  सुधेश 




17 मई 2015

चंगेज़ खां का मंगोलियन साम्राज्य

चंगेज़ खंा का मंगोलियन साम्राज्य 

वैज्ञानिकों का कहना है कि 13वीं सदी की शुरुआत में चंगेज खां और विशाल मंगोल साम्राज्य के उदय में अच्छे मौसम का योगदान हो सकता है।

अमेरिकी शोधकर्ताओं का कहना है कि मध्य मंगोलिया में पुराने पेड़ों के छल्लों से ये पता चला है कि करीब एक हजार साल पहले जब चंगेज खान तेजी से कामयाबी हासिल कर रहा था, उस दौरान मध्य एशिया में मौसम काफी सुहावना और नम था।

इस दौरान घास काफी तेजी से बढ़ी और इससे घोड़ों को भरपूर चारा मिला।

चंगेज खां ने मंगोल कबीलों को एकजुट किया और एक बड़े इलाके पर शासन किया। उसके राज्य में आज का कोरिया, चीन, रूस, पूर्वी यूरोप, भारत के कुछ हिस्से और दक्षिण पूर्व एशिया आते थे।

करिश्माई नेता : नेशनल एकेडमी ऑफ सांइसेज के अध्ययन में बताया गया है कि चंगेज खां के शासन से पहले 1180 से 1190 के बीच कई बार सूखा पड़ा। लेकिन 1211 से 1225 के दौरान साम्राज्य काफी बड़ा हो चुका था। इस दौरान मंगोलिया में असामान्य रूप से सामान्य बारिश हुई और मौसम सुहावना बना रहा।

इस अध्ययन के सह-लेखक और पश्चिम वर्जीनिया यूनीवर्सिटी की वैज्ञानिक एमी हसेल ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, 'अत्यधिक सूखे से अत्यधिक नम मौसम के रूप में आया यह बदलाव बताता है कि इंसानी गतिविधियों में मौसम की महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी।'

उन्होंने कहा, 'यह एक ऐसी आदर्श स्थिति थी जो किसी करिश्माई नेता के उदय के लिए, सेना के विकास और मजबूत सत्ता के लिए पूरी तरह से अनुकूल थी।'

उन्होंने बताया कि मौसम में नमी बढ़ने से हरियाली बढ़ी और इसका असर घोड़ों की ताकत में हुई वृद्धि के रूप में दिखाई दिया।

अनुकूल मौसम की मदद से चंगेज खान छोटे-छोटे कबीलों में बिखरे मंगोलों के एकजुट कर एक बड़े साम्राज्य में तब्दील करने में कामयाब रहा।

बीबीसी हिन्दी से साभार ।
१३ मार्च २०१३ को प्रकाशित ।
टैग   मंगोलिया -- चंगेज़ खां  - साम्राज्य

8 मई 2015

राष्ट्रभाभाषा , मनन ,मन्थन , मन्तव्य


राष्ट्र भाषा , मनन , मन्थन , मन्तव्य 

भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। 
इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भॉंति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएं लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियॉं उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।
यहॉं तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी सभ्यता के अनुरुप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हे वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था। किंतु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। फिरंगी देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का "लॉलीपॉप' जरुर दिया गया। धीरे-धीरे "लॉलीपॉप' भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया। अब तो देसी चमड़ी के फिरंगियों की धूर्तता देखकर गोरी चमड़ी का फिरंगी भी दंग रह गया है।
प्रश्न है कि जब राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा माना जाता है तो क्या हमारी व्यवस्था को एक डरा-सहमा लोकतंत्र अपेक्षित था जो मूक और अपाहिज हो? विगत इकसठ वर्षों का घटनाक्रम देखें तो उत्तर "हॉं' में मिलेगा। 
राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहॉं की जा रही है।p
राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर सामान्य बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहॉं अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस्क़ृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।
सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया- Seeta was sweetheart of Rama! ठीक इसके विपरीत श्रीरामचरित मानस में श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मणजी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मणजी का कहना कि मैने सदैव भाभी मॉं के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?-  यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में "चार भिंतीत नाचली' का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।
शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने प्राथनिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें आज कूड़े-दानों में पड़ी हैं। त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं। 
छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात  संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में "हर-हर महादेव' और "पीरबाबा सलामत रहें' जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासन कठोर होता हो तो भावुकता देश के लिए अनिवार्य होनी चाहिए।
वर्तमान में सीनाजोरी अपने चरम पर है। काली चमड़ी के अंगे्रज पैदा करने के लिए भारत में अंग्रेजी शिक्षा लानेवाले मैकाले के प्रति नतमस्तक होता  आलेख पिछले दिनों एक हिंदी अखबार में पढ़ने को मिला। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनरल डायर और जनरल नील-छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के स्थान पर देश में शौर्य के प्रतीक के रूप में पूजे जाने लगेंगे।
सामान्यतः श्राद्धपक्ष में आयोजित होनेवाले हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वह सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएं। 
लगभग तीन दशक पूर्व दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा सा देश आज़ाद हुआ। मंत्रिमंडल की पहली बैठक में निर्णय लिया गया कि देश आज से "रोडेशिया' की बजाय "जिम्बॉब्वे' कहलायेगा।  राजधानी "सेंटलुई' तुरंत प्रभाव से "हरारे' होगी। नई सदी प्रतीक्षा में है कि कब "इंडिया'की केंचुली उतारकर "भारत' बाहर आयेगा। आवश्यकता है महानायकों के जन्म की बाट जोहने की अपेक्षा भीतर के महानायक को जगाने की। अन्यथा भारतेंदु हरिशचंद्र की पंक्तियॉं - "आवहु मिलकर रोवहुं सब भारत भाई, हा! हा! भारत दुर्दसा न देखन जाई!' क्या सदैव हमारा कटु यथार्थ बनी रहेंगी?
संजय भारद्वाज 
पुने , महाराष्ट्र 
-- हिन्दी सेन्टर नामक ब्लाग से साभार 

5 मार्च 2015

परपीडन में मनोरंजन

                      पर पीडन में मनोरंजन 

     हाल के दिनों में एक लघु फ़िल्म Indaia's daughter की सर्वत्र चर्चा है , जिसे बृटेन की एक महिला 
लेसली उड़विन ने बनाया है ।इस में दिसम्बर २०१२ में दिल्ली में एक मासूम लड़की के बलात्कारी का इन्टरव्यू 
दिखाया गया है । इसे भारत सरकार ने तो प्रतिबन्धित कर दिया है , पर बीबीसी द्वारा दिखाया जा रहा है । हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता को उड़विन ने बताया ( ५ मार्च २०१५ को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ) 
कि यह फ़िल्म न्यूयार्क आदि अमेरिकी शहरों और लन्दन में भी दिखाई जाएगी ।( शायद अब तक यह वहाँ दिखाई 
जा चुकी हो ) विश्व के अन्य देशों में भी यह दिखाई जा सकती है या दिखाई जा रही होगी । भारत सरकार 
की मनाही के बाद भी बीबीसी ने इसे दिखाया । 
        इस से पता चलता है कि विदेशी लोगों , विशेषत: बृटेन के लोगों और बीबीसी को भारत की ग़रीबी , 
अपराध , गन्दगी और अपराधी मनोवृत्ति के लोग ही प्रदर्शन के विषय दिखते हैं और उन्हें परपीडन में ही 
मनोरंजन दिखता है । उड़विन ने हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता को बताया कि खुद उस का भी किसी 
ने बलात्कार किया था । ( यह बात चीत हिन्दुस्तान टाइम्स में छपी है ) तो उस ने अपने बलात्कारी का 
इन्टरव्यू क्यों नही लिया? उस ने भारत को बदनाम करने के लिए एक मासूम भारतीय लड़की के 
बलात्कारी का इन्टरव्यू लेना और प्रचारित करना ज़रूरी समझा । 
          यह भी एक विडम्बना है कि उड़विन ने बलात्कारी से तिहाड़ जेल में जा कर बात की ।  उसे जिन 
अधिकारियों ने ऐसा करने की अनुमति दी उन की ग़लती है । शायद उन्हें यह पता नहीं होगा कि उड़विन 
क्या गुल खिलाएगी । 
              फेस बुक पर इस लघु फ़िल्म के विरोध में अधिक लिखा गया है , पर कुछ लोग इस फ़िल्म को आपत्तिजनक नहीं मानते । फ़िल्म को देखे बिना उस पर टिप्पणियाँ हो रही हैं । आज ( ५ मार्च २०१५ ) को 
मैं ने यूट्यूब पर यह फ़िल्म देखी । यह बलात्कार विरोधी ंफिल्म है , पर एक बलात्कारी ने अपने बचाव में 
जो कहा और उस के वक़ील ने जो कहा , वह पीड़िता लड़की को ही बलात्कार के लिए उत्तरदायी बताने की कोशिश है । इस से बलात्कारी की विकृत मानसिकता का पता चलता है , जिस का सहारा ले कर 
अन्य विकृत मन वाले लोग बलात्कार की ओर जा सकते हैं । इस तरह यह फ़िल्म प्रकारान्तर से बलात्कार 
विरोधी न रह कर उस के औचित्य के तर्क भी तलाशती दिखती है । भविष्य का बलात्कारी अपने बचाव 
के तर्क इस फ़िल्म से सीख सकता है । इस दृष्टि से इस पर प्रतिबन्ध लगाना उचित है ।
          सरकार इस पर प्रतिबन्ध न लगाती तो क्या करती ? वह जनता की उत्तेजित भावना की उपेक्षा 
करने की दोषी बतांई जाती । अब प्रतिबन्ध लगाने पर भी उस की आलोचना हो रही है और अभिव्यक्ति
की आज़ादी की दुहाई दी जा रही है । संसद में अनेक दलों की सदस्याएं  इस बात के लिए हंगामा करती 
हैं कि दो वर्षों  बाद भी सरकार ने बलात्कारियों को दण्ड नहीं दिया । दण्ड तो अदालत देती 
है । फिर संसद में हंगामा क्यों ? 
     इस घटना पर रचना त्रिपाठी के ब्लाग टूटी फूटी में रचना त्रिपाठी जी का एक लेखक छपा , जिस पर 
टिप्पणी करते हुए डी सी श्रीवास्तव मे वाजिब सवाल उठाते हुए लिखा --
 " मीडिया पहले समाजसेवा के लिए समाज का दर्पण हुआ करता था , परन्तु वह आज खुद को बेचने में और दूसरों को बिकने में मदद करने वाली एक संस्था हो गयी है। बीबीसी के इस डॉक्यूमेंट्री को पूरा देखे बिना टिप्पणी करना तो उचित नहीं है कि इसको बनाने के पीछे उनका क्या आशय था, और इस बलात्कार की डॉक्यूमेंट्री के माध्यम से भारत में होने वाले बलात्कार में किस भावना की महत्ता को वो सिद्ध करना चाहते हैं। सबसे गंभीर बात यह है कि तिहाड़ जेल में इस प्रकार के कैदी के इंटरव्यू की आज्ञा कैसे दी गई  जबकि विदेशी फिल्मकारों को जब भारत में शूटिंग करने की अनुमति दी जाती है तब उन्हें खास हिदायत दी जाती है कि शूटिंग में वे इस बात का ध्यान दें कि भारत की इमेज इस फिल्म के माध्यम से गलत ढंग से प्रस्तुत न हो। सबसे बड़ी बात यह कि जिस बलात्कारी का इंटरव्यू लिया गया था, उसका विचार बलात्कार के मामले में पूरे भारत के विचार का प्रतनिधित्व नहीं करता है। 
पश्चिमी मीडिया शुरू से ही भारत के नकारात्मक पक्ष को बढ़ा चढ़ा कर दुनिआ में प्रस्तुत करता  रहा है। जहाँ तक बलात्कार का प्रश्न है U.S., स्वीडन , फ्रांस , कनाडा , UK और जर्मनी , दक्षिण अफ्रीका १० शीर्षस्थ देशों में है जहाँ बलात्कार सर्वाधिक है। अतः बीबीसी को दूसरे के ऊपर कीचड उछलने के पहले अपने घर झांक कर देखना चाहिए। सरकार को ब्रिटिश सरकार तथा बीबीसी के साथ यह मामला दृढ़ता से उठाना चाहिए और भारत में जिन अधिकारिओं ने इसकी अनुमति दी है, इसकी जांच कर उन पर उचित कार्यवाही करनी चाहिए। " ( रचना त्रिपाठी के ब्लाग  टूटी फूटी में प्रकाशित लेख पर ४ मार्च सन २०१५ की टिप्पणी ) 
   मेरी सन्तुलित राय यह कि इस पिल्म पर प्रतिबन्ध उचित है , क्योंकि इस से चाहे बलात्कार बन्द नहीं होंगे  ,पर 
भारत के लोगों की विकृत मानसिकता का ढोल विदेशों मे  पीटा जाएगा , बल्कि पीटा जा रहा है । अभिव्यक्ति 
की आज़ादी का दुरुपयोग करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती । 

-- सुधेश 
३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैक्टर १० 
दिल्ली ११००७५ 

लेबल     मनोरंजन --   बलात्कार - दिल्ली में बलात्कार - बीबीसी की करतूत 







4 मार्च 2015

आत्म चिन्तन


आत्म चिन्तन 

महत्त्वाकांक्षा 

जीवन में महत्त्वाकांक्षा ने मुझे दु:ख दिये पर जब अल्प सन्तोषी बनने की कोशिश की तो दुनिया ने मुझे कायर समझा । पर जीवन संध्या में आकाँक्षाएं मेरा पीछा नहीं छोड़ रहीं । बल्कि नई नई इच्छाएँ पैदा हो रही हैं । क्या यह बुझते दीपक की बढ़ती लौ है?
मैं ने देखा और स्वयम् अनुभव किया कि महत्वाकांक्षी लोग जीवन में अधिक घुटते हैं और अल्प सन्तोषी मज़े में रहते हैं पर उन्हें मिलता कुछ नहीं । दिए की बुझती लौ की बात मैं ने मौत की ओर बढ़ते जीवन के सन्दर्भ में लिखी थी । अपने जीवन का कच्चा चिट्ठा मैं ने अपनी आत्मकथा के तीन भागों में लिखा है , जिस का पहला भाग छप गया है ।

निन्दा 

आप सब की निन्दा करें तो सब को दुश्मन बना लेंगे । आप सब की तारीफ़ करें तो सज्जन तो कहला सकते हैं पर आप विवेक हीन ख़ुशामदी माने जाएँगे । इस लिए बुरे को बुरा कहना और अच्छे को अच्छा कहना ज़्यादा व्यावहारिक है । ख़ुशामद का लाभ तो मिल सकता है पर ख़ुशामदी अच्छा नहीं माना जाता । सब की निन्दा करने वाला किसी को मित्र नहीं बना सकता । मित्रों के बिना जीवन एक रेगिस्तान की तरह है । तो अच्छा यह होगा कि दूसरों की निन्दा न करें या कम से कम करें और किसी आधार पर करें ।  दूसरे की तारीफ़ भी किसी आधार पर 
करें । पर दूसरे की प्रशंसा निन्दा की तुलना मे निरापद है ।


हिन्दी में विविध लेखन की आवश्यकता 

हिन्दी को विविध लेखन द्वारा इतनी समृद्ध कर दें कि अंग़ेज़ी उस के सामने बौनी लगे । पर यह काम दशकों में पूरा होगा । भारतीय वैज्ञानिक और समाजविज्ञानों के विद्वान प्राय: हिन्दी  में नहीं लिखते । उन्हें कैसे समझाया जाए? वे हिन्दी कम जानते हैं या नहीं जानते और यदि जानते भी हैं तो वे अंग़ेज़ी में लिखना पसन्द करते हैं । केवल साहित्य की समृद्धि से कुछ नहीं होगा । पर उत्कृष्ट साहित्य का महत्त्व कम नहीं है । हिन्दी का दुर्भाग्य है कि उस में उत्कृष्ट 
साहित्य भी कम लिखा जा रहा है । 
 जैसे प्राचीन काल मे संस्कृत में अनेक विषयों पर , यहाँ तक कि पशु चिकित्सा पर भी , साहित्य रचा गया , वैसे हिन्दी में आजकल अनेक विषयों पर क्यों नहीं लिखा जा रहा है? विज्ञान , यान्त्रिकी आदि पर जो ग्रन्थ लिखे भी 
गये उन का प्रचार नहीं हुआ , क्योंकि उन्हें कोई पढ़ता नहीं या बहुत कम लोग उन का लाभ लेते हैं । कारण यहीं कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है । 


जन कविता और लोकप्रिय कविता 

जनकविता के प्रति कविता प्रेमियों की चिन्ता उचित है पर लोकप्रिय कविता केवल जनकविता ही नहीं होती स्तरीय , उच्च कविता भी होती है । मंचों पर मिली लोकप्रियता सामयिक होती है । स्थायी और कालातीत लोकप्रियता उस कविता को मिलती है जो कविता के उच्च मानदण्डों पर खरी उतरती है । हर युग में जो कवि कविता का नया रूप और उच्च स्तर सामने रखता है वह कविता विधा को आगे बढ़ाता है । केवल मंचों की वाहवाही कविता के उच्च स्तर का मानदण्ड नहीं है ।
 आजकल संचार माध्यमों के सहारे लोकप्रियता पाने की होड़ लगी हुई है ।  जो कविता संचारमाध्यमों की 
सीढ़ी पर चढ़ कर लोकप्रिय होने का दावा करती है , उस की तथा कथित लोकप्रियता सच्ची लोकप्रियता 
नहीं है । हज़ारों सालों से जो कवि और कलाकार जनता के दिलों में बसे हुए हैं , वे संचार के साधनों के 
अभाव मे कैसे जनता में लोकप्रिय हो गये । 
  तो कहना होगा कि तथा कथित लोकप्रिय कविता अनिवार्यत: जन कविता नहीं है , जैसे लोक साहित्य 
जन साहित्य या जनता का साहित्य होता है । जन कविता लोकप्रिय भी होगी । 
     लोकप्रिय कविता का मतलब सस्ती कविता नहीं है , सस्ती कविता अर्थात घटिया कविता या साहित्य ।
सस्ते साहित्य को घासलेटी साहित्य या लुगदी साहित्य भी कहा गया ।  सस्ते का मतलब कम क़ीमत का नहीं 
बल्कि जिस का साहित्यिक मूल्य या गुण कम हो । 
         तो लोकप्रिय कविता , जन कविता , सस्ती कविता  शब्दों का एक ही अर्थ नहीं है। उन के मर्म को समझ कर उन में भेद करने की आवश्यकता है । 




आत्म कथा लेखन 

महा पुरुषों की जीवनी अन्य लोग लिखते हैं .जिन की जीवनी कोई नहीं लिखता वे स्वयं आत्म कथा लिखते हैं जिस में वे स्वयं को महान बना देते हैं । तो क्या आत्म कथा में झूट का सहारा लिया जाता है .पर सत्य के प्रयोग के व्रती महात्मा गांधी.जवाहर लाल नेहरु ,डॉ राजेन्द्र प्रसाद आदि महापुरुषों ने अपनी आत्म कथाओं में जो लिखा क्या वह झूठ है ? गांधी जी की जीवनी फ्रेंच लेखक रोमां रोलां ने फ्रेंच में लिखी थी । गांधी जी पर कितनी कवितायें ,खंड काव्य ,महा काव्य आदि लिखे गए .फिर भी उन्हों ने आत्म कथा क्यों लिखी ? मेरा विचार है कि लेखक की हर रचना सीमित अर्थ में उस की लघु आत्म कथा है । फिर आत्म कथा लिखने से इतना परहेज़ क्यों ?.यह भी साहित्य की एक विधा है जिस में बहुत सारा साहित्य लिखा गया है ,पर इस के लिए ईमानदारी , ,तटस्थता ,और साहस की ज़रूरत है ।


मिथक की उपयोगिता 

राम  एक मिथक या अन्ध विश्वास हो सकते हैं पर वे अरबों ख़रबों के दिलों में बसे हुए हैं । समाज की मानसिक रचना में मिथकों की भी भूमिका है । मिथकों का आधार कभी इतिहास होता है , कभी धर्म और कभी कोई सशक्त रचना , पर उन्हें जीवन से ख़ारिज नहीं किया जा सकता । वाल्मीकि ने राम के मिथक को महाकाव्य बना दिया , जिस के आधार पर न जाने कितनी रचनाएँ लिखी गईं । महाभारत महाकाव्य ने कृष्ण के मिथक को फैलाया , जिस के आधार पर न जाने कितने काव्य , उपन्यास आदि लिखें गये । तो राम और कृष्ण गल्प होते हुए भी हिन्दू मानसिकता के अंग हैं । यह भी विचारणीय है ।
--- सुधेश 
३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैैक्टर १० नई दिल्ली ११००७५ 
फ़ोन ०९३५०९७४१२० 









         


                                      
                                        

22 फ़रवरी 2015

भाषा का आधार और हिन्दी भाषा का आधार



भाषा का आधार एवं हिंदी
भाषा का आधार एवं हिन्दी

किसी भी विकसित भाषा के अनेक रूप और व्यवहार क्षेत्र होते हैं। यथा – (1) साहित्यिक भाषा (2) वैज्ञानिक भाषा (3) तकनीकी भाषा (4) व्यावसायिक भाषा (5) वाणिज्यिक भाषा (6) प्रशासनिक भाषा आदि आदि। प्रत्येक की अलग अलग प्रयुक्तियाँ एवं शैलियाँ होती हैं। मगर समस्त रूपों का आधार उस भाषा का जनभाषा रूप ही होता है। किसी भी भाषा के विभिन्न रूपों का अपनी आधारभूत जनभाषा से अलगाव कम से कम होना चाहिए। जनभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा। बोलचाल की भाषा के भी बहुविध रूप होते हैं। इनमें से भाषा-क्षेत्र के पढ़े लिखे लोगों के द्वारा जो भाषा बोली जाती है उसके आधार पर मानक भाषा का रूप निर्धारित होता है। यह मानक भाषा रूप भी एक बार निर्धारित होने के बाद स्थिर होकर नहीं रह जाता। इसका कारण यह है कि बोलचाल की सहज, रवानीदार एवं प्रवाहशील भाषा पाषाण खंडों में ठहरे हुए गंदले पानी की तरह नहीं होती। पाषाण खंडों के ऊपर से बहती हुई अजस्र धारा की तरह होती है। नदी की प्रकृति गतिमान होना है। भाषा की प्रकृति प्रवाहशील होना है। भाषा की इकाइयों में से सबसे ज्यादा बदलाव उसकी शब्दावली में होता है। मैंने अपने एक लेख में प्रतिपादित किया था कि भाषा नदी की धारा की तरह होती है। इस पर कुछ विद्वानों ने सवाल उठाया कि क्या नदी की धारा को अनियंत्रित, अमर्यादित एवं बेलगाम हो जाने दें। मेरा उत्तर है - नदी की धारा अपने तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा अपने व्याकरण की व्यवस्था एवं संरचना के तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा में बदलाव एवं ठहराव दोनों साथ साथ रहते हैं। ‘शब्दावली’ अपेक्षाकृत अधिक गतिशील एवं परिवर्तनशील है। व्याकरण भाषा को ठहराव प्रदान करता है। ऐसा नहीं है कि ‘व्याकरण’ कभी बदलता नहीं है। बदलता है मगर बदलाव की रफ़तार बहुत धीमी होती है। ‘शब्द’ आते जाते रहते हैं। हम विदेशी अथवा अन्य भाषा से शब्द तो आसानी से ले लेते हैं मगर उनको अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल लेते हैं। ‘शब्द’ को अपनी भाषा के व्याकरण की पद रचना के अनुरूप विभक्ति एवं परसर्ग लगाकर अपना बना लेते हैं। हम यह नहीं कहते कि मैंने चार ‘फिल्म्स’ देखीं; हम कहते हैं कि मैंने चार फिल्में देखीं।

एक काल की भाषा पर दूसरे काल की भाषा के नियमों को नहीं थोपा जा सकता। किसी भी भाषा के व्याकरण के नियमों को किसी भी अन्य भाषा पर थोपना गलत है।भाषाविज्ञान का यह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक नियम है। मैंने एक लेख में यह प्रतिपादित किया कि संस्कृत और हिंदी की शब्दावली में ही नहीं अपितु उनकी भाषिक व्यवस्थाओं एवं संरचनाओं में भी अंतर विद्यमान हैं। मैंने अपना मत व्यक्त किया कि जो शब्द लोक में प्रचलित हो गए हैं, उनके लिए मैं संस्कृत की शब्द रचना का सहारा लेकर नए शब्द गढ़ने के खिलाफ हूँ। मेरा भाषाविज्ञान का ज्ञान तथा लोक-व्यवहार का विवेक मुझे ऐसा करने वालों का समर्थन करने से रोकता है। इस पर कुछ विद्वानों ने ऐसा टिप्पण किया जैसे मैं संस्कृत के खिलाफ हूँ अथवा संस्कृत की महान व्याकरणिक परम्परा से अनजान हूँ। मैं मानता हूँ कि भारतीय भाषाविज्ञान की परम्परा बड़ी समृद्ध है और उसमें न केवल वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के भाषाविद् समाहित हैं अपितु प्राकृतों एवं अपभ्रंशों के भाषाविद् भी समाहित हैं। पाणिनी ने अपने काल के पूर्व के 10 आचार्यों का उल्लेख किया है। उन आचार्यों ने वेदों के काल की छान्दस् भाषा पर कार्य किया था। मगर पाणिनी ने वैदिक काल की छान्दस भाषा को आधार बनाकर अष्टाध्यायी की रचना नहीं की। उन्होंने अपने काल की जन-सामान्य भाषा संस्कृत को आधार बनाकर व्याकरण के नियमों का निर्धारण किया। वाल्मीकीय रामायण में इस भाषा के लिए ‘मानुषी´ विशेषण का प्रयोग हुआ है। पाणिनी के समय संस्कृत का व्यवहार एवं प्रयोग बहुत बड़े भूभाग में होता था। उसके अनेक क्षेत्रीय भेद-प्रभेदों की भाषिक सामग्री तो अब उपलब्ध नहीं है मगर उनकी होने के संकेत मिलते हैं। पाणिनी के समय में लौकिक संस्कृत का नहीं अपितु वैदिक भाषा का आदर होता था। उसे सम्माननीय माना जाता था। मगर यह ध्यातव्य है कि पाणिनी ने अपने व्याकरण के नियमों का निर्धारण करने के लिए वैदिक भाषा को आधार नहीं बनाया। पाणिनी ने उदीच्य भाग के गुरुकुलों में उनके समय में बोली जाने वाली लैकिक संस्कृत को प्रमाण मानकर अपने ग्रंथ में संस्कृत व्याकरण के नियमों का निर्धारण किया। पाणिनी के बाद महर्षि पतंजलि ने भी भाषा प्रयोग के मामले में भाषा के वैयाकरण से अधिक महत्व सामान्य गाड़ीवान (सारथी) को दिया। महाभाष्यकार पतंजलि के ´पतंजलिमहाभाष्य' का वैयाकरण तथा रथ चलानेवाले के बीच का संवाद प्रसिद्ध है जिसमें उन्होंने भाषा के प्रयोक्ता का महत्व प्रतिपादित किया है। प्रयोक्ता व्याकरणिक नियमों का भले ही जानकार नहीं होता किन्तु वह अपनी भाषा का प्रयोग करता है। व्याकरणिक नियमों के निर्धारण करने वाले से अधिक महत्व भाषा का प्रयोग करनेवाले का है।

इसी प्रसंग में, मेरा विनम्र निवेदन है कि हिन्दी का आधार हिन्दी क्षेत्र के पढ़े लिखे लोगों के द्वारा बोली जाने वाली भाषा को माना जाना चाहिए। उसके आधार पर ही हिन्दी की शब्दावली, शब्दकोश, व्याकरण आदि का निर्माण होना चाहिए। हिन्दी के 40 या 50 साल पुराने परम्परागत शब्दकोशों और व्याकरण ग्रंथों को आज की हिन्दी का पैमाना नहीं माना जा सकता। परम्परागत शब्दकोशों और व्याकरण ग्रंथों में जिसको आदर्श माना गया है वह 50 साल पुरानी हिन्दी है। हिन्दी के समाचार पत्रों, टी. वी. के हिन्दी चैनलों तथा हिन्दी की फिल्मों में उस भाषा का प्रयोग हो रहा है जिसे हमारी संतति बोल रही है। भविष्य की हिन्दी का स्वरूप हमारे प्रपौत्र एवं प्रपौत्रियों की पीढ़ी के द्वारा बोली जानेवाली हिन्दी के द्वारा निर्धारित होगा जिसके आधार पर उस काल के शब्दकोशकार एवं वैयाकरण हिन्दी के शब्दकोशों तथा व्याकरण-ग्रंथों का निर्माण करेंगे।

एक बात और जोड़ना चाहता हूँ।ऐतिहासिक भाषाविज्ञान एवं एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान की दृष्टियाँ समान नहीं होती। उनमें अन्तर होता है। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो यह पता लगाने की कोशिश की जाती है कि भाषा के शब्द का स्रोत कौन सी भाषा है। शब्द प्रयोग के संदर्भ में जब एककालिक अथवा संकालिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाता है तो भाषा का प्रयोक्ता जिन शब्दों का व्यवहार करता है, वे समस्त शब्द उसकी भाषा के होते हैं। उस धरातल पर कोई शब्द स्वदेशी अथवा विदेशी नहीं होता। प्रत्येक जीवन्त भाषा में अनेक स्रोतों से शब्द आते रहते हैं और उस भाषा के अंग बनते रहते हैं।भाषा में शुद्ध एवं अशुद्ध का, मानक एवं अमानक का, सुसंस्कृत एवं अपशब्द का तथा आजकल भाषा के मानकीकरण एवं आधुनिकीकरण के बीच वाद-वाद होता रहा है और होता रहेगा। भारत में ऐसे विद्वानों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है जो केवल मानक भाषा की अवधारणा से परिचित हैं। जो भाषाएँ इन्टरनेट पर अधिक विकसित एवं उन्नत हो गई हैं, उन भाषाओं के भाषाविद् मानकीकरण की अपेक्षा आधुनिकीकरण को अधिक महत्व देते हैं। सन् 1990 तक हमने भी हिन्दी भाषा के मानकीकरण पर अधिक बल दिया। हमारे डी. लिट्. की उपाधि के लिए प्रस्तुत एवं स्वीकृत शोध-प्रबंध का विषय ही मानक हिन्दी पर है। मगर सन् 1990 के बाद से हमने हिन्दी के आधुनिकीकरण पर अधिक बल देना शुरु कर दिया है।

परम्परा से चिपके रहने वालों की नजर में कुछ शब्द सुसंस्कृत होते हैं एवं कुछ अपशब्द होते हैं। भाषा की प्रकृति बदलना है। भाषा बदलती है। परम्परावादियों को बदली भाषा भ्रष्ट लगती है। मगर उनके लगने से भाषा अपने प्रवाह को, अपनी गति को, अपनी चाल को रोकती नहीं है। बहती रहती है। बहना उसकी प्रकृति है। इसी कारण कबीर ने कहा था - 'भाखा बहता नीर´।भाषा का अन्तिम निर्णायक उसका प्रयोक्ता होता है। प्रत्येक काल का व्याकरणिक संकालिक भाषा के व्याकरण के पुनः नए नियम बनाता है। व्याकरण के नियमों में भाषा को बाँधने की कोशिश करता है। भाषा गतिमान है। पुनः पुनः नया रूप धारण करती रहती है।

हमें आज की शिक्षित पीढ़ी जिन शब्दों का प्रयोग बोलचाल में करती है, उनको अपना लेना चाहिए। यदि वे शब्द अंग्रेजी से हमारी भाषाओं में आ गए हैं, हमारी भाषाओं के अंग बन गए हैं तो उन्हें भी अपना लेना चाहिए।मैं हिन्दी के विद्वानों को बता दूँ कि प्रेमचन्द जैसे महान रचनाकार ने भी प्रसंगानुरूप किसी भी शब्द का प्रयोग करने से परहेज़ नहीं किया। उनकी रचनाओं में अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। उनके लेखन में अंग्रेजी के ये शब्द ऊधारी के नहीं हैं; जनजीवन में प्रयुक्त शब्द भंडार के आधारभूत, अनिवार्य, अवैकल्पिक एवं अपरिहार्य अंग हैं। फिल्मों, रेडियो, टेलिविजन, दैनिक समाचार पत्रों में जिस हिन्दी का प्रयोग हो रहा है वह जनप्रचलित भाषा है। जनसंचार की भाषा है। समय समय पर बदलती भी रही है। इस भाषा में सोच एवं सामर्थ्य शब्द पुल्लिंग में नहीं अपितु स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होते हैं। यह मैंने इस कारण स्पष्ट किया कि मैंने अपने लेखों में इन शब्दों का प्रयोग स्त्रीलिंग में किया था। मगर मेरे जो लेख जनसत्ता में प्रकाशित हुए हैं, उनमें पत्र के सम्पादक महोदय ने उनको पुल्लिंग मानकर मेरी वाक्य रचना बदल दी है। यह स्पष्टीकरण इस कारण जरूरी है ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आए।

अंत में, मैं यह दोहराना चाहता हूँ कि आज की हिन्दी को नए शब्दकोशों तथा नए व्याकरण-ग्रंथों की आवश्यकता असंदिग्ध है। कोशों में तथा व्याकरणों में तो "पत्थर" संज्ञा शब्द है। मगर आज इसका प्रयोग संज्ञा के अतिरिक्त विशेषण, क्रिया तथा क्रिया विशेषण के रूप में भी होता है। क्या प्रयोक्ता को यह आदेश दिया जाए कि "पत्थर" का केवल संज्ञा के रूप में ही प्रयोग करो। क्या जनभाषा से निम्न प्रयोग करना निषिद्ध, अमान्य एवं अवैध माना जाए – 1.पत्थर दिल नहीं पसीजते। 2. वह पथरा गया है। 3. तुम मेरा काम क्या पत्थर करोगे। यदि उपर्युक्त प्रयोग ठीक हैं तो व्याकरण एवं कोश भी तदनुरूप बनाने होंगे।
Professor Mahavir Saran Jain                                  
( Retired Director, Central Institute Of Hindi )
Address: 
India:  Address:   Sushila Kunj, 123, Hari Enclave, Chandpur Road, Buland Shahr-203001, India.          
                       ( रचनाकार से साभार । २६ सितम्बर २०१४ को प्रकाशित ) 


8 जनवरी 2015

संस्कृत अब भी बोली जाती है



     पिछले कुछ दिनों से संस्कृत के विरोध में कुछ देशी और विदेशी स्वर सुनाई दे रहे 
हैं । केन्द्रीय विद्यालयों में जर्मन के स्थान पर संस्कृत को तृतीय भारतीय भाषा के रूप पढ़ाये जाने 
की व्यवस्था की गई है , जिस को लेकर अनेक लोगों ने फेसबुक पर नकारात्मक टिप्पणियाँ 
की हैं । संस्कत को मृत भाषा बताया जा रहा है , जब कि देश के कुछ स्थानों पर वह अब 
भी बोली जा रही है और अनेक संस्कृत प्रेमी उस में साहित्य लिख रहे हैं और अनेक स्थानों 
से संस्कृत में पत्रिकाएँ प्रकाशित  हो रही हैं ।
    फेसबुक पर ही यह रोचक समाचार पढनें को मिला , जिसे मैं पाठकों के अवलोकनार्थ 
नीचे प्रस्तुत कर रहा हूँ । 
-- सुधेश 

संस्कृत अब भी बोली जाती है 

लगभग 2000 की जनसंख्या और 250 परिवारों वाले
मुत्तुरू गाँव कर्नाटक के शिमोगा शहर से 10
किमी.दुर है । तुंग नदी के किनारे बसे इस गाँव मे
लोगो की आपसी बोलचाल की भाषा संस्कृत है ।
सिर्फ एक दुसरे का हालचाल जानने के लिए
ही नही बल्कि फोन पर बात करने,दुकान से सामान
खरीदने के समय भी संस्कृत मे ही वार्तालाप
देखने को मिलता है । यहाँ अब कोई
नही पुछता कि संस्कृत सीखने से उन्हे
क्या फायदा होगा ? इससे
नौकरी मिलेगी या नही ?
संस्कृत अपनी भाषा है और इसे हमे सीखना है,बसंत
यही भाव लोगो के मन मे है । वैसे इस गाँव मे
संस्कृत प्राचीन काल से ही बोली जाती है लेकिन
आधुनिक समय की आवश्यकताओ के अनुरूप इसे
संवारा है संस्कृत भारती ने ।
यहाँ बच्चे, बूढ़े, युवा और महिलाएं- सभी बहुत
ही सहजता से संस्कृत मे बात करते है । यहाँ तक
कि क्रिकेट खेलते हुए और आपस में झगड़ते हुए
भी बच्चे संस्कृत में ही बात करते हैं। गाँव के
सभी घरों की दीवारों पर लिखे हुए बोध वाक्य
संस्कृत में ही हैं।
इस गाँव में बच्चों की प्रारंभिक
शिक्षा संस्कृत में होती है। बच्चों को छोटे-
छोटे गीत संस्कृत में सिखाये जाते हैं।
चंदा मामा जैसी छोटी-
छोटी कहानियाँ भी संस्कृत
में ही सुनाई जाती हैं। बात सिर्फ छोटे
बच्चों की ही नहीं है, गाँव के उच्च
शिक्षा प्राप्त युवक प्रदेश के बड़े
शिक्षा संस्थानों व विश्वविद्यालयों में
संस्कृत पढ़ा रहे हैं और कुछ साफ्टवेयर
इंजीनियर के रूप में बड़ी कंपनियों में काम कर
रहे हैं। इस ग्राम के 150 से अधिक युवक व
युवतियाँ “आईटी इंजीनियर” हैं और बाहर काम करते
हैं। विदेशों से भी अनेक व्यक्ति यहाँ संस्कृत
सीखने आते हैं।
संस्कृत भारती की शाखा यहाँ विगत 25 वर्षों से
संस्कृत सिखा रही है। यहाँ पहला दस दिवसीय
संस्कृत संभाषण वर्ग 1982 में लगा था। इस वर्ग
में ग्राम के अधिसंख्य लोगों ने भाग लिया था।
उसके बाद तो जन-जन के ह्रदय में संस्कृत ऐसे
घर करती चली गयी कि उनके घरों में
छोटा बच्चा पहले शब्द का उच्चारण संस्कृत में
ही करता है ।

---अविनाश सिंह के सौजन्य से ।
(फेसबुक में प्रकाशित )