15 जुलाई 2015

दशरथ माँझी एक मिसाल



अभी हाल में ध्रुव गुप्त की टिप्पणी ( फेसबुक में १४ जुलाई सन २०१५  को प्रकाशित ) से पता चला 
कि पहाड़ काट कर कई मील लम्बी सड़क अकेले बनाने वाले दशरथ माँझी पर किसी 
फ़िल्म निर्माता ने फ़िल्म बनाई है , जो प्रदर्शित होने वाली है । यह भी पता चला कि 
निलय उपाध्याय ने उन पर एक ंउपन्यास लिख कर छपवाया है । मैं ने सन २०१३ में 
फेसबुक पर एक रंगकर्मी का लेख लगाया था , जो इस अद्भुत व्यक्ति के जीवन संघर्ष 
को दर्शाता है । उसे फिर आप के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है ।

     --- सुधेश 


दशरथ मांझी , एक मिसाल

बिहार के गया जिले के एक अति पिछड़े गांव गहलौर में रहने वाले दशरथ मांझी । उनकी पत्नी को पानी लाने के लिये रोज गहलौर पहाड़ पार करना पड़ता था। तीन किलोमीटर की यह यात्रा काफी दुखदायी है। एक सुबह उनकी पत्नी पानी के लिये घर से निकलीं। वापसी में उसके सिर पर घड़ा न देखकर मांझी ने पूछा कि घड़ा कहाँ है? पूछने पर बताया कि पहाड़ पार करते समय पैर फिसल गया। चोट तो आई ही,पानी भरा मटका भी गिर कर टूट गया। बस उसी दिन दशरथ ने पहाड़ का मानमर्दन करने का संकल्प कर लिया। यह बात 1960 की है। दशरथ अकेले ही पहाड़ कटाकर रास्ता बनाने में लग गये। हाथ में छेनी-हथौड़ी लिये वे बाइस साल पहाड़ काटते रहे। रात-दिन,आंधी पानी की चिंन्ता किये बिना मांझी नामुमकिन को मुमकिन करने में जुटे रहे। अंतत: पहाड़ को झुकना ही पड़ा। गहलौर पर्वत का मानमर्दन हो गया। अपने गांव से अमेठी तक 27 फुट ऊंचाई में पहाड़ काटकर 365 फीट लंबा और 30 फीट चौडा़ रास्ता बना दिया। पहाड़ काटकर रास्ता बनाए जाने से करीब 80 किलोमीटर लंबा रास्ता लगभग 3 किलोमीटर में सिमट गया। इस अजूबे का बाद दुनिया उन्हें ‘माउन्टेन कटर’ के नाम से पुकारने लगी। सड़क तो बन गई लेकिन इस काम को पूरा होने के पहले उनकी पत्नी का देहांत हो गया। मांझी अपनी पत्नी को इस सड़क पर चलते हुये देख नहीं पाये। अस्सी वर्षीय मांझी तमाम अनकहे दुखों के साथ अपनी विधवा बेटी लौंगा व विकलांग बेटे भगीरथ के साथ रहते हैं।दुख है कि उनको घेरे रहता है,लेकिन वे जूझते रहते हैं। उनका दर्शन है कि आम आदमी को वो सब बुनियादी हक मिलें , जिनका वह हकदार है। जुनूनी इतने हैं कि सड़क निर्माण के बाद वे गया से पैदल राष्ट्रपति से मिलने दिल्ली पहुंच गये। लेकिन राष्ट्रपति से उनकी भेंट नहीं हो सकी। इस बात का उन्हें मलाल हमेशा रहा। मांझी की जद्दोजहद कभी  खत्म नहीं हुई । वे अपनी बनायी सड़क को पक्का करवाना चाहते थे। गाँव में सरकार से मिली पांच एकड़ जमीन पर वे एक बड़ा अस्पताल बनवाना चाहते थे । इसके लिये वे पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव से भी मिले। आश्वासन भी मिला,लेकिन कुछ हुआ नहीं।  मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी जनता दरबार में मिले। मांझी को देखकर नीतीश कुमार इतना प्रभावित हुये कि उन्होंने मांझी को अपनी ही कुर्सी पर बैठा दिया। आश्वासन और आदेश भी दिये ,सड़क को पक्का कराने के।   वे पर्यावरण के प्रति भी काफी सजग हैं। आसपास के लोगों के लिये अब वे दशरथ मांजी नहीं अब दशरथ बाबा हो गये हैं। दशरथ मांझी ने जो काम किया उसकी कीमत सरकारी अनुसार करीब 20 - 22 लाख होती है। अगर यह काम कोई ठेकेदार करता तो कुछ महीनों में डायनामाइट वगैरह लगा के कर देता। लेकिन दशरथ मांझी अकेले जुटे रहे तथा बाईस साल में काम खत्म करके ही दम लिया। उनके हौसले को सलाम करते हुये यह लगता है कि ये कैसा समाज है जो एक अकेले आदमी को पहाड़ से जूझते देखता रहता है और उसे पागल ,खब्ती,सिरफिरा कहते हुये प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हतोत्साहित करता है। असफल होने पर पागलपन को पुख्‍़ता मानकर ठिठोली करता है तथा सफल हो जाने पर माला पहनाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। इसके पीछे दशरथ मांझी के छोटी जाति का होना,नेतृत्व क्षमता का अभाव आदि कारण रहे होंगे लेकिन लोगों की निरपेक्ष भाव से टकटकी लगाकर दूर से तमाशा देखने की प्रवृत्ति सबसे बड़ा कारक है इस उदासीनता का।जीवन के हर क्षेत्र में सामूहिकता की भावना का अभाव हमारे समाज का बहुत निराशा जनक पहलू है।
सिर्फ  छेनी और हथोडी और बहुत सारे आत्मबल के सहारे बिहार के दशरथ मांझी नाम के एक बहुत ही  गरीब आदमी ने एक पहाड़ का सीना चीर कर सड़क का निर्माण किया . उसने पहाड़ी के घूम कर जाने वाले 80 किलोमीटर  वाले रास्ते  को  3 किलोमीटर में  बदल दिया . 22 साल की लगातार मेहनत से उसने ये काम कर दिखाया . 22 साल  बाद उस आदमी का सपना पूरा हुआ जब उसने उस पहाड़ी की छाती चीर के रास्ता बना डाला .एकदम निपट  अकेले .बिना किसी सहायता के .बिना किसी प्रोत्साहन के .और बिना किसी प्रलोभन के .वो आदमी पूरे 22 साल लगा रहा. न दिन देखा न रात. न धूप देखी, न छाँव. न सर्दी न बरसात. वहां न कोई पीठ ठोकने वाला था, न शाबाशी देने वाला. उलटे गाँव वाले मज़ाक उड़ाते थे. परिवार के लोग हतोत्साहित करते थे. 22 साल तक वो आदमी अपना काम धाम छोड़ के लगा रहा. वो  आदमी अकेला लगा रहा . उस सुनसान बियाबान में. गर्मियों में वहाँ का तापमान 50 डिग्री तक पहुँच जाता है. खैर 22 साल बाद, जब वो सड़क या यूँ कहें रास्ता बन कर तैयार हो गया तो उस इलाके के गाँव वालों को अहसास हुआ अरे ........ये क्या हुआ ......गहलौर से वजीरगंज की दूरी जो पहले 60 किलोमीटर होती थी अब सिर्फ 10 किलोमीटर रह गयी  है. बच्चों का स्कूल जो 10 किलोमीटर दूर था अब सिर्फ 3 किलोमीटर रह गया है. पहले अस्पताल पहुँचने में सारा दिन लग जाता था, अब लोग सिर्फ आधे घंटे में पहुँच जाते हैं. आज उस रास्ते को उस इलाके के 60 गाँव इस्तेमाल करते हैं. धीरे धीरे लोगों को दशरथ मांझी की इस उपलब्धि का अहसास हुआ, बात बाहर निकली, पत्रकारों तक पहुंची  पत्र - पत्रिकाओं  में छपने लगा तो सरकार तक भी खबर पहुंची. सुशासन की तुरही बजी. मुख्यमंत्री नितीश कुमार  ने कहा सम्मान करेंगे . जो सड़क काट के बनायी है उसे PWD से पक्का करवाएंगे जिससे की  ट्रक बस आ सके. गहलौर से वजीर गंज तक पक्की सड़क बनवायेंगे. बिहार सरकार का सबसे बड़ा पुरस्कार दिया. भारत सरकार को पद्मभूषण देने के लिए नाम प्रस्तावित किया . आगे क्या हुआ ? खुद देखिये. पहला - वन विभाग बोला की दशरथ मांझी ने गैर कानूनी काम किया है. हमारी ज़मीन को हमसे पूछे बिना कैसे खोद दिया. इसलिए उसपे पक्की सड़क नहीं बन सकती. वन विभाग ने कोर्ट से stay ले लिया है .दशरथ मांझी देहांत हो गया पर वो रास्ता आज भी वैसा ही है जैसा वो छोड़ कर मरे थे. गाँव वाले किसी तरह वहां से साइकिल ,मोटर साइकिल वगैरह निकाल लेते हैं.  दूसरा - वजीर गंग से गहलौर वाली सड़क अभी तक अटकी हुई है क्योंकि वन विभाग की ज़मीन पर PWD कैसे सड़क बना देगी . तीसरा - भारत सरकार के बड़े बाबुओं ने पद्म भूषण ठुकरा दिया. ये कह  के की पहले जांच कराओ की क्या वाकई  एक आदमी ने ही अकेले इतना बड़ा पहाड़ खोद दिया. कैसे खोद सकता है . ज़रूर अन्य लोगों ने मदद की होगी . साबित करो की अकेले ही खोदा है .

इस पूरी कहानी का सबसे दर्दनाक पहलू ये रहा की 22 साल की इस लम्बी घनघोर तपस्या में सिर्फ एक आदमी जो दशरथ मांझी के साथ खड़ा रहा उनकी पत्नी फागुनी देवी वो उस दिन को देखने के लिए जिंदा नहीं रही जब वो सपना पूरा  हुआ . रास्ता बन कर तैयार होने से लगभग दो साल पहले वो बीमार हुई और सारा दिन लग गया उन्हें अस्पताल पहुंचाने में और रास्ते में ही उनकी मौत हो गयी.

पहाड़ का सीना चीर कर रास्ता बनाने वाले दशरथ मांझी के परिवार एवं उनके गांव गहलौर की तस्वीर सरकार के लाख आश्वासनों-दावों के बावजूद आज भी वैसी है, जैसी तब थी, जब माउंटेन मैन ने अंतिम सांस ली. महादलितों की हमदर्द इस सरकार में कुछ नहीं बदला. न तो गांव की तस्वीर और न ही दशरथ मांझी के परिवार की क़िस्मत. सरकारी आश्वासन, घोषणा और वादे सब कुछ इस महादलित बस्ती के लिए खोखले साबित हुए हैं. माउंटेन मैन दशरथ मांझी के विकलांग पुत्र भगीरथ मांझी एवं विकलांग पुत्रवधू बसंती देवी आम महादलित परिवारों की तरह का़फी कठिनाई में छोटे से परिवार के साथ किसी तरह जीवनयापन के लिए मजबूर हैं.  इस गांव में आने पर नहीं लगता है कि ह वही गांव है, जहां ’ज़दूर मंगरू मांझी एवं पतिया देवी की संतान दशरथ मांझी ने पहाड़ का सीना चीरकर इतिहास रच दिया.

मेरे जीवन का मकसद  है ‘आम आदमी को वे सभी सुविधायें दिलाना, जिसका वह हकदार है।
बिहार के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित अन्य दलित और महादलित बस्तियों की तरह है, गया ज़िले के मोहड़ा प्रखंड के गहलौर गांव का महादलित टोला दशरथ नगर. सुविधाओं के नाम पर दशरथ मांझी के निधन के बाद हां एक चापाकल लगा और एक छोटे से सामुदायिक भवन का निर्माण शुरू किया गया, जिसमें सामुदायिक भवन आज भी अधूरा पड़ा है. सरकारीकर्मियों की लूटखसोट और लापरवाही का नमूना है यह गांव. नरेगा में गड़बड़ी, बीपीएल सूची अनाज वितरण में अनियमितता, प्राथमिक विद्यालय में सप्ताह में सिर्फ  दो-तीन दिन ही शिक्षकों का आना, आंगनबाड़ी केंद्र का न होना आदि शिकायतें पूर्व की तरह ही विद्यमान हैं.
इसी माहौल में जी रहे हैं दशरथ मांझी के विकलांग पुत्र एवं पुत्रवधू अपनी एकमात्र संतान लक्ष्मी कुमारी के साथ. आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली लक्ष्मी ही उनके जीवन का एकमात्र सहारा है. वह मेहनत-मज़दूरी कर कमाती है, तो उसके विकलांग मां-बाप को रोटी नसीब होती है. सरकारी योजनाओं के अनुसार भगीरथ मांझी को दशरथ मांझी के जीवित रहने के समय से ही विकलांग होने के कारण सामाजिक सुरक्षा पेंशन मिल रही है, लेकिन उनकी विकलांग पत्नी बसंती देवी को तमाम प्रयासों के बावजूद आज तक पेंशन नहीं मिल सकी. किसी तरह इंदिरा आवास मिला, जो उनके रहने का सहारा है. दशरथ मांझी के घर के बगल में स्थित प्राथमिक विद्यालय में भगीरथ मांझी एवं उनकी पत्नी बच्चों के लिए खिचड़ी बनाने का काम कर लेते हैं, जिससे प्रतिदिन दोनों को पचास रुपये मिल जाते हैं. बसंती देवी बताती हैं कि सप्ताह में तीन दिन ही मास्टर जी आते हैं, जिसके कारण तीन दिन ही खाना बन पाता है. भगीरथ मांझी बताते हैं कि सभी सरकारी घोषणाएं हवा-हवाई हो गईं. विकलांग होने के कारण वे लोग बहुत अधिक दौड़धूप नहीं कर पाते हैं. जब कभी भी सरकारी अधिकारियों से मुलाक़ात होती है, तो वह बाबा दशरथ मांझी के अधूरे सपने को पूरा करने के सरकार के वादे के बारे में पूछते ज़रूर हैं, लेकिन उन्हें सही जवाब नहीं मिल पाता. वैसे भी सुदूर पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण कभीकभार ही सरकारी कर्मचारियों का वहां आना-जाना होता है. नतीजतन, इस गांव के खुफिया और जन वितरण प्रणाली दुकानदार मनमानी कर महादलित परिवारों के इन ग़रीबों का शोषण करने से नहीं चूकते हैं. इसी गांव में रहता है दशरथ मांझी की विधवा पुत्री लौंगी देवी का परिवार. दशरथ मांझी के घरवालों के मतदाता पहचान पत्र आज तक नहीं बन पाए हैं. जबकि प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा समिति की सचिव बसंती देवी ही हैं. वह बताती हैं कि इस विद्यालय में डेढ़ सौ बच्चों को पढ़ाने वाले एकमात्र शिक्षक स्थानीय गहलौर के मुरली मनोहर पांडेय हैं. उन्हें 2006 से अब तक शिक्षा समिति के खाते से दो लाख से अधिक रुपये निकालकर दे चुकी हूं, लेकिन आज तक विद्यालय में विकास का कोई काम नहीं हुआ और न ही शिक्षक ने कोई  हिसाब-किताब शिक्षा समिति को दिया है. वह बताती हैं कि दशरथ मांझी की पुत्री लौंगी देवी को अब तक इंदिरा आवास का दस हज़ार रुपया नहीं मिला है. इस गांव के अन्य महादलित परिवार बताते हैं कि जन वितरण प्रणाली का दुकानदार गहलौर गांव के एक संपन्न परिवार के दरवाजे पर दो-तीन महीने में एक महीने का अनाज बांटने आता है और तीन-चार महीने के कूपन ले लेता है. कुल मिलाकर दशरथ मांझी के परिवार और उनके महादलित टोले के लोग आज भी बदहाल हैं और का़फी मशक़्क़त से जीवन जी रहे हैं.

अब बात दशरथ मांझी के सपनों की. उनका सपना था कि जिस पहाड़ी को तोड़कर उन्होंने वजीरगंज और अतरी प्रखंड की दूरी अस्सी किलोमीटर से घटाकर चौदह किलोमीटर कर दी, उस रास्ते का सरकार पक्कीकरण कर दे. गांव में चिकित्सा सुविधा के लिए अस्पताल और एक अच्छे विद्यालय की व्यवस्था हो. साथ ही  आरोपुर गांव में यातायात की सुविधा के लिए मुंगरा नदी पर पुल बनाया जाए. अपने इन्हीं सपनों को पूरा करने के लिए दशरथ मांझी अनेक जनप्रतिनिधियों से गुहार लगाते हुए मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार के यहां पहुंचे थे, जहां मुख्‍यमंत्री ने अपनी कुर्सी पर बैठाकर इस महान पुरुष को सम्मान दिया था. आज दशरथ मांझी को ग़ुजरे कई  वर्ष  हो गए, पर अभी तक कोई मुक़म्मल कार्य नहीं हुआ. अभी गहलौर घाटी से कुछ दूरी पर रइदी मांझी, सुकर दास, विश्वंभर मांझी द्वारा दी गई भूमि पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के निर्यण के लिए काम शुरू किया गया है, लेकिन घाटी की पहाड़ी पर सड़क निर्माण के बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है. गांव के एकमात्र प्राथमिक विद्यालय की स्थिति का़फी खराब है. डेढ़ सौ बच्चों पर केवल एक शिक्षामित्र है. इतना ज़रूर हुआ है कि दशरथ मांझी द्वारा पहाड़ तोड़कर बनाए गए रास्ते के प्रवेश स्थल पर उनके स्मारक का काम पूरा हो चुका है. गहलौर होकर अतरी की ओर जाने वाली मुख्य सड़क में काम मंथर गति से हो रहा है. मुंगरा नदी पर पुल बनाने का काम अब तक शुरू नहीं हुआ है. इस प्रकार दशरथ मांझी के सपनों का गहलौर आज भी उपेक्षित और बदहाल है. अब दशरथ मांझी की संवेदनशीलता का भी उदाहरण देखिए, जब भारतीय स्टेट बैंक की वजीरगंज शाखा ने दशरथ मांझी को 2005 में सम्मानित करते हुए उपहार स्वरूप एक कंप्यूटर भेंट किया, तब दशरथ मांझी ने यह कहकर कंप्यूटर वापस कर दिया कि मैं इसका क्या करूंगा? इसके बदले हमारे गांव में रिंग बोरिंग करवाकर सार्वजनिक चापाकल लगवा दीजिए, जिससे लोगों और जानवरों को पेयजल की सुविधा मिल सके. कंप्यूटर आज भी बैंक की शोभा बढ़ा रहा है, लेकिन बैंक ने चापाकल लगाना उचित नहीं समझा. दशरथ मांझी ने मज़दूरी करके परिवार की जीविका चलाते हुए जिस बिहारी आत्मसम्मान, कर्मठता,  सहजता, विनम‘ता और गरिमा का परिचय दिया, वह किसी भी व्यक्ति के लिए अनुकरणीय है. रेल पटरी के सहारे गया से पैदल दिल्ली यात्रा कर जगजीवन राम और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने का अद्भुत कार्य भी दशरथ मांझी ने किया था. मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार ने उनके निधन के बाद राजकीय सम्मान देकर एक मिसाल क़ायम तो की, लेकिन बिहार की तस्वीर बदलने का दावा करने वाले मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार दशरथ मांझी के गांव गहलौर की तस्वीर बदलने में अभी तक कामयाब नहीं  हो पाए. 17 अगस्त 2007 को कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई!
बिहार के मोतिहारी के रहने वाले तथा पटना रंगमंच के रंगकर्मी कुमुद रंजन ने पर्वत पुरुष दशरथ माँझी पर एक डाक्युमेंटरी फ़िल्म बनाई है - “द मैन व्हू मूव्ड द माउंटेन” जिसे  फ़िल्म्स डिविजन ने प्रोड्युस किया है। फ़िल्म करीब तीन सालों में बनी। फ़िल्म में दशरथ माँझी और उनके जानने वालों के माध्यम से उनके जीवन के अनजाने पहलुओं को भी दिखाया गया है। फ़िल्म में उनका आत्मसंकल्प, स्वाभिमान और उनकी निश्छल आध्यात्मिक ऊंचाई को कैमरे में कैद किया गया है। हमेशा समाज की भलाई की  बात करने वाले माँझी के परिवार वालों की दशा भी दिखाई गई है।


एक साक्षात्कार में उन्होने कहा था - मेरी पत्नी(फगुनी देवी) रोज सुबह गांवसे गहलौर पर्वत पारकर पानी लाने के लिये अमेठी जाती थी। एक दिन वह खाली हाथ उदास मन से घर लौटी। मैंने पूछा तो बताया कि पहाड़ पार करते समय पैर फिसल गया। चोट तो आई ही पानी भरा मटका भी गिर कर टूट गया। बस मैंने उसी समय गहलौर पर्वत को चीर रास्ता बनाने का संकल्प कर लिया। लोगों ने मुझे सनकी करार दिया। कभी-कभी तो मुझे भी लगता कि मैं यह क्या कर रहा हूँ? क्या इतने बड़े पर्वत को काटकर रास्ता बना पाऊंगा? फिर मेरे मन में विचार आया ,यह पर्वत तो सतयुग,द्वापर और त्रेता युग में भी था।उस समय तो देवता भी यहाँ रहते थे।उन्हें भी इस रास्ते से आने-जाने में कष्ट होता होगा,लेकिन किसी ने तब ध्यान नहीं दिया। तभी तो कलयुग में मेरी पत्नी को कष्ट उठाना पड़ रहा है।मैंने सोचा, जो काम देवताओं को करना था ,क्यों न मैं ही कर दूँ। इसके बाद न जाने कहाँ से शक्ति आ गई मुझमें । न दिन कभी दिन लगा और न रात कभी रात। बस काटता चला गया पहाड़ को। मैंने तो कभी सोचा भी नहीं कि जो काम कर रहा हूं,उसके लिए समाज को मेरा सम्मान करना चाहिये। मेरे जीवन का एकमात्र मकसद है ‘आम आदमी को वे सभी सुविधायें दिलाना ,जिसका वह हकदार है।’पहले की सरकार ने मुझ करजनी गांव में पांच एकड़ जमीन दी,लेकिन उस पर मुझे आज तक कब्जा नहीं मिल पाया। बस यही चाहता हूँ कि आसपास के लोगों को इलाज की बेहतर सुविधा मिल जाये। इसलिये मैंने मुख्यमंत्री से करजनी गांव की जमीन पर बड़ा अस्पताल बनवाने का अनुरोध किया है।

-- पुंज प़काश
( बिहार के रंग कर्मी , एक  स्कूल में शिक्षक )
 दस्तक नामक सांस्कृतिक दल की ब्लाग पत्रिका मंडली से साभार ।
मंडली में २फ़रवरी सन २०१२ ई को प़काशित ।



12 जुलाई 2015

विचारणीय बातें

सुन्दर विचारणीय बातें  

"क्या फर्क पड़ता है,
हमारे पास कितने लाख,
कितने करोड़,
कितने घर, 
कितनी गाड़ियां हैं,

खाना तो बस दो ही रोटी है।
जीना तो बस एक ही ज़िन्दगी है।

फर्क इस बात से पड़ता है,
कितने पल हमने ख़ुशी से बिताये,
कितने लोग हमारी वजह से खुशी से जीए ..
क्या खुब लिखा है किसी ने ...

"बक्श देता है 'खुदा' उनको, ... !
जिनकी 'किस्मत' ख़राब होती है ... !!

वो हरगिज नहीं 'बक्शे' जाते है, ... !
जिनकी 'नियत' खराब होती है... !!"

न मेरा 'एक' होगा, न तेरा 'लाख' होगा, ... !
न 'तारिफ' तेरी होगी, न 'मजाक' मेरा होगा ... !!

गुरुर न कर "शाह-ए-शरीर" का, ... !
मेरा भी 'खाक' होगा, तेरा भी 'खाक' होगा ... !! 

जिन्दगी भर 'ब्रांडेड-ब्रांडेड'b करने
वालों ... !
याद रखना 'कफ़न' का कोई ब्रांड नहीं होता ... !!

कोई रो कर 'दिल बहलाता' है ... !
और कोई हँस कर 'दर्द' छुपाता है ... !!

क्या करामात है 'कुदरत' की, ... !
'ज़िंदा इंसान' पानी में डूब जाता है और 'मुर्दा' तैर के
दिखाता है ... !!

'मौत' को देखा तो नहीं, पर शायद 'वो' बहुत
"खूबसूरत" होगी, ... !
"कम्बख़त" जो भी 'उस' से मिलता है,
"जीना छोड़ देता है" ... !!

'ग़ज़ब' की 'एकता' देखी "लोगों की ज़माने
में" ... !
'ज़िन्दों' को "गिराने में" और 'मुर्दों' को "उठाने
में" ... !!

'ज़िन्दगी' में ना ज़ाने कौनसी बात "आख़री"
होगी, ... !
ना ज़ाने कौनसी रात "आख़री" होगी ।

मिलते, जुलते, बातें करते रहो यार एक दूसरे से ......
..ना जाने कौनसी "मुलाक़ात" "आख़री होगी" ..।
--- घन श्याम दास के सौजन्य से । 
( मैसेज बाक्स में प्राप्त १४ जून सन २०१५ ) 

2 जुलाई 2015

रोचक तथ्य

          रोचक तथ्य

     जिन्ना का सच 

बरेली से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका साहित्यायन के अक्तूबर दिसम्बर सन२०१४ के अंक में 
डा सुरेश चन्द्र गुप्त का एक लेख " जिन्ना और गांधी " पढ़ कर पता चला कि पाकिस्तान के 
बानी मुहम्मद अली जिन्ना के पितामह एक गुजराती हिन्दू बनिया थे । उन से पूर्वज इस्लाम 
में किस कारण धर्मान्तरित हुए , यह तो पता नहीं पर हिन्दू के वंशज जिन्ना हिन्दू विरोधी 
हो गये । भारत विभाजन में उन की ज़िद और अंग्रेज़ों की कूटनीति की विशेष भूमिका थी । 
पाकिस्तान बनने पर लाखों हिन्दुओं   मुसलमानों और सिक्खों का जो ख़ून बहा , उस के 
लिए जिन्ना भी ज़िम्मेदार थे । 

     कश्मीर के शेख़ अब्दुल्ला का सच 

एक दिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शेख़ अब्दुल्ला के पुत्र फ़ारुक अब्दुल्ला 
भाषण देने आए । भाषण के बाद वे कहीं जा रहे थे । रास्ते में मैं ने सुना कि वे किसी से 
कह रहे थे " हमारे forefathers भी कभी पण्डित थे । " 
पण्डित के एक वंशज शेख़ अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर राज्य के भारत में विलय के बाद 
उसे भारत से अलग एक स्वतन्त्र राज्य बनाने का षड़यन्त्र रचा जो जवाहर लाल नेहरू 
के कारण सफल नहीं हो सका । 
हिन्दू धर्म के अनेक लोग किन्हीं कारणों से मुसलमान बनने के बाद हिन्दुओं के कट्टर 
शत्रु होगये । 
-- सुधेश

  ग़दर पार्टी का इतिहास 

   डा वेद प़काश वटुक हिन्दी ,संस्कृत ,लोकसाहित्य के विद्वान  कवि ,आलोचक और
चिन्तक हैं ।उन की नई पुस्तक विपन्नता से क्रान्ति की ओर सन २०११ में छपी थी जिस की मेरे 
द्वारा लिखित समीक्षा का सार नीचे दिया जा रहा है --
        डा वेद प़काश वटुक की प्रस्तुत  पुस्तक में ग़दर पार्टी की गतिविधियों का प्रामाणिक 
इतिहास दिया गया है ,जिसे पढ़ कर पाठक प्रभावित सेंंअधिक उत्तेजित होंगे  ।जिसे ग़दर पार्टी 
कहा जाता है वह अमेरिका के राज्य कैलिफ़ोर्निया के नगर सानफ़ांसिसको में अप़ैल सन १९१३ मे ं
स्थापित संंस्था हिन्दी एसोशिएशन आफ पैसेंफिक कोस्ट का प़चलित नाम है । यह नाम इसे 
इस के साप्ताहिक पत्र  ग़दर के कारण मिला । इस की बड़ी लोक प्रियता  के कारण इसे छापने 
वाली संस्था को भी ग़दर पार्टी कहने लगे । यह साप्ताहिक पहले उर्दू में छपता था , बाद में
पंजाबी में भी छपने लगा । 
       इस तथाकथित ग़दर पार्टी के प्रधान सोहन सिंह मकना और प्रथम  महासचिव लाला
हर दयाल थे । उन के सम्पादकीयों तथा अन्य सामग़ी के कारण भारत की ब़िटिंश सरकार 
ने इस के भारत प्रवेश पर पाबन्दी लगा दी ।  ग़दर पार्टी के मुख्यालय का नाम युगान्तर  आश्रम था ,
जिस का नामकरंण  बंगाल के क़ान्तिकारी समाचारपत्र  युगान्तर के आधार पर किया 
गया था । 
       युगान्तर आश्रम आज भी सानफ्रांसिसको की ५ नम्बर की वुडस्ट्रीट पर आधुनिक नाम 
ग़दर मैमेरियल भवन के रूप में स्थापित है,जो ंउन बलिदानियों की याद दिलाता है  जो सात
समुन्दर पार अपनी जन्म भूमि ंभारत को ंअंग़ेजों की ग़ुलामी से मुक्त कराने के लिए  शहीद 
होगये ।
        ग़दर पार्टी के नेताओं में सोहन सिंह मकना  , हर दयाल ,केसर सिंह ,ज्ञानी भगवान 
सिंह ,भाई महावीर ,पंडित काशी राम , जगत राम ,बरक़तुल्ला खां ,हरि सिंह ंउस्मान आदि 
अनेक वीर बलिदानी थे । डा वटुक ने ये सारे तथ्य प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किये हैं ।
       जिन बलिदानियों को भारत में लगभग भुला दिया गया है उन्हें वटुक जी ने बड़े 
आदर के साथ याद किया है और ंभारतीयों को ंउन की  अहसानफरामोशी  की याद भी 
दिलाई  है ।
        जैसे नेता जी सुभाष चन्द़ बोस के योगदान की चर्चा प्राय: नहीं होती वैसे ग़दर 
पार्टी के योग दान को हिन्दुस्तानी भूलते  जा रहे हैं । डा वटुक की यह पुस्तक एक अनिवार्य 
और पठनीय पुस्तक है ,जिसे दिल्ली के अलंकार प्रकाशन ने छापा है ।लेखक और प्रकाशक 
बंधाई के पात्र हैंं ।
 -- डा  सुधेश 




17 मई 2015

चंगेज़ खां का मंगोलियन साम्राज्य

चंगेज़ खंा का मंगोलियन साम्राज्य 

वैज्ञानिकों का कहना है कि 13वीं सदी की शुरुआत में चंगेज खां और विशाल मंगोल साम्राज्य के उदय में अच्छे मौसम का योगदान हो सकता है।

अमेरिकी शोधकर्ताओं का कहना है कि मध्य मंगोलिया में पुराने पेड़ों के छल्लों से ये पता चला है कि करीब एक हजार साल पहले जब चंगेज खान तेजी से कामयाबी हासिल कर रहा था, उस दौरान मध्य एशिया में मौसम काफी सुहावना और नम था।

इस दौरान घास काफी तेजी से बढ़ी और इससे घोड़ों को भरपूर चारा मिला।

चंगेज खां ने मंगोल कबीलों को एकजुट किया और एक बड़े इलाके पर शासन किया। उसके राज्य में आज का कोरिया, चीन, रूस, पूर्वी यूरोप, भारत के कुछ हिस्से और दक्षिण पूर्व एशिया आते थे।

करिश्माई नेता : नेशनल एकेडमी ऑफ सांइसेज के अध्ययन में बताया गया है कि चंगेज खां के शासन से पहले 1180 से 1190 के बीच कई बार सूखा पड़ा। लेकिन 1211 से 1225 के दौरान साम्राज्य काफी बड़ा हो चुका था। इस दौरान मंगोलिया में असामान्य रूप से सामान्य बारिश हुई और मौसम सुहावना बना रहा।

इस अध्ययन के सह-लेखक और पश्चिम वर्जीनिया यूनीवर्सिटी की वैज्ञानिक एमी हसेल ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, 'अत्यधिक सूखे से अत्यधिक नम मौसम के रूप में आया यह बदलाव बताता है कि इंसानी गतिविधियों में मौसम की महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी।'

उन्होंने कहा, 'यह एक ऐसी आदर्श स्थिति थी जो किसी करिश्माई नेता के उदय के लिए, सेना के विकास और मजबूत सत्ता के लिए पूरी तरह से अनुकूल थी।'

उन्होंने बताया कि मौसम में नमी बढ़ने से हरियाली बढ़ी और इसका असर घोड़ों की ताकत में हुई वृद्धि के रूप में दिखाई दिया।

अनुकूल मौसम की मदद से चंगेज खान छोटे-छोटे कबीलों में बिखरे मंगोलों के एकजुट कर एक बड़े साम्राज्य में तब्दील करने में कामयाब रहा।

बीबीसी हिन्दी से साभार ।
१३ मार्च २०१३ को प्रकाशित ।
टैग   मंगोलिया -- चंगेज़ खां  - साम्राज्य

8 मई 2015

राष्ट्रभाभाषा , मनन ,मन्थन , मन्तव्य


राष्ट्र भाषा , मनन , मन्थन , मन्तव्य 

भाषा का प्रश्न समग्र है। भाषा अनुभूति को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर नहीं है। भाषा सभ्यता को संस्कारित करने वाली वीणा एवं संस्कृति को शब्द देनेवाली वाणी है। किसी भी राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति नष्ट करनी हो तो उसकी भाषा नष्ट कर दीजिए। 
इस सूत्र को भारत पर शासन करने वाले विदेशियों ने भली भॉंति समझा। आरंभिक आक्रमणकारियों ने संस्कृत जैसी समृद्ध और संस्कृतिवाणी को हाशिए पर कर अपने-अपने इलाके की भाषाएं लादने की कोशिश की। बाद में सभ्यता की खाल ओढ़कर अंग्रेज आया। उसने दूरगामी नीति के तहत भारतीय भाषाओं की धज्जियॉं उड़ाकर अपनी भाषा और अपना हित लाद दिया। लद्दू खच्चर की तरह हिंदुस्तानी उसकी भाषा को ढोता रहा। अंकुश विदेशियों के हाथ में होने के कारण वह असहाय था।
यहॉं तक तो ठीक था। शासक विदेशी था, उसकी सोच और कृति में परिलक्षित स्वार्थ व धूर्तता उसकी सभ्यता के अनुरुप थीं। असली मुद्दा है स्वाधीनता के बाद का। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को ढोते लद्दू खच्चरों की उम्मीदें जाग उठीं। जिन्हे वे अपना मानते थे, अंकुश उनके हाथ में आ चुका था। किंतु वे इस बात से अनभिज्ञ थे कि अंतर केवल चमड़ी के रंग में हुआ था। फिरंगी देसी चमड़ी में अंकुश हाथ में लिए अब भी खच्चर पर लदा रहा। अलबत्ता आरंभ में पंद्रह बरस बाद बोझ उतारने का "लॉलीपॉप' जरुर दिया गया। धीरे-धीरे "लॉलीपॉप' भी बंद हो गया। खच्चर मरियल और मरियल होता गया। अब तो देसी चमड़ी के फिरंगियों की धूर्तता देखकर गोरी चमड़ी का फिरंगी भी दंग रह गया है।
प्रश्न है कि जब राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा माना जाता है तो क्या हमारी व्यवस्था को एक डरा-सहमा लोकतंत्र अपेक्षित था जो मूक और अपाहिज हो? विगत इकसठ वर्षों का घटनाक्रम देखें तो उत्तर "हॉं' में मिलेगा। 
राष्ट्रभाषा को स्थान दिये बिना राष्ट्र के अस्तित्व और सांस्कृतिक अस्मिता को परिभाषित करने की चौपटराजा प्रवृत्ति के परिणाम भी विस्फोटक रहे हैं। इन परिणामों की तीव्रता विभिन्न क्षेत्रों में अनुभव की जा सकती है। इनमें से कुछ की चर्चा यहॉं की जा रही है।p
राष्ट्रभाषा शब्द के तकनीकी उलझाव और आठवीं अनुसूची से लेकर सामान्य बोलियों तक को राष्ट्रभाषा की चौखट में शामिल करने के शाब्दिक छलावे की चर्चा यहॉं अप्रासंगिक है। राष्ट्रभाषा से स्पष्ट तात्पर्य देश के सबसे बड़े भूभाग पर बोली-लिखी और समझी जाने वाली भाषा से है। भाषा जो उस भूभाग पर रहनेवाले लोगों की संस्क़ृति के तत्वों को अंतर्निहित करने की क्षमता रखती हो, जिसमें प्रादेशिक भाषाओं और बोलियों से शब्दों के आदान-प्रदान की उदारता निहित हो। हिंदी को उसका संविधान प्रदत्त पद व्यवहारिक रूप में प्रदान करने के लिए आम सहमति की बात करने वाले भूल जाते हैं कि राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत और राष्ट्रभाषा अनेक नहीं होते। हिंदी का विरोध करने वाले कल यदि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगीत पर भी विरोध जताने लगें, अपने-अपने ध्वज फहराने लगें, गीत गाने लगें तो क्या कोई अनुसूची बनाकर उसमें कई ध्वज और अनेक गीत प्रतिष्ठित कर दिये जायेंगे? क्या तब भी यह कहा जायेगा कि अपेक्षित राष्ट्रगीत और राष्ट्रध्वज आम सहमति की प्रतीक्षा में हैं? भीरु व दिशाहीन मानसिकता दुःशासन का कारक बनती है जबकि सुशासन स्पष्ट नीति और पुरुषार्थ के कंधों पर टिका होता है।
सांस्कृतिक अवमूल्यन का बड़ा कारण विदेशी भाषा में देसी साहित्य पढ़ाने की अधकचरी सोच है। राजधानी के एक अंग्रेजी विद्यालय ने पढ़ाया- Seeta was sweetheart of Rama! ठीक इसके विपरीत श्रीरामचरित मानस में श्रीराम को सीताजी के कानन-कुण्डल मिलने पर पहचान के लिए लक्ष्मणजी को दिखाने का प्रसंग स्मरण कीजिए। लक्ष्मणजी का कहना कि मैने सदैव भाभी मॉं के चरण निहारे, अतएव कानन-कुण्डल की पहचान मुझे कैसे होगी?-  यह भाव संस्कृति की आत्मा है। कुसुमाग्रज की मराठी कविता में शादीशुदा बेटी का मायके में "चार भिंतीत नाचली' का भाव तलाशने के लिए सारा यूरोपियन भाषाशास्त्र खंगाल डालिये। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।
शिक्षा के माध्यम को लेकर बनी शिक्षाशास्त्रियों की अधिकांश समितियों ने प्राथनिक शिक्षा मातृभाषा में देने की सिफारिश की। यह सिफारिशें आज कूड़े-दानों में पड़ी हैं। त्रिभाषा सूत्र में हिंदी, प्रादेशिक भाषा एवं संस्कृत/अन्य क्षेत्रीय भाषा का प्रावधान किया जाता तो देश को ये दुर्दिन देखने को नहीं मिलते। अब तो हिंदी को पालतू पशु की तरह दोहन मात्र का साधन बना लिया गया है। सिनेमा में हिंदी में संवाद बोलकर हिंदी की रोटी खानेवाले सार्वजनिक वक्तव्य अंग्रेजी में करते हैं। जनता से हिंदी में मतों की याचना करनेवाले निर्वाचित होने के बाद अधिकार भाव से अंग्रेजी में शपथ उठाते हैं। 
छोटी-छोटी बात पर और प्रायः बेबात  संविधान को इत्थमभूत धर्मग्रंथ-सा मानकर अशोभनीय व्यवहार करने वाले छुटभैयों से लेकर कथित राष्ट्रीय नेताओं तक ने कभी राष्ट्रभाषा को मुद्दा नहीं बनाया। जब कभी किसीने इस पर आवाज़ उठाई तो बरगलाया गया कि भाषा संवेदनशील मुद्दा है। तो क्या देश को संवेदनहीन समाज अपेक्षित है? कतिपय बुद्धिजीवी भाषा को कोरी भावुकता मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि युद्ध भी कोरी भावुकता पर ही लड़ा जाता है। युद्धक्षेत्र में "हर-हर महादेव' और "पीरबाबा सलामत रहें' जैसे भावुक (!!!) नारे ही प्रेरक शक्ति का काम करते हैं। यदि भावुकता से राष्ट्र एक सूत्र में बंधता हो, व्यवस्था शासन की दासता से मुक्त होती हो, शासकों की संकीर्णता पर प्रतिबंध लगता हो, अनुशासन कठोर होता हो तो भावुकता देश के लिए अनिवार्य होनी चाहिए।
वर्तमान में सीनाजोरी अपने चरम पर है। काली चमड़ी के अंगे्रज पैदा करने के लिए भारत में अंग्रेजी शिक्षा लानेवाले मैकाले के प्रति नतमस्तक होता  आलेख पिछले दिनों एक हिंदी अखबार में पढ़ने को मिला। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जनरल डायर और जनरल नील-छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान के स्थान पर देश में शौर्य के प्रतीक के रूप में पूजे जाने लगेंगे।
सामान्यतः श्राद्धपक्ष में आयोजित होनेवाले हिंदी पखवाड़े के किसी एक दिन हिंदी के नाम का तर्पण कर देने या सरकारी सहभोज में सम्म्मिलित हो जाने भर से हिंदी के प्रति भारतीय नागरिक के कर्तव्य  की इतिश्री नहीं हो सकती। आवश्यक है कि नागरिक अपने भाषाई अधिकार के प्रति जागरुक हों। वह सूचना के अधिकार के तहत राष्ट्रभाषा को राष्ट्र भर में मुद्दा बनाएं। 
लगभग तीन दशक पूर्व दक्षिण अफ्रीका का एक छोटा सा देश आज़ाद हुआ। मंत्रिमंडल की पहली बैठक में निर्णय लिया गया कि देश आज से "रोडेशिया' की बजाय "जिम्बॉब्वे' कहलायेगा।  राजधानी "सेंटलुई' तुरंत प्रभाव से "हरारे' होगी। नई सदी प्रतीक्षा में है कि कब "इंडिया'की केंचुली उतारकर "भारत' बाहर आयेगा। आवश्यकता है महानायकों के जन्म की बाट जोहने की अपेक्षा भीतर के महानायक को जगाने की। अन्यथा भारतेंदु हरिशचंद्र की पंक्तियॉं - "आवहु मिलकर रोवहुं सब भारत भाई, हा! हा! भारत दुर्दसा न देखन जाई!' क्या सदैव हमारा कटु यथार्थ बनी रहेंगी?
संजय भारद्वाज 
पुने , महाराष्ट्र 
-- हिन्दी सेन्टर नामक ब्लाग से साभार 

5 मार्च 2015

परपीडन में मनोरंजन

                      पर पीडन में मनोरंजन 

     हाल के दिनों में एक लघु फ़िल्म Indaia's daughter की सर्वत्र चर्चा है , जिसे बृटेन की एक महिला 
लेसली उड़विन ने बनाया है ।इस में दिसम्बर २०१२ में दिल्ली में एक मासूम लड़की के बलात्कारी का इन्टरव्यू 
दिखाया गया है । इसे भारत सरकार ने तो प्रतिबन्धित कर दिया है , पर बीबीसी द्वारा दिखाया जा रहा है । हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता को उड़विन ने बताया ( ५ मार्च २०१५ को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ) 
कि यह फ़िल्म न्यूयार्क आदि अमेरिकी शहरों और लन्दन में भी दिखाई जाएगी ।( शायद अब तक यह वहाँ दिखाई 
जा चुकी हो ) विश्व के अन्य देशों में भी यह दिखाई जा सकती है या दिखाई जा रही होगी । भारत सरकार 
की मनाही के बाद भी बीबीसी ने इसे दिखाया । 
        इस से पता चलता है कि विदेशी लोगों , विशेषत: बृटेन के लोगों और बीबीसी को भारत की ग़रीबी , 
अपराध , गन्दगी और अपराधी मनोवृत्ति के लोग ही प्रदर्शन के विषय दिखते हैं और उन्हें परपीडन में ही 
मनोरंजन दिखता है । उड़विन ने हिन्दुस्तान टाइम्स के संवाददाता को बताया कि खुद उस का भी किसी 
ने बलात्कार किया था । ( यह बात चीत हिन्दुस्तान टाइम्स में छपी है ) तो उस ने अपने बलात्कारी का 
इन्टरव्यू क्यों नही लिया? उस ने भारत को बदनाम करने के लिए एक मासूम भारतीय लड़की के 
बलात्कारी का इन्टरव्यू लेना और प्रचारित करना ज़रूरी समझा । 
          यह भी एक विडम्बना है कि उड़विन ने बलात्कारी से तिहाड़ जेल में जा कर बात की ।  उसे जिन 
अधिकारियों ने ऐसा करने की अनुमति दी उन की ग़लती है । शायद उन्हें यह पता नहीं होगा कि उड़विन 
क्या गुल खिलाएगी । 
              फेस बुक पर इस लघु फ़िल्म के विरोध में अधिक लिखा गया है , पर कुछ लोग इस फ़िल्म को आपत्तिजनक नहीं मानते । फ़िल्म को देखे बिना उस पर टिप्पणियाँ हो रही हैं । आज ( ५ मार्च २०१५ ) को 
मैं ने यूट्यूब पर यह फ़िल्म देखी । यह बलात्कार विरोधी ंफिल्म है , पर एक बलात्कारी ने अपने बचाव में 
जो कहा और उस के वक़ील ने जो कहा , वह पीड़िता लड़की को ही बलात्कार के लिए उत्तरदायी बताने की कोशिश है । इस से बलात्कारी की विकृत मानसिकता का पता चलता है , जिस का सहारा ले कर 
अन्य विकृत मन वाले लोग बलात्कार की ओर जा सकते हैं । इस तरह यह फ़िल्म प्रकारान्तर से बलात्कार 
विरोधी न रह कर उस के औचित्य के तर्क भी तलाशती दिखती है । भविष्य का बलात्कारी अपने बचाव 
के तर्क इस फ़िल्म से सीख सकता है । इस दृष्टि से इस पर प्रतिबन्ध लगाना उचित है ।
          सरकार इस पर प्रतिबन्ध न लगाती तो क्या करती ? वह जनता की उत्तेजित भावना की उपेक्षा 
करने की दोषी बतांई जाती । अब प्रतिबन्ध लगाने पर भी उस की आलोचना हो रही है और अभिव्यक्ति
की आज़ादी की दुहाई दी जा रही है । संसद में अनेक दलों की सदस्याएं  इस बात के लिए हंगामा करती 
हैं कि दो वर्षों  बाद भी सरकार ने बलात्कारियों को दण्ड नहीं दिया । दण्ड तो अदालत देती 
है । फिर संसद में हंगामा क्यों ? 
     इस घटना पर रचना त्रिपाठी के ब्लाग टूटी फूटी में रचना त्रिपाठी जी का एक लेखक छपा , जिस पर 
टिप्पणी करते हुए डी सी श्रीवास्तव मे वाजिब सवाल उठाते हुए लिखा --
 " मीडिया पहले समाजसेवा के लिए समाज का दर्पण हुआ करता था , परन्तु वह आज खुद को बेचने में और दूसरों को बिकने में मदद करने वाली एक संस्था हो गयी है। बीबीसी के इस डॉक्यूमेंट्री को पूरा देखे बिना टिप्पणी करना तो उचित नहीं है कि इसको बनाने के पीछे उनका क्या आशय था, और इस बलात्कार की डॉक्यूमेंट्री के माध्यम से भारत में होने वाले बलात्कार में किस भावना की महत्ता को वो सिद्ध करना चाहते हैं। सबसे गंभीर बात यह है कि तिहाड़ जेल में इस प्रकार के कैदी के इंटरव्यू की आज्ञा कैसे दी गई  जबकि विदेशी फिल्मकारों को जब भारत में शूटिंग करने की अनुमति दी जाती है तब उन्हें खास हिदायत दी जाती है कि शूटिंग में वे इस बात का ध्यान दें कि भारत की इमेज इस फिल्म के माध्यम से गलत ढंग से प्रस्तुत न हो। सबसे बड़ी बात यह कि जिस बलात्कारी का इंटरव्यू लिया गया था, उसका विचार बलात्कार के मामले में पूरे भारत के विचार का प्रतनिधित्व नहीं करता है। 
पश्चिमी मीडिया शुरू से ही भारत के नकारात्मक पक्ष को बढ़ा चढ़ा कर दुनिआ में प्रस्तुत करता  रहा है। जहाँ तक बलात्कार का प्रश्न है U.S., स्वीडन , फ्रांस , कनाडा , UK और जर्मनी , दक्षिण अफ्रीका १० शीर्षस्थ देशों में है जहाँ बलात्कार सर्वाधिक है। अतः बीबीसी को दूसरे के ऊपर कीचड उछलने के पहले अपने घर झांक कर देखना चाहिए। सरकार को ब्रिटिश सरकार तथा बीबीसी के साथ यह मामला दृढ़ता से उठाना चाहिए और भारत में जिन अधिकारिओं ने इसकी अनुमति दी है, इसकी जांच कर उन पर उचित कार्यवाही करनी चाहिए। " ( रचना त्रिपाठी के ब्लाग  टूटी फूटी में प्रकाशित लेख पर ४ मार्च सन २०१५ की टिप्पणी ) 
   मेरी सन्तुलित राय यह कि इस पिल्म पर प्रतिबन्ध उचित है , क्योंकि इस से चाहे बलात्कार बन्द नहीं होंगे  ,पर 
भारत के लोगों की विकृत मानसिकता का ढोल विदेशों मे  पीटा जाएगा , बल्कि पीटा जा रहा है । अभिव्यक्ति 
की आज़ादी का दुरुपयोग करने की अनुमति किसी को नहीं दी जा सकती । 

-- सुधेश 
३१४ सरल अपार्टमैन्ट्स , द्वारिका , सैक्टर १० 
दिल्ली ११००७५ 

लेबल     मनोरंजन --   बलात्कार - दिल्ली में बलात्कार - बीबीसी की करतूत 







4 मार्च 2015

आत्म चिन्तन


आत्म चिन्तन 

महत्त्वाकांक्षा 

जीवन में महत्त्वाकांक्षा ने मुझे दु:ख दिये पर जब अल्प सन्तोषी बनने की कोशिश की तो दुनिया ने मुझे कायर समझा । पर जीवन संध्या में आकाँक्षाएं मेरा पीछा नहीं छोड़ रहीं । बल्कि नई नई इच्छाएँ पैदा हो रही हैं । क्या यह बुझते दीपक की बढ़ती लौ है?
मैं ने देखा और स्वयम् अनुभव किया कि महत्वाकांक्षी लोग जीवन में अधिक घुटते हैं और अल्प सन्तोषी मज़े में रहते हैं पर उन्हें मिलता कुछ नहीं । दिए की बुझती लौ की बात मैं ने मौत की ओर बढ़ते जीवन के सन्दर्भ में लिखी थी । अपने जीवन का कच्चा चिट्ठा मैं ने अपनी आत्मकथा के तीन भागों में लिखा है , जिस का पहला भाग छप गया है ।

निन्दा 

आप सब की निन्दा करें तो सब को दुश्मन बना लेंगे । आप सब की तारीफ़ करें तो सज्जन तो कहला सकते हैं पर आप विवेक हीन ख़ुशामदी माने जाएँगे । इस लिए बुरे को बुरा कहना और अच्छे को अच्छा कहना ज़्यादा व्यावहारिक है । ख़ुशामद का लाभ तो मिल सकता है पर ख़ुशामदी अच्छा नहीं माना जाता । सब की निन्दा करने वाला किसी को मित्र नहीं बना सकता । मित्रों के बिना जीवन एक रेगिस्तान की तरह है । तो अच्छा यह होगा कि दूसरों की निन्दा न करें या कम से कम करें और किसी आधार पर करें ।  दूसरे की तारीफ़ भी किसी आधार पर 
करें । पर दूसरे की प्रशंसा निन्दा की तुलना मे निरापद है ।


हिन्दी में विविध लेखन की आवश्यकता 

हिन्दी को विविध लेखन द्वारा इतनी समृद्ध कर दें कि अंग़ेज़ी उस के सामने बौनी लगे । पर यह काम दशकों में पूरा होगा । भारतीय वैज्ञानिक और समाजविज्ञानों के विद्वान प्राय: हिन्दी  में नहीं लिखते । उन्हें कैसे समझाया जाए? वे हिन्दी कम जानते हैं या नहीं जानते और यदि जानते भी हैं तो वे अंग़ेज़ी में लिखना पसन्द करते हैं । केवल साहित्य की समृद्धि से कुछ नहीं होगा । पर उत्कृष्ट साहित्य का महत्त्व कम नहीं है । हिन्दी का दुर्भाग्य है कि उस में उत्कृष्ट 
साहित्य भी कम लिखा जा रहा है । 
 जैसे प्राचीन काल मे संस्कृत में अनेक विषयों पर , यहाँ तक कि पशु चिकित्सा पर भी , साहित्य रचा गया , वैसे हिन्दी में आजकल अनेक विषयों पर क्यों नहीं लिखा जा रहा है? विज्ञान , यान्त्रिकी आदि पर जो ग्रन्थ लिखे भी 
गये उन का प्रचार नहीं हुआ , क्योंकि उन्हें कोई पढ़ता नहीं या बहुत कम लोग उन का लाभ लेते हैं । कारण यहीं कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है । 


जन कविता और लोकप्रिय कविता 

जनकविता के प्रति कविता प्रेमियों की चिन्ता उचित है पर लोकप्रिय कविता केवल जनकविता ही नहीं होती स्तरीय , उच्च कविता भी होती है । मंचों पर मिली लोकप्रियता सामयिक होती है । स्थायी और कालातीत लोकप्रियता उस कविता को मिलती है जो कविता के उच्च मानदण्डों पर खरी उतरती है । हर युग में जो कवि कविता का नया रूप और उच्च स्तर सामने रखता है वह कविता विधा को आगे बढ़ाता है । केवल मंचों की वाहवाही कविता के उच्च स्तर का मानदण्ड नहीं है ।
 आजकल संचार माध्यमों के सहारे लोकप्रियता पाने की होड़ लगी हुई है ।  जो कविता संचारमाध्यमों की 
सीढ़ी पर चढ़ कर लोकप्रिय होने का दावा करती है , उस की तथा कथित लोकप्रियता सच्ची लोकप्रियता 
नहीं है । हज़ारों सालों से जो कवि और कलाकार जनता के दिलों में बसे हुए हैं , वे संचार के साधनों के 
अभाव मे कैसे जनता में लोकप्रिय हो गये । 
  तो कहना होगा कि तथा कथित लोकप्रिय कविता अनिवार्यत: जन कविता नहीं है , जैसे लोक साहित्य 
जन साहित्य या जनता का साहित्य होता है । जन कविता लोकप्रिय भी होगी । 
     लोकप्रिय कविता का मतलब सस्ती कविता नहीं है , सस्ती कविता अर्थात घटिया कविता या साहित्य ।
सस्ते साहित्य को घासलेटी साहित्य या लुगदी साहित्य भी कहा गया ।  सस्ते का मतलब कम क़ीमत का नहीं 
बल्कि जिस का साहित्यिक मूल्य या गुण कम हो । 
         तो लोकप्रिय कविता , जन कविता , सस्ती कविता  शब्दों का एक ही अर्थ नहीं है। उन के मर्म को समझ कर उन में भेद करने की आवश्यकता है । 




आत्म कथा लेखन 

महा पुरुषों की जीवनी अन्य लोग लिखते हैं .जिन की जीवनी कोई नहीं लिखता वे स्वयं आत्म कथा लिखते हैं जिस में वे स्वयं को महान बना देते हैं । तो क्या आत्म कथा में झूट का सहारा लिया जाता है .पर सत्य के प्रयोग के व्रती महात्मा गांधी.जवाहर लाल नेहरु ,डॉ राजेन्द्र प्रसाद आदि महापुरुषों ने अपनी आत्म कथाओं में जो लिखा क्या वह झूठ है ? गांधी जी की जीवनी फ्रेंच लेखक रोमां रोलां ने फ्रेंच में लिखी थी । गांधी जी पर कितनी कवितायें ,खंड काव्य ,महा काव्य आदि लिखे गए .फिर भी उन्हों ने आत्म कथा क्यों लिखी ? मेरा विचार है कि लेखक की हर रचना सीमित अर्थ में उस की लघु आत्म कथा है । फिर आत्म कथा लिखने से इतना परहेज़ क्यों ?.यह भी साहित्य की एक विधा है जिस में बहुत सारा साहित्य लिखा गया है ,पर इस के लिए ईमानदारी , ,तटस्थता ,और साहस की ज़रूरत है ।


मिथक की उपयोगिता 

राम  एक मिथक या अन्ध विश्वास हो सकते हैं पर वे अरबों ख़रबों के दिलों में बसे हुए हैं । समाज की मानसिक रचना में मिथकों की भी भूमिका है । मिथकों का आधार कभी इतिहास होता है , कभी धर्म और कभी कोई सशक्त रचना , पर उन्हें जीवन से ख़ारिज नहीं किया जा सकता । वाल्मीकि ने राम के मिथक को महाकाव्य बना दिया , जिस के आधार पर न जाने कितनी रचनाएँ लिखी गईं । महाभारत महाकाव्य ने कृष्ण के मिथक को फैलाया , जिस के आधार पर न जाने कितने काव्य , उपन्यास आदि लिखें गये । तो राम और कृष्ण गल्प होते हुए भी हिन्दू मानसिकता के अंग हैं । यह भी विचारणीय है ।
--- सुधेश 
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