6 मई 2014

उल्लेखनीय बातें

उल्लेखनीय  बातें

''कविता का जन्म कोरे सिद्धांतों या वैचारिक आदर्शों से नहीं वरन् कवि की वास्तविक सृजनात्मक अनुभूति से होता है । केवल सैद्धांतिक आधार या जीवन-दर्शन की कसौटी पर किसी कवि के रचना संसार को महत्वपूर्ण या प्रामाणिक ठहराना काव्य के मूलभूत रचनाशील पक्षों की उपेक्षा करना है । सैद्धांतिक आग्रहशीलता रचना को संकीर्ण, सपाट यथातथ्यवादी- और इसलिए अप्रामाणिक - बना देती है ।''
- प्रमोद वर्मा
जय प्रकाश मानस के सौजन्य से ।

आज भाई ज़हीर ललितपुरी जी Zaheer Lalitpuri ने "उर्दू " शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से होने के विषय में एक बड़ी ही अजीबोगरीब बात बताई। वे बता रहे है कि उन्होंने कहीं पढ़ा था कि उर का अर्थ ह्रदय और दो का अर्थ ह्रदय में रहने वाली है। मेरी जितनी भी थोड़ी सी जानकारी है, उसके आधार पर बताना चाहता हूँ कि संस्कृत मूलतः अवेस्ता से प्रत्यक्षतः जुडी भाषा थी, जिसका उद्गम स्थल वर्तमान मध्य एशिया ( प्री इस्लामिक ईरान और पकिस्तान तथा अन्य पड़ोसी देश) था न कि एशियाई उपमहाद्वीप विशेषकर भारत या इसके आसपास तो यह बाद में आई। भारतीयों को आर्यन कहा जाता है जो वास्तव में वर्तमान ईरान शब्द का ही पूर्वज शब्द है। वहीँ से संस्कृत की सहायक भारोपीय भाषा परिवार की भाषाएं विकसित हुईं। जहाँ तक उर्दू का प्रश्न है तो उर्दू तुर्की भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है सेना का शिविर। मान्यता भी यही है कि उर्दू भाषा की पैदाइश आगरा के मुग़ल फौजी शिविरों में हुई थी। तुर्की में सम्भव है कि यह उर्दू शब्द संस्कृत से आया हो। लेकिन उर्दू के संस्कृतनिष्ठ शाब्दिक अर्थ को शायद स्वीकार कर पाना मुश्किल होगा ।
-- पुनीत बिसारिया
( ललितपुर , उ प्र )

राष्ट्र का सेवक

प्रेमचंद

 राष्ट्र के सेवक ने कहा - देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सलूक,पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव। दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीच नहीं, कोई ऊँच नहीं।
दुनिया ने जय-जयकार की - कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हृदय!
उसकी सुंदर लड़की इंदिरा ने सुना और चिंता के सागर में डूब गई।
राष्ट्र के सेवक ने नीची जाति के नौजवान को गले लगाया।
दुनिया ने कहा - यह फरिश्ता है, पैगंबर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है।
इंदिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा।
राष्ट्र का सेवक नीची जाति के नौजवान को मंदिर में ले गया, देवता के दर्शन कराए और कहा - हमारा देवता गरीबी में है, जिल्लत में है, पस्ती में है।
दुनिया ने कहा - कैसे शुद्ध अंतःकरण का आदमी है! कैसा ज्ञानी!
इंदिरा ने देखा और मुसकराई।
इंदिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली - श्रद्धेय पिताजी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूँ।
राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नजरों से देखकर पूछा - मोहन कौन है?
इंदिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा - मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मंदिर में ले गए, जो सच्चा, बहादुर और नेक है।
राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आँखों से उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया।
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3834&pageno=1
--रिषभदेव देव शर्मा के सौजन्य स ।

नालन्दा  (बिहार शरीफ) के पुस्तक मेले में जाने के बहाने नालंदा के खडहर को देखने का अवसर मिला,भगवान बुद्ध अक्सर यहाँ आया करते थे । इसी नालंदा महाविहार (विश्वविद्यालय) के कारण भारत विश्व गुरु कहलाता था. नालंदा (यानी न+अलम +द =नालंदा यानी अनंत दान देने वाला) में नागार्जुन और आर्यदेव जैसे महान शिक्षा शास्त्री अध्यापन करते थे, यही हुआ था 'शून्य' का आविष्कार। नालंदा के वैभव को बख्तियार खिलजी नामक हमलावर ने नष्ट करवा दिया था,तब अनेक दुर्लभ हस्तलिखित पांडुलिपिया राख हो गयी थी, दुःख की बात है कि हम लोग उस खँडहर को भी अब ठीक से सम्भाल नहीं पा रहे है , नीचे प्रस्तुत दो छाया चित्र देख कर आप समझ सकते है. नालंदा पर अलग से लेख लिखूंगा,।
- गिरीश पंकज
( रायपुर ,छत्तीसगढ़ )

''"हर धर्म की 'लिप सर्विस' (चापलूसी) करना 'धर्मनिरपेक्षता' नहीं है। 'धर्मनिरपेक्षता' का मतलब न तो हर धर्म की अंधभक्ति है और न ही 'नास्तिकता' । अब ऐसा समय आ गया है जब हर धार्मिक संप्रदाय को यह बताना ज़रूरी हो गया है कि ज़माना तेज़ी से बदल रहा है। तुम्हें भी बदलना चाहिए। आगे की ओर चलना चाहिए। अगर पुरानी इबारतों, पुरानी किताबों, पुरानी रूढ़ियों से चिपके रहोगे तो पीछे छूट जाओगे। हमारे सारे संचार माध्यमों का इस्तेमाल यही बताने के लिए होना चाहिए। मेरा तो कहना है कि टेलीविज़न में यह कभी नहीं दिखाना चाहिए कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री फलां मंदिर या फलां मस्ज़िद, फलां गुरुद्वारा या चर्च में गये और वहां शीश नवाया, प्रार्थना-पूजा की । अगर ऐसा दिखाया जाता है तो आडिटर (सालिसिटर) जनरल को इस पर कड़ा एतराज़ करना चाहिए ।अगर कोई अपनी निजी आस्था के कारण ऐसा करता है, तो करे लेकिन सरकारी वाहन, सरकारी सुरक्षा, राजकीय विशेषाधिकारों का इस्तेमाल न करे और न मीडिया को अपना प्रचार तंत्र बनाए । आज जिस तरह राजनीति का सांप्रदायिकीकरण हो गया है, उसमें ऐसी हरकतें विभिन्न समुदायों के बीच एकता की जगह उन्हें अलग-अलग बांट कर फूट डालती हैं।
किसी धर्म को सत्ता की कोई बैसाखी नहीं मिलनी चाहिए। संतों-पीरों ने कहा है कि धर्म और सत्ता का हमेशा से बैर रहा है । अब हमारे यहां ये कैसे धर्म पैदा हो गये हैं, जिनकी आंखें लगातार सत्ता की ओर लगी रहती हैं।
जो धर्म सत्ताओं का सहारा ले या सत्ता-लोलुप हो, वह अनैतिक है। उसको सत्ता में रहने का कोई हक़ नहीं है।''
---- पी.सी. जोशी, (जन्म ९ मार्च, १९२८, दिगोली, अल्मोड़ा - निधन : २ मार्च २०१४, नयी दिल्ली)
-- उदय प्रकाश
( अरुण देव के सौजन्य से )

कहा उन्होंने

 पाकिस्तान  में रेडियो में हारमोनियम इसलिए बंद करा दिया क्योंकि भारतीय फनकार इसमें माहिर थे । इसलिए ही बड़े गुलाम अली जैसे लोग भारत लौट आये ।
 मेरी बेटी का नाम वीरता और बेटे का कबीर है ।

- फहमीदा रियाज ( मशहूर साहित्यकार, पाकिस्तान ) कल रायपुर में
( जय प्रकाश मानस के सौजन्य से )


ख़ुश वन्त सिंंह का महत्त्व

जिन्होने ख़ुशवंत सिह का उपन्यास " ट्रेन टू पाकिस्तान" नहीं पढ़ा वे उनको जानने का दावा नहीं कर सकते और वे सिर्फ खुश्वंत सिंह के जीवन से जुड़े संदर्भो तको बिना गहराई में जाने, चटकारे लेकर उल्लेख करते समय अपनी कामुकता का ही परिचय देते हैं. " ट्रेन टू पाकिस्तान" त्याग, मानवीय सम्वेदनाओं और धर्म से ऊपर उठकर प्रेम के माध्य्म से हिन्दू- मुस्लिम समबंधों को ऊचाई प्रदान करनेवाला उपन्यास है. पत्रिकारिता और साहित्य के बल पर स्म्मांपूर्वक जीवन व्यतीत करना और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाना कोई छोटी उपलब्ढि नहीं है. ख़ुशवंत सिह ने अंग्रेज़ी पत्रिकारिता के माध्यम से समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में कालम् लिख कर सिर्फ हिंदी ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों और पत्रकारों को कालम लिखना सिखाया उसे रोचक ढंग से प्रस्तुत करना सिखाया और यह भी सिखाया कि कैसे समाचार पत्र में कम जगह में भी बड़े संदर्भ को पिरोया जा सकता है.
मित्रता की मर्यादाओं में स्त्री-पुरुष की मित्रता को उन्होनें अर्थ देने की कोशिश की जिसे लोगों ने अपने नज़रिए से देखा, जिन्हें सिवाय सेक्स के और कुछ नज़र ही नहीं आता और वे दूसरी और उन सम्मानित और प्रबुद्ध महिला पत्रकारों का भी अपमान करते हैं जो ख़ुशवंत सिह के आत्मीय और करीबी मित्रों में थीं. अगर वो खराब होते तो किसी महिला ने कभी तो आरोप लगाए होते उनपर. दिन भर राधे कृष्ण का जाप करनेवले लोग जब इतनी संकुचित दृष्टि से मानवीय सम्बंधों को कुत्सित रूप में बखान करते हैं तो अफसोस होता है.
भारतीय समाज का यही दोहरापन वर्त्मान में स्त्री समस्याओं की सबसे बड़ी जड़ है जो उसे मनुष्य समझने के स्थान पर उपभोग की वस्तु समझता है और उन पर सारी नैतिकताओं को ढोने की ज़िम्मेदारी डाल देता है.
ख़ुशवंत सिह के बाद भारत में कमलेश्वर शायद अकेले ऐसे हिंदी की साहित्यकार थे जिन्होने हिंदी पत्रिकारिता को नई ज़मीन देने की कोशिश की और उन्होनें हिंदी साहित्य को फिल्म और टेलीविज़न जैसे लोकप्रिय माधय्मों से भी जोड़ने की कोशिश की. अनय्था अपनी अपनी कैंचुली में सुरक्षित बैठे हिंदी के तमाम तथाकथित और एक समीक्षक द्वारा गढ़े गए बड़े साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य को पाठकों से हज़ारों कोस दूर कर दिया.
मैं ख़ुशवंत सिह को श्रंद्धाजलि देता हूँ अपने तमाम साहित्यकार मित्रों की ओर से.

अशोक रावत
( नोएडा , ग़ाज़ियाबाद ,उ प्र )





25 अप्रैल 2014

रोचक प्रसंग


रोचक प्रसंग

छत्तीसगढ़ का नामकरण ( फएस बुक के हवाले से )

छत्तीसगढ़ की प्राणदायिनी शिवनाथ नदी २९० किलोमीटर की लम्बी यात्रा कर महानदी में विलीन हो जाती है। प्राचीन काल में शिवनाथ नदी के एक ओर १८ गढ़ थे और दूसरी ओर भी १८, इस प्रकार इन दोनों को मिलाकर क्षेत्र का नाम पड़ा- छत्तीसगढ़। अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ कमाऊ पूत तो था लेकिन उसे खाने के लिए केवल दो मुट्ठी चाँवल मिलता था इसलिए वह पिछड़ेपन का दुख भोगते हुए तब तक सिसकता रहा जब तक कि सन 2000 में पृथक छत्तीसगढ़ नहीं बना। http://atmkatha.blogspot.in/p/blog-pag
-- द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

छत्तीस गढ़ में हो सकता है ' टेम्पा ' हो किन्तु मालवा उज्जैन में इसे 'टेपा' ही कहा जाता है । शायद (पक्का पता नहीं) इसे पं. शिव शर्मा जी ने प्रारम्भ किया था ।हर वर्ष 'टेपा-सम्मेलन' में देश के बड़े बड़े नेताओं, साहित्यकारों और अन्य बड़ी हस्तियों को आमंत्रित कर उन्हें - टेपा सम्राट' टेपाधिपती' और इसी प्रकार की अन्य उपाधियों से नवाज़ा जाता । यह कार्यक्रम पूरे देश में चर्चित होता था
--- ओम गिल

दुनिया को सदा ताज़ा रखना !

" अधिकांश भाव हमारे लिए पुराने होते हैं और हमारे मन का धर्म ही यह है कि पुरानी अभ्यस्त वस्तुओं के संपूर्ण सौंदर्य और रस के अनुभव करने की क्षमता हममें नहीं है, इसीलिए कोई कवि जब पुराने भावों के बीच भाषा, छंद और अभिव्यक्ति की नई भंगिमा के द्वारा हमारे मन को खींच ले जाता है, तब हम पुनः उन्हीं वस्तुओं के रस का आस्वादन नए रूप में करने लगते हैं । कवियों का मुख्य काम इस दुनिया को सदा ताज़ा रखना है ।"
- विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर
( जय प्रकाश मानस के सौजन्यसे )

Tejendra Sharma आप कहते हैं "उर्दू शायरी में जगह बनाने के लिये मुसलमान नाम या तख्ख़लुस ज़रूरी हो जाता था। .. " क्या 'फ़िराक़' नाम मुसलमानी है? क्या इसे आप यों नहीं देख सकते कि फ़िराक़ साहब उर्दू में लिखते थे, इसलिए उन्होंने उर्दू तख़ल्लुस (तख्ख़लुस नहीं) चुना। उनका पूरा नाम मैंने यह बताने को लिखा कि वे मुसलमान नहीं, हिन्दू थे और महान उर्दू शायर थे। यानी उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा नहीं है। प्रसंगवश बता दूँ कि फ़िराक़ साहब के पिता भी नामी शायर थे और वे गोरख प्रसाद 'इबरत' के नाम से ही जाने जाते हैं। शाहजहां के दरबार के पं चंद्र'बिरहमिन' से लेकर आगे विश्‍वेश्‍वर प्रसाद 'मुनव्‍वर' लखनवी, नौबतराय 'नजर', पं. दयाशंकर 'नसीम', त्रिलोकचंद 'महरूम', बालमुकुंद 'बेसब्र', पं. बृजनारायण 'चकबस्‍त', हरगोपाल 'तफ्ता' आदि खूब जाने-माने शायर रहे हैं जो हिन्दू थे और उर्दू अदब में उनका नाम था। … जाने-अनजाने आप वही खेल कर रहे हैं, जो भाजपा कर रही है। उर्दू में लिखते हुए कोई उसी भाषा का तख़ल्लुस चुने, इसमें गलत क्या है! फिर आप साहित्य की चर्चा में यह प्रसंग ले आते हैं कि "एक ज़माना था कि हिन्दी फ़िल्मों में मुसलमान मर्द और औरतें अपने नाम बदल कर फ़िल्मों में काम किया करते थे" … जब आप मानते हैं कि वह "अलग विषय" है तो उसका जिक्र यहाँ ले आने का सबब?
-- ओम थानवी
फेसबुक से साभार ।
८ अप्रैल २०१४ को प्रकाशित ।


महावीर स्वामी पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे थे। पेड़ पर आम लटक रहे
थे।
बच्चों ने आम तोड़ने के लिए पत्थर फेंके। कुछ पत्थर आम को लगे
और एक महावीर स्वामी को लगा।
बच्चों ने कहा - प्रभु! हमेंक्षमा करें, हमारे कारण आपको कष्ट हुआ
है।
प्रभु बोले - नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ।
बच्चों ने पूछा - तो फिर आपकी आंखों में आंसू क्यों?
महावीर ने कहा - पेड़ को तुमने पत्थर मारा तो इसने तुम्हें मीठे फल
दिए, पर मुझे पत्थर मारा तो मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सका, इसलिए मैं
दुखी हूँ ।

साहित्य मन्त्र के सौजन्य से ।

भारत में आ गये?

निरालाजी एक बार किसी दूसरे नगर में अपने एक मित्र के यहाँ गए. उनके मित्र बड़े आदमी थे. वहां कई महीने रह गए. लौटने पर उनके कोई परिचित सज्जन सडक पर संयोग से मिल गए.उन्होंने नमस्कार के बाद कहा -"इधर कई महीनों से आप दिखाई नहीं दिए, क्या कहीं बाहर चले गए थे?" उन्होंने संक्षेप में "हाँ" कह दिया. तब उन सज्जन ने दूसरा प्रश्न किया, "कहाँ गए थे?" निराला जी ने गंभीर भाव से उत्तर दिया, "विलायत गया था."यह सुनकर उन सज्जन ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा -"विलायत? आपके विलायत जाने की बात तो किसीने बतलाई नहीं!" निराला जी ने व्याख्या करते हुए कहा -"वहां मैं गया था. वहां बढ़िया पक्की आलीशान कोठी थे. गद्देदार बड़े-बड़े पलंग थे, सोफे थे, गद्दीदार कुर्सियां थीं. फ्लश लेट्रिन थी. बिजली थी. बिजली का पंखा था. मोटर थी, फूलों का बाग़ थे. लाऊं थे. टेलेफोन था. लोग अधिकतर अंग्रेजी बोलते थे........और अब मैं यहाँ लौट आया हूँ. यहाँ खपरैल का मकान है. टूटी चारपाई है, ज़मीन पर बिछाने को चटाई है. रौशनी के लिए मिटटी के तेल की डिबरी है. खुड्डी वाला पाखाना है जो दुसरे-तीसरे दिन साफ़ किया जाता है. हाथ का ताड़ का पंखा है. यहाँ आने पर वह अनुभव होने लगा किअभी तक मैं विलायत में था और अब भारत में आ गया हूँ. इसीलिये मैंने आपसे कहा कि विलायत गया था.
साभार : मनोरंजक संस्मरण -श्रीनारायण चतुर्वेदी
(रमेश तेलंग के सौजन्य से )

आज प्रसिद्ध गद्यकार श्री शैलेश मटियानी की पुण्यतिथि है। उनका मूल नाम रमेशचंद्र सिंह मटियानी था। उन्होंने उपन्यास, कहानियों के साथ ही अनेक निबंध और संस्मरण भी लिखे हैं। उन्होंने 'विकल्प' और 'जनपक्ष' नामक दो पत्रिकाएँ निकाली। हमारी ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
---भोला नाथ त्यागी के सौजन्य से ।

11 मार्च 2014

क्यों हि्न्दी भाषा नहीं पनप पा रही है इन्टरनेट पर ?

क्‍यों हिन्‍दी भाषा नहीं पनप पा रही है Internet पर?

1995 में Internet को आम लोगों के लिए Publicly Open किया गया और तब से लेकर आज तक लगभग 18 साल हो गए हैं इंटरनेट को विकास करते हुए। लेकिन Internet पर आज भी हिन्‍दी भाषा का अस्तित्‍व न के बराबर है।अंग्रेजी व चीनी भाषा के बाद दुनियां कि तीसरी सबसे ज्‍यादा बोली, समझी व लिखी जाने वाली हमारी भाषा ‘हिन्‍दी’, फिर भी अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष कर रही है।
सारी दुनियां में भारतीय मूल के लोग रहते हैं, लेकिन फिर भी Internet पर ‘हिन्‍दी’ अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष कर रही है।
दुनिया का दूसरा सबसे ज्‍यादा आबादी वाला हमारा देश भारत, फिर भी Internet पर ‘हिन्‍दी’ अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष कर रही है।
आखिर क्‍यों?
क्‍या भारतीय लोग भी हिन्‍दी भाषा पसन्‍द नहीं करते?
क्‍या भारत की राष्‍ट्रीय भाषा हिन्‍दी नहीं होनी चाहिए थी?
क्‍या हिन्‍दी किसी भी अन्‍य भाषा की तुलना में ज्‍यादा जटिल भाषा है?
क्‍या हिन्‍दी की तुलना में अंग्रेजी भाषा को लोग एक Status Symbol की तरह Use करते हैं?
सवाल कई हैं लेकिन जब तक हम इन सवालों का बेहतर तरीके से विश्‍लेषण नहीं करेंगे, तब तक हम हिन्‍दी भाषा के Internet अस्तित्‍व के बारे में उपयुक्‍त निर्णय नहीं ले सकते और इस बात को भी तय नहीं कर सकते कि क्‍या कभी हिन्‍दी भाषा Internet पर अपने अस्तित्‍व को बरकरार रख भी सकेगी या नहीं और कैसे हिन्‍दी को बढावा दिया जा सकता है ताकि ज्‍यादा से ज्‍यादा हिन्‍दी भाषी भारतीय लोग इस Internet जैसे दुनियां के सबसे बडे व उपयोगी सूचना तंत्र का उपयोग करते हुए अपनी जिन्‍दगी को ज्‍यादा बेहतर बना सकते हैं?हिन्‍दी भाषा के Internet अस्तित्‍व को लेकर मेरे अपने कुछ विचार हैं, जिन्‍हें में एक Article के माध्‍यम से रख रहा हूं और निश्चित रूप से आपके भी इस विषय में कुछ विचार होंगे, जिन्‍हें आप Comment के रूप में Discuss करेंगे, तो विषय में गंभीरता आएगी जो कि Internet पर हिन्‍दी के अस्तिव का भविष्‍य तय करने में उपयोगी साबित होगी।
चूंकि, मैं Programming and Development Field से सम्‍बंधित व्‍यक्ति हूं, इसलिए इस Article में मेरे द्वारा Discuss किए जाने वाले कारण काफी हद तक तकनीकी होंगे। लेकिन कुछ और कारण जरूर होंगे, जिन्‍हें आप भी Share करेंगे, तो बेहतर होगा।
पहला कारण
वास्‍तव में हिन्‍दी भाषा अब हिन्‍दी रह ही नहीं गई है बल्कि Hindi + English = Hinglish हो गई है। यानी हम भारतीयों द्वारा बोला, लिखा या पढा जाने वाला कोई भी वाक्‍य ऐसा नहीं होता, जिसमें अंग्रेजी का कोई भी शब्‍द न हो। वर्तमान समय में हम लोग शुद्ध हिन्‍दी बोलते ही नहीं हैं, क्‍योंकि शुद्ध हिन्‍दी बोलने व समझने से ज्‍यादा आसान होता है शुद्ध अंग्रेजी बोलना।
दूसरा कारण
Internet को पूरी तरह से English आधारित ही रखा गया है, क्‍योंकि अंग्रेजी एक ऐसी भाषा है, जो लगभग सभी देशों में समान रूप से बोली, लिखी व समझी जाती है, जबकि हिन्‍दी भाषा तो स्‍वयं हमारे देश में भी एक जैसी बोली, लिखी व समझी नहीं जाती।
कभी कहीं पढा था मैंने कि हमारे देश में भी हर 11 किलोमीटर पर बोली, लिखी व समझी जाने वाली Local भाषा बदल जाती है। ऐसे में किसी Standard की तरह Hindi Language को Internet पर अपना स्‍थान कैसे प्राप्‍त हो सकता है।
जबकि हम यदि Standard हिन्‍दी भाषा यानी हमारी राष्‍ट्रीय भाषा की बात करें, तो उसे भी पूरे भारत में समान रूप से उपयोग में नहीं लिया जाता। क्‍योंकि राष्‍ट्रीय भाषा की तुलना में स्‍थानीय भाषा को ज्‍यादा महत्‍व दिया जाता है और उससे भी ज्‍यादा महत्‍व दिया जाता है अंग्रेजी को क्‍योंकि अंग्रेज तो चले गए, लेकिन अंग्रेजी भाषा को भारतीय लोगों के खून में छोड गए हैं।
इसीलिए:
स्‍वयं भारतीय लोग भी हिन्‍दी भाषा को उतना पसन्‍द नहीं करते, जितना अंग्रेजी को पसन्‍द करते हैं। क्‍योंकि हिन्‍दी की तुलना में अंग्रेजी भाषा को लोग एक Status Symbol की तरह Use करते हैं। जो व्‍यक्ति अंग्रेजी बोलता, लिखता या पढता है, उसे हमारे देश के हिन्‍दी भाषी लोग ज्‍यादा समझदार व High Profile व्‍यक्ति समझते हैं।
तीसरा कारण
हिन्‍दी भाषा सीखना अंग्रेजी भाषा सीखने की तुलना में ज्‍यादा आसान है क्‍योंकि हिन्‍दी भाषा का विकास एक पूर्ण व्‍याकरणयुक्‍त वैज्ञानिक भाषा के रूप में किया गया था, जबकि अंग्रेजी भाषा का विकास मूल रूप से भावनाओं व विचारों का आसानी से लेनदेन हो सके, इस बात को ध्‍यान में रखते हुए किया गया था।
इसलिए अंग्रेजी भाषा सीखना किसी भी व्‍यक्ति के लिए हिन्‍दी भाषा सीखने की तुलना में ज्‍यादा आसान होता है। यही कारण है कि स्‍वयं हमारे देश में भी आधी से ज्‍यादा जनसंख्‍या तब तक हिन्‍दी भाषा का प्रयोग करते हुए बातचीत नहीं करते, जब तक कि उनकी Local Language या English से काम चल सकता हो।
साथ ही अंग्रेजी भाषी देशों ने लगभग दुनियां के हर देश पर राज किया है और हर देश में एक Standard Language की तरह अंग्रेजी भाषा को सैकडों सालों तक Directly या Indirectly Promote किया है। इसलिए अंग्रेजी का अस्तित्‍व लगभग सारी दुनियां में है जबकि हिन्‍दी का अस्तित्‍व तो स्‍वयं भारत में भी 100 प्रतिशत नहीं है।
चौथा कारण
उपरोक्‍त तीनों कारण मूल रूप से वस्‍तु, स्थिति व स्‍थान पर निर्भर हैं, जबकि इंटरनेट पर हिन्‍दी का अस्तित्‍व इसलिए न के बराबर है क्‍योंकि Internet को पूरी तरह से अंग्रेजी भाषी देशों ने विकसित किया है और अंग्रेजी एक International Language है। हालांकि इसे Develop करने वाले ज्‍यादातर लोग भारतीय ही रहे हैं, लेकिन भारत में इन्‍हें महत्‍व न मिलने की वजह से ये अन्‍य देशों में चले गए और वहां उन चीजों को विकसित किया, जिन्‍हें सारी दुनियां Use करती है और हम भारतीय लोग उन्‍हीं चीजों को Use करने के लिए पैसा खर्च करते हैं, जिन्‍हें हमारे ही देश के लोगों ने विकसित किया है।

शायद आप जानते हों कि Microsoft Company में दुनियां के सबसे ज्‍यादा Engineer भारतीय हैं। Google, Yahoo, PayPal, FaceBook आदि सभी कम्‍पनियों में ज्‍यादातर Engineer व Developer भारतीय हैं। NASA के ज्‍यादातर वैज्ञानिक व बडी-बडी Universities के ज्‍यादातर अध्‍यापक भारतीय हैं, जो उन Technologies को वहां विदेशी लेबल व विदेशी भाषा के साथ Develop करते हैं, जिन्‍हें भारत में Develop किया जा सकता था।
क्‍योंकि ये सारी Technologies विदेश यानी अंग्रेजी भाषी देशों में विकसित होती हैं, इसलिए निश्चित रूप से इन्‍हें International Language यानी अंग्रेजी में ही Develop किया गया है। अत: हिन्‍दी भाषा में यदि हम कोई Website या Blog बनाना चाहें, तो सबसे पहली परेशानी तो यही आती है कि हमें एक Standard Hindi Keyboard भी प्राप्‍त नहीं होता, जिसका प्रयोग करके हम हिन्‍दी भाषा में Content Create कर सकें।
और क्‍योंकि हम वर्तमान समय में हिन्‍दी नहीं बल्कि Hinglish समझते हैं, इसलिए हमें हमारे Hindi Content में भी जगह-जगह पर अंग्रेजी शब्‍दों का प्रयोग करना पडता है, ताकि हम हिन्‍दी भाषी भारतीय लोग भी उस हिन्‍दी Content को ठीक से समझ सकें। जबकि यदि हम अपने Content को शुद्ध हिन्‍दी भाषा में लिखेंगे तो शायद दुबारा पढते समय हम स्‍वयं अपने ही लिखे Content को ठीक से नहीं समझ पाऐंगे। ऐसे में वह व्‍यक्ति उस Content को कैसे समझेगा, जिसके लिए उसे लिखा गया है।
इसलिए इस Mixed Hinglish की वजह से एक ऐसा Standard Hindi Keyboard Develop करना भी मुश्किल है, जो समान समय पर Hindi व English दोनों भाषाओं में Typing करने की सुविधा देता हो।
इस परेशानी की वजह से हमें अपनी Hindi Website/Blog के लिए Content लिखने हेतु भी कई तर‍ह के Conversion करने पडते हैं, जिससे हमारे Content Develop करने की Speed काफी कम हो जाती है।
सरल शब्‍दों में कहूं तो अपनी Website http://www.bccfalna.com, जो कि एक ऐसी वेबसाईट है, जहां मैं हिन्‍दी भाषी भारतीय विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हिन्‍दी भाषा में Programming व Development के बारे में बात करता हूं, पर एक Page का हिन्‍दी Article लिखने में मुझे अंग्रेजी भाषा में Article लिखने की तुलना में कम से कम तीन गुना ज्‍यादा समय लगता है, जबकि मैं स्‍वयं Computer Programming and Development Field से पिछले 12 सालों से जुडा हुआ हूं और प्रतिदिन कम से कम 10 से 12 घण्‍टे यही काम करता हूं।
जब मुझ जैसे पर्याप्‍त तकनीकी ज्ञान वाले व्‍यक्ति के लिए हिन्‍दी Content Develop करने में इतना समय लगता है, तो कम तकनीकी जानकारी वाला Blogger तो समझ ही नहीं पाता होगा कि वह हिन्‍दी भाषा में किस प्रकार से Blogging कर सकता है।
Hindi Website/Blogs के विकसित न हो पाने का एक बहुत ही महत्‍वपूर्ण कारण और है और वो कारण ये है कि हमारी Website/Blog पर ज्‍यादातर Targeted Traffic, Search Engines जैसे कि Google, Yahoo, Bing आदि से आता है और ये Search Engines उसी स्थिति में किसी Visitor को किसी Hindi Website/Blog की List Provide कर सकते हैं, जबकि वह Visitor इन Search Engines में हिन्‍दी भाषा में किसी शब्‍द को Search करे और हिन्‍दी भाषा का कोई Standard Keyboard न होने की वजह से कोई Visitor इन Search Engines में हिन्‍दी शब्‍दों का प्रयोग करते हुए Searching ही नहीं करता। ऐसे में हिन्‍दी भाषी Websites/Blogs पर इन Search Engines द्वारा जो Traffic आता है, वो भगवान भरोसे और By Mistake ही आता है।
यदि मैं मेरी ही Website की बात करूं, तो मेरी वेबसाईट पर 350 से ज्‍यादा Articles हैं, लेकिन सभी माध्‍यमों से मिलाकर भी प्रतिदिन 1000 से ज्‍यादा Pageviews नहीं होते। जबकि मैंने कई ऐसी English Websites देखी हैं, जिनमें 50 Page भी नहीं हैं, लेकिन उन पर प्रतिमाह 2 से 5 लाख तक का Pageviews हो जाता है।
कारण ये है कि भारतीय Visitor जब Google का प्रयोग किसी हिन्‍दी Website पर पहुंचने के लिए करते हैं, तो वे ‘हिन्‍दी’ शब्‍द को भी हिन्‍दी में नहीं लिखते।
यानी यदि किसी Visitor को Java Programming की जानकारी हिन्‍दी भाषा में चाहिए, तो वह Google में ‘जावा हिन्‍दी में’ Keyword लिखकर Search नहीं करते बल्कि “Java in Hindi” Keyword लिखकर Searching करते हैं। ऐसे में वे हिन्‍दी Websites/Blogs किस प्रकार से Google के Result Page पर Show होंगे, जिनमें इस Keyword का प्रयोग ही नहीं किया गया है।
हिन्‍दी भाषी Websites/Blogs के Internet पर ज्‍यादा समय तक जीवित न रह पाने की एक मुख्‍य वजह और है और वह वजह ये है कि हिन्‍दी भाषी Websites/Blogs बनाने वाले ज्‍यादातर व्‍यक्ति केवल शौख की वजह से Website/Blog बनाते हैं और जब उन्‍हें पता चलता है कि वे अपनी Website/Blog से कुछ Extra Earning भी कर सकते हैं, यानी वे अपने Blog/Website को Monetize भी कर सकते हैं, तब उन्‍हें अफसोस होता है कि उन्‍होंने हिन्‍दी भाषा में अपना Blog/Website क्‍यों बनाया।
क्‍योंकि किसी भी हिन्‍दी भाषी Blog/Website को कोई भी ढंग की कम्‍पनी जैसे कि Google, Yahoo आदि PPC Advertisement नहीं देती और हिन्‍दी भाषी Websites पर Ecommerce को भारतीय परिवेश में Setup करना एक टेढी खीर है। क्‍योंकि हमारे देश में यदि किसी Website/Blog पर किसी Product की Selling करने के लिए Payment Gateway लेना हो, तो Virtual Products की Selling के लिए भी एक Physical Registered Shop होना जरूरी है। बडा अजीब कानून है इस देश का।

मैं मेरी Website पर हिन्‍दी भाषा में लिखी गई मेरी EBooks Sell करता हूं और लोग मेरी EBooks को आसानी से खरीद सकें, इसके लिए मैंने अपनी Website हेतु Payment Gateway खरीदने के बारे में सोंचा।
लेकिन जब मैंने विभिन्‍न भारतीय Payment Gateways Providers से सम्‍पर्क किया, तो मुझे पता चला कि जब तक मेरी स्‍वयं की कोई Registered Shop या Firm नहीं होगी, जिस पर कोई Physical Product (धनियां, मिर्च आदि) न बेचा जाता हो, तब तक मैं अपनी Website के लिए Payment Gateway प्राप्‍त नहीं कर सकता।
अब समझ में ये बात नहीं आती कि अपनी EBooks को मैं धनियां के नाम से रजिस्‍टर करवाउं या मिर्च के नाम से, क्‍योंकि मेरी पुस्‍तकें न तो धनियां की तरह दिखाई देती हैं, न मिर्च की तरह तीखा स्‍वाद देती हैं। बल्कि ये तो एक ऐसा Product है, जो दिखाई ही नहीं देता लेकिन बिकता है।
इतना ही नहीं, PayPal नाम की एक कम्‍पनी की सुविधा Use करके मैं अपनी EBooks को Ecommerce के माध्‍यम से Sale करता था, जो कि केवल Commission के आधार पर अपना Payment Gateway उपलब्‍ध करवाता था, उसे भी RBI ने भारतीयों के लिए Ban कर दिया, जो कि भारतीय Online Promoters के लिए एक सबसे सस्‍ता Ecommerce Business Develop करने का साधन था और Free Available था।
सबसे बडी बात तो ये है कि इस PayPal के माध्‍यम से भारत में हर साल लाखों Dollars की Online Earning की जाती थी भारतीय Online Marketers द्वारा। RBI ने विदेशी Dollars के भारत में आने का रास्‍ता ही बन्‍द कर दिया 2011 में और ये भी एक बडा कारण रहा है 2012 व 2013 की भारत की आर्थिक मंदी का।

लेकिन जो बूढे बैठे हैं संसद में उन्‍हें आज की वर्तमान तकनीकें समझ में नहीं आती और वे आज भी शायद बैलगाडी में ही घुमाना चाहते हैं, इस देश को। इसीलिए न तो कोई सुविधा देते हैं, Technical लोगों को और न ही किसी और को ऐसी कोई सुविधा देने देते हैं।
इस दुनियां में केवल हमारे देश में ही सबसे ज्‍यादा कानून हैं और ऐसे कानून हैं, जो इस देश के विकास में बाधक हैं। इस देश के कानून तो सचमुच हमें परेशान करने के लिए ही बनाए जाते हैं। क्‍योंकि हर कानून भ्रष्‍टाचारियों को भ्रष्‍टाचार फैलाने का एक और माध्‍यम प्रदान कर देता है।

तो सारांश ये है कि जब तक हमारे देश की संसद में कुछ तकनीकी रूप से समझदार लोग नहीं पहुंचेंगे, तब तक छोटे भारतीय Online Marketers व E-Commerce Businessman अपना Online Business Establish नहीं कर सकते और जब तक छोटे लोग Internet तक नहीं चहुंचेंगे, तब तक भारतीय भाषा का Internet अस्तित्‍व खतरे में ही रहेगा।
क्‍योंकि एक Online Website/Blog का भी सालाना कुछ खर्चा होता है और उस खर्च को Maintain करने का केवल एक ही तरीका है कि अपनी Blog/Website से कुछ Side Income हो सके और कोई भी Online Advertising Company इन भारतीय Rules and Regulations के कारण हिन्‍दी भाषी Blog/Website को Ads नहीं देतीं, सामान्‍य भारतीय लोग अपनी Blog/Website के माध्‍यम से E-Commerce का प्रयोग करते हुए Online Selling नहीं कर सकते और बिना Online Income के कोई हिन्‍दी भाषी Blog/Website को आखिर कब तक अपनी कमाई से Support व Maintain करता रहेगा।

इसलिए जैसे ही लोगों को समझ में आता है कि Blog/Website से Online Earning हो सकती है और वो भी रूपए में नहीं बल्कि Dollars में, जो कि भारतीय रूपए से 60 गुना ज्‍यादा होता है, तो वह तुरन्‍त हिन्‍दी को छोडकर English Blog/Website के लिए मेहनत करने लगता है और जितनी मेहनत वह हिन्‍दी Blog/Website के लिए करता था, उसकी एक तिहाई मेहनत करते हुए भी वह कई गुना ज्‍यादा Online Earning करने लगता है।
मैं यदि मेरी ही बात करूं, तो वर्तमान में मेरी Website BccFalna.com से औसतन 20000 रूपए प्रतिमाह Earn करता है, जबकि मैंने कुल 350 से ज्‍यादा Articles लिखे हैं इस Website के लिए और लगभग 10,000 से ज्‍यादा पन्‍नों के रूप में 14 EBooks लिखी हैं। लेकिन अब अफसोस होता है कि यदि यही 350 Articles English में लिखे होते और 10000 Pages की 14 पुस्‍तकें English में लिखी होतीं, तो शायद लाखों कमा रहा होता।
क्‍योंकि English Websites Google Search Engine से बहुत सारा Targeted Search Traffic Send करता। मैं PayPal का Payment Gateway Use करते हुए International Payment Accept कर लेता अपनी Website से जबकि Indian Payments Accept करने के लिए तो यहां के बैलगाडी वाले तरीके हैं ही।
English Websites होने की वजह से मुझे किसी भी कम्‍पनी की Advertisement मिल जाती, जिसे अपनी Website पर Place करके में और Extra Side Income कर पाता। साथ ही हजारों तरह के Products की Advertising एक Affiliate के रूप में कर पाता। यानी बहुत बेहतर जिन्‍दगी होती, यदि मैंने हिन्‍दी की जगह अंग्रेजी को महत्‍व दिया होता।

ये मेरी राय हैं हिन्‍दी के Internet अस्तित्‍व व भविष्‍य के बारे में और मुझे लगता है कि हिन्‍दी को Internet पर अपना उपयुक्‍त स्‍थान प्राप्‍त करने में बहुत-बहुत-बहुत ज्‍यादा समय लगेगा। आपके क्‍या विचार हैं?
प्रस्तुतकर्ता
-- कुलदीप चन्द
  ( रूप चन्द्र शास्त्री मयंक के सौजन्य से )

27 फ़रवरी 2014

शब्दों के संदर्भ की महिमा

शब्दों के संदर्भ की महिमा

संदर्भ का जीवन में कितना महत्व है, यह जयपुर की एक घटना से सिद्ध होता है। जयपुर की एक धार्मिक सभा में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा ममता शर्मा के एक शब्द ने बवाल खड़ा कर दिया है। ममता ने कह दिया कि अंग्रेजी के ‘सेक्सी’ शब्द का मतलब लंपट या कामुक नहीं होता है। उसका मतलब होता है, सुंदर, आकर्षक, लुभावना! इसका गलत अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए।

ममता ने बिल्कुल सही कहा है। अमेरिका में इस शब्द का प्रयोग इन्हीं अर्थों में लोग अपनी पत्नी, बहन, सहेली और यहां तक कि माँ के लिए भी करते हैं। वहां इसका कोई बुरा नहीं मानता बल्कि बोलनेवाले और सुननेवाले खुश होते हैं। इसे भद्र-भाषा माना जाता है लेकिन भारत में इस शब्द का संदर्भ एक दम बदल जाता है। भारत में ‘सेक्स’ या ‘सेक्सी’ का अर्थ केवल एक ही है और वह इतना अभद्र माना जाता है कि लोग उसका प्रयोग करने से बचते हैं। पता नहीं क्यों, ममताजी इस शब्द की व्याख्या में उलझ गईं। बिना संदर्भ के भारतीय शब्द भी बड़े अनर्थकारी सिद्ध होते हैं। जैसे संस्कृत के सैंधव शब्द का अर्थ नमक और घोड़ा दोनों होते हैं। भोजन के समय सैंधव मांगने पर कोई घोड़ा खड़ा कर दे और युद्ध पर जाते हुए सैनिक को कोई नमक की पुड़िया पकड़ा दे तो क्या होगा? इसी प्रकार फारसी में उस्ताद का मतलब होता है – आचार्य, प्रोफेसर, विद्वान लेकिन हिंदी में उसका प्रयोग होता है, तिकड़मी, चालक और बदमाश के लिए भी! फारसी के ‘तुख्म’ शब्द को लेकर तो तलवारें चल सकती हैं। इसका अर्थ अंडा और वीर्य दोनों होते हैं। रूसी भाषा के ‘पूतिन’ शब्द के उच्चारण में आप ज़रा-सा फर्क कर दें तो ‘सीधा’, ‘गड्ढा’ बन जाता है। शब्दों और उनके प्रयोग की माया अपरंपार हैं।

---वेद प्रकाश वैदिक
( गुड़गाँव , हरियाणा )


  लब

18 फ़रवरी 2014

अजब ग़ज़ब है यह हिन्दी


अज़ब गज़ब है यह हिंदी

ये हिंदी भी अजब गज़ब है। इसके जन्म से आज तक के इतिहास पर नज़र डालें तो हमें विस्मित होने पर मज़बूर होना पड़ता है कि कैसे कोई भाषा झंझावातों का सामना करते हुए विपरीत परिस्थितियों के अंधड़ में भी बिना दीपशिखा को विचलित किए शान से खड़ी रह सकती है और दुनिया को बताती रहती है कि ये अंधड़ तो मेरी जिजीविषा शक्ति को और बढ़ाने के औज़ार भर हैं, इनसे तो मुझे जीवनपथ पर आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी ऊर्जा मिलती है। पैदा होने से लेकर आज तक जिस भाषा को कभी राज्याश्रय न मिला हो और न ही कवियों ने इसे प्रारम्भ में गले से लगाया हो बल्कि इस भाषा में लिखने पर वे कहते हों कि "भाषा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास, तिन भाषा कविता करी, जडमति केशव दास। ऐसी भाषा बीते एक हज़ार सालों से न सिर्फ डटकर खड़ी है बल्कि वह संसार की सबसे ज्यादा व्यवहृत करने वाली बोली ( अगर उर्दू भी जोड़ लें) बन जाए तो इसे अजूबा ही कहा जाएगा। हिंदी के मानक रूप को यदि ध्यान से देखें तो पाएंगे कि मानक हिंदी देश के किसी भी हिस्से की मातृभाषा आज तक नहीं रही है फिर भी यह विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है और दुनिया के भाषाई मानचित्र पर अपनी छाप छोड़ रही है। और भी मज़े की बात यह कि हिंदी साहित्य का पहला इतिहास गार्सा द तासी इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐन्दूई ऐन्दूस्तानी फ्रेंच भाषा में लिखते हैं, हिंदी का पहला अख़बार उदंत मार्तण्ड बांग्लाभाषी क्षेत्र कलकत्ता से निकलता है, पहली हिंदी फ़िल्म मराठी भाषी क्षेत्र बंबई में एक पारसी के हाथों बनती है, पहली हिंदी वेबसाइट शारजाह में पूर्णिमा बर्मन द्वारा तैयार होती है, हिंदी का पहला सॉफ्टवेयर सी डैक, पुणे में बनता है, हिंदी का पहला थिसॉरस एक फ़िल्म पत्रिका के संपादक अरविन्द कुमार तैयार करते हैं। हिंदी का पहला विश्वविद्यालय महाराष्ट्र के वर्धा में स्थापित होता है। हिंदी फ़िल्मी गीतों पर रूसी भी झूमता है, चीनी भी झूमता है, जापानी भी झूमता है तो केन्याई भी झूमता है। क्या है इस हिंदी में , जो औरों में नहीं है? हाँ दोस्त, कुछ तो है इस भाषा में जिसके कारण दुनिया इसकी दीवानी है। वजह एक ही है, वह है इस भाषा की सर्वसमावेशी प्रवृत्ति। हिंदी ने अरबी, फ़ारसी, फ्रेंच, जापानी,पुर्तगाली, चीनी, डच, अंग्रेजी सभी भाषाओँ के शब्दों को बड़े प्यार से अपनाया है और उसे इस प्यार से अपने आँचल में ओट दी है कि ऐसा लगता ही नहीं कि वे पराए शब्द हैं। क्या कोई आम आदमी यह मानने को तैयार होगा कि हिंदी के ये प्रचलित शब्द वास्तव में विदेशी हैं ? क्या कोई मानेगा कि औरत, अदालत, कानून, कुर्सी, कीमत, गरीब, तारीख, जुर्माना, जिला, शादी, सुबह, हिसाब आदि अरबी भाषा के शब्द हैं, तनख्वाह, आदमी, चश्मा, बीमार, गुब्बारा, जानवर, जेब इत्यादि फ़ारसी भाषा के शब्द हैं, अचार, चाभी, संतरा, साबुन, पपीता, आलपिन, बाल्टी, गमला, बस्ता, मेज, बटन, कारतूस, तिजोरी, तौलिया, फीता, तंबाकू, कॉफी, आदि पुर्तगाली शब्द हैं, कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा, बहादुर, चम्मच, उर्दू, तमाशा, चुगली, कालीन, चेचक तुर्की भाषा के शब्द हैं, काजू, कारतूस, मेयर, अँगरेज़, रेस्तरां, सूप आदि फ्रेंच भाषा के शब्द हैं, तुरुप, बम, चिड़िया, ड्रिल डच भाषा के शब्द हैं, बुजुर्ग रूसी भाषा का शब्द है, एटलस, टेलीफोन, एकेडमी आदि यूनानी शब्द हैं, रिक्शा जापानी शब्द है। और तो और " हिंदी" शब्द भी हिंदी का अपना नहीं है बल्कि यह फ़ारसी से लिया गया है। ऐसी सर्वसमावेशी भाषा को तो सबकी दुलारी होना ही था। कमर्शियल हिंदी फिल्मों की हम लाख आलोचना कर लें लेकिन यह वास्तविकता है कि इन्होंने अपनी मसालेदार कहानियों एवं गीतों से हिंदी को विश्वपटल पर अपने पैर मज़बूती से ज़माने में सहायता की है। यूनिकोड, लैंग्वेज कनवर्टर, ट्रांस्लिट्रेट सॉफ्टवेयर आदि के आ जाने से हिंदी की पहुँच और भी व्यापक हुई है। भूमंडलीकरण के फलस्वरूप दुनिया के एक लैपटॉप में सिमट जाने से भी हिंदी की पहुँच व्यापक हुई है। एकता कपूर मार्का सास-बहू के सीरियलों की चटखारेदार दुनिया ने भी हिंदी की व्याप्ति बढ़ाने में सहायता की है। आज हम कह सकते हैं कि हिंदी का भविष्य उज्जवल है और यह आगे और आगे और भी आगे ऐसे ही बढ़ती जाएगी।
-- पुनीत बिसारिया
( ललितपुर       उ प्र ) 

14 जनवरी 2014

मकर संक़ान्ति का इतिहास




ज्योतिष में मेरी आस्था नहीं है पर इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आकाश
में अनेक ग़ह तथा उपग्रह एक रहस्यमय गुरुत्वाकर्षण की शक्ति से अपनी धुरी पर घूम
रहे हैं । ऐसे ग़हों में सूर्य और चन्द्रमा के अतिरिक्त हमारी पृथ्वी और मंगल भी हैं जो हमें
घूमती हुई दिखाईँ नहीं देती । पर रात और दिन पृथ्वी के घूमने के कारण ही बनते हैं ।
अनेक मौसमों का क़म भी पृथ्वी के सूर्य के चारों तरफ़ घूमने का परिणाम है। ये तथ्य कुछ
वैज्ञानिक तथ्यों की ओर संकेत करते हैं ।
 मकरक़ान्ति की ज्योतिष के अनुसार जिस प़कार व्याख्या की की जाती है , वह अन्ध
विश्वास के निकट है । पर मुझे पुष्पेन्द़ कुमार पाण्डेय का एक लेख रोचक लगा , जिस
में वैज्ञानिक ढंग से मकर संक़ान्ति को समझाया गया है । इसे पाठकों के अवलोकन
के लिए चिन्तनपल नामक ब्लाग में प़स्तुत कर रहा हू ।
-- सुधेश

मकर संक्रान्ति का इतिहास

6000 साल पुराना है संक्रांति का इतिहास। भूगर्भशास्त्रियों की मानें तो लैटिन अमेरिका
यानी मेसो अमेरिकी लोग जिन्हें मयन्स कहा जाता था, अपने समय में ही संक्रांति सहित
पोंगल, पाला कयालु जैसा ही त्योहार बसंत के मौसम में मनाते थे।
संक्रांति संस्कृत का शब्द है, जो सूरज के धनु राशि से मकर राशि में चले जाने का इशारा
करता है। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि इस दिन सूर्य खगोलीय पथ पर मकर राशि में
चला जाता है। यूं तो कुल 12 तरह की संक्रांतियां होती हैं, लेकिन अमूमन ‘संक्रांति’ शब्द
का प्रयोग ‘मकर संक्रांति’ के लिए ही किया जाता है।
20 से 23 दिसंबर के बीच ही सर्द संक्रांति शुरू हो जाती है, क्योंकि तभी से सूर्य उत्तरायण
यानी उत्तर दिशा की ओर जाने लगता है। यही वजह है कि विज्ञान के अनुसार 21 और 22
दिसंबर को साल का सबसे छोटा दिन कहा जाता है। इसके बाद से जब सूरज मकर राशि में
प्रवेश करता है तो दिन बड़े होने लग जाते हैं। यही वजह है कि असली उत्तरायण 21 दिसंबर को
होता है, जिसे मकर संक्रांति का असली दिन भी माना जाता है। लेकिन पृथ्वी के 23.45 डिग्री
मुड़ने की वजह से मकर संक्रांति को कुछ दिन बाद यानी 14 जनवरी को मनाया जाता है।

-- पुष्पेन्द़ कुमार पाण्डेय


12 जनवरी 2014

समय से संवाद

समय से संवाद ( कवि दिनकर के परिप़ेक्ष्य में )

कहां गांवों तक ईल फिल्मों का प्रदूषण, एमएमएस वगैरह पहुंच गये हैं. इस स्थिति में भी दिनकर के गांव में एक अलग माहौल है। इससे भी उल्लेखनीय बात कि अब इस आयोजन का नेतृत्व या कमान संभाल रहे हैं, युवा. मुचकुंद कुमार, राजेश कुमार जैसे अनेक युवा न सिर्फ आयोजन के प्राण हैं, बल्कि दिनकर उन्हें कंठस्थ है ।उनके जीवन में दिनकर रच-बस गये हैं या ये दिनकर में समा गये हैं, कहना मुश्किल । इन युवाओं की बौद्धिकता, प्रतिबद्धता और समर्पण, मन को प्रभावित करते हैं. ।

बेगूसराय की धरती बोलती है. जीवंतता, सृजन और ऊर्जा के संदर्भ मे ।
दिनकर की 105वीं जन्मतिथि के अवसर पर उनकी जन्मस्थली सिमरिया गांव, बेगूसराय (गांव की आबादी लगभग दस हजार) जाना हुआ । पूर्व सांसद शत्रुघ्न बाबू का आदेश था । पिछले साल भी. पर जाना इस साल हुआ ।संयोगवश बता दें कि शत्रुघ्न बाबू साम्यवादी हैं. पर मेरी नजर में गांधीवादी साम्यवादी हैं. एमएलसी रहे, एमपी रहे. बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ के अध्यक्ष हैं. लंबे समय से. पर इनका जीवन, दर्शन और आचरण शुद्ध गांधीवादी है ।इसी इलाके के रामजीवन बाबू भी हैं. समाजवादी पृष्ठभूमि के. बिहार सरकार में दो बार मंत्री रहे. एक बार सांसद भी. पर समाजवादी गांधीवादी । उसी तरह राजेंद्र राजन जी हैं, जिनके गांव गोदरगांवा भी जाना हुआ है.।  तीन बार विधायक रहे हैं. भाकपा से । खुद साहित्यकार हैं. गांव में राष्ट्रीय स्तर का पुस्तकालय है. नाम है, विप्लवी पुस्तकालय. देवी वैदेही सभागार है. शहीद भगत सिंह के जन्मदिन के अवसर पर भव्य आयोजन होता है. देश के जाने-माने लोग बोलने आते हैं. हर साल. इस गांव ने आजादी की लड़ाई में जो शानदार शिरकत की थी, उसे भी इस अवसर पर याद करते हैं. इस आशय या बड़े फलक पर आज भी बेगूसराय, बोलती धरती लगती है. फड़कती. बेचैन. बाजारवाद और भोगवाद की बाढ़ के बीच भी अपनी पहचान बनाये हुए.।


जाना हुआ था, दिनकर जयंती के अवसर पर आयोजित समारोह में. पर अनेक लोगों ने उसी सभागार में अपनी रचनाएं दीं. यह सृजन जीवंतता का बोध है. बहस, लेखन, सृजन, मिट्टी के उर्वर होने के प्रतीक हैं. दिनकर जयंती समारोह में ही संपादक डॉ अनिल पतंग ने अपनी पत्रिका रंग अभियान  दी. दीनानाथ सुमित्र ने गीत गजल संग्रह 2013 भेंट किया. प्रहरी  पत्रिका मिली. गूंज  पत्रिका मिली. शैलेंद्र झा ‘उन्मन’ की छह पुस्तिकाएं एक साथ मिलीं. सोई जनता जाग, दहेज को जला डालो, परिवर्तन, बदहाल व्यवस्था, आतंकवाद, बूढ़ा हिंदुस्तान. दिनकर स्मारिका (समर शेष है-3 , संपादक मुचकुंद कुमार, संपादन सहयोग : एस मनोज और राजेश कुमार सिंह) का भी लोकार्पण हुआ. यह टेलीविजन-मोबाइल युग. संचार क्रांति की ग्लोबल दुनिया. मनुष्य मशीन से चिपका है. पर बेगूसराय में सामाजिक संवाद है. बहुदलीय लोकतंत्र में बहुआयामी वैचारिक मंथन-विचार भी चाहिए. अखबारों की दुनिया भी पहले ‘दलों’ की तरह थी, अनेक अखबार. पर बड़ी पूंजी, विदेशी पूंजी, शेयर बाजार की पूंजी ने 1991 के बाद एक-एक कर छोटे अखबारों को मार दिया. देश भर में. सरकारों के सहयोग से. पेड न्यूज के बल. इसलिए अखबारों की दुनिया में पूंजीसंपन्न घराने ही रह जायेंगे, वहां प्रकाशनों की दुनिया सिमटेगी. बहुदलीय लोकतंत्र में बहुदलीय, बहुविचार वाले अनेक अखबार नहीं रहनेवाले. कुछेक पूंजीसंपन्न अखबार घराने ही बचेंगे. फिर क्या दृश्य होगा? सरकारी झूठ, समाज के ताकतवर-शासकवर्ग के छल, पूंजीवाले अपराधी नेताओं के असल चरित्र वगैरह की सौदेबाजी होगी ‘पेड न्यूज’ संस्कृति से. तब इसी तरह छोटी-छोटी पत्रिकाओं-पुस्तकों (जो बेगूसराय में मिलीं) से सच के स्वर जिंदा रहेंगे. इस तरह इस दौर में बेगूसराय में सृजन के बहुआयामी प्रयास देख कर अच्छा लगता है. दिनकर जी स्मृति में यह कार्यक्रम 23-24 सितंबर 2013 को उनके गांव सिमरिया में संपन्न हुआ. इसका आयोजन किया था, राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विकास समिति ने. आज कहां एक साथ इतनी रचनाओं के माध्यम से लोग बोलते, बतियाते, बहस या हस्तक्षेप करते हैं? यहीं मुझे धर्मयुग और रविवार के मेरे पाठक मिले. सबसे उल्लेखनीय बात है कि दिनकर के गांव, सिमरिया जाने के पहले हिंदी इलाके के गांवों के प्रति मन में एक गहरा क्षोभ था. हम अपने सरस्वतीपुत्रों को, सांस्कृतिक नायकों को, धरती प्रतिभाओं को न याद करते हैं, न आदर देते हैं. मन में बसा था कि वर्ष 2007 में जादुई यथार्थवाद के सबसे बड़े लेखक गैब्रिएल गार्सिया मार्केज कोलंबिया में अपने शहर एराकटाका लौटे, तो लोगों ने कैसे उमड़ कर उनका स्वागत किया. सैकड़ों लोग उनकी ट्रेन के साथ भागते हुए स्टेशन तक पहुंचे थे. अब सरकार कैसे उनके घर का जीर्णोद्धार करा रही है. वहां एक बड़े संग्रहालय की स्थापना करा रही है. इसी तरह शेक्सपियर का जन्मस्थल स्ट्रैटफर्ड अपॉन एवन स्मृति में उभरता है. किस आदर, श्रद्धा और सम्मान से अंगरेज सरकार ने उनकी स्मृति को सहेज कर रखा है? कैसे वह एक बड़ा पर्यटन स्थल है? पश्चिम में कैसे लोग अपने रचनाकारों की स्मृति को सम्मान के साथ सुरक्षित रखते हैं, ताकि आनेवाली पीढ़ियां, उनके विचार, जीवन-दर्शन और सृजन क्षमता से प्रेरित हो सकें. लगता था, खासतौर से हिंदी इलाकों में हम अपात्र लोग अपने सम्माननीय पुरखों को अपने हित में ही सम्मान देना नहीं जानते. पर, यहां आकर यह भ्रम टूटा. समारोह की चर्चा बाद में. पहले उसकी कुछ झलकियां. बरौनी, जीरो माइल पर स्थित दिनकर जी की आदमकद प्रतिमा पर माल्यार्पण के बाद, जुलूस चला. 10-12 किमी दूर उनके गांव की ओर. हरे-भरे पेड़-पौधों और गंगा के किनारे दूर बसे दिनकर जी के गांव. गांव के घरों पर दिनकर की लिखी ओजस्वी पंक्तियां. जीरो माइल पर लगी दिनकर प्रतिमा के नीचे खुदी दिनकर की पंक्तियां पढ़ता हूं. भोगवादी-बाजारवादी भौतिकता की दुनिया में उनकी ये पंक्तियां पढ़ कर सुख मिलता है.

‘भुवन की जीत मिटती है, भुवन में,

उसे क्या खोजना, गिर कर पतन में?

शरण केवल उजागर धर्म होगा,

सहारा अंत में सत्कर्म होगा.’ (रश्मिरथी)

‘रश्मिरथी’, या दिनकर की अन्य चीजें पढ़कर अब भी उदास मन संकल्प से भर जाता है. गांव के घरों की दीवारों पर दिनकर की पुरानी चीजें पढ़ कर अच्छा लगता है.।

‘तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं, गोत्र बतलाके,

पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना कर्तव्य दिखलाके.’

एक और दिवार पर ही लिखा पढ़ता हूं.

‘जुल्मी को जुल्मी कहने से जीभ जहां पर डरती है,

पौरुष होता क्षार वहां, दमघोट जवानी मरती है.’।

कहां गांवों तक ईल फिल्मों का प्रदूषण, एमएमएस वगैरह पहुंच गये हैं. इस स्थिति में भी दिनकर के गांव में एक अलग माहौल है. इससे भी उल्लेखनीय बात कि अब इस आयोजन का नेतृत्व या कमान संभाल रहे हैं, युवा. मुचकुंद कुमार, राजेश कुमार जैसे अनेक युवा न सिर्फ आयोजन के प्राण हैं, बल्कि दिनकर उन्हें कंठस्थ हैं. उनके जीवन में दिनकर रच-बस गये हैं या ये दिनकर में समा गये हैं, कहना मुश्किल. इन युवाओं की बौद्धिकता, प्रतिबद्धता और समर्पण, मन को प्रभावित करते हैं. आज जहां युवाओं के भटकाव, हाइटेक के प्रति उनके मोह और अलग जीवन दर्शन को लेकर चर्चा होती है, वहीं सिमरिया के युवा एक नयी राह दिखाते हैं. बिहार समेत देश के अधिसंख्य गांवों में अगर ऐसा माहौल बन जाये, तो भारत का नवनिर्माण कौन रोक सकता है? इस गांव में भी विवाद थे. हिंसक झगड़े थे. गुट थे. मनमुटाव था. इसे युवकों ने अपने पहल, प्रयास से पाटा. पर इससे भी उल्लेखनीय बात. कार्यक्रम में छह-सात घंटे तक लगातार हजारों लोगों का हाल में बैठना. भारी गर्मी के बावजूद. दिनकर जी को आस्था और श्रद्धा से याद करना, एक अलग अनुभव है. मंच पर चार वक्ता बैठे थे. अध्यक्ष रवींद्रनाथ जी, जाने-माने लेखक अब्दुल बिसमिल्लाह जी, लेखिका पूनम सिंह जी और साथ में हम. हमारे साथ ही थे दिनकर जी के सुपुत्र केदार बाबू, जिन्हें आमांत्रित कर ऊपर बुलाया गया. पर पूरे कार्यक्रम में शत्रुघ्न बाबू या राजेंद्र राजन जी नीचे भीड़ में ही बैठे रहे. आज विशिष्ट बनने की होड़ है. पर जो लोग अपने आचरण और कर्म से विशिष्टि हैं, वे खुद भीड़ में ही बैठे रहे. आज के भारतीय समाज के लिए यह स्तब्ध करनेवाली उत्साहवर्धक बात है. दिनकर जयंती का यह आयोजन तकरीबन तीस वर्षो से हो रहा है. पिछले 10-12 वर्षाे से इस कार्यक्रम में युवाओं की सक्रियता ने इसे नयी पहचान दी है.।

जीवन की शुरुआत बिहार से बाहर रह कर. तब बेगूसराय का नाम सुना. कामदेव सिंह के कारण. दशकों तक उनके साम्राज्य की चर्चा रही. उनके संरक्षण में चले तस्करी के दौर की भी. फिर कांग्रेस-कम्युनिस्ट वर्चस्व की लड़ाई में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के संदर्भ में भी बेगूसराय की चर्चा सुनता रहा. एक तरफ यह अपराध था, उजड्डता थी, तो दूसरी तरफ कम्युनिस्ट प्रश्रय से यहां विधवा विवाह का अभियान चला. जो सैकड़ों युवा मारे गये, उनकी विधवाओं के पुनर्विवाह का कार्यक्रम. समाजवादी भी इस अभियान के समर्थक रहे. पर सूत्रधार तो कम्युनिस्ट ही रहे. यही बीहट गांव के रामचरित्र बाबू हुए, जो श्रीकृष्ण सिंह के मंत्रिमंडल में सिंचाई और बिजली मंत्री थे. उनके पुत्र कामरेड चंद्रशेखर सिंह हुए. कांग्रेसी पिता के मशहूर कम्युनिस्ट पुत्र. पहली गैर कांग्रेसी सरकार में सिंचाई और बिजली मंत्री. जब हरिहर सिंह जी मुख्यमंत्री बने, तो यहां के जाने-माने कांग्रेसी नेता सरयू प्रसाद सिंह भी मंत्री रहे. आदर और सम्मान के साथ आज भी लोग इन्हें अपने इलाके में याद करते हैं. अनेक सांस्कृतिक संस्थाएं आज बेगूसराय में सक्रिय हैं. मशहूर आशीर्वाद रंगमंच है. पूरे वर्ष इनका कार्यक्रम चलता है. देश- दुनिया में यहां के खिलाड़ियों की चर्चा है. युवक-युवतियां वॉलीबॉल, कबड्डी में राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय पहचान रखते हैं. बेगूसराय की धरती पर ही सुना कि अनेक जमीन मालिकों ने समाज को बहुत कुछ दिया. एक धरतीसंपन्न व्यक्ति ने अपनी जमीन देकर बिहार का बड़ा आयुर्वेद कॉलेज यहां बनवाया. जीडी कॉलेज, कोऑपरेटिव कॉलेज, बरौनी कॉलेज भी दान से ही बने. जिन्होंने अच्छे काम किये, उन्हें गये दशकों हो गये, पर वे अब भी लोगों की स्मृति में आदर के केंद्र हैं. मसलन, आरएस शर्मा (अब मुख्य सचिव, झारखंड), जो बहुत पहले यहां कलकटर थे. उनके काम, रचनात्मक सहयोग को लेकर लोग सम्मान के साथ आज भी उन्हें याद करते हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा का जन्म भी बरौनी में हुआ था. मेरे युवा मित्र निराला इसलिए बार-बार कहते हैं कि बेगूसराय बिहार की सांस्कृतिक राजधानी है.।

कुछ पंक्तियां दिनकर स्मृति समारोह के संदर्भ में. बरसों से यहां हिंदी के बड़े नाम आते-बोलते रहे हैं. अपने विचार, व्याख्या और आलोचना से परिपूर्ण चिंतन से जनता से संवाद करते रहे हैं. पर जरूरत है, इससे भी आगे बढ़ने की. इतिहास, दर्शन और समाजशास्त्र के लोग भी ऐसे कवियों के समाजिक योगदान पर विचार करें. साहित्य या कविता को सिर्फ उस भाषा के पंडितों-ज्ञानवानों तक छोड़ना सही नहीं है. लय, ताल, गेयता, छंद, बाड़ और अलंकार की चौहद्दी से बहुत आगे के कवि हैं, दिनकर. वह जीवन के कवि हैं. संघर्ष की आवाज हैं. चेतना को नये धरातल पर ले जानेवाले रचनाकार, मानव-मुक्ति के चिंतक हैं. हिंदी में शायद दिनकर उन कुछेक कवियों में से एक हुए, जिन्होंने मनुष्य के विकास (इवोल्यूशन) को समझने की कोशिश की. वह रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, महर्षि अरविंद, रमण महर्षि, मुक्तानंद जी तक गये. मानव मुक्ति की तलाश में. कहा, ‘साबरमती, पांडिचेरी, तिरुवण्णमलई और दक्षिणोश्वर, ये मानवता के आगामी मूल्यपीठ होंगे. पंडित नेहरू और अन्य महापुरुष पुस्तकों में लिख गये, ‘राम, कृष्ण, सुकरात, ईसा, कबीर और गांधी, ये अपने जीवन में कामयाब नहीं हुए थे, मगर दुनिया को रोशनी उन्हीं के आदर्शो से मिल रही है?’

प्रतिकूल परिस्थितियों (जो आज है) में जीने की ताकत देनेवाले महाकवि के योगदान पर चौतरफा खुला विचार हो.।

-- हरिवंश ( प़भात ख़बर से साभार )
८ दिसम्बर २०१३ को प़काशित ।
अखिलेश शर्मा के सौजन्य से ।