5 नवंबर 2014

एक प्रवासी भारतीय का सपना






एक प्रवासी भारतीय का सपना

आजीविका, साहस, घूमन्तूपन नयी जमीन या पृथ्वी का दूसरा छोर ढूंढना,  मानव के अलग अलग जमीनों पर बसने  ओर सपने बुनने की कहानी नयी नहीं है। बहुत पहले एक प्रवासी भारतीय ने दक्षिण अफ्रीका में भारत की आजादी का सपना देखा और वह वकालत छोड कर पुनः देश लोट आया।  भारत को आजाद हुऐ सढसठ वर्ष हो चुके है। भारतीय आजीविका, बेहतर जीवन या बेहतर कार्यप्रणाली की तलाश में आज भी देश छोड़ कर जाते हैं वैसे ही जैसे गांधी गये थे किंतु परिस्थितियॉ अब बहुत अलग है। वे देश लोटे बिना ही देश के लिये काम करते हैं। 2013 में प्रवासी भारतीयों द्वारा किया गया निवेश 71 अरब डालर का था। भारत की आर्थिक व्यवस्था में अनिवासी भारतीय भी एक आधार स्तम्भ है चाहे वह दुबई के माल बनाने वाला मजदूर हो या सिलिकान वेली का पूंजीपति इंजीनियर।  वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मैं विदेश में रहकर भी "विदेशी" नहीं हूं।
सपने भी वक्त के साथ बदल जाते हैं। विदेशी भूमि पर आते ही अधिकतर भारतीयों को सबसे पहला विचार आता है हमारा देश भी ऐसा ही साफ सुथरा हो जाये। दिनभर मेहनत के बाद सबको रिजनेबल अच्छा खाना मिले। दिनप्रतिदिन की जिंदगी में आवश्यक सुविाधाऐं, बिजली, पानी, टेलिफोन, गैस के लिये दिनों चलने वाली किचकिच  न रहे। मेकडोन्ल, पित्जा, लेविइस का होना आर्थिक विकास का एक आयाम है। भारत में यह एक फैशन है जबकि पश्चिम में वह एक आम आदमी की जरूरत है। यहां पर आम की आदमी की जरूरत लाइब्रेरी भी है।


मेरे दादाजी सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, मध्यभारत में स्वास्थय मंत्री रहे डा प्रेमसिंह राठौड़ समाजसुधारक व चिंतक थे। उनके साथ रहते हुऐ मैंने कई दार्शनिकों व चिंतकों को पढ़ा। बचपन में उनकी कई किताबों में से दो किताबें The age of analysis  और History of philosophy में एमर्सन,  हेनरी डेविड थरो, बर्टडें रसेल, आदि को टुकडों टुकडों में पढकर, आधा पोना समझकर मेरे मन में हमेशा एक सपना पलता था उन लोगों के बारे में अधिक जानने का। अमेरिका में आते ही मेरा सपना साकार हुआ। छोटे से टेरीटाउन की लाइब्रेरी मुझे बहुत बडी लगी। वैसे ही जैसे किसी कुंऐ के मेंढ़क को तालाब बडा लगता है। यहां हर छोटे से टाउन में भी लाइब्रेरी होती है। पूरी काउंटी की लाईब्रेरी एक नेटवर्क से जुडी है और काउंटी में रहने वाला किसी अन्य टाउन में उपलब्ध उस किताब का आग्रह कर सकता जो उसकी लाइब्रेरी में न हो। वह किताब उसे टाउन की लाइब्रेरी में उपलब्ध करवायी जाती है क्योंकि पश्चिम में ज्ञान व शिक्षा ही विकास का आधारस्तम्भ माने जाते हैं। हमारे यहां भी बडे बडे माल बनने से पहले लाईब्रेरी बने। पुरानी लाइब्रेरी के जीर्ण शीर्ण भवन सुधारे जायें।


भारत में प्रचलित शिक्षा पद्धति में मुझे कभी यह अवसर नहीं मिला की साहित्य व दर्शन का  विश्लेषणात्मक अध्ययन कर सकूं। यहां की लाइब्रेरी व कालेज पद्धति ने मेरे लिये यह द्वार खोल दिया। पश्चिम की सबसे बडी विशेषता है कि जानने व सीखने में उम्र का कोई बंधन नहीं है। भारत में वयस्कों को इस तरह के कोई अवसर उपलब्ध नहीं है।   जब मैंने शेक्सपियर से संबधी कोर्स लिया मेरे साथ दो बुजुर्ग थे वे रिटायर होने के बाद शेक्सपियर पढ़कर उसका समालोचनात्मक व प्रतीकात्मक पहलू जानना समझना चाहते थे। मुझे लगता है भारत के कालेजों को भी साहित्य, दर्शन, गणित के कोर्स हर किसी के लिये खोल देना चाहिये।  मैंने यहां पर कम्यूनिटी कालेज में विविध प्रकार के कोर्स किये। मेरा एक सपना अभी बाकी है Critical thinking in philosophy करने का।


भारतवासी पश्चिम का अंधानुकरण न करके पश्चिम में जो सर्वोत्तम हो उसे अभिसात करें जैसे पश्चिम की राजनैतिक चेतना, महिलाओं के अधिकार, स्वयंसेवक कार्य, कानून का पालन आदि। आज मेरी पाश्चात्य नारी मित्र स्वयं को खुशनसीब समझती है कि उन्होने पश्चिम में जन्म लिया एशिया या अफ्रीका में नहीं। ये एक विचारणीय तथ्य है। वे आक्रमक लगती है क्योंकि वे अपनी स्वतंत्रता के लिये मुखर है। वे कहती है बहुत संघर्ष के बाद उन्होने समानाधिकार पाया है। भारतीय नारी स्वतंत्रता का वर्तमान रूप पश्चिम में नहीं है। भारत में कई बार ऐसा लगता है जैसे "फेमिनिज्म" को स्त्री और पुरूष  दोनों ही एक टेबू की तरह मानते हैं -पुरूष से नफरत या सेक्स की स्वछंदता।  यहां नारी स्वतंत्रता नहीं अब समानाधिकार की बात होती है। मैं कई बार सुनती हूं "वी आर हयुमन फर्स्ट।"


अमेरिका में हर चौथा व्यक्ति स्वयंसेवक है और औसतन पचास घंटे स्वयंसेवा का कार्य करता है चाहे वह लाइब्रेरी हो पार्क हो या स्कूल । मैं जब अमेरिका आयी थी तब मैंने न्यूयार्क टाइम्स में एक लेख पढ़ा कि किस तरह से अप्रवासी आते हैं इस देश की सुविधाओं का लाभ उठाते हैं किंतु वालेंटियर वर्क नहीं करते। मैंने उसी दिन से ठान लिया था कि मैं वो अप्रवासी नहीं बनूगीं। मैं बहुत ही सक्रियता से स्कूलों में वालेंटियर बनी। मुझे खुशी है लाफयेत जैसे श्वेतबहुल टाउन ने मुझे पूर्णता से अंगीकार किया। मैंने सीखा कि जब समुद्र पार कर ही लिया तो एक द्वीप में न खो जाउं।  यहां अधिकांश भारतीय आज भी अपने छोटे छोटे द्वीप बनाकर रहते हैं। उनके लिये समाजसेवा मंदिर या भूखों को खाना खिलाने तक ही सीमित है। मुझे लगता है भारत में भी स्वयंसेवा स्कूल से ही अनिवार्य कर दी जाये।


न जाने क्यो देश में ‘एन आर आई ’ सुनते ही लोग सोचते हैं सोने चांदी के कटोरे हीरे मोती जड़ी चम्मचें!  मैंने एफिल टावर पर बंगलादेशी और भारतीय बच्चों को एफिल टावर व अन्य चीजें बेचते देखा है। इटली में स्कार्फ बेचते हुऐ जिससे महिलायें चर्च जाने से पूर्व अपने कंधे ढंक ले। ऐसे बच्चें विश्व के हर विकसित देश में है। इन बच्चों के सपनों को कोई जमीन नहीं मिलती है। ये  बच्चें सपने देखते हैं भरपेट खाने और भौतिक सुविधाओं को हासिल करने के।
सपने बीज की तरह है जिन्हे पल्लवित होने के लिये जमीन, हवा, पानी, धूप,  सभी चाहिये। सपनों की जमीन शिक्षा और सही दिशा हवा, पानी, धूप है। रात के नौ बजे फरवरी की ठंडी रात में पेरिस में एफिल टावर के नीचे एफिल टावर बेचने वालें इन बच्चों के साथ मैंने थोडा सा ही समय  बिताया।  उन बच्चों  और मुम्बई रेलवे स्टेशन पर बूट पालिश के डिब्बे से उल्लू बनाने वाले बच्चों की चतुराई या धूर्तता में कोई फर्क नहीं था। ये बच्चें मुझे किसी प्याज की तरह लगते हैं। जिन पर काफी अंदर तक चतुराई, झूठ,  धूर्तता आदि की परतें होती है जैसे जैसे पर्त खुलती है वही तीखी गैस निकलती है जिससे आंखों में पानी आता है। विडंबना यह है कि उनकी लाचारी और गरीबी जो कि एक सच है उसे ये हथियार की तरह करूणा भुनाने के लिये प्रयोग में लाते हैं। वे नहीं जानते कि यह एक अंतहीन सडक है इस पर पूरी जिंदगी भीख के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। रोज पेट भरने और सुविधाओं के सपने हवामहल बनकर खत्म हो जायेंगे।


मेरा सपना यहीं है कि मेरे देश के बच्चे भिखारी बन कर  दर दर भटक कर करूणा को उपजाने में आत्मसम्मान और मानवता न खोये। वे गरिमा से जीवन जीने का सपना देखे। उन्हे शिक्षा की जमीन और दिशा का पूर्ण पोषण मिले। वे प्रवासी भिखारी भारतीय न बने।  दूसरे देश में रह कर शोषित होना बचपन पर दुहरी मार है। अधिकतर प्रवासी भारतीय बच्चों की मदद करना चाहते हैं किंतु वे भ्रष्टाचार के कारण भारतीय संस्थाओं पर विश्वास नहीं करते हैं। एनजीओ से संबंधी वे संस्थाऐं जो बच्चों के लिये का काम करती है उनके लिये कानून सख्त हो। वो संस्थाऐं ईमानदारी से काम करें। जिससे प्रवासी भारतीयों का विश्वास उनमें बढ़े। अभी हम लोग अपने घर के और आस पास के बच्चों की मदद करने की कोशिश करते हैं। मैं सोचती हूं  जितना हो सके वो ही सही।
भारत उस दहलीज पर है जहां वह पूर्व पश्चिम दोनों का सर्वोत्तम ग्रहण करके संस्कृति और सभ्यता दोनों में ही सर्वश्रेष्ठ  देश बन सकता है और मैं पूरब और पश्चिम के बीच का एक पुल ही तो हूं  चाहे कितना भी संकरा और छोटा क्यो न हो !
-- राज श्री
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 परिचय-


शिक्षा बी एस सी गणित व  एम ए इकानामिक्स तथा विश्व साहित्य‚ दर्शन व भाषा का तुलनात्मक अध्ययन। ग्राफिक्स डिजाइनर व फोटोग्राफर ।
राजकमल से प्रकाशित उपन्यास ‘पशुपति’ जो कि मानव के गुफा से निकल कर संस्कृति की स्थापना व विध्वंस पर लिखा गया है चर्चा में है। अभी "एक बुलबुले की कहानी’ फैंटेसी उपन्यास पर काम कर रही हूं। यह उपन्यास बच्चे से लेकर बूढे तक के लिये है।
कई पत्र पत्रिकाओं व विश्व के कहानी संकलनों में कहानियॉ व  कविताऐं प्रकाशित ।अदिती,  मैं बोनसाई नहीं‚  मुक्ति और नियती‚ नीचों की गली कहानियां विशेष रूप से चर्चा में।
गत कई वर्षो से लाफेयेत केलिफोर्निया में निवास।

संपर्क:


3291,Gloria Terrace. Lafayette CA 94549

Email: raghyee@gmail.com

( रचनाकार नामक ब्लाग से साभार ,
९ अक्तूबर २०१४ को प्रकाशित )


3 जून 2014

शब्दकोश विवाद

शब्दकोश विवाद

शब्दकोष विवाद को लेकर वर्धा हिंदी अंतर्राष्ट्रीय विश्वद्यालय के पूर्व कुलपति विभूति नारायण राय विवादों में है। वे पहले भी विवादों में रहे हैं। राय से हुई बातचीत के प्रमुख अंश -

जनसत्ता आपके ऊपर अक्सर मेहरबान रहा है। आपको लेकर कई विवादों पर उसमें लंबी लंबी चर्चाएँ हुईं हैं। आजकल भी वर्धा हिंदी शब्दकोश को लेकर एक विवाद पिछले कुछ हफ़्तों से चल रहा है। जनसत्ता के संपादक ने तो आपसे अपना पक्ष रखने की अपेक्षा भी की है। आप जनसत्ता में अपना पक्ष क्यों नहीं रखते?
(हंसते हुए) सही बात है कि जनसत्ता के साथ पिछले तीन चार वर्षों से मेरे रागात्मक संबंध रहे हैं। शब्दकोश वाला विवाद शायद तीसरा या चौथा विवाद है पर यह संबंध इकतरफा है। मैंने कभी ओम थानवी को गंभीरता से नहीं लिया। मेरे मित्र जानते हैं कि मुझे शुरू से ही विवादों में मजा आता है और मैं कभी लड़ाई में भागता नहीं…. जम कर लड़ता हूँ। पर मैंने आरम्भ से ही लड़ाई के कुछ उसूल बना रखें हैं। उनमें से एक यह है कि मैं शिखंडियों से कभी नहीं लड़ता……
(बीच में टोकते हुए ) आप यह कहना चाहते हैं कि ओम थानवी के पीछे कोई और है जो यह सब करवा रहा है……..कौन है वह?
 देखिये अभी मैं उस व्यक्ति का नाम नहीं लूंगा पर मैं इतना कहूंगा कि हिंदी जगत का एक कल्चरल इवेंट मैनेजर है जो पिछले कई दशकों से स्वयं को कवि मनवाना चाहता है पर हिंदी जगत है कि उसे कल्चरल जाकी से अधिक मानने के लिए तैयार नहीं है। मैं इस व्यक्ति का नाम तब लूंगा जब यह अपने शिखंडी के स्थान पर खुद मेरे सामने खड़ा होगा। इस भूतपूर्व नौकरशाह पर मूर्तियों की तस्करी से लेकर अपने बेटे के लिए सरकारी पद के दुरुपयोग तक के गंभीर आरोप हैं। एक बार वह खुल कर सामने आयेगा तब मैं इन आरोपों की फेहरिस्त भी जारी करूंगा। रही बात ओम थानवी की तो मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूँ कि मैं उन्हें औसत पत्रकार से अधिक कुछ नहीं समझता और उनसे किसी विवाद में उलझना समय की बरबादी मानता हूँ। ज्ञानपीठ वाले विवाद के बाद भी कई लेखक मित्रों ने यह सलाह दी थी कि हमें विवेक गोयनका को एक सामूहिक पत्र लिखकर यह शिकायत करनी चाहिए कि यह शख्स व्यक्तिगत कुंठा और दुर्भावना के तहत उनके अखबार का दुरुपयोग कर रहा है पर मैंने ही यह कह कर ऐसा न करने की सलाह दी थी कि हमें इस व्यक्ति को लेकर अपना समय बरबाद नहीं करना चाहिए। मुझे पता है कि भविष्य में भी मुझे लेकर ओम थानवी विवाद खड़े करते रहेंगे पर मैं उन्हें इस लायक नहीं समझता कि उन पर अपना समय जाया करूं। अत: अगले विवादों में भी उनसे नहीं उलझूंगा। जनसत्ता में अपना पक्ष न रखने का एक कारण यह भी है कि बदनीयती से चलाये गये अभियानों में ओम थानवी नें फोन कर कर लोगों से मेरे खिलाफ लिखवाया और बहुत से ऐसे लोगों को नही छापा जिन्होंने मेरे पक्ष में लिखा था। इस लिए वहां लिखने का मेरे मन में कभी कोई उत्साह नही रहा।
 हिंदी विश्वविद्यालय द्वारा जो शब्दकोश बनाया गया है उसके पीछे परिकल्पना क्या थी?

नागरी लिपि में लिखी जाने वाली खड़ी बोली को मानक हिंदी के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुए अभी सौ से कुछ ही अधिक वर्ष हुयें हैं। नई भाषा के सामने प्रारंभिक दौर में जो चुनौतियां आतीं हैं उनमें से एक मानक शब्दकोश का निर्माण भी है। हिंदी इस मामले में सौभाग्यशाली है कि उसे शुरुआत में ही अद्भुत मेधा, क्षमता और लगन वाले सेवी मिले। प्रारंभिक चरण में बने नागरी प्रचारिणी सभा, ज्ञानमंडल और इलाहाबाद साहित्य सम्मलेन जैसी संस्थाओं के शब्दकोश इस सन्दर्भ में बड़े सांस्थानिक उदाहरण हैं। बाद में कामिल बुल्के, हरदेव बाहरी तथा अन्य कई विद्वानों के व्यक्तिगत प्रयासों से भी महत्वपूर्ण शब्दकोश बने। पर इन सारे प्रयासों में एक कमी खटकती है। ये सारे शब्दकोश एक संस्करण वाले हैं। बाद में इन सबकी बीसियों आवृत्तियाँ छपीं पर यदि आप ध्यान से देखें तो आपको उनमें बहुत कम कुछ नया जुड़ा दिखाई देगा। वस्तुत: जिन प्रतियों पर चौथा, छठा या बीसवां संस्करण लिखा दिखाई भी दे आप मान सकते हैं कि यह उस कोश की चौथी, छठी या बीसवीं आवृत्ति होगी। इसके बरक्स यदि आप अंगरेजी में आक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज डिक्शनरियों की परंपरा देखें तो आप पायेंगे कि इनका हर संस्करण एक नई खबर बनता है। हर बार यह बताया जाता है कि इस नए संस्करण में कितने सौ शब्द किन-किन भाषाओं से आकर जुड़ें हैं। इन शब्दकोशों का हर संस्करण इस अर्थ में संशोधित/परिवर्धित होता है कि उनमें बहुत से नए शब्द जुड़ते हैं, बहुत से अप्रचलित या कम प्रचलित शब्द कोश से बाहर चले जातें हैं और नए संस्करणों में शब्दों के अर्थों में समय के साथ आये बदलावों को पकड़ने का प्रयास भी किया जाता है। अभी पिछले हफ्ते ही एक खबर सुर्ख़ियों में थी कि आक्सफोर्ड डिक्शनरी के ताज़ा संस्करण में नौ सौ से अधिक नए शब्द जुड़ें हैं और इनमें से अधिकतर शब्द एस.एम.एस.या इंटरनेट जैसे माध्यमों से आयें हैं। दुर्भाग्य से हमारे यहाँ ऐसा नहीं हुआ। वर्धा शब्दकोश की परिकल्पना के पीछे यही सोच काम कर रही थी। मैंने योजना बनायी थी कि मेरे वर्धा छोड़ने के पहले एक स्थायी शब्दकोश प्रकोष्ठ काम करने लगेगा जो न सिर्फ हिंदी-हिंदी शब्दकोश, हिंदी-अंगरेजी शब्दकोश, अंगरेजी-हिंदी शब्दकोश का निर्माण करेगा बल्कि हर दो तीन वर्ष बाद इनके संशोधित/परिवर्धित संस्करण भी तैयार करता रहेगा। मेरा लक्ष्य था कि अक्टूबर 2013 (जब मैं विश्वविद्यालय से रिटायर होने वाला था) तक वर्धा हिंदी शब्दकोश तथा उसका लघु संस्करण वर्धा छात्रोपयोगी हिंदी शब्दकोश बाजार में आ जाये। मुझे प्रसन्नता है कि मेरे विश्वविद्यालय छोड़ने तक वर्धा हिंदी शब्दकोश प्रकाशित हो गया। अब यह मेरे सुयोग्य उत्तराधिकारी को देखना है कि वे इस परियोजना को किस तरह आगे बढ़ाते हैं।
शब्दकोशों का निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है तथा उसमें भाषा शास्त्रियों तथा शब्दकोशकारों की उपस्थिति बहुत जरूरी है। आशा है आपने इसका ध्यान रखा होगा।
सही है शब्दकोश निर्माण में कोशकारों का बहुत महत्व है। हमने देश भर में एक दर्जन से अधिक भाषा वैज्ञानिकों और शब्दकोशकारों को इस परियोजना से जोड़ा था और वे समय समय पर इलाहाबाद तथा वर्धा में आयोजित बैठकों में शरीक होकर इस परियोजना के संबंध में महत्वपूर्ण सुझाव देते रहे। यदि मुझे यह ज्ञान होता कि ओम थानवी और कमल किशोर गोयनका तथा अवनिजेश अवस्थी महत्वपूर्ण भाषा वैज्ञानिक हैं तो मैं उन्हें भी इस परियोजना से जोड़ने का प्रयास करता। इस परियोजना से जुड़े विद्वानों ने ही तय किया था कि हम मानक वर्तनी का प्रयोग करेंगे और इसी लिए यह हिंदी का अकेला मानक वर्तनी वाला कोश है। आप इसे देखें …( फादर कामिल बुल्के का कोश दिखाते हुए ) इसमें मुखपृष्ठ पर हिन्दी लिखा है जबकि अंदर के पृष्ठों में हिंदी है। वर्तनी को लेकर हिंदी समाज अराजक है और वही अराजकता शब्दकोशों में भी है। इस शब्दकोश में आप वर्तनी में एकरूपता पायेंगे।
वर्धा हिंदी शब्दकोश के प्रारंभ में आपकी एक टिप्पणी है जिसमें आपने शब्दकोशों की राजनीति की बात की है। अपना आशय तनिक और स्पष्ट करेंगे……।
हाँ, यह एक बहुत दिलचस्प तथ्य है जिस पर मेरा ध्यान इस परियोजना से जुड़ने के बाद गया। शब्दकोशों के निर्माण में लगभग वही राजनीति काम कर रही थी जो तत्कालीन हिंदी समाज की थी। मसलन हम सभी जानते हैं कि जिस समय खड़ी बोली आधिकारिक हिंदी बनाने का प्रयास कर रही थी उस समय भारतेंदु जैसा विराट व्यक्ति भी यह मानता था कि खड़ी बोली में कविता नहीं लिखी जा सकती। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि उनका गद्य खड़ी बोली में तथा अधिकांश पद्य ब्रज भाषा में है। 1893 में नागरी प्रचारिणी सभा ने शब्दकोश पर पहली बार गंभीरता से विचार करना शुरू किया। अपनी पहली वार्षिक रिपोर्ट(1894) में नागरी प्रचारिणी सभा ने यह माना कि हिंदी गद्य का अर्थ खड़ी बोली में लिखा जाने वाला गद्य है और ब्रज तथा दूसरी बोलियों में लिखे गए पद्य से उसका कविता संसार बनता है। यद्यपि नागरी प्रचारिणी सभा के संस्थापकों में से एक श्यामसुन्दर दास तथा खड़ी बोली के जुझारू समर्थक अयोध्या प्रसाद खत्री मजबूती से खड़ी बोली में कविता लिखने की वकालत कर रहे थे, यह एक तथ्य है कि 1920 तक पाठ्यपुस्तकों में ब्रज तथा अवधी में लिखी कविताएँ ही पढ़ाई जाती थीं। खड़ी बोली समर्थक श्रीधर पाठक तथा ब्रज भाषा समर्थक राधा चरण गोस्वामी के बीच लंबा विवाद चला था जिसका उल्लेख स्थानाभाव के कारण करना सम्भव नही है पर हिंदी समाज की इस सोच का असर नागरी प्रचारिणी सभा के शब्दकोश (1922-1929 खंड के ) पर पड़ा और पूरा शब्द कोश ब्रज के शब्दों से भरा हुआ है। इनमें से ज्यादातर शब्द अब हमारी बोलचाल या लिखित भाषा में प्रयोग में नही आते। हमें उन्हें निकालना पड़ा। इस निर्णय के पहले विचार विमर्श के दौरान एक तर्क यह दिया गया कि शब्दकोशों में कम प्रचलित शब्द भी रहने चाहिए क्योंकि पुराने साहित्य के पाठक उनके अर्थ तलाशते हुए शब्दकोश उलट पुलट सकते हैं पर एक खंड के शब्दकोश की अपनी शब्द सीमा होती है और जब भाषा में नये आये हजारों शब्द कोश में सम्मिलित होने को बेकरार हों तो अप्रचलित या कम प्रचलित शब्दों को उनके लिए स्थान खाली करना ही पड़ेगा।
हिंदी भाषिक समाज की दूसरी बड़ी राजनीति भाषा के समावेशी चरित्र को लेकर है। हम जानते हैं कि खड़ी बोली हिन्दुओं और मुसलमानों की साझी परम्परा है। यह दुनिया की अकेली भाषा है जो दो लिपियों में लिखी जाती है और लिपियों के साथ इसका नाम बदल जाता है – फारसी लिपि में लिखी भाषा उर्दू तथा नागरी लिपि में लिखी हिंदी कहलाती है। हिन्दुओं और मुसलमानों के हजार साल के साथ ने कुछ अद्भुत चीजें मनुष्यता को दी हैं उदाहरण के लिए हम इनके सहअस्तित्व से उपजे संगीत, स्थापत्य, मूर्तिकला, वास्तुकला और पाकशास्त्र को ले सकते हैं पर यह भी सही है कि इन दोनों के आपसी सम्बन्धों का इतिहास रक्तरंजित संघर्षों का भी रहा है। जब बोली के रूप में एक साझी भाषा खड़ी बोली विकसित होने की प्रक्रिया में थी तो स्वाभाविक है कि दोनों धर्मावलंबियों के आपसी संबंधों का यह वैशिष्ट्य इसके विकास पर भी असर डालता। एक तरफ तो दोनों जीवन पद्धतियों को अभिव्यक्त करने वाले शब्द इस नयी भाषा में आ रहे थे और दूसरी तरफ इसे सांप्रदायिक चोला पहनाने की भी कोशिश हो रही थी। एक तरफ तो शाह हातिब के नेतृत्त्व में चलने वाला मतरूकात आन्दोलन था जिसका आग्रह था कि खड़ी बोली से भाखा के शब्द निकाल दिए जाय और उनकी जगह अरबी फारसी का इस्तेमाल हो। इसी तरह हिंदी में ऐसे उत्साहियों की कभी कमी नहीं रही जो मानते हैं कि संस्कृत हिंदी की जननी है और हिंदी से अरबी फारसी के शब्द निकाल दिए जाय। व्रज समर्थक राधा चरण गोस्वामी का खड़ी बोली में कविता लिखने के विरुद्ध एक तर्क यह भी देते थे कि इससे उर्दू मज़बूत होगी जबकि अयोध्या प्रसाद खत्री हिंदी वालों से खड़ी बोली में कविता लिखने को कहते थे और उर्दू शायरों को नागरी लिपि अपनाने की सलाह देते थे। छायावाद तक आप पायेंगे कि हिंदी के कविताओं में ठूंस-ठूंस कर क्लिष्ट संस्कृत शब्द भरे गए हैं। यह तो 1936 के बाद परवान चढ़े मजबूत प्रगतिशील आंदोलन से ही संभव हो पाया कि जनता के बीच बोली जाने वाली भाषा साहित्य की भाषा बन गयी। नागरी प्रचारिणी सभा, साहित्य सम्मेलन प्रयाग या ज्ञानमंडल के शब्दकोशों पर संस्कृत के प्रति आग्रह स्पष्ट दिखता है। डाक्टर रघुबीर जैसे लोगों के नेतृत्व में आजादी के बाद संस्कृत बोझिल हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रयास हुआ पर हमनें उसका हश्र देखा है। लोगो नें इस भाषा का इस्तेमाल लतीफे गढ़नें में अधिक किया। आज भारत सरकार के गृह मंत्रालय को, जो राजभाषा का प्रभारी मंत्रालय है, एक सरकुलर जारी कर कहना पड़ा है कि सरकारी कामकाज में जरूरत पड़ने पर मुश्किल हिंदी शब्दों के स्थान पर प्रचलित अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। हम अपनी फ़िल्में, मीडिया, बोलचाल – किसी को लें, हमें सैकड़ों ऐसे अंगरेजी के शब्द मिलेंगे जो सहज स्वाभाविक रूप से हमारी भाषा में घुल मिल गए हैं और अब हिंदी के शब्द बन गए हैं। यह हिंदी की कमजोरी नहीं बल्कि उसके समावेशी चरित्र का उदाहरण है जिसने इसके पहले अरबी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली और न जाने कितनी अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण किया है और अपने क्रियापदों से तालमेल बैठाकर उन्हें हिंदी का शब्द बना दिया है। विश्व की सभी बड़ी भाषाएं दूसरी भाषाओँ से आदान प्रदान करतीं हैं। खुद अंगरेजी के शब्दकोश में आधे से अधिक शब्द मूल रूप से उसके नहीं हैं। जो लोग इस शब्द कोश में अंगरेजी के शब्दों को लिए जाने का विरोध कर रहें हैं वे उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में प्रचलित हिंदुत्व की धारणा के अनुरूप काम कर रहे हैं जो उस समय अरबी,फारसी के शब्दों के प्रयोग का विरोध कर हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाना चाहती थी। वे पहले भी सफ़ल नहीं हुए और अब भी नहीं होंगे क्योकि वे भूल रहे हैं कि भाषा जनता बनाती है भाषाविद या शब्द्कोशकर नही।
-- प्रेम भारद्वाज
( हस्तक्षेप से साभार । २८ मई २०१४ को प्रकाशित )


23 मई 2014

रोचक तथ्य


रोचक तथ्य

1378 मेँ भारत से एक हिस्सा अलग हुआ, इस्लामिक
राष्ट्र बना - नाम है इरान!
1761 मेँ भारत से एक हिस्सा अलग हुआ, इस्लामिक
राष्ट्र बना - नाम है अफगानिस्तान!
1947 मेँ भारत से एक हिस्सा अलग हुआ, इस्लामिक
राष्ट्र बना - नाम है पाकिस्तान!
1971 मेँ भारत से एक हिस्सा अलग हुआ, इस्लामिक
राष्ट्र बना - नाम है बंगला देश
( आशीष सिंह के सौजन्य से )

अभी मित्र ‪#‎पंकज_मोहन‬ ने बताया कि जिसे हम ‪#‎सुनामी‬ कहते हैं, वह मूलतः जापानी भाषा का शब्द है, और वहां इसका उच्चारण ‪#‎चुनामी‬ है !
अभी अंगरेज़ी शब्दकोश देखा, तो जिस रूप में (tsunami), इसे वहां अपनाया गया है, इसका उच्चारण सुनामी ही है. पर वहां भी इसके जापानी मूल का उल्लेख है.
मौजूदा संदर्भों में चुनामी अधिक अर्थ-गर्भित लगता है ! चुनाव के माहौल में इसके अतिशय प्रयोग ने इसका अर्थ ही बदल दिया है ! डराने का काम भी किया है !‪#‎नामी‬ का मतलब लहर है, जापानी में ! तो चुनाव का आद्याक्षर इसके साथ जुड़ जाने से, वैसे भी, इसकी सांकेतिकता और बढ़ जाती है ! लक्षणा-व्यंजना, दोनों की दृष्टि से !
मोहन श्रोत्रिय
( जयपुर ,राजस्थान )

लेखक को लूटो !

"प्रकाशक जितनी रायल्टी लेखक को देते हैं उससे ज़्यादा कमीशन बुकसेलर को देते हैं । अगर लेखक को 15 परसेंट देते हैं तो बुक सेलर को ये 40 परसेंट कमीशन देते हैं । तो बुकसेलर और प्रकाशक मिलकर पाठक को लूटते हैं ।"
- रामविलास शर्मा ( लालित्य ललित के एक प्रश्न पर )
( जय प्रकाश मानस के सौजन्य से )


 डॉ.रामविलास शर्मा प्रकाशको की इन्हीं कारगुज़ारियों की वज़ह से अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अपनी कुछ महत्वपूर्ण किताबें दिल्ली विश्वविद्यालय के "हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय" को दे दिया था बिना किसी रॉयल्टी के. आज भी इन किताबों की किमत देखिए बड़ा सुकून लगता है. उन्होंने निदेशालय को साफ कह दिया था कि न मैं फायदा लूँगा न आपको फायदा लेना होगा. तब जाकर ये किताबें छपीं..
1. स्वाधीता संग्रामः बदलते परिप्रेक्ष्य
2. भारतीय नवजागर और युरुप
3. ऐतिहासिक भौतिकवाद...
आदि..
इसके मूल्य देखिए और बड़े प्रकाशकों मसलन राजकमल और वाणी से छपी किताबों के मूल्य..
--रवि रंजन

पन्त की आलोचना फ़िराक़ द्वारा

फिराक साहब हिन्दी की गजब आलोचना करते थे ,
अपने समकालीनों में एक निराला की कविता पसंद
करते थे . एक बार उनके सामने किसी ने पंत
की तारीफ की "बेहद अच्छे हिंदी कवि है पन्त !
आपने पढा है उनको ? " फिराक का जबाब था ,
पढ तो मैं उनको लेता बस जरा कोइ उनकी कविताओं
का अनुवाद हिंदी में कर देता तो "
एनी वे हैप्पी बड्डे पंत ! साहित्य में
गुटबाजी आपही की देन है ।

अवन्तिका सिंह
( नई दिल्ली )
( पन्त ने पल्लव की भूमिका में निराला की कटु आलोचना की थी । तो निराला ने पन्त की अच्छी
ख़बर ली । इस से कुछ लोगों को लगा होगा कि दोनों में गुटबाज़ी है । इस के बावजूद पन्त ने
निराला पर बड़ी मार्मिक कविता लिखी है। __सुधेश )

हिन्दी राजभाषा बनी

भारत के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक भारत के नए प्रधानमंत्री ने हिन्दी के माध्यम से जनता से संवाद किया है तथा सत्ता की कुर्सी हासिल की है। अब राजकाज की भाषा भी राजभाषा हिन्दी ही होनी चाहिए। अंग्रेजी के विद्वानों ने तथा अंग्रेजी के संदर्भ ग्रंथों ने यह गलत, मिथ्या एवं झूठी मान्यता प्रसारित कर दी है कि संविधान सभा ने एक मत से अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को राजभाषा बना दिया। यह सरासर गलत है। संविधान सभा में बहस का मुद्दा यह था कि राजभाषा हिन्दी हो अथवा हिन्दुस्तानी हो। एक मत की अधिकता से देवनागरी के अंकों के स्थान पर अन्तरराष्ट्रीय अंकों को स्वीकार किया गया। लोकतंत्र में राजभाषा राजा की भाषा नहीं होती अपितु वह सरकार और जनता के बीच संवाद की भाषा होती है।

-- महावीर शरण जैन
( बुलन्द शहर उ प्र )










6 मई 2014

उल्लेखनीय बातें

उल्लेखनीय  बातें

''कविता का जन्म कोरे सिद्धांतों या वैचारिक आदर्शों से नहीं वरन् कवि की वास्तविक सृजनात्मक अनुभूति से होता है । केवल सैद्धांतिक आधार या जीवन-दर्शन की कसौटी पर किसी कवि के रचना संसार को महत्वपूर्ण या प्रामाणिक ठहराना काव्य के मूलभूत रचनाशील पक्षों की उपेक्षा करना है । सैद्धांतिक आग्रहशीलता रचना को संकीर्ण, सपाट यथातथ्यवादी- और इसलिए अप्रामाणिक - बना देती है ।''
- प्रमोद वर्मा
जय प्रकाश मानस के सौजन्य से ।

आज भाई ज़हीर ललितपुरी जी Zaheer Lalitpuri ने "उर्दू " शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से होने के विषय में एक बड़ी ही अजीबोगरीब बात बताई। वे बता रहे है कि उन्होंने कहीं पढ़ा था कि उर का अर्थ ह्रदय और दो का अर्थ ह्रदय में रहने वाली है। मेरी जितनी भी थोड़ी सी जानकारी है, उसके आधार पर बताना चाहता हूँ कि संस्कृत मूलतः अवेस्ता से प्रत्यक्षतः जुडी भाषा थी, जिसका उद्गम स्थल वर्तमान मध्य एशिया ( प्री इस्लामिक ईरान और पकिस्तान तथा अन्य पड़ोसी देश) था न कि एशियाई उपमहाद्वीप विशेषकर भारत या इसके आसपास तो यह बाद में आई। भारतीयों को आर्यन कहा जाता है जो वास्तव में वर्तमान ईरान शब्द का ही पूर्वज शब्द है। वहीँ से संस्कृत की सहायक भारोपीय भाषा परिवार की भाषाएं विकसित हुईं। जहाँ तक उर्दू का प्रश्न है तो उर्दू तुर्की भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है सेना का शिविर। मान्यता भी यही है कि उर्दू भाषा की पैदाइश आगरा के मुग़ल फौजी शिविरों में हुई थी। तुर्की में सम्भव है कि यह उर्दू शब्द संस्कृत से आया हो। लेकिन उर्दू के संस्कृतनिष्ठ शाब्दिक अर्थ को शायद स्वीकार कर पाना मुश्किल होगा ।
-- पुनीत बिसारिया
( ललितपुर , उ प्र )

राष्ट्र का सेवक

प्रेमचंद

 राष्ट्र के सेवक ने कहा - देश की मुक्ति का एक ही उपाय है और वह है नीचों के साथ भाईचारे का सलूक,पतितों के साथ बराबरी का बर्ताव। दुनिया में सभी भाई हैं, कोई नीच नहीं, कोई ऊँच नहीं।
दुनिया ने जय-जयकार की - कितनी विशाल दृष्टि है, कितना भावुक हृदय!
उसकी सुंदर लड़की इंदिरा ने सुना और चिंता के सागर में डूब गई।
राष्ट्र के सेवक ने नीची जाति के नौजवान को गले लगाया।
दुनिया ने कहा - यह फरिश्ता है, पैगंबर है, राष्ट्र की नैया का खेवैया है।
इंदिरा ने देखा और उसका चेहरा चमकने लगा।
राष्ट्र का सेवक नीची जाति के नौजवान को मंदिर में ले गया, देवता के दर्शन कराए और कहा - हमारा देवता गरीबी में है, जिल्लत में है, पस्ती में है।
दुनिया ने कहा - कैसे शुद्ध अंतःकरण का आदमी है! कैसा ज्ञानी!
इंदिरा ने देखा और मुसकराई।
इंदिरा राष्ट्र के सेवक के पास जाकर बोली - श्रद्धेय पिताजी, मैं मोहन से ब्याह करना चाहती हूँ।
राष्ट्र के सेवक ने प्यार की नजरों से देखकर पूछा - मोहन कौन है?
इंदिरा ने उत्साह भरे स्वर में कहा - मोहन वही नौजवान है, जिसे आपने गले लगाया, जिसे आप मंदिर में ले गए, जो सच्चा, बहादुर और नेक है।
राष्ट्र के सेवक ने प्रलय की आँखों से उसकी ओर देखा और मुँह फेर लिया।
http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=3834&pageno=1
--रिषभदेव देव शर्मा के सौजन्य स ।

नालन्दा  (बिहार शरीफ) के पुस्तक मेले में जाने के बहाने नालंदा के खडहर को देखने का अवसर मिला,भगवान बुद्ध अक्सर यहाँ आया करते थे । इसी नालंदा महाविहार (विश्वविद्यालय) के कारण भारत विश्व गुरु कहलाता था. नालंदा (यानी न+अलम +द =नालंदा यानी अनंत दान देने वाला) में नागार्जुन और आर्यदेव जैसे महान शिक्षा शास्त्री अध्यापन करते थे, यही हुआ था 'शून्य' का आविष्कार। नालंदा के वैभव को बख्तियार खिलजी नामक हमलावर ने नष्ट करवा दिया था,तब अनेक दुर्लभ हस्तलिखित पांडुलिपिया राख हो गयी थी, दुःख की बात है कि हम लोग उस खँडहर को भी अब ठीक से सम्भाल नहीं पा रहे है , नीचे प्रस्तुत दो छाया चित्र देख कर आप समझ सकते है. नालंदा पर अलग से लेख लिखूंगा,।
- गिरीश पंकज
( रायपुर ,छत्तीसगढ़ )

''"हर धर्म की 'लिप सर्विस' (चापलूसी) करना 'धर्मनिरपेक्षता' नहीं है। 'धर्मनिरपेक्षता' का मतलब न तो हर धर्म की अंधभक्ति है और न ही 'नास्तिकता' । अब ऐसा समय आ गया है जब हर धार्मिक संप्रदाय को यह बताना ज़रूरी हो गया है कि ज़माना तेज़ी से बदल रहा है। तुम्हें भी बदलना चाहिए। आगे की ओर चलना चाहिए। अगर पुरानी इबारतों, पुरानी किताबों, पुरानी रूढ़ियों से चिपके रहोगे तो पीछे छूट जाओगे। हमारे सारे संचार माध्यमों का इस्तेमाल यही बताने के लिए होना चाहिए। मेरा तो कहना है कि टेलीविज़न में यह कभी नहीं दिखाना चाहिए कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री फलां मंदिर या फलां मस्ज़िद, फलां गुरुद्वारा या चर्च में गये और वहां शीश नवाया, प्रार्थना-पूजा की । अगर ऐसा दिखाया जाता है तो आडिटर (सालिसिटर) जनरल को इस पर कड़ा एतराज़ करना चाहिए ।अगर कोई अपनी निजी आस्था के कारण ऐसा करता है, तो करे लेकिन सरकारी वाहन, सरकारी सुरक्षा, राजकीय विशेषाधिकारों का इस्तेमाल न करे और न मीडिया को अपना प्रचार तंत्र बनाए । आज जिस तरह राजनीति का सांप्रदायिकीकरण हो गया है, उसमें ऐसी हरकतें विभिन्न समुदायों के बीच एकता की जगह उन्हें अलग-अलग बांट कर फूट डालती हैं।
किसी धर्म को सत्ता की कोई बैसाखी नहीं मिलनी चाहिए। संतों-पीरों ने कहा है कि धर्म और सत्ता का हमेशा से बैर रहा है । अब हमारे यहां ये कैसे धर्म पैदा हो गये हैं, जिनकी आंखें लगातार सत्ता की ओर लगी रहती हैं।
जो धर्म सत्ताओं का सहारा ले या सत्ता-लोलुप हो, वह अनैतिक है। उसको सत्ता में रहने का कोई हक़ नहीं है।''
---- पी.सी. जोशी, (जन्म ९ मार्च, १९२८, दिगोली, अल्मोड़ा - निधन : २ मार्च २०१४, नयी दिल्ली)
-- उदय प्रकाश
( अरुण देव के सौजन्य से )

कहा उन्होंने

 पाकिस्तान  में रेडियो में हारमोनियम इसलिए बंद करा दिया क्योंकि भारतीय फनकार इसमें माहिर थे । इसलिए ही बड़े गुलाम अली जैसे लोग भारत लौट आये ।
 मेरी बेटी का नाम वीरता और बेटे का कबीर है ।

- फहमीदा रियाज ( मशहूर साहित्यकार, पाकिस्तान ) कल रायपुर में
( जय प्रकाश मानस के सौजन्य से )


ख़ुश वन्त सिंंह का महत्त्व

जिन्होने ख़ुशवंत सिह का उपन्यास " ट्रेन टू पाकिस्तान" नहीं पढ़ा वे उनको जानने का दावा नहीं कर सकते और वे सिर्फ खुश्वंत सिंह के जीवन से जुड़े संदर्भो तको बिना गहराई में जाने, चटकारे लेकर उल्लेख करते समय अपनी कामुकता का ही परिचय देते हैं. " ट्रेन टू पाकिस्तान" त्याग, मानवीय सम्वेदनाओं और धर्म से ऊपर उठकर प्रेम के माध्य्म से हिन्दू- मुस्लिम समबंधों को ऊचाई प्रदान करनेवाला उपन्यास है. पत्रिकारिता और साहित्य के बल पर स्म्मांपूर्वक जीवन व्यतीत करना और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाना कोई छोटी उपलब्ढि नहीं है. ख़ुशवंत सिह ने अंग्रेज़ी पत्रिकारिता के माध्यम से समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में कालम् लिख कर सिर्फ हिंदी ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों और पत्रकारों को कालम लिखना सिखाया उसे रोचक ढंग से प्रस्तुत करना सिखाया और यह भी सिखाया कि कैसे समाचार पत्र में कम जगह में भी बड़े संदर्भ को पिरोया जा सकता है.
मित्रता की मर्यादाओं में स्त्री-पुरुष की मित्रता को उन्होनें अर्थ देने की कोशिश की जिसे लोगों ने अपने नज़रिए से देखा, जिन्हें सिवाय सेक्स के और कुछ नज़र ही नहीं आता और वे दूसरी और उन सम्मानित और प्रबुद्ध महिला पत्रकारों का भी अपमान करते हैं जो ख़ुशवंत सिह के आत्मीय और करीबी मित्रों में थीं. अगर वो खराब होते तो किसी महिला ने कभी तो आरोप लगाए होते उनपर. दिन भर राधे कृष्ण का जाप करनेवले लोग जब इतनी संकुचित दृष्टि से मानवीय सम्बंधों को कुत्सित रूप में बखान करते हैं तो अफसोस होता है.
भारतीय समाज का यही दोहरापन वर्त्मान में स्त्री समस्याओं की सबसे बड़ी जड़ है जो उसे मनुष्य समझने के स्थान पर उपभोग की वस्तु समझता है और उन पर सारी नैतिकताओं को ढोने की ज़िम्मेदारी डाल देता है.
ख़ुशवंत सिह के बाद भारत में कमलेश्वर शायद अकेले ऐसे हिंदी की साहित्यकार थे जिन्होने हिंदी पत्रिकारिता को नई ज़मीन देने की कोशिश की और उन्होनें हिंदी साहित्य को फिल्म और टेलीविज़न जैसे लोकप्रिय माधय्मों से भी जोड़ने की कोशिश की. अनय्था अपनी अपनी कैंचुली में सुरक्षित बैठे हिंदी के तमाम तथाकथित और एक समीक्षक द्वारा गढ़े गए बड़े साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य को पाठकों से हज़ारों कोस दूर कर दिया.
मैं ख़ुशवंत सिह को श्रंद्धाजलि देता हूँ अपने तमाम साहित्यकार मित्रों की ओर से.

अशोक रावत
( नोएडा , ग़ाज़ियाबाद ,उ प्र )





25 अप्रैल 2014

रोचक प्रसंग


रोचक प्रसंग

छत्तीसगढ़ का नामकरण ( फएस बुक के हवाले से )

छत्तीसगढ़ की प्राणदायिनी शिवनाथ नदी २९० किलोमीटर की लम्बी यात्रा कर महानदी में विलीन हो जाती है। प्राचीन काल में शिवनाथ नदी के एक ओर १८ गढ़ थे और दूसरी ओर भी १८, इस प्रकार इन दोनों को मिलाकर क्षेत्र का नाम पड़ा- छत्तीसगढ़। अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ कमाऊ पूत तो था लेकिन उसे खाने के लिए केवल दो मुट्ठी चाँवल मिलता था इसलिए वह पिछड़ेपन का दुख भोगते हुए तब तक सिसकता रहा जब तक कि सन 2000 में पृथक छत्तीसगढ़ नहीं बना। http://atmkatha.blogspot.in/p/blog-pag
-- द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

छत्तीस गढ़ में हो सकता है ' टेम्पा ' हो किन्तु मालवा उज्जैन में इसे 'टेपा' ही कहा जाता है । शायद (पक्का पता नहीं) इसे पं. शिव शर्मा जी ने प्रारम्भ किया था ।हर वर्ष 'टेपा-सम्मेलन' में देश के बड़े बड़े नेताओं, साहित्यकारों और अन्य बड़ी हस्तियों को आमंत्रित कर उन्हें - टेपा सम्राट' टेपाधिपती' और इसी प्रकार की अन्य उपाधियों से नवाज़ा जाता । यह कार्यक्रम पूरे देश में चर्चित होता था
--- ओम गिल

दुनिया को सदा ताज़ा रखना !

" अधिकांश भाव हमारे लिए पुराने होते हैं और हमारे मन का धर्म ही यह है कि पुरानी अभ्यस्त वस्तुओं के संपूर्ण सौंदर्य और रस के अनुभव करने की क्षमता हममें नहीं है, इसीलिए कोई कवि जब पुराने भावों के बीच भाषा, छंद और अभिव्यक्ति की नई भंगिमा के द्वारा हमारे मन को खींच ले जाता है, तब हम पुनः उन्हीं वस्तुओं के रस का आस्वादन नए रूप में करने लगते हैं । कवियों का मुख्य काम इस दुनिया को सदा ताज़ा रखना है ।"
- विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर
( जय प्रकाश मानस के सौजन्यसे )

Tejendra Sharma आप कहते हैं "उर्दू शायरी में जगह बनाने के लिये मुसलमान नाम या तख्ख़लुस ज़रूरी हो जाता था। .. " क्या 'फ़िराक़' नाम मुसलमानी है? क्या इसे आप यों नहीं देख सकते कि फ़िराक़ साहब उर्दू में लिखते थे, इसलिए उन्होंने उर्दू तख़ल्लुस (तख्ख़लुस नहीं) चुना। उनका पूरा नाम मैंने यह बताने को लिखा कि वे मुसलमान नहीं, हिन्दू थे और महान उर्दू शायर थे। यानी उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा नहीं है। प्रसंगवश बता दूँ कि फ़िराक़ साहब के पिता भी नामी शायर थे और वे गोरख प्रसाद 'इबरत' के नाम से ही जाने जाते हैं। शाहजहां के दरबार के पं चंद्र'बिरहमिन' से लेकर आगे विश्‍वेश्‍वर प्रसाद 'मुनव्‍वर' लखनवी, नौबतराय 'नजर', पं. दयाशंकर 'नसीम', त्रिलोकचंद 'महरूम', बालमुकुंद 'बेसब्र', पं. बृजनारायण 'चकबस्‍त', हरगोपाल 'तफ्ता' आदि खूब जाने-माने शायर रहे हैं जो हिन्दू थे और उर्दू अदब में उनका नाम था। … जाने-अनजाने आप वही खेल कर रहे हैं, जो भाजपा कर रही है। उर्दू में लिखते हुए कोई उसी भाषा का तख़ल्लुस चुने, इसमें गलत क्या है! फिर आप साहित्य की चर्चा में यह प्रसंग ले आते हैं कि "एक ज़माना था कि हिन्दी फ़िल्मों में मुसलमान मर्द और औरतें अपने नाम बदल कर फ़िल्मों में काम किया करते थे" … जब आप मानते हैं कि वह "अलग विषय" है तो उसका जिक्र यहाँ ले आने का सबब?
-- ओम थानवी
फेसबुक से साभार ।
८ अप्रैल २०१४ को प्रकाशित ।


महावीर स्वामी पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे थे। पेड़ पर आम लटक रहे
थे।
बच्चों ने आम तोड़ने के लिए पत्थर फेंके। कुछ पत्थर आम को लगे
और एक महावीर स्वामी को लगा।
बच्चों ने कहा - प्रभु! हमेंक्षमा करें, हमारे कारण आपको कष्ट हुआ
है।
प्रभु बोले - नहीं, मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ।
बच्चों ने पूछा - तो फिर आपकी आंखों में आंसू क्यों?
महावीर ने कहा - पेड़ को तुमने पत्थर मारा तो इसने तुम्हें मीठे फल
दिए, पर मुझे पत्थर मारा तो मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सका, इसलिए मैं
दुखी हूँ ।

साहित्य मन्त्र के सौजन्य से ।

भारत में आ गये?

निरालाजी एक बार किसी दूसरे नगर में अपने एक मित्र के यहाँ गए. उनके मित्र बड़े आदमी थे. वहां कई महीने रह गए. लौटने पर उनके कोई परिचित सज्जन सडक पर संयोग से मिल गए.उन्होंने नमस्कार के बाद कहा -"इधर कई महीनों से आप दिखाई नहीं दिए, क्या कहीं बाहर चले गए थे?" उन्होंने संक्षेप में "हाँ" कह दिया. तब उन सज्जन ने दूसरा प्रश्न किया, "कहाँ गए थे?" निराला जी ने गंभीर भाव से उत्तर दिया, "विलायत गया था."यह सुनकर उन सज्जन ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा -"विलायत? आपके विलायत जाने की बात तो किसीने बतलाई नहीं!" निराला जी ने व्याख्या करते हुए कहा -"वहां मैं गया था. वहां बढ़िया पक्की आलीशान कोठी थे. गद्देदार बड़े-बड़े पलंग थे, सोफे थे, गद्दीदार कुर्सियां थीं. फ्लश लेट्रिन थी. बिजली थी. बिजली का पंखा था. मोटर थी, फूलों का बाग़ थे. लाऊं थे. टेलेफोन था. लोग अधिकतर अंग्रेजी बोलते थे........और अब मैं यहाँ लौट आया हूँ. यहाँ खपरैल का मकान है. टूटी चारपाई है, ज़मीन पर बिछाने को चटाई है. रौशनी के लिए मिटटी के तेल की डिबरी है. खुड्डी वाला पाखाना है जो दुसरे-तीसरे दिन साफ़ किया जाता है. हाथ का ताड़ का पंखा है. यहाँ आने पर वह अनुभव होने लगा किअभी तक मैं विलायत में था और अब भारत में आ गया हूँ. इसीलिये मैंने आपसे कहा कि विलायत गया था.
साभार : मनोरंजक संस्मरण -श्रीनारायण चतुर्वेदी
(रमेश तेलंग के सौजन्य से )

आज प्रसिद्ध गद्यकार श्री शैलेश मटियानी की पुण्यतिथि है। उनका मूल नाम रमेशचंद्र सिंह मटियानी था। उन्होंने उपन्यास, कहानियों के साथ ही अनेक निबंध और संस्मरण भी लिखे हैं। उन्होंने 'विकल्प' और 'जनपक्ष' नामक दो पत्रिकाएँ निकाली। हमारी ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।
---भोला नाथ त्यागी के सौजन्य से ।

11 मार्च 2014

क्यों हि्न्दी भाषा नहीं पनप पा रही है इन्टरनेट पर ?

क्‍यों हिन्‍दी भाषा नहीं पनप पा रही है Internet पर?

1995 में Internet को आम लोगों के लिए Publicly Open किया गया और तब से लेकर आज तक लगभग 18 साल हो गए हैं इंटरनेट को विकास करते हुए। लेकिन Internet पर आज भी हिन्‍दी भाषा का अस्तित्‍व न के बराबर है।अंग्रेजी व चीनी भाषा के बाद दुनियां कि तीसरी सबसे ज्‍यादा बोली, समझी व लिखी जाने वाली हमारी भाषा ‘हिन्‍दी’, फिर भी अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष कर रही है।
सारी दुनियां में भारतीय मूल के लोग रहते हैं, लेकिन फिर भी Internet पर ‘हिन्‍दी’ अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष कर रही है।
दुनिया का दूसरा सबसे ज्‍यादा आबादी वाला हमारा देश भारत, फिर भी Internet पर ‘हिन्‍दी’ अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष कर रही है।
आखिर क्‍यों?
क्‍या भारतीय लोग भी हिन्‍दी भाषा पसन्‍द नहीं करते?
क्‍या भारत की राष्‍ट्रीय भाषा हिन्‍दी नहीं होनी चाहिए थी?
क्‍या हिन्‍दी किसी भी अन्‍य भाषा की तुलना में ज्‍यादा जटिल भाषा है?
क्‍या हिन्‍दी की तुलना में अंग्रेजी भाषा को लोग एक Status Symbol की तरह Use करते हैं?
सवाल कई हैं लेकिन जब तक हम इन सवालों का बेहतर तरीके से विश्‍लेषण नहीं करेंगे, तब तक हम हिन्‍दी भाषा के Internet अस्तित्‍व के बारे में उपयुक्‍त निर्णय नहीं ले सकते और इस बात को भी तय नहीं कर सकते कि क्‍या कभी हिन्‍दी भाषा Internet पर अपने अस्तित्‍व को बरकरार रख भी सकेगी या नहीं और कैसे हिन्‍दी को बढावा दिया जा सकता है ताकि ज्‍यादा से ज्‍यादा हिन्‍दी भाषी भारतीय लोग इस Internet जैसे दुनियां के सबसे बडे व उपयोगी सूचना तंत्र का उपयोग करते हुए अपनी जिन्‍दगी को ज्‍यादा बेहतर बना सकते हैं?हिन्‍दी भाषा के Internet अस्तित्‍व को लेकर मेरे अपने कुछ विचार हैं, जिन्‍हें में एक Article के माध्‍यम से रख रहा हूं और निश्चित रूप से आपके भी इस विषय में कुछ विचार होंगे, जिन्‍हें आप Comment के रूप में Discuss करेंगे, तो विषय में गंभीरता आएगी जो कि Internet पर हिन्‍दी के अस्तिव का भविष्‍य तय करने में उपयोगी साबित होगी।
चूंकि, मैं Programming and Development Field से सम्‍बंधित व्‍यक्ति हूं, इसलिए इस Article में मेरे द्वारा Discuss किए जाने वाले कारण काफी हद तक तकनीकी होंगे। लेकिन कुछ और कारण जरूर होंगे, जिन्‍हें आप भी Share करेंगे, तो बेहतर होगा।
पहला कारण
वास्‍तव में हिन्‍दी भाषा अब हिन्‍दी रह ही नहीं गई है बल्कि Hindi + English = Hinglish हो गई है। यानी हम भारतीयों द्वारा बोला, लिखा या पढा जाने वाला कोई भी वाक्‍य ऐसा नहीं होता, जिसमें अंग्रेजी का कोई भी शब्‍द न हो। वर्तमान समय में हम लोग शुद्ध हिन्‍दी बोलते ही नहीं हैं, क्‍योंकि शुद्ध हिन्‍दी बोलने व समझने से ज्‍यादा आसान होता है शुद्ध अंग्रेजी बोलना।
दूसरा कारण
Internet को पूरी तरह से English आधारित ही रखा गया है, क्‍योंकि अंग्रेजी एक ऐसी भाषा है, जो लगभग सभी देशों में समान रूप से बोली, लिखी व समझी जाती है, जबकि हिन्‍दी भाषा तो स्‍वयं हमारे देश में भी एक जैसी बोली, लिखी व समझी नहीं जाती।
कभी कहीं पढा था मैंने कि हमारे देश में भी हर 11 किलोमीटर पर बोली, लिखी व समझी जाने वाली Local भाषा बदल जाती है। ऐसे में किसी Standard की तरह Hindi Language को Internet पर अपना स्‍थान कैसे प्राप्‍त हो सकता है।
जबकि हम यदि Standard हिन्‍दी भाषा यानी हमारी राष्‍ट्रीय भाषा की बात करें, तो उसे भी पूरे भारत में समान रूप से उपयोग में नहीं लिया जाता। क्‍योंकि राष्‍ट्रीय भाषा की तुलना में स्‍थानीय भाषा को ज्‍यादा महत्‍व दिया जाता है और उससे भी ज्‍यादा महत्‍व दिया जाता है अंग्रेजी को क्‍योंकि अंग्रेज तो चले गए, लेकिन अंग्रेजी भाषा को भारतीय लोगों के खून में छोड गए हैं।
इसीलिए:
स्‍वयं भारतीय लोग भी हिन्‍दी भाषा को उतना पसन्‍द नहीं करते, जितना अंग्रेजी को पसन्‍द करते हैं। क्‍योंकि हिन्‍दी की तुलना में अंग्रेजी भाषा को लोग एक Status Symbol की तरह Use करते हैं। जो व्‍यक्ति अंग्रेजी बोलता, लिखता या पढता है, उसे हमारे देश के हिन्‍दी भाषी लोग ज्‍यादा समझदार व High Profile व्‍यक्ति समझते हैं।
तीसरा कारण
हिन्‍दी भाषा सीखना अंग्रेजी भाषा सीखने की तुलना में ज्‍यादा आसान है क्‍योंकि हिन्‍दी भाषा का विकास एक पूर्ण व्‍याकरणयुक्‍त वैज्ञानिक भाषा के रूप में किया गया था, जबकि अंग्रेजी भाषा का विकास मूल रूप से भावनाओं व विचारों का आसानी से लेनदेन हो सके, इस बात को ध्‍यान में रखते हुए किया गया था।
इसलिए अंग्रेजी भाषा सीखना किसी भी व्‍यक्ति के लिए हिन्‍दी भाषा सीखने की तुलना में ज्‍यादा आसान होता है। यही कारण है कि स्‍वयं हमारे देश में भी आधी से ज्‍यादा जनसंख्‍या तब तक हिन्‍दी भाषा का प्रयोग करते हुए बातचीत नहीं करते, जब तक कि उनकी Local Language या English से काम चल सकता हो।
साथ ही अंग्रेजी भाषी देशों ने लगभग दुनियां के हर देश पर राज किया है और हर देश में एक Standard Language की तरह अंग्रेजी भाषा को सैकडों सालों तक Directly या Indirectly Promote किया है। इसलिए अंग्रेजी का अस्तित्‍व लगभग सारी दुनियां में है जबकि हिन्‍दी का अस्तित्‍व तो स्‍वयं भारत में भी 100 प्रतिशत नहीं है।
चौथा कारण
उपरोक्‍त तीनों कारण मूल रूप से वस्‍तु, स्थिति व स्‍थान पर निर्भर हैं, जबकि इंटरनेट पर हिन्‍दी का अस्तित्‍व इसलिए न के बराबर है क्‍योंकि Internet को पूरी तरह से अंग्रेजी भाषी देशों ने विकसित किया है और अंग्रेजी एक International Language है। हालांकि इसे Develop करने वाले ज्‍यादातर लोग भारतीय ही रहे हैं, लेकिन भारत में इन्‍हें महत्‍व न मिलने की वजह से ये अन्‍य देशों में चले गए और वहां उन चीजों को विकसित किया, जिन्‍हें सारी दुनियां Use करती है और हम भारतीय लोग उन्‍हीं चीजों को Use करने के लिए पैसा खर्च करते हैं, जिन्‍हें हमारे ही देश के लोगों ने विकसित किया है।

शायद आप जानते हों कि Microsoft Company में दुनियां के सबसे ज्‍यादा Engineer भारतीय हैं। Google, Yahoo, PayPal, FaceBook आदि सभी कम्‍पनियों में ज्‍यादातर Engineer व Developer भारतीय हैं। NASA के ज्‍यादातर वैज्ञानिक व बडी-बडी Universities के ज्‍यादातर अध्‍यापक भारतीय हैं, जो उन Technologies को वहां विदेशी लेबल व विदेशी भाषा के साथ Develop करते हैं, जिन्‍हें भारत में Develop किया जा सकता था।
क्‍योंकि ये सारी Technologies विदेश यानी अंग्रेजी भाषी देशों में विकसित होती हैं, इसलिए निश्चित रूप से इन्‍हें International Language यानी अंग्रेजी में ही Develop किया गया है। अत: हिन्‍दी भाषा में यदि हम कोई Website या Blog बनाना चाहें, तो सबसे पहली परेशानी तो यही आती है कि हमें एक Standard Hindi Keyboard भी प्राप्‍त नहीं होता, जिसका प्रयोग करके हम हिन्‍दी भाषा में Content Create कर सकें।
और क्‍योंकि हम वर्तमान समय में हिन्‍दी नहीं बल्कि Hinglish समझते हैं, इसलिए हमें हमारे Hindi Content में भी जगह-जगह पर अंग्रेजी शब्‍दों का प्रयोग करना पडता है, ताकि हम हिन्‍दी भाषी भारतीय लोग भी उस हिन्‍दी Content को ठीक से समझ सकें। जबकि यदि हम अपने Content को शुद्ध हिन्‍दी भाषा में लिखेंगे तो शायद दुबारा पढते समय हम स्‍वयं अपने ही लिखे Content को ठीक से नहीं समझ पाऐंगे। ऐसे में वह व्‍यक्ति उस Content को कैसे समझेगा, जिसके लिए उसे लिखा गया है।
इसलिए इस Mixed Hinglish की वजह से एक ऐसा Standard Hindi Keyboard Develop करना भी मुश्किल है, जो समान समय पर Hindi व English दोनों भाषाओं में Typing करने की सुविधा देता हो।
इस परेशानी की वजह से हमें अपनी Hindi Website/Blog के लिए Content लिखने हेतु भी कई तर‍ह के Conversion करने पडते हैं, जिससे हमारे Content Develop करने की Speed काफी कम हो जाती है।
सरल शब्‍दों में कहूं तो अपनी Website http://www.bccfalna.com, जो कि एक ऐसी वेबसाईट है, जहां मैं हिन्‍दी भाषी भारतीय विद्यार्थियों की सुविधा के लिए हिन्‍दी भाषा में Programming व Development के बारे में बात करता हूं, पर एक Page का हिन्‍दी Article लिखने में मुझे अंग्रेजी भाषा में Article लिखने की तुलना में कम से कम तीन गुना ज्‍यादा समय लगता है, जबकि मैं स्‍वयं Computer Programming and Development Field से पिछले 12 सालों से जुडा हुआ हूं और प्रतिदिन कम से कम 10 से 12 घण्‍टे यही काम करता हूं।
जब मुझ जैसे पर्याप्‍त तकनीकी ज्ञान वाले व्‍यक्ति के लिए हिन्‍दी Content Develop करने में इतना समय लगता है, तो कम तकनीकी जानकारी वाला Blogger तो समझ ही नहीं पाता होगा कि वह हिन्‍दी भाषा में किस प्रकार से Blogging कर सकता है।
Hindi Website/Blogs के विकसित न हो पाने का एक बहुत ही महत्‍वपूर्ण कारण और है और वो कारण ये है कि हमारी Website/Blog पर ज्‍यादातर Targeted Traffic, Search Engines जैसे कि Google, Yahoo, Bing आदि से आता है और ये Search Engines उसी स्थिति में किसी Visitor को किसी Hindi Website/Blog की List Provide कर सकते हैं, जबकि वह Visitor इन Search Engines में हिन्‍दी भाषा में किसी शब्‍द को Search करे और हिन्‍दी भाषा का कोई Standard Keyboard न होने की वजह से कोई Visitor इन Search Engines में हिन्‍दी शब्‍दों का प्रयोग करते हुए Searching ही नहीं करता। ऐसे में हिन्‍दी भाषी Websites/Blogs पर इन Search Engines द्वारा जो Traffic आता है, वो भगवान भरोसे और By Mistake ही आता है।
यदि मैं मेरी ही Website की बात करूं, तो मेरी वेबसाईट पर 350 से ज्‍यादा Articles हैं, लेकिन सभी माध्‍यमों से मिलाकर भी प्रतिदिन 1000 से ज्‍यादा Pageviews नहीं होते। जबकि मैंने कई ऐसी English Websites देखी हैं, जिनमें 50 Page भी नहीं हैं, लेकिन उन पर प्रतिमाह 2 से 5 लाख तक का Pageviews हो जाता है।
कारण ये है कि भारतीय Visitor जब Google का प्रयोग किसी हिन्‍दी Website पर पहुंचने के लिए करते हैं, तो वे ‘हिन्‍दी’ शब्‍द को भी हिन्‍दी में नहीं लिखते।
यानी यदि किसी Visitor को Java Programming की जानकारी हिन्‍दी भाषा में चाहिए, तो वह Google में ‘जावा हिन्‍दी में’ Keyword लिखकर Search नहीं करते बल्कि “Java in Hindi” Keyword लिखकर Searching करते हैं। ऐसे में वे हिन्‍दी Websites/Blogs किस प्रकार से Google के Result Page पर Show होंगे, जिनमें इस Keyword का प्रयोग ही नहीं किया गया है।
हिन्‍दी भाषी Websites/Blogs के Internet पर ज्‍यादा समय तक जीवित न रह पाने की एक मुख्‍य वजह और है और वह वजह ये है कि हिन्‍दी भाषी Websites/Blogs बनाने वाले ज्‍यादातर व्‍यक्ति केवल शौख की वजह से Website/Blog बनाते हैं और जब उन्‍हें पता चलता है कि वे अपनी Website/Blog से कुछ Extra Earning भी कर सकते हैं, यानी वे अपने Blog/Website को Monetize भी कर सकते हैं, तब उन्‍हें अफसोस होता है कि उन्‍होंने हिन्‍दी भाषा में अपना Blog/Website क्‍यों बनाया।
क्‍योंकि किसी भी हिन्‍दी भाषी Blog/Website को कोई भी ढंग की कम्‍पनी जैसे कि Google, Yahoo आदि PPC Advertisement नहीं देती और हिन्‍दी भाषी Websites पर Ecommerce को भारतीय परिवेश में Setup करना एक टेढी खीर है। क्‍योंकि हमारे देश में यदि किसी Website/Blog पर किसी Product की Selling करने के लिए Payment Gateway लेना हो, तो Virtual Products की Selling के लिए भी एक Physical Registered Shop होना जरूरी है। बडा अजीब कानून है इस देश का।

मैं मेरी Website पर हिन्‍दी भाषा में लिखी गई मेरी EBooks Sell करता हूं और लोग मेरी EBooks को आसानी से खरीद सकें, इसके लिए मैंने अपनी Website हेतु Payment Gateway खरीदने के बारे में सोंचा।
लेकिन जब मैंने विभिन्‍न भारतीय Payment Gateways Providers से सम्‍पर्क किया, तो मुझे पता चला कि जब तक मेरी स्‍वयं की कोई Registered Shop या Firm नहीं होगी, जिस पर कोई Physical Product (धनियां, मिर्च आदि) न बेचा जाता हो, तब तक मैं अपनी Website के लिए Payment Gateway प्राप्‍त नहीं कर सकता।
अब समझ में ये बात नहीं आती कि अपनी EBooks को मैं धनियां के नाम से रजिस्‍टर करवाउं या मिर्च के नाम से, क्‍योंकि मेरी पुस्‍तकें न तो धनियां की तरह दिखाई देती हैं, न मिर्च की तरह तीखा स्‍वाद देती हैं। बल्कि ये तो एक ऐसा Product है, जो दिखाई ही नहीं देता लेकिन बिकता है।
इतना ही नहीं, PayPal नाम की एक कम्‍पनी की सुविधा Use करके मैं अपनी EBooks को Ecommerce के माध्‍यम से Sale करता था, जो कि केवल Commission के आधार पर अपना Payment Gateway उपलब्‍ध करवाता था, उसे भी RBI ने भारतीयों के लिए Ban कर दिया, जो कि भारतीय Online Promoters के लिए एक सबसे सस्‍ता Ecommerce Business Develop करने का साधन था और Free Available था।
सबसे बडी बात तो ये है कि इस PayPal के माध्‍यम से भारत में हर साल लाखों Dollars की Online Earning की जाती थी भारतीय Online Marketers द्वारा। RBI ने विदेशी Dollars के भारत में आने का रास्‍ता ही बन्‍द कर दिया 2011 में और ये भी एक बडा कारण रहा है 2012 व 2013 की भारत की आर्थिक मंदी का।

लेकिन जो बूढे बैठे हैं संसद में उन्‍हें आज की वर्तमान तकनीकें समझ में नहीं आती और वे आज भी शायद बैलगाडी में ही घुमाना चाहते हैं, इस देश को। इसीलिए न तो कोई सुविधा देते हैं, Technical लोगों को और न ही किसी और को ऐसी कोई सुविधा देने देते हैं।
इस दुनियां में केवल हमारे देश में ही सबसे ज्‍यादा कानून हैं और ऐसे कानून हैं, जो इस देश के विकास में बाधक हैं। इस देश के कानून तो सचमुच हमें परेशान करने के लिए ही बनाए जाते हैं। क्‍योंकि हर कानून भ्रष्‍टाचारियों को भ्रष्‍टाचार फैलाने का एक और माध्‍यम प्रदान कर देता है।

तो सारांश ये है कि जब तक हमारे देश की संसद में कुछ तकनीकी रूप से समझदार लोग नहीं पहुंचेंगे, तब तक छोटे भारतीय Online Marketers व E-Commerce Businessman अपना Online Business Establish नहीं कर सकते और जब तक छोटे लोग Internet तक नहीं चहुंचेंगे, तब तक भारतीय भाषा का Internet अस्तित्‍व खतरे में ही रहेगा।
क्‍योंकि एक Online Website/Blog का भी सालाना कुछ खर्चा होता है और उस खर्च को Maintain करने का केवल एक ही तरीका है कि अपनी Blog/Website से कुछ Side Income हो सके और कोई भी Online Advertising Company इन भारतीय Rules and Regulations के कारण हिन्‍दी भाषी Blog/Website को Ads नहीं देतीं, सामान्‍य भारतीय लोग अपनी Blog/Website के माध्‍यम से E-Commerce का प्रयोग करते हुए Online Selling नहीं कर सकते और बिना Online Income के कोई हिन्‍दी भाषी Blog/Website को आखिर कब तक अपनी कमाई से Support व Maintain करता रहेगा।

इसलिए जैसे ही लोगों को समझ में आता है कि Blog/Website से Online Earning हो सकती है और वो भी रूपए में नहीं बल्कि Dollars में, जो कि भारतीय रूपए से 60 गुना ज्‍यादा होता है, तो वह तुरन्‍त हिन्‍दी को छोडकर English Blog/Website के लिए मेहनत करने लगता है और जितनी मेहनत वह हिन्‍दी Blog/Website के लिए करता था, उसकी एक तिहाई मेहनत करते हुए भी वह कई गुना ज्‍यादा Online Earning करने लगता है।
मैं यदि मेरी ही बात करूं, तो वर्तमान में मेरी Website BccFalna.com से औसतन 20000 रूपए प्रतिमाह Earn करता है, जबकि मैंने कुल 350 से ज्‍यादा Articles लिखे हैं इस Website के लिए और लगभग 10,000 से ज्‍यादा पन्‍नों के रूप में 14 EBooks लिखी हैं। लेकिन अब अफसोस होता है कि यदि यही 350 Articles English में लिखे होते और 10000 Pages की 14 पुस्‍तकें English में लिखी होतीं, तो शायद लाखों कमा रहा होता।
क्‍योंकि English Websites Google Search Engine से बहुत सारा Targeted Search Traffic Send करता। मैं PayPal का Payment Gateway Use करते हुए International Payment Accept कर लेता अपनी Website से जबकि Indian Payments Accept करने के लिए तो यहां के बैलगाडी वाले तरीके हैं ही।
English Websites होने की वजह से मुझे किसी भी कम्‍पनी की Advertisement मिल जाती, जिसे अपनी Website पर Place करके में और Extra Side Income कर पाता। साथ ही हजारों तरह के Products की Advertising एक Affiliate के रूप में कर पाता। यानी बहुत बेहतर जिन्‍दगी होती, यदि मैंने हिन्‍दी की जगह अंग्रेजी को महत्‍व दिया होता।

ये मेरी राय हैं हिन्‍दी के Internet अस्तित्‍व व भविष्‍य के बारे में और मुझे लगता है कि हिन्‍दी को Internet पर अपना उपयुक्‍त स्‍थान प्राप्‍त करने में बहुत-बहुत-बहुत ज्‍यादा समय लगेगा। आपके क्‍या विचार हैं?
प्रस्तुतकर्ता
-- कुलदीप चन्द
  ( रूप चन्द्र शास्त्री मयंक के सौजन्य से )

27 फ़रवरी 2014

शब्दों के संदर्भ की महिमा

शब्दों के संदर्भ की महिमा

संदर्भ का जीवन में कितना महत्व है, यह जयपुर की एक घटना से सिद्ध होता है। जयपुर की एक धार्मिक सभा में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा ममता शर्मा के एक शब्द ने बवाल खड़ा कर दिया है। ममता ने कह दिया कि अंग्रेजी के ‘सेक्सी’ शब्द का मतलब लंपट या कामुक नहीं होता है। उसका मतलब होता है, सुंदर, आकर्षक, लुभावना! इसका गलत अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए।

ममता ने बिल्कुल सही कहा है। अमेरिका में इस शब्द का प्रयोग इन्हीं अर्थों में लोग अपनी पत्नी, बहन, सहेली और यहां तक कि माँ के लिए भी करते हैं। वहां इसका कोई बुरा नहीं मानता बल्कि बोलनेवाले और सुननेवाले खुश होते हैं। इसे भद्र-भाषा माना जाता है लेकिन भारत में इस शब्द का संदर्भ एक दम बदल जाता है। भारत में ‘सेक्स’ या ‘सेक्सी’ का अर्थ केवल एक ही है और वह इतना अभद्र माना जाता है कि लोग उसका प्रयोग करने से बचते हैं। पता नहीं क्यों, ममताजी इस शब्द की व्याख्या में उलझ गईं। बिना संदर्भ के भारतीय शब्द भी बड़े अनर्थकारी सिद्ध होते हैं। जैसे संस्कृत के सैंधव शब्द का अर्थ नमक और घोड़ा दोनों होते हैं। भोजन के समय सैंधव मांगने पर कोई घोड़ा खड़ा कर दे और युद्ध पर जाते हुए सैनिक को कोई नमक की पुड़िया पकड़ा दे तो क्या होगा? इसी प्रकार फारसी में उस्ताद का मतलब होता है – आचार्य, प्रोफेसर, विद्वान लेकिन हिंदी में उसका प्रयोग होता है, तिकड़मी, चालक और बदमाश के लिए भी! फारसी के ‘तुख्म’ शब्द को लेकर तो तलवारें चल सकती हैं। इसका अर्थ अंडा और वीर्य दोनों होते हैं। रूसी भाषा के ‘पूतिन’ शब्द के उच्चारण में आप ज़रा-सा फर्क कर दें तो ‘सीधा’, ‘गड्ढा’ बन जाता है। शब्दों और उनके प्रयोग की माया अपरंपार हैं।

---वेद प्रकाश वैदिक
( गुड़गाँव , हरियाणा )


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